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गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

वर्तमान की वह पगडंडी जो इस देहरी तक आती थी.....

युद्ध : बच्चे और माँ (कविता)

साहित्य अकादमी के वार्षिक राष्ट्रीय बहुभाषीकवि सम्मेलन की चर्चा मैंने अभी पिछली बार की थी। वहाँ काव्यपाठ में प्रस्तुत अपनी रचनाओं में से एक अभी बाँट रही हूँ।

२५ नव. की रात्रि में इसका पाठ करने से पूर्व मैंने अन्यभाषी श्रोताओं के लिए इसका सार अंग्रेजी में उपलब्ध कराते हुए कहा था कि बच्चे का आतंकवादी में रूपांतरण, आतंक और सृष्टि की निर्मात्री माँ के बीच दो विपरीत ध्रुवों को स्पष्ट करने के साथ साथ यह कविता रेखांकित करती है कि आतंक और युद्ध की स्थितियों की सर्वाधिक पीड़ा स्त्री भोगती है क्योंकि यह संसार उसका रचा हुआ है। तब क्या पता था कि अगले ही दिन २६ नव. को एक बड़ा हादसा भारत की धरती भी घटने की तैयारी कर चुका था। उन अर्थों में इस कविता को उन्नीकृष्णन की माता ( जिसे मैं भारत की वीर माता विद्यावती की प्रतीक मानती हूँ) के चरणों में समर्पित कर रही हूँ व प्रत्येक उस माँ के भी जिनके जाये आतंक या युद्ध का शिकार बने ।




युद्ध : बच्चे और माँ
- कविता वाचक्नवी





निर्मल जल के
बर्फ हुए आतंकी मुख पर
कुँठाओं की भूरी भूसी
लिपटा कर जो
गर्म रक्त मटिया देते हैं
वे,
मेरे आने वाले कल के
कलरव पर
घात लगाए बैठे हैं सब।



वर्तमान की वह पगडंडी
जो इस देहरी तक आती थी
धुर लाशों से अटी पड़ी है,
ओसारे में
मृत देहों पर घात लगाए
हिंसक कुत्तों की भी
भारी
भीड़ लगी है।



मैं पृथ्वी का
आने वाला कल सम्हालती
डटी हुई हूँ
नहीं गिरूँगी....
नहीं गिरूँगी....


पर इस अँधियारे में
ठोकर से बचने की भागदौड़ में
चौबारे पर जाकर
बच्चों को लाना है,
इन थोथे औ’ तुच्छ अहंकारी सर्पों के
फन की विषबाधा का भी
भय
तैर रहा है......।




कोई रोटी के कुछ टुकड़े
छितरा समझे
श्वासों को उसने
प्राणों का दान दिया है
और वहीं दूजा बैठा है
घात लगाए
महिलाओं, बच्चों की देहों को बटोरने

बेच सकेगा शायद जिन्हें
किसी सरहद पर
और खरीदेगा
बदले में
हत्याओं की खुली छूट, वह।



एक ओर विधवाएँ
कौरवदल की होंगी
एक ओर द्रौपदी
पुत्रहीना
सुलोचना
मंदोदरी रहेंगी..........।



किंतु आज तो
कृष्ण नहीं हैं
नहीं वाल्मीकि तापस हैं,
मैं वसुंधरा के भविष्य को
गर्भ लिए
बस, काँप रही हूँ
यहीं छिपी हूँ
विस्फोटों की भीषण थर्राहट से विचलित
भीत, जर्जरित देह उठाए।




त्रासद, व्याकुल बालपने की
उत्कंठा औ' नेह-लालसा
कुंठा बनकर
हिटलर या लादेन जनेगी
और रचेगी
ऐसी कोई खोह
कि जिसमें
हथियारों के युद्धक साथी को
लेकर
छिप
जाने कितना रक्त पिएगी।



असुरक्षित बचपन
मत दो
मेरे बच्चों को,
इन्हें फूल भाते हैं
लेने दो
खिलने दो,
रहने दो मिट्टी को उज्ज्वल
पाने दो सुगंध प्राणों को।



जाओ कृष्ण कहीं से लाओ
यहाँ उत्तरा तड़प रही है !!
वाल्मीकि !
सीता के गर्भ
भविष्य
पल रहा ।
अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ" (२००५) से


सोमवार, 15 सितंबर 2014

पीढ़ियाँ

पीढ़ियाँ


'नई दुनिया' (इन्दौर) के 7 सितम्बर 2014 के रविवासरीय 'तरंग' में प्रकाशित कविता, 'पीढ़ियाँ'



शनिवार, 1 मार्च 2014

राष्ट्रीय साहित्य अकादमी के बहुभाषी कवि सम्मेलन की एक पुरानी कतरन



Report of Sahitya Akademi's Multilingual Poets Meet / Times Of India (26 Jan. 2008

केंद्रीय 'साहित्य अकादमी' द्वारा 'सेंट्रल यूनिवर्सिटी, हैदराबाद'  में आयोजित बहुभाषी कवि सम्मेलन में हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व तीन लोगों ने किया था - स्व. वेणुगोपाल (नन्दकिशोर शर्मा), ऋषभ देव शर्मा व स्वयं मैं। 

उस अवसर की एक 6 वर्ष से अधिक पुरानी कतरन। चित्र पर क्लिक कर व फिर लेंस को + कर इसे स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। 

अथवा टाईम्स ऑफ इंडिया की साईट के इस लिंक पर पढ़ सकते हैं - 



शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

क्या पता था एक दिन तुम भी ......

