सोमवार, 7 मई 2012

आमिर ख़ान और हिन्दी आलोचना

आमिर ख़ान और हिन्दी आलोचना : `सत्यमेव जयते' 
(डॉ.) कविता वाचक्नवी



शायद समझदारी का तकाजा यही होता होगा कि हर चीज को दूरबीन से देखने की कवायद की जाए और फिर लोगों को बताया जाए कि - 

 - "वे बेमतलब ही खुश हो रहे हैं, अमुक अमुक चीज में तो नाखुश होने के अलाँ - फलाँ फैक्टर हैं, जिन पर  समझदार लोग केवल नाखुश हो सकते हैं, कमजर्फ़ो ! तुम चीजों को तौलना तक नहीं जानते और कमतरी की बातों पर गौर करना तक नहीं चाहते ?"


आमिर खान की उपस्थिति और संचालन में शुरू हुए "सत्यमेव जयते" का यही हाल है। लोग - बाग बता रहे हैं कि - 

 1) -  " अरे इसमें जनता को इतनी चर्चा करने और वाह - वाह करने की क्या जरूरत है ? कन्याभ्रूणहत्या पर अलाने फलाने लेखक ने क्या से क्या लिख मारा था, आपने वह सब पढ़ा नहीं ? आमिर क्या उन - उन लेखकों से बड़े हैं जो उसे  इतना भाव दे रहे हो? हिन्दी के कितने लेखक इस बाबत क्या से क्या एक से एक चीज लिख धर गए हैं, मूरख जनता पढ़ती लिखती तो है नहीं। न इसे समझदारों की कही बात पल्ले पड़ती है। " 

या 

2) - " आमिर कौन बहुत बड़े हैं जी, सब माया का खेला है, इतने सोशल  एक्टिविस्ट क्या कछु कम थे जी, जो उनकी बात पर कान न धरे जनता ने ?"

 या 

3) - "सत्यमेव जयते' से बढ़िया तो दूजो कितनो शो है जी, कछु नॉलेज वॉलेज भी हो जाती है और बेहतर तरीके के लोग भी उसमें हैं।"


अब भला समझदारों को समझाईस कौन दे सकता है कि भले मानुषो ! यदि कोई मुद्दा किसी लोकप्रिय माध्यम और लोकप्रिय व्यक्ति के द्वारा अधिकाधिक लोगों तक अपनी पहुँच बनाने और उन्हें सोचने और ध्यान देने को विवश कर रहा है तो इसमें क्या बुराई है? 


आमिर खान की लोकप्रियता निस्संदेह हिन्दी की उन उन उक्त  कविताओं से अधिक है। अब अधिक क्यों है, यह अलग विवेचना का विषय है, उसके कारणों और उनके सही गलत पर अलग से संगोष्ठी कर लीजिएगा। ऐसे में किसी सार्थक व सामाजिक मुद्दे को लोकप्रिय व अधिकाधिक लोगों में पैठ बना चुके व्यक्ति द्वारा उठाया जाना आम जनता को जल्दी समझ में आता है और सही लगता है।


 दूसरा कारण यह कि दृश्य - माध्यम की ताकत लिखे हुए शब्द से कई कई गुना अधिक होती है। इसीलिए तो आम जनता हमारे यहाँ रामलीलाओं का सहारा लेती आई व मंचन के लिए एकजुट होती आई है। इस माध्यम की संप्रेषणशक्ति बड़ी तीव्र होती है। साधारणीकरण के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। 

.... और हाँ, पाठ को समझने समझाने के लिए  किसी `समझदार आलोचक'  की लिखी आलोचना की जरूरत भी नहीं पड़ती। 

बबुआ ! तिलमिलाओ नाहीं और चीरफाड़ में रस मते लो। कछु लड़कियाँ बच गईं तो सारी कविताएँ बाँच लेंगी एक दिन। आखिर हिन्दी - विभागों में पढ़ने उन्हें ही तो आना है। 


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10 टिप्‍पणियां:

  1. एक अच्छा लेख लेकिन ऐसों को समझाना संभव नहीं यह केवल अपने चश्मे से दुनिया देखते हैं | इनकी सोंच केवल इनके ही इर्द गिर्द घूमती रहती है| समाज से इनको कोई सरोकार नहीं है.

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  2. कविता जी लिखे हुए शब्द कविता कहानी उपन्यास केवल बौधिक खुराक बन कर आते हैं, यह सत्य अच्छा है या बुरा पर है यह सत्य ही. इस से कुछ बुद्धिजीवी लोग सबक लेते होंगे. पर यदि साहित्य की इतनी गहरी पैठ समाज में होती तो रजा राम मोहन राय को गांव गांव जा कर सती प्रथा के लिये शिक्षा क्यों देनी पड़ती? जब तक जनता से सीधे संपर्क न हो तब तक विचार या विचारशीलता का असर नहीं पड़ता. साहित्य अब काफी अंतर्मुखी हो गया है और शायद उसे केवल साहित्यकार ही पढ़ते होंगे जो पहले से ही इतने प्रबुद्ध हैं कि वे भ्रूण हत्या के विरुद्ध ही होंगे. दूरदर्शन के माध्यम से दिखाया जाने वाला 'बालिका वधु' धारावाहिक क्या राजस्थान के असंख्य परिवारों में से कम से कुछ प्रतिशत परिवारों का हृदय परिवर्तन नहीं कर देता होगा? इसलिए लेखकों का वास्ता दे कर आमिर खां के प्रभाव को नकारना गलत है. कन्या भ्रूण हत्या अपने आप में इतनी जटिल समस्या है कि यह असंख्य कुंद दिमाग लोगों पर इतनी जल्दी असर नहीं होने वाला. पर यदि कुछ प्रतिशत लोगों की सोच भी आमिर बदल सकते हैं तो इस से बड़ी स्वागत योग्य बात हो ही नहीं सकती कविता जी!

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  3. (पिछली टिप्पणी के बाद जारी) वैसे कन्या भ्रूण हत्या को ले कर कुछ अन्य तथ्य भी जानना ज़रूरी हैं, यानी तस्वीर का दूसरा पासा. ऐसे कई पिछड़े हुए गाँव हैं जिनमें लड़की पैदा होते ही उसे मार दिया जाता है. किसी अन्धविश्वास के तहत नहीं वरन इसलिए कि उन पिछड़े हुए अति नारकीय से गांवों में यह शत प्रतिशत निश्चित होता है कि लड़की बड़ी होगी तो उसे भोग ही जाएगा, यानी वह मात्र एक जिस्म होगी. ऐसे में शायद पढ़े लिखे से पढ़ा लिखा बाप भी कन्या की मृत्यु में ही खैर मनाएगा. अतः वहाँ हृदय परिवर्तन तो तब होगा ना जब ऐसे गांवों की हालत आर्थिक शैक्षणिक तरीके से सुधारी जाएगी. वहां तो आमिर को भी नहीं देख पाते होंगे लोग. दूसरी बात कि मैंने ऐसे आंकड़े पढ़े जिनमें अच्छे भले शिक्षित लोग सोचते हैं कि पहली संतान लड़की आ गई तो स्वागत है, पर कम से कम दूसरी लड़का ही हो ताकि कम से कम बुढापे में काम आए. लड़की तो ससुराल चली जाएगी. सो अभी हमारे शिक्षित समाज को भी ज़मानों लगेंगे जब लड़की ससुराल या पति के पास जाते हुए भी अपने माँ बाप से निरंतर संपर्क में रह कर ज़रूरत पड़ने पर उनके लिये कुछ करे. यहाँ तो हालत यह है कि कुछ वर्