शनिवार, 9 अगस्त 2014

'श्रावणी उपाकर्म', 'नारियली पूर्णिमा' व 'रक्षा-बन्धन' : डॉ. कविता वाचक्नवी

'श्रावणी उपाकर्म', 'नारियली पूर्णिमा' व 'रक्षा-बन्धन'  :  कविता वाचक्नवी


श्रावणी पूर्णिमा के पर्व रक्षा-बन्धन की ढेरों मंगलकामनाएँ ! 



इस अवसर की सार्थकता केवल कलाई पर रेशमी डोरे बाँधने में नहीं है, न सज-धज कर माथे पर तिलक करवा लेने में। इस पर्व की सार्थकता अपने जीवनऔर परिवेश में आने वाली स्त्रियों की समूल सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने में है। जब बहनें कलाई पर डोर बाँधती हैं तो केवल अपनी रक्षा का वचन लेने के लिए नहीं, अपितु अपने भाइयों को यह स्मरण दिलाने के लिए भी कि स्त्रियों के सम्मान की सुरक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है अर्थात् असुरक्षा का निषेध। 

कुछ लोग रक्षाबन्धन को स्त्री के सामर्थ्य का विरोधी बताने का अभियान प्रतिवर्ष की भाँति इस बार भी चलाएँगे, यह कहकर कि स्त्री क्या कमजोर है जो उसे सुरक्षा चाहिए। वस्तुतः यह पर्व स्त्री को कमजोर होने या सुरक्षा की अपेक्षा करने का नहीं अपितु भाइयों/पुरुषों को यह स्मरण दिलाने और कर्तव्यबोध करवाने का है कि वे अपनी दृष्टि और अपना शक्ति-सामर्थ्य स्त्री-मात्र के सम्मान के लिए प्रतिबद्ध होने और उस सम्मान की रक्षा में लगाने का संकल्प लें।


सुरक्षा करने के दो ढंग होते हैं। एक तो असुरक्षा होने पर सुरक्षा करना और दूसरा असुरक्षित अनुभव करवाने वाला कोई कार्य स्वयं भी न करना, न दूसरों को करने देना। यह पर्व सुरक्षा करने से अधिक असुरक्षित न करवाने का व्रत भी दिलवाता है। बहन-भाइयों के स्नेह का प्रतीक तो है ही। अतः बहनें अपने भाइयों से अपनी रक्षा का नहीं अपितु अपने मान-सम्मान सहित सभी स्त्रियों के मान-सम्मान की रक्षा का व्रत लेती हैं और साथ ही भाई-बहन के रिश्ते को उसी स्नेह-प्यार के साथ बनाए-बचाए रखने का संकल्प भी देती-दिलवाती हैं। 


रक्षा-बन्धन पर वस्तुतः मन की मलीनताओं का परिमार्जन करने के साथ-साथ उसे श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने का संकल्प करना चाहिए। रक्षा बन्धन आत्मोन्नति व मानवीय मूल्यों के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है। ऐसा करने वाले ही मातृशक्ति के उच्च अनुदानों के महत्व को समझ सकते हैं और तभी मातृशक्ति से स्नेह-सम्मान प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं। समाज व राष्ट्र के सदस्यों को यह पात्रता मिलती रहे इस योग्य बनाने के लिए ही इस पर्व का विधान किया गया। 


यही श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ही 'श्रावणी उपाकर्म' का दिन भी होता है। उपाकर्म का अभिप्राय होता है प्रारम्भ करना। अतः उपाकरण का अर्थ है प्रारम्भ करने के लिए पास लाना या आमन्त्रित करना। मूलतः वैदिक काल में वेदाध्ययन के लिए विद्यार्थियों का आचार्य के पास एकत्रित होने का काल था। गुरुकुलों में उपनयन व वेदारम्भ संस्कार किए जाते हैं, इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। यज्ञोपवीत बदल कर नए धारण किए जाते हैं। श्रावणी पूर्णिमा को ही 'संस्कृत दिवस' भी मनाया जाता है।


गत वर्ष भी मैंने लिखा था कि श्रावणी पूर्णिमा को 'नारियली पूर्णिमा' भी कहा जाता है क्योंकि समुद्र किनारे बसने वाले वेदपाठी लोग श्रावणी उपाकर्म के विधानानुसार कर, इस दिन केवल नारियल का फलाहार करते हैं। साथ ही संभवतः इसलिए भी क्योंकि सावन में वर्षा का आधिक्य होने के कारण समुद्र किनारे बसने वालों के लिए जल-थल और वर्षा आदि के तूफान में समुद्र में उतरने से आपदा की आशंका रहती थी तो वे समुद्र को नारियल अर्पित करके श्रावणी पूर्णिमा की पूजा आदि करते आए हैं। कोंकण व महाराष्ट्र में नारली पूर्णिमा शब्द का खूब प्रचलन है। प्रकृति एवं पर्यावरण के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का विधान भी है । 