!! कीकर !!    :     कविता वाचक्नवी
वसन्त और वैलेंटाईन दिवस की वेला में विशेष .....
© अपनी पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' (2005) से उद्धृत





बीनती हूँ
           कंकरी
औ’ बीनती हूँ
           झाड़ियाँ बस
नाम ले तूफान का
           तुम यह समझते।


थी कँटीली शाख
मेरे हाथ में जब,
एक तीखी
नोंक
उंगली में
गड़ी थी,
चुहचुहाती
बूँद कोई
फिसलती थी
पोर पर
तब
होंठ धर
तुम पी गए थे।



कोई आश्वासन
            नहीं था
प्रेम भी
            वह 
            क्या रहा होगा
            नहीं मैं जानती हूँ
था भला
मन को लगा
बस!
और कुछ भी
क्या कहूँ मैं।



फिर
न जाने कब
चुभन औ’ घाव खाई
सुगबुगाते
 दर्द की
वे दो हथेली
खोल मैंने
सामने कीं
         "चूम लो
          अच्छा लगेगा"
तुम चूम बैठे


घाव थे
सब अनदिखे वे
खोल कर
जो
सामने
मैंने किए थे
          और 
तेरे
चुम्बनों से
तृप्त
सकुचातीं हथेली
भींच ली थीं।


क्या पता था
एक दिन
तुम भी कहोगे
        अनदिखे सब घाव
        झूठी गाथ हैं
        औ’
        कंटकों को बीनने की
        वृत्ति लेकर
        दोषती
        तूफान को हूँ।



आज
आ-रोपित किया है
पेड़ कीकर का
मेरे
मन-मरुस्थल में
       जब तुम्हीं ने,
क्या भला -
अब चूम
चुभती लाल बूँदें
हर सकोगे
पोर की
पीड़ा हमारी?


बुधवार, 22 जनवरी 2014

समाचार व कतरनें

समाचार व कतरनें 

लोकस्वामी, वर्ष 2 अंक 13, नोएडा


'स्रवन्ति', दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद की मासिक पत्रिका 





दैनिक हिन्दी मिलाप, हैदराबाद


'शान्तिधर्मी', हिसार 




आर्य सन्देश (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा का मुखपत्र )




बुधवार, 21 अगस्त 2013

"पीर के कुछ बीज"

"पीर के कुछ बीज" : कविता वाचक्नवी


सोमवार 19 अगस्त के  'दैनिक जागरण' (राष्ट्रीय) के साहित्यिक परिशिष्ट "सप्तरंग : साहित्यिक पुनर्नवा" में मेरी एक लगभग 15 बरस पूर्व लिखी गई कविता "पीर के कुछ बीज" प्रकाशित हुई है, रोचक बात यह थी कि 18 की रात (भारत में तब 19 की भोर हुई ही होगी) से ही इस कविता पर पचासों साहित्यिक लोगों की प्रतिक्रिया फेसबुक के मेरे इनबॉक्स में आ चुकी थी । 

ईमेल से आने वाली प्रतिक्रियाओं का ताँता अभी भी लगा हुआ है। यह पहली बार है जब दूर-दराज के अनजान से अनजान व्यक्तियों तक से इतनी भारी मात्रा में किसी एक रचना पर लगातार सुखद प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। इस से दैनिक जागरण के प्रसार व पाठक-क्षमता का पता भी चलता है। समाचार पत्र के प्रति आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे रचना को यों जन-जन तक पहुँचाया।  



जो लोग ऑनलाईन अंक देखना चाहें वे यहाँ 19 अगस्त 2013 का ई-पेपर देख सकते हैं - 

http://epaper.jagran.com/homepage.aspx

कुछ प्रतिक्रियाएँ यहाँ देखी जा सकती हैं -https://www.facebook.com/kvachaknavee/posts/10151770927014523






शनिवार, 17 अगस्त 2013

जाने कब से दहक रहे हैं ......

जाने कब से दहक रहे हैं .... कविता वाचक्नवी


वर्ष 1998 में नागार्जुन की 'हमारा पगलवा' पढ़ते हुए एक अंश पर मन अटक गया था -

"बाप रे बाप, इस कदर भी 
किसी की नाक बजती है ... 
यह तीसरी रात है 
पलकों के कोए जाने कब से दहक रहे हैं 
मर गई मैं तो "

इस अंश की यह पंक्ति "पलकों के कोए जाने कब से दहक रहे हैं" मुझे पंजाबी के अमर कवि शिव कुमार बटालवी के प्रसिद्ध गीत (माए नी मैं इक शिकरा यार बनाया) के पास ले गई, जिसकी एक पंक्ति थी- 

"दुखन मेरे नैना दे कोए,
ते विच हड़ हंजुआँ दा आया

पंजाबी के कवि शिव 'नैनों के कोए दुखने' की बात करते हैं तो नागार्जुन 'पलकों के कोए दहकने' की बात करते हैं। अतः स्मरण स्वाभाविक था। दूसरी ओर "निराला की साहित्य साधना" में मुंशी नवजादिकलाल का निराला के सौंदर्य के एक प्रसंग में कथन आता है कि -

