tag:blogger.com,1999:blog-53812686866047959992024-03-13T16:50:42.191-05:00वागर्थUnknownnoreply@blogger.comBlogger21913tag:blogger.com,1999:blog-5381268686604795999.post-90459284294365347122023-10-12T22:44:00.002-05:002023-10-12T22:44:52.289-05:00वर्तमान की वह पगडंडी जो इस देहरी तक आती थी.....<b style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><span>युद्ध</span><span> : </span><span>बच्चे</span><span> </span><span>और</span><span> </span><span>माँ</span><span> (</span><span>कविता</span><span>)</span></span></b><br /><span id="fullpost" style="color: #e69138;"><br /></span><span style="font-size: 100%;"><a href="http://vaagartha.blogspot.com/2008/12/blog-post_04.html" style="color: #e69138; font-weight: bold;">साहित्य अकादमी के वार्षिक राष्ट्रीय बहुभाषीकवि सम्मेलन</a><span style="font-weight: bold;"> </span>की चर्चा मैंने अभी पिछली बार की थी। वहाँ काव्यपाठ में प्रस्तुत अपनी रचनाओं में से एक अभी बाँट रही हूँ।<br /><br />२५ नव. की रात्रि में इसका पाठ करने से पूर्व मैंने अन्यभाषी श्रोताओं के लिए इसका सार अंग्रेजी में उपलब्ध कराते हुए कहा था कि बच्चे का आतंकवादी में रूपांतरण, आतंक और सृष्टि की निर्मात्री माँ के बीच दो विपरीत ध्रुवों को स्पष्ट करने के साथ साथ यह कविता रेखांकित करती है कि आतंक और युद्ध की स्थितियों की सर्वाधिक पीड़ा स्त्री भोगती है क्योंकि यह संसार उसका रचा हुआ है। तब क्या पता था कि अगले ही दिन २६ नव. को एक बड़ा हादसा भारत की धरती भी घटने की तैयारी कर चुका था। उन अर्थों में इस कविता को उन्नीकृष्णन की माता ( जिसे मैं भारत की वीर माता विद्यावती की प्रतीक मानती हूँ) के चरणों में समर्पित कर रही हूँ व प्रत्येक उस माँ के भी जिनके जाये आतंक या युद्ध का शिकार बने । </span><br /><br /><br /><br /><div><span style="font-size: 130%; font-weight: bold;"></span></div><span style="font-size: 130%;"><span style="font-weight: bold;">युद्ध : बच्चे और माँ </span><br /><span style="font-weight: bold;"> <span style="font-size: 100%;">- कविता वाचक्नवी </span></span></span><div><span style="font-size: 100%;"><span style="font-weight: bold;"></span><br /></span> </div> <span style="font-size: 100%;"><br /><br /><br /><br /></span> <span style="font-size: 100%;">निर्मल जल के<br />बर्फ हुए आतंकी मुख पर<br />कुँठाओं की भूरी भूसी<br />लिपटा कर जो<br />गर्म रक्त मटिया देते हैं<br />वे,<br />मेरे आने वाले कल के<br />कलरव पर<br />घात लगाए बैठे हैं सब।<br /><br /><br /><br />वर्तमान की वह पगडंडी<br />जो इस देहरी तक आती थी<br />धुर लाशों से अटी पड़ी है,<br />ओसारे में<br />मृत देहों पर घात लगाए<br />हिंसक कुत्तों की भी<br />भारी<br />भीड़ लगी है।<br /><br /><br /><br />मैं पृथ्वी का<br />आने वाला कल सम्हालती<br />डटी हुई हूँ<br />नहीं गिरूँगी....<br />नहीं गिरूँगी....