हैदराबाद के निज़ाम द्वारा औरंगज़ेबी फ़रमान जारी कर राज्य में हिन्दू विधि-विधानों (पूजा, यज्ञ, मंदिरों पर झण्डा, यज्ञोपवीत, संस्कार, घंटे-घडि़याल बजाना, कीर्तन, जागरण करना, रामायण, गीता, महाभारत की कथा आदि समस्त कार्यों) पर प्रतिबंध लगा देने के विरोध में वहाँ के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए निज़ाम के विरुद्ध आर्यसमाज ने सत्याग्रह किया था, जिसका संयोजन महात्मा नारायण स्वामी जी ने किया था। आर्यों द्वारा प्रारम्भ किए इस आंदोलन में बलिदान देने के लिए देश भर से आर्यों के जत्थे हैदराबाद पहुँच रहे थे। तब वीर सावरकर भी साथ देने के लिए शोलापुर पहुँचे और कहा 'आर्यसमाज हैदराबाद आन्दोलन में अपने आपको अकेला न समझे'। सावरकर की प्रेरणा पर सनातन धर्मी विचारधारा के भी अनेक व्यक्ति हैदराबाद आन्दोलन में जेल गए और भीषण यातनाएँ सहन कीं। वीर सावरकर ने पुणे जाकर हिन्दू महासभा का विशाल जत्था हैदराबाद भिजवाया। इस प्रकार आर्यसमाज के इस सत्याग्रह आन्दोलन में हिन्दू महासभा ने भी सावरकर की प्रेरणा से पूर्ण सहयोग दिया। 


'हैदराबाद सत्याग्रह स्मारक व्याख्यान-माला' के अनुसार - "खेद है कि गांधीजी एवं अन्य कांग्रेसी नेताओं ने कुसंस्कारों के अनुसार, मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के अनुसार ही आर्य समाज के इस असाम्प्रदायिक आर्य सत्याग्रह को साम्प्रदायिक आर्य सत्याग्रह बताया। इतना ही नहीं, गांधी जी ने अपने ‘हरिजन’ पत्र में इसकी कटु आलोचना की। पूर्व मध्य प्रदेश तथा बरार विधान सभा के अध्यक्ष श्री धनश्याम सिंह जी गुप्त ने गांधी जी को निजाम के अत्याचार तथा नागरिक अधिकारों का विशेषकर धार्मिक अधिकारों का हनन करने का सम्पूर्ण विवरण बताया, तब कहीं गांधी जी ने अपने अधखुले मुंह से इस सत्याग्रह की सफलता के लिए कुछ शब्द कहें। गांधी जी के असहयोग रवैये की देशभर में कटु आलोचना हुई। तब सामाजिक अपयश से बचने के लिए उन्होंने कहा- “धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए चलाए गए आन्दोलन से तो मुझे सहानुभूति है, किन्तु हिन्दू महासभा द्वारा आन्दोलन में कूद पड़ने से यह साम्प्रदायिक हो गया है।" ऐसी कड़वी बात हिन्दू महासभा के तत्कालीन कर्णधार कैसे सहन कर सकते थे ? उन्होंने तत्काल नहला पर दहला मारा। वीर सावरकर तथा डॉ. मुंजे ने गांधी जी के वक्तव्य का उत्तर देते हुए कहा - "गांधीजी बताएँ, कि वन्देमातरम् को सहन न करने वालों, हिन्दी भाषा का विरोध करने वालों एवं स्वाधीनता संग्राम में सहयोग न देने की धमकी देने वालों की चापलूसी करना, उन्हें सिर पर चढ़ाना क्या बड़ा भारी धर्म निष्पक्षता व न्याय है? क्या वह साम्प्रदायिकता का पोषण करना नहीं है?" उल्लेखनीय है कि गांधी जी के इस निराशा भरे वक्तव्य से आर्य सत्याग्रह को और भी बल मिला और उसमें तेजी आ गई।" 

अन्ततः रक्षा बंधन के दिन ही आर्यसमाज को अपने इस सत्याग्रह में विजय मिली और निज़ाम को झुकना पड़ा। 

आज उपाकर्म, वेदपाठ, अपने भाई-बान्धव, रक्षाबन्धन के सुनहले धागे, संस्कृत दिवस के हजारों संस्मरण और महाराष्ट्र खूब याद आ रहे हैं। 


...तो इस इस बार पुनः इस श्रावणी पूर्णमा के दिन अपनी बेटी, अपनी ननद व अपनी ओर से संयुक्त रूप में नारियल के लड्डू व सेवइयाँ बनाऊँगी ताकि बेटी के भाइयों (अपने सुपुत्रों) ननद के भाई (अपने पति) व साथ ही अपने भाइयों को खिला सकूँ। बेटा व उनके पिताश्री को तो अपनी-अपनी बहन की ओर से प्रत्यक्ष खिला दिया जाएगा; रह जाएँगे तो बस मेरा छोटा बेटा और मेरे भाई ! 


सुपुत्र और अपने भाइयों को बार-बार असीसती हुई ढेरों मंगल कामनाएँ भेज रही हूँ। वे जहाँ भी हैं सदा सुखी रहें और अपने मन-वचन या कर्म से कभी किसी स्त्री के सम्मान व सुरक्षा को आघात न पहुँचाएँ। सभी प्रकार का सुख-सौभाग्य उन पर बना रहे। चिरायु-शतायु हों! 

इन आधुनिक माध्यमों से जुड़े अपने भाइयों के लिए भी यही मंगल कामना है। 

सस्नेह ...
क. वा.


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