 "एक तो महाकवि बिहारीलाल की नायिका भौंहों से हँसती थी, दूसरे हमारे निराला जी भौंहों में हँसा करते हैं। बल्कि ये तो बिहारी की नायिका के भी कान कुतर चुके है। इनकी पलकें हँसती हैं, बरौनियाँ हँसती हैं, आँखों के कोए हँसते हैं, अजी इनकी नसें और मसें हँसती हैं। " 

कुल मिलाकर यह 'कोए' शब्द तीन तरह से मन में गड़ा हुआ था। तभी नागार्जुन की उपर्युक्त एक पंक्ति को आधार बना कर मैंने उस समय एक नया गीत रचा था (जिसे भाषा व साहित्यिक मासिक "पूर्णकुम्भ" ने 1998 /99 में प्रकाशित भी किया था)। अपने उस पुराने गीत की याद गत कई दिन से रह-रह कर आ रही है। 
वह गीत कुछ यों था - 

जाने कब से ....
- (कविता वाचक्नवी) 

जाने कब से दहक रहे हैं इन पलकों के कोए 
जाने कितनी रातें बीतीं जाने कब थे सोए 


द्रुमदल छायादार न उपजे मीठे अनुरागों के 
स्मृतियों के वन पर न बरसे अमृत कण भादों के 
अब बस केवल भार बना है तन मिट्ठी का ढेला 
आह ! आह को सींचा प्रतिक्षण पुष्कल आँसू बोए 

                             जाने कितनी रातें बीतीं जाने कब थे सोए 


(इसके आगे चार बन्ध और थे, जो फिलहाल स्मरण नहीं आ रहे हैं, जब कभी उस प्रकाशित प्रति की कतरन मिलगी या 15 बरस पुरानी अपनी कोई डायरी मिलेगी तो ही इसे पूरा यहाँ दे पाऊँगी, तब तक इतना ही )


रविवार, 4 अगस्त 2013

"भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता" : कविता और दिल्ली विश्वविद्यालय

"भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता" में कविता  : कविता वाचक्नवी



आज आधिकारिक रूप से यह सुखद सूचना आप सब से बाँट सकती हूँ कि - 

दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने नए पाठ्यक्रम में 'अनिवार्य हिन्दी' के 'आधार पाठ्यक्रम' की पुस्तक ("भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता") में मेरी कविता "जल" को सम्मिलित किया है। 

पुस्तक गत दिनों 26 जुलाई 2013 को​ जारी हुई ​व इसी सत्र से पढ़ाई जानी प्रारम्भ हुई है। इस सत्र से सभी विद्यार्थी 'अनिवार्य विषय हिन्दी​' की पुस्तक के रूप में इसे पढ़ेंगे। 


- ध्यातव्य है कि ​ वर्ष 2002 में​ एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा उनकी अन्यभाषा/ हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में भी कई वर्ष मेरी​ कविता सम्मिलित रही है व केंद्र सरकार द्वारा संचालित देश भर के विद्यालयों में पढ़ाई जाती रही है।

- साथ ही दिल्ली के पब्लिक स्कूलों के पाठ्यक्रम हेतु 'ओरियंट लाँगमैन' ने भी वर्ष 2003 में अपनी 'नवरंग रीडर' में मेरे दोहे सम्मिलित किए थे।

- इसके अतिरिक्त केरल राज्य की 7वीं व 8वीं की द्वितीय भाषा हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में भी वर्ष 2002 में ही ​मेरी बाल कविताएँ सम्मिलित की गई थीं।

- अब देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालय के मुख्य​ पाठ्यक्रम का हिस्सा​ होने का सौभाग्य मिला है, जो अत्यंत विरलों को संभव है। ​

.... तो इस प्रकार अब दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी रचनाकार के रूप में प्रसन्न होने का एक बड़ा कारण उपलब्ध करवा दिया है।


यह गौरव अपने माता-पिता, आचार्यों, शुभचिन्तकों, मित्रों व परिवार को समर्पित करती हूँ।


जल 
===

जल, जल है
पर जल का नाम
बदल जाता है।


हिम नग से
झरने
झरनों से नदियाँ
नदियों से सागर
तक चल कर
कितना भी आकाश उड़े
गिरे
बहे
सूखे
पर भेस बदल कर
रूप बदल कर
नाम बदल कर
पानी, पानी ही रहता है।

श्रम का सीकर
दु:ख का आँसू
हँसती आँखों में सपने, जल!


कितने जाल डाल मछुआरे
पानी से जीवन छीनेंगे ?
कितने सूरज लू बरसा कर
नदियों के तन-मन सोखेंगे ?
उन्हें स्वयम् ही
पिघले हिम के
जल-प्लावन में घिरना होगा
फिर-फिर जल के
घाट-घाट पर
ठाठ-बाट तज
तिरना होगा,


महाप्रलय में
एक नाम ही शेष रहेगा
जल …..
जल......
जल ही जल ।

===================================================

यह कविता मेरे काव्यसंकलन “मैं चल तो दूँ” (2005, सुमन प्रकाशन) में संकलित है।

सोमवार, 17 जून 2013

जीवन : Life : कविता वाचक्नवी

जीवन : कविता वाचक्नवी


जीवन तो
यों
स्वप्न नहीं है
आँख मुँदी औ’ खुली
चुक गया।


                     यह तपते अंगारों पर
                     नंगे पाँवों
                     हँस-हँस चलने 
                     बार-बार
                     प्रतिपल जलने का
                     नट-नर्तन है।


Life : by Kavita Vachaknavee

Translation : by Parul Rastogi

Life
Though
Not a dream
That
Washes away
With
Blink of eyes
But;
An act
To walk alone
On smouldering coals
Bare feet
Each second in deep pain
Still smile on curving lips
Life is nothing
But an acrobat's show....