<br /><br /><br />पर इस अँधियारे में<br />ठोकर से बचने की भागदौड़ में<br />चौबारे पर जाकर<br />बच्चों को लाना है,<br />इन थोथे औ’ तुच्छ अहंकारी सर्पों के<br />फन की विषबाधा का भी<br />भय<br />तैर रहा है......।<br /><br /><br /><br /><br />कोई रोटी के कुछ टुकड़े<br />छितरा समझे<br />श्वासों को उसने<br />प्राणों का दान दिया है<br />और वहीं दूजा बैठा है<br />घात लगाए<br />महिलाओं, बच्चों की देहों को बटोरने<br /><br /></span> <div><span style="font-size: 100%;">बेच सकेगा शायद जिन्हें<br /></span> <span style="font-size: 100%;">किसी सरहद पर<br /></span> <span style="font-size: 100%;">और खरीदेगा<br /></span> <span style="font-size: 100%;">बदले में<br /></span> <span style="font-size: 100%;">हत्याओं की खुली छूट, वह।<br /></span> </div> <span style="font-size: 100%;"><br /><br /><br />एक ओर विधवाएँ<br />कौरवदल की होंगी<br />एक ओर द्रौपदी<br />पुत्रहीना<br />सुलोचना<br />मंदोदरी रहेंगी..........।<br /><br /><br /><br />किंतु आज तो<br />कृष्ण नहीं हैं<br />नहीं वाल्मीकि तापस हैं,<br />मैं वसुंधरा के भविष्य को<br />गर्भ लिए<br />बस, काँप रही हूँ<br />यहीं छिपी हूँ<br />विस्फोटों की भीषण थर्राहट से विचलित<br />भीत, जर्जरित देह उठाए।<br /><br /><br /><br /><br />त्रासद, व्याकुल बालपने की<br />उत्कंठा औ' नेह-लालसा<br />कुंठा बनकर<br />हिटलर या लादेन जनेगी<br />और रचेगी<br />ऐसी कोई खोह<br />कि जिसमें<br />हथियारों के युद्धक साथी को<br />लेकर<br />छिप<br />जाने कितना रक्त पिएगी।<br /><br /><br /><br />असुरक्षित बचपन<br />मत दो<br />मेरे बच्चों को,<br />इन्हें फूल भाते हैं<br />लेने दो<br />खिलने दो,<br />रहने दो मिट्टी को उज्ज्वल<br />पाने दो सुगंध प्राणों को।<br /><br /><br /><br /></span> <div><span style="font-size: 100%;"></span></div><span>जाओ कृष्ण कहीं से लाओ</span><br /><span>यहाँ उत्तरा तड़प रही है !!</span><br /><span>वाल्मीकि !</span><br /><span style="color: white;">सीता के गर्भ</span><br /><span style="color: white;">भविष्य </span><br /><span style="color: white;">पल रहा ।</span><br /><div style="font-weight: bold; text-align: center;">अपनी पुस्तक <span style="color: #33cc00;">"मैं चल तो दूँ"</span> (२००५) से</div><div style="text-align: center;"><br /><br /></div><div class="blogger-post-footer">© डॉ. कविता वाचक्नवी / Dr. Kavita Vachaknavee</div>Unknownnoreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5381268686604795999.post-25446798824579538432023-06-30T00:13:00.006-05:002023-06-30T00:42:29.687-05:00पाककला की चुनौती और टमाटर : कविता वाचक्नवी <div>टमाटर बारहमासी फसल नहीं है। 🍅🍅🍅</div><div><p dir="ltr">