रविवार, 16 जून 2013

तुम्हारे वरद-हस्त : ©-कविता वाचक्नवी

तुम्हारे वरद-हस्त ©-कविता वाचक्नवी 
पितृदिवस पर 15 बरस पुरानी एक कविता, अपने काव्यसंकलन "मैं चल तो दूँ" (2005) से 

पिताजी श्री इंद्रजित देव 










मेरे पिता !
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।
देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,
नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन

आज लगा...
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।
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रविवार, 19 मई 2013

स्मृतियों के द्वार पर मैं .....

स्मृतियों के द्वार पर मैं ..... : कविता वाचक्नवी



कुछ वर्ष मुझे भारत (हैदराबाद) में रहकर साहित्यिक व अत्यन्त वैचारिक हिन्दी गोष्ठियों में सक्रिय भागीदारी करने का खूब अवसर मिला है। हिन्दी साहित्य व भाषा सम्बन्धी गोष्ठियों की जितनी भरमार हैदराबाद में रही उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सैंकड़ों नहीं, हजारों अत्यन्त विचारोत्तेजक गोष्ठियाँ मानो वहाँ सामान्य जीवनचर्या का अंग बन गई थीं। उतनी सक्रियता व वैसी वैचारिकता मैंने हिन्दी क्षेत्र तक में नहीं देखी है, जिसका मैं अंग रही हूँ। यह बात अलग है कि हैदराबाद में भी अन्य नगरों की भाँति साहित्य का एक खास माफ़िया भी साथ साथ सक्रिय है और वर्ष 98 में शुरु शुरु में वहाँ पहुँचने पर दूसरे अनेक लोगों की भाँति मैं स्वयं उनके चकमे में आ गई थी। पर डेढ़ ही वर्ष बाद जैसे जैसे लोगों को उनके असली रंग पता चले तो सबने उनसे पल्ला झाड़ा, उस माफ़िया के चार पाँच लोगों के अतिरिक्त हैदराबाद के कम से कम डेढ़ सौ लोगों में से ऐसा कोई न होगा जो उनके कारनामों से परिचित न हो , भुक्त भोगी न हो और उनके साथ हो। उस माफ़िया के विवरण फिर कभी सही... 


फिलहाल तो यह कि जब से हैदराबाद के मेरे साहित्यिक मित्रों का संग छूटा जिसमें हम तीन का एक मुख्य गैंग था - ऋषभ देव जी, गोपाल शर्मा जी और मैं। इस गैंग में इजाफा हुआ चन्द्रमौलेश्वर जी के जुड़ने से। ... और ये वे दिन थे जब कई बरस हमने एक दम बाल-सखाओं की भाँति अति आत्मीयता, कोई दुराव नहीं, एक दूसरे के लिए जान तक दे सकने की भावना के साथ उन्मुक्त भाव व प्राईमरी के बच्चों जैसी निश्छल आत्मीयता के साथ बिताए ..... सड़क चलते लोग हमें ठहाके लगाते देख चौंक कर ठहर जाया करते थे और हम प्रतिदिन नियम से एक दूसरे से रात को सोने से पहल एक-एक घंटा फोन पर बतियाते थे या प्रति सप्ताह 3-4 घंटों की एक गप्प गोष्ठी किया करते थे जिसमें एक दूसरे की रचनाएँ सुनते सुनाते थे। हमारे परिवार तक हम लोगों के इस मित्रभाव से परिचित ही नहीं, परस्पर जुड़े भी थे...  मानो एक ही बृहद परिवार का हम चारों अंग थे। 


गोपाल शर्मा अङ्ग्रेज़ी के प्रोफेसर हो लीबिया चले गए, मैं ब्रिटेन आ गई और अति दुर्भाग्य से गत वर्ष चंद्र मौलेश्वर जी भी यकायक कैंसर की मार से हमें अकेला कर परलोकगामी हो गए..... उनके जाने का दर्द आज भी हर एक दिन उठ खड़ा होता है और अकेले में खूब रुलाया करता है, .... वह सम्बन्ध क्या व कैसा था इसे बताया समझाया भी नहीं जा सकता। शायद ही जीवन में किसी को ऐसे मित्र मिले होंगे जो किसी भी प्रकार के सहयोग के लिए दौड़ कर आ खड़े होते हों और बिना बताए दूसरे के लिए क्या से क्या कर जाते हों। 


पारिवारिक नातों में बदल चुकी यह साहित्यिक मित्रता मेरे ही नहीं, हम चारों के रचनाकर्म का स्रोत थी .... इतने सुखद दृश्यों की एक फिल्म है जो रोज मन के प्रोजेक्टर पर आवाज करती चला करती है पर पर्दे पर उसे दिखाया नहीं जा सकता। 


प्रख्यात भाषाविद् प्रोफेसर दिलीप सिंह जी से लेकर स्वतंत्रवार्ता के तत्कालीन संपादक राधेश्याम शुक्ला जी, द्वारका प्रसाद मायछ और अहिल्या जी व लक्ष्मीनारायण अग्रवाल जी तक इस बृहत् आत्मीय परिवार का कैसा हिस्सा थे, हैं, रहेंगे यह अनिर्वचनीय सुख की बातें हैं। कई बार लगातार लगता है मानो जड़ों से अलग होने का सन्त्रास भुगत रही हूँ ...लेखन का अजस्र स्रोत ही मुझ से छूट गया है। शायद अलग होने के उसी दिन से मेरी कविता मुझसे रूठ ही गई है। ऋषभ जी, गोपाल जी व मैं ... हम तीनों मानो अपना अपना निर्वासन भोगने को अभिशप्त हों .... क्योंकि परस्पर रचनात्मक पूरक भी हैं। कई बार ये पंक्तियाँ मन आती हैं ... कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन .... ।


आज एक काव्य गोष्ठी में औपचारिक उपस्थिति लगाई तो मन अपने मित्रों के पास तब से भटक रहा है । उस जीवन्तता, प्रेम , आत्मीयता, निश्छलता व भरपूर रचनात्मकता का कोई जोड़ नहीं हो सकता। वह किसी दूसरे युग की बात हो गई लगती हैं... वैसे सच्चे निश्छल आत्मीय मित्र जीवन में कभी न मिलेंगे व इसीलिए न वैसी साहित्यिक गोष्ठियाँ ! हर बार और रीतते चले जाने का क्रम है ! सुख मुट्ठी से छिटक गया है ! 

“Tears, idle tears, I know not what they mean, 
Tears from the depths of some devine despair
Rise in the heart, and gather to the eyes, 
In looking on the happy autumn fields, 
And thinking of the days that are no more.” 
― Alfred Tennyson


मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

देह पीड़ा से भले लहरी नहीं ... : कविता वाचक्नवी

देह पीड़ा से भले लहरी नहीं .......  :  कविता वाचक्नवी



वर्ष 2003 के आसपास लिखी अपनी एक ग़ज़ल को अपने ही स्वर में 'डेनमार्क' के रेडियो सबरंग के लिए वर्ष 2008 में चाँद शुक्ला जी के आदेश व माँग पर सस्वर रेकॉर्ड करवाया था। 


यों तो यह गजल उनकी साईट पर मेरी कई अन्य कविताओं के काव्यपाठ सहित वहाँ गत 4-5 वर्ष से उपलब्ध है और वागर्थ हिन्दी-भारत आदि पर साईडबार में भी; किन्तु लिखित पाठ के साथ पहली बार यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। 

सस्वर पाठ इस लिंक को क्लिक कर सुना जा सकता है -



     देह पीड़ा से .....
 - कविता वाचक्नवी

देह पीड़ा से भले लहरी नहीं 
नाग से तो प्रीत कम ज़हरी नहीं 

राज-मुद्रा ने तपोवन को छला 
जबकि मर्यादा रही प्रहरी नहीं 

मैं उठाए बाँह बटिया पर पड़ी 
जिंदगी मेरे लिए ठहरी नहीं 

डूब पाती मैं भला कैसे यहाँ 
झील तो दिल से अधिक गहरी नहीं 

गाँव, घर, द्वारे इसे प्यारे लगें 
आज भी 'कविता' हुई शहरी नहीं 


सोमवार, 14 जनवरी 2013

साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' का दिसंबर अंक व मेरी 3 कविताएँ

साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' का दिसंबर अंक व मेरी 3 कविताएँ  :  कविता वाचक्नवी



'भारतीय भाषा परिषद'  कोलकाता की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' के  दिसंबर 2012  अंक में मेरी तीन कविताएँ क्रमशः 'राख' , 'व्रतबंध'  व 'औरतें डरती हैं'   प्रकाशित हुई हैं। पत्रिका परिवार व संपादक के प्रति कृतज्ञ हूँ।

 इस बीच जिन अनेकानेक लोगों ने ईमेल से व भारत से यहाँ फोन करके कविताओं पर अपनी-अपनी शुभकामनाएँ व प्रतिक्रियाएँ दी हैं, उन सब के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ। 

यद्यपि 'व्रतबंध' शीर्षक कविता के अंत में कुछ शब्द बदल दिए गए हैं । इस त्रुटि के चलते कविता का सांस्कृतिक अर्थ व रूपक छिन्न-भिन्न हो गया है। इस कविता की मूल पंक्तियाँ हैं - 


मैं आँखें टिका

दो आँसुओं से
हस्त-प्रक्षालन करवा दूँ।

(कृपया उक्त कविता की पंक्तियों को इसी रूप में पढ़ें) 

पत्रिका के ध्यान में लाने पर अब वे 'वागर्थ'  के आगामी अंक (फरवरी) में इस त्रुटि पर पाठकों का ध्यान दिलाएँगे, ऐसी सूचना मिली है। अस्तु !