जब हम भारत में रहते थे तो लहसुन–प्याज न खाने के चलते हमारे यहाँ टमाटर के अधिक प्रयोग की अनिवार्यता थी। जो लोग प्याज खा लेते हैं, उन्हें वैसे भी टमाटर की अनिवार्यता कुछेक भोज्य पदार्थों के लिए ही होती है। मैंने क्योंकि स्वयं अधिकांश फसलें अपने हाथ से बोई, उगाई काटी हैं अतः एक–एक फल, एक –एक फली, एक–एक कन्द, व एक–एक शाक की प्रत्येक इकाई का महत्व तथा प्रतीक्षा से परिचित हूँ। उन के हमारी इच्छानुसार उग कर तैयार न होने का अर्थ उगाने वाले का दोष नहीं, अपितु प्रकृति व पर्यावरण का चक्र, नियम तथा सन्तुलन है। </p>
<p dir="ltr">ऐसे में जिन दिनों टमाटर की फसल नहीं होती थी, या मण्डई में नहीं मिलते थे तो गृहणी के रूप में जो–जो उपाय करती थी, उन्हें पाठकों की सहायता के लिए साझा कर रही हूँ। </p><p dir="ltr">(प्याज–लहसुन न खाने–पकाने के चलते मेरी गृहस्थी में प्रतिदिन बड़े आकार के सात–आठ टमाटर शाक–दाल हेतु बारहों माह चाहिए होते थे)। ऐसे में विकल्प दो–तीन थे। गृहणियों को बिना हाय–तौबा मचाए शान्ति से अभाव को भी भाव से पूर लेने का गुण अनिवार्यतः बनाए रखना चाहिए। यह हमारे ही पारिवारिक सम्मान का कारक बनता है। तो आइए, मेरे अनुभव से आप को कुछ लाभ मिले तो इन्हें अपना सकते हैं –</p>
<p dir="ltr">– <b>कोकम </b><br />
दक्षिण में गहरे लाल रंग का एक बहुत खट्टा फल आता है, जिसे कोकम कहते हैं। उस का खट्टा–सा शरबत भी बाजार में मिलता है। इस कोकम की सूखी लाल–भूरी फाँकें बिकती हैं। जिस किसी में डाल दें, खटाई और रंग देती हैं। मैं सदा उन्हें घर में रखती थी। जिस किसी दिन टमाटर घर में समाप्त हुए, उस दिन दाल को कोकम तथा अदरक डाल कर उबाला व फिर बघारा करती थी। कोकम आज भी मेरी गृहस्थी में सदा रहता है। यहाँ तो उस की दीर्घावधि तक सुरक्षित रहने वाली गीली फाँकें उपलब्ध हो जाती हैं। </p>
<p dir="ltr">– <b>साबुत लाल मिर्च</b><br />
सूखी साबुत लाल मिर्च भी टमाटर के अभाव में काम आती है। आप को अधिक मिर्च नहीं रुचती तो आप प्रत्येक मिर्च को तोड़, उस के बीज व दाने बाहर निकाल अलग प्रयोग हेतु सहेज लें तथा छिलके को पानी से धो, कुछेक छोटे–छोटे टुकड़े कर लें, जैसे एक लम्बी मिर्च हो तो चार–छह टुकड़े हो सकते हैं। उन्हें अलग से उबाल कर, पानी से निकाल दाल या शाक में ऊपर से मिला दें तो टमाटर के लाल रंग का आभास देंगी। उबालने से बचा हुआ पानी भी स्वादानुसार मिलाया जा सकता है। ऐसे में टमाटर की खटाई की कमी पूरी करने हेतु अमचूर प्रयोग करें।</p>
<p dir="ltr">– <b>इमली का अवलेह</b><br />
बाजार में इमली का बिना गुठली–डण्ठल का तैयार अवलेह उपलब्ध होता है। मेरी गृहस्थी में वह सदा रहता आया है। उसे भी रंगत तथा खटाई हेतु, विशेषतः साम्भर हेतु प्रयोग करती आई हूँ। </p>
<p dir="ltr">इन उपायों से सम्भवतः आप भी अपनी गृहस्थी और चौके को अभाव रहित तथा अनवरत चला सकते हैं। <br />