 नीचे उक्त अंक के वे पन्ने सम्हाल सहेज रही हूँ । पन्नों पर क्लिक कर बड़े आकार में पढ़ा जा सकता है। 











अपडेट फरवरी 2013

मूल कविता के एक शब्द को बदल कर प्रकाशित किए जाने पर आपत्ति करते हुए  'वागर्थ' को भेजा पत्र उनके अंक फरवरी 2013 में प्रकाशित हुआ -




सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

"मैं चल तो दूँ" : 'भाषा' : मूल व अनुवाद सहित सस्वर पाठ

"मैं चल तो दूँ" : 'भाषा' :  मूल व अनुवाद सहित सस्वर पाठ
- कविता वाचक्नवी


"भाषा" (केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, भारत सरकार की हिन्दी पत्रिका ) के नवम्बर-दिसंबर 2011 अंक में मेरी एक कविता "मैं चल तो दूँ" मूल हिन्दी व नेपाली अनुवाद (बैद्यनाथ उपाध्याय द्वारा किए गए ) के साथ प्रकाशित हुई थी । 

 सुखद यह है कि "भाषा" और केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की इस पत्रिका में संयोग से वर्ष 2007 से निरन्तर थोड़े-थोड़े अंतराल में मेरी कविताएँ व उनके अनुवाद प्रकाशित होते चले आ रहे हैं, जिसका शत-प्रतिशत श्रेय कविताओं के अनुवादकों को ही जाता है। अन्यथा मुझे तो यकायक सूचना मिलने पर ही पता चल पाता है कि किसी अंक में कोई रचना व अनुवाद प्रकाशित हो रहे है। बस, विदेश में होने के कारण बहुधा स्कैन प्रति तक न देख पाने का मलाल बना रह जाता है.... जब तक कि कोई सहृदय मित्र बढ़िया स्कैन कर के न भेज दें। 

भाषा के उक्त अंक के अंक के मुखपृष्ठ तथा मूल व अनूदित पाठ के पन्नों की स्कैनप्रति उपलब्ध करवाने का आग्रह मैंने फेसबुक पर किया तो वरिष्ठ रचनाकार कवि सुधेश जी ने दिल्ली से उन पन्नों को स्कैन कर के मुझे गत दिनों उपलब्ध करवा दिया। उनके इस सौजन्य के लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ।


जो मित्र इस कविता का सस्वर पाठ भी सुनना चाहें वे -
  • - इस ब्लॉग के साईडबार में `तृणतुल्य मैं" विजेट में देखें 
  • - डेनमार्क के रेडियो सबरंग की साईट पर `कलामे शायर' अथवा `Poet Recites' पर जाकर सूची को स्क्रॉल कर मेरे नाम के साथ सहेजे संकलन में इसे सुन सकते हैं
  • - अथवा सीधे इस लिंक को क्लिक करें - मैं चल तो दूँ (सस्वर पाठ) 


बड़े आकार में पढ़ने के लिए अलग अलग चित्र पर क्लिक करें - 
  •  





शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

`कविता' के बहाने



वर्ष 1995 /1996 की अवधि में एक बहुत लंबी, गेय व छंदोबद्ध कविता लिखी थी, जिसमें लगभग 50 पद हैं। उसे कभी एक साहित्यिक पत्रिका "पूर्णकुम्भ" (वस्तुतः साहित्यिक जर्नल) ने 1998/1999 में अपने चार बड़े पन्नों पर बहुत स्नेह से प्रकाशित किया था। 


उस कविता का शैली-वैज्ञानिक प्रविधि से विखंडन करने वाले आलोचक / पाठक स्पष्ट देख सकते हैं कि उसमें हिन्दी कविता की अंतर्यात्रा (आदि से लेकर तत्कालीन तक) व इतिहास को समेटने का यत्न तथा क्रमशः गेयता व छंद की समाप्ति को विषय बनाया गया है। उस कविता का शीर्षक था / है  - "कविता की आत्मकथा"। 


संयोग से अपना नाम भी कविता होने के कारण वह प्रकाशित कविता मेरे पास तब से फाईल में बंद पड़ी है; क्योंकि कुछ लोग मेरा नाम कविता होने के कारण उसे मेरी आत्मकथा समझने के कयास लगाते रहे। यह दंड उस कविता को भोगना पड़ेगा, इस चिंता से कभी उस कविता को फिर जगजाहिर ही नहीं किया। 


अब जब मेरी किसी कविता (मेरे चित्र के साथ प्रकाशित) पर कुछ लोगों की असपष्ट-सी या मात्र वाह-वाह नुमा टिप्पणी आती हैं तो यही स्थिति होती है। 


रचना पर टिप्पणी करते समय लोग रचना पर ही केन्द्रित क्यों नहीं रहते ? क्यों रचनाकार की (या चित्र की ) प्रशंसा करने में जुट जाते हैं ?


क्या मेरी कविताओं को मेरे नाम का ऐसा खामियाजा भोगना उचित है? अपनी एक महत्वपूर्ण कविता तो इसी चक्कर में बंद कर पहले सहेज ही दी है। अपने मित्रों से, मुझे इस दुविधा में न डालने का, आग्रह करती हूँ।

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  • Pankaj Mishra pranam mam...
    14 hours ago · Unlike · 1
  • Anirudh Umat ji sahi kaha aapne.

    ye hamare alpvayask man or buddhi ka parichayak h. hum ab bhi kalaa 
    me bahut roodhivadi h.

    14 hours ago via mobile · Unlike · 1
  • DrKavita Vachaknavee Anirudh Umat जी,  सही कहा। महिलाओं के संदर्भ में
     तो स्थिति और भी दूभर हो जाती है कई बार।

    14 hours ago · Like · 1
  • Chandra Gurung रचना पर टिप्पणी करते समय लोग रचना पर ही 
    केन्द्रित क्यों नहीं रहते ? क्यों रचनाकार की (या चित्र की ) प्रशंसा करने में जुट जाते हैं ?

    specially, it is true in case of lady writers...

    14 hours ago · Unlike · 2
  • Deepak Kumar Misra जारी है---------------------------लव जिहाद के खिलाफ एक अभियान------------------------------------पसलियों को तोड़ के भर दिया प्यार मीठा मीठा / बेगम को मिल 
    गया काफिर अपने मिजाज का.
    14 hours ago · Unlike · 2
  • Anirudh Umat kayee baar? aap lihaaj kar rahi h kavitaji.

    mera to manna h ki aqsar hi bahut nimn star samne aata h. hamare bheetr ka 
    mail or kuntha koi aadhunikta ka mukhota chupa nahi sakta. hum pakhandi h...
    ye nagn satya h.

    14 hours ago via mobile · Unlike · 2
  • DrKavita Vachaknavee जी, Chandra Gurung जी। यही पीड़ा मैंने उमट जी 
    को संबोधित टिप्पणी में कही है कि महिलाओं के संदर्भ में तो स्थिति 
    और भी दूभर हो जाती है कई बार"

    14 hours ago · Like · 1
  • DrKavita Vachaknavee Anirudh Umat जी, आपने ठीक फरमाया। मैं इतने कड़े 
    शब्दों में नहीं कह पाई बस ।
    14 hours ago · Like · 1
  • Sarika Thakur DrKavita Vachaknavee jee ... Jo hamari mitra suchi 
    me hain ..wh kavita ki kitni samajh rakhte hain yah bhee vicharneeya
     hai...kuchh log u hee add kr lete hain ...isi tarah u hee comment
     bhee chaspa ho jate hain...unki ruchi kavita me hoti hi nahi hai..
    14 hours ago · Unlike · 1
  • DrKavita Vachaknavee निस्संदेह
  • Anirudh Umat aap mat kahiye...
    jiski deh me ye mawaad bhara h..vh kaise anjan rh sakta h? m 
    usi mard samaaj ka hissa hu jo hr pal apne purusatv ki aad me apna
     amanviya roop nikharta rahta h. khas kr hamare samaaj me pashu 
    se jyada hinsak. 
  • DrKavita Vachaknavee इस सदाशयता के लिए आभारी हूँ।
  • Sarika Thakur Saafgoee kee tareef karungi lekin pata nahi kyon bahut
     se batain umadne lageen hai ...lekhan swaym me stree-purush
     nahi hota ...lekhin mahila lekhikaon ki samasya yah hai ki pathak se lekar
     lekhak samudaay koi bhee rachna ke prati samyak deristi rakhta hi nahi ...
     wh mainstream ki rachna se bahar kr dee jati hain ... I dont know why 
    ...bt ya dohra bartaav pratyek star pr hai
  • Chandra Gurung DrKavita Vachaknavee कमजोर महिला लेखक कवि पर तो 
    शंका उठते ही हैं । अच्छे महिला लेखकको भी इस तरह के सजा भुगतने पड रहे हैं ।
  • Anirudh Umat m lekhan ko lekhan manta hu.
    mahila lekhan...purush lekhan...apripakwata ki bahas h. 
    meri mitr or varisth lekhak jyotsna milan ne apne intervew me saaf ye 
    kaha h. jald hi vh kathadesh me aa rahaa h. 
  • DrKavita Vachaknavee लेखन में वर्गवाद के केवल एक ही पक्ष के आलम पर भी 
    बात करें तो लेखिका होने के कई दंड व रूप और भी बहुत से हैं। जैसे प्रत्येक 
    रचना पर लोग अमूमन यही समझते हैं कि दैनंदिन जीवन में किसी घटना से सुखी 
    या दु:खी होकर यह लिखी गई होगी। मानो, स्त्री में अपने से उबर पाने की औकात ही कहाँ ?
  • Anirudh Umat kavitaji aapne behad saral lahje me gahri or buniyadi
     baat kahi h. ajab aalam h hindi me budhi ka...
  • Sarika Thakur abhe abhi mere inbox me ek sajjan ka sandesh aya ..
    mai vyaktigat anubhawon ka dastawej taiyaar kr rahi hun mujhe 
    kavta lekhan nahi krna chahiye
  • Sarika Thakur aap sahi kh rahi hai DrKavita Vachaknavee jee ...
  • DrKavita Vachaknavee Anirudh Umat जी, मुझे यह बुद्धि के अजीब आलम से अधिक 
    पितृ सत्तात्मक मानसिकता का आलम अधिक लगता है। 
  • DrKavita Vachaknavee Sarika Thakur जी, ऐसे अनेक महानुभावों के भद्दे, अश्लील, 
    अपमानजनक व घिनौने संदेश मेरे पास बहुतायत में हैं....। एक तो फरमाते हैं कि
     मैं पुरुषों की मानसिकता का विरोध करती हूँ, इसलिए सबकी घृणा की पात्र हूँ, घटिया हूँ। 
    आज ही एक महानुभाव ने 8 पैराग्राफ में गालियाँ देते हुए ईमेल लिखा है।
  • Anirudh Umat bilkul us se kaise inkar kiya ja sakta h.
    magr jo hitchintak ban bheeni bheeni baaten karte ve adhik .....hote h.
     hum aqsar unki bhinbhinaht me hi kho jate h...nirmam aanklan nahi kr pate.
     aanklan mitr or virodhi...dono ka nutral or nirmam hona chahiye. 
  • Samarth Shree चित्र और चरित्र एक ही व्यक्तित्व के परिचायक होते हैं,,
    विचित्र चित्त वालों को चित्र भा जाता है ,जबकि पवित्र चरित्र वालों को उत्तम चरित्र,
    ,काव्य कवि का चरित्र भी होता है और व्यक्तित्व भी,,,,,और स्पष्ट कहे तो व्यक्ति का
     आन्तरिक चित्र ही उसका चरित्र है,,,जाकी रही भावना जैसी...
  • DrKavita Vachaknavee एकदम सटीक बात। मीठी छुरी से वार करने
     वाले भोग्या से अधिक की दृष्टि नहीं रखते। Anirudh Umat जी
  • Anirudh Umat ji shukriya..aapne mujhe apne vichar apni
     post pr vyakt karne avsar diya. G.N.
  • Sarika Thakur Samarth Shree jee ...kavya kavi ka charitra bhee hai 
    vyaktitya bhee ....sahi kaha aapne ...lekin kaun pawitra aur kaun 
    apwitra yah kuan tai karai...aur swa ...anubhution se pare kaun hai ...
  • Samarth Shree पवित्र वह जिनका मानसिक चिन्तन शालीनता का अतिक्रमण 
    नहीं करता,,
  • Sarika Thakur DrKavita Vachaknavee jee ..hm pariwartan ke mahatwapurna
     prakriya ki mahatwapurna kadee hain ... sthitiyan niranatar 
    badalti rahi hain ...age bhee badlengi... ise rok pana kisi ke  bus me
     nahi ...kuchh log hain jo aisa krk sochte hain wh wkt ko ulti disha me 
    ghumane me qamyaab ho jayenge ...pr aisa nahi hoga ...
  • Samarth Shree मुगलों की सुतीक्ष्ण सशक्त सार्वत्रिक अधिसत्ता के समय भी