–✍🏻 कविता वाचक्नवी<br /><br /></p><br /></div><div class="blogger-post-footer">© डॉ. कविता वाचक्नवी / Dr. Kavita Vachaknavee</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5381268686604795999.post-2316179911670574062023-06-27T00:53:00.001-05:002023-06-27T00:53:13.049-05:00साहित्यिक हिन्दी लेखन का वर्तमान व भविष्य : कविता वाचक्नवी<div>इधर मैं हिन्दी की किसी एक ऐसी कृति को खोज रही थी जो साहित्यिक नोबेल के लिए स्पर्धा के योग्य भले न हो, किन्तु कम–से–कम उस से छह–आठ सोपान नीचे तक ही आती हो। दुर्भाग्य से हिन्दी में गत लगभग तीन दशक का साहित्य भी देखें तो कोई कृति आसपास नहीं ठहरती। जिन्हें अमुक लेखक, अमुक कृति आदि सब से बड़े लगते हैं, उन्होंने विश्व साहित्य नहीं पढ़ा।</div><div><div><br /></div><div> किसी कृति की गुणवत्ता उस की भाषा, प्रहार, चित्रण, सन्देश या कथावस्तु–मात्र ही नहीं होते, अपितु कृति के प्रत्येक तत्त्व की मौलिकता तथा उन पर विश्व की किसी अन्य कृति के किसी भी प्रकार के प्रभाव का न होना भी होते हैं। स्थानीयता के साथ वैश्विकता को साधने का कौशल भी होते हैं, कथावस्तु हेतु विषय–चयन भी आत्यंतिक महत्व का होता है, एक ही कृति में कितना इतिहास और कितना मिथ/कल्पना है, यह भी कम महत्व का नहीं होता। एक ही कृति में विषय–वैविध्य के स्तर पर कितना विस्तार है, उन की प्रभविष्णुता, उन की गहराई– ऊँचाई और विस्तृति कितनी है, इत्यादि भी मापक होते हैं। ऐसे में उस कृति को पटकथा के रूप में ढाला जाना कितना सुगम–दुरुह है, यह भी कृति के प्रभाव में गुणात्मक–घनात्मक योगदान करता है। </div><div><br /></div><div>जिन्हें लगता हो कि ये सब बातें केवल वायवी हैं, या जिन्हें अनुमान लगाना हो कि विश्व की अन्य अनेक भाषाओं में कितने व कैसे कठिन श्रम से, किस उच्च कोटि का लेखन होता है; उन के लिए मात्र एक कृति ही पर्याप्त है। </div><div><br /></div><div>कुछ वर्ष पूर्व बीबीसी ने पीकी ब्लाइण्डर्ज़ नामक नाटक शृंखला का निर्माण किया था, जो सत्यकथा तथा कल्पना की ऐसी बुनावट था, जो विश्व श्रेणी की साहित्यिक कृति के रूप में परिगणित न होते हुए भी एक समूची वैश्विक स्तर की कृति है, जिस के मूल लेखक स्टीवन नाईट हैं (दो और लेखक भी अल्पकाल हेतु सहयोगी रहे)। इसे हम अपने, विशेषतः हिन्दी लेखन के समक्ष रख कर देख सकते हैं। और अनुमान लगा सकते हैं कि कोई कृति वैश्विक कृति बनने के लिए अपने लेखक से किस कोटि, व किस स्तर की अपेक्षा करती है। और क्या हिन्दी का कोई लेखक उधार की, या लच्छेदार, या नारेबाजी की, या एजेण्डे की या उठाईगिरी की, या एकस्तरीय, या पुरस्कार हेतु, या छद्म राजनीति, या मनोरंजन, या मनोनुकूल के अतिरिक्त कुछ करता है क्या? मुझे तो स्वयं को, सीखने और अपना आकलन करने की दृष्टि से भी पीकी ब्लाइण्डर्ज़ अत्यन्त महत्व की पटकथा लगी। और इस बहाने हिन्दी जगत की दोगलापन्थी और चुभती अनुभव हुई। हम हिन्दी की नयी पीढ़ी को रचना कौशल का संस्कार देने में विफल रहे हैं। कोई गम्भीर लेखक आगामी बीस वर्ष तो अभी हम हिन्दी वाले हिन्दी में जन नहीं सकते। सौभाग्य से, गठमार कभी गम्भीर वैश्विक लेखक नहीं बन सकते। तब तक हम–आप नारेबाजी के लिए स्वतन्त्र हैं।</div><div><br /></div><div>©–✍🏻 कविता वाचक्नवी©</div></div><div class="blogger-post-footer">© डॉ. कविता वाचक्नवी / Dr. Kavita Vachaknavee</div>Unknownnoreply@blogger.com0