     यही लगता होगा कि परिवर्तन कैसे होगा पर हुआ,,तो नैराश्य क्यों,,,कभी 
    बीज रूप में कभी वृक्ष रूप में सबकुछ रहता है,,रहा है,,रहेगा भी,,यही सृष्टि का नियम है,,

  • Rakesh Yadav Ahir WHA WO !!!!!!!!!!!!!!! ,YOU ARE GREAT
  • Manoj Tiwari कविता जी सबका अपना-अपना नजरिया होता चीजो को देखने का,
    कभी-कभी आपकी (रचनाकार) रचनाओ मे पाठक ऐसे अर्थ निकाल लेते है 
    जिसकी कल्पना रचनाकार ने भी न की होती,ये कलाकार की पेन्टिग्स के साथ भी होता है
  • SP Sudhesh Kavita ki atmkatha shirshak Kavita Ab Kahan milegi.
    koi sutr bataiye .Purn kumbh men kuchh meri kavitayen bhi 
    chhapi thin .Is nayi Jankari ke liye dhanyvad .
  • DrKavita Vachaknavee SP Sudhesh जी, "पूर्णकुम्भ" के नाते हुआ यह परिचय सुखद है। 
    "कविता की आत्मकथा" या तो "पूर्णकुम्भ" का वह अंक जिनके पास होगा, 
    उनमें मिलेगी; अन्यथा मेरे पास तो है ही, कुछ आत्यंतिक मित्रों के पास भी होगी,
     जो कविता की आलोचना की पितृसत्तात्मक प्रविधि से वास्ता नहीं रखते व स्वस्थ 
    दृष्टि अपनाते हैं।
    9 hours ago · Edited · Like · 1
    • Rakesh Yadav Ahir PLEASE NET PAR ISE SHAYR KARE
      6 hours ago · Unlike · 1
    • Dhiraj Chauhan adhbhut hai ji sab kuch
      5 hours ago · Unlike · 1

    • DrKavita Vachaknavee Rakesh Yadav Ahir जी, नेट पर इसे 
      प्रकाशित कर दिया है। यहाँ देखें - 
      5 hours ago · Like · 1

      B
      के लिए आपका धन्यवाद मैं शीघ्र ही इस कविता को डॉ.जी नीरजा जी से 
      प्राप्त कर कविता की आत्मकथा की भीतरी परतो कीजानकारी प्राप्त करने 
      की कोशिश करूँगी.. और आपने सही कहा है कुछ लोगों की प्रवृति होती है 
      कि जहाँ कहीं स्त्री देखी बस उसके कार्य की चर्चा तो नहीं करेंगें बल्कि उसके 
      रूप-रंग को निहारने लगेंगें.. असल में ये समस्या हर स्त्री के साथ है...
      4 hours ago · Unlike · 1


      • DrKavita Vachaknavee अग्रिम धन्यवाद Balvinder Khan जी, आप लोगों के 
        लिए तो उस अंक को पाना अतीव सहज है.... भले ही "पूर्णकुम्भ" के पुराने
        अंकों को तलाश कर या Rishabha Deo जी के माध्यम से अलग से बड़े आकार 
        के चार पन्नों पर प्रकाशित प्रति। उस कविता पर एक लंबी समीक्षा उसके 
        पश्चात् श्री पूर्ण सहगल जी ने लिखी थी। संयोग से इतने वर्षों बाद 
        पूर्ण सहगल जी के समाचार श्री Banshilal Parmar जी के माध्यम 
        से गत दिनों ही मिले हैं।
        3 hours ago · Like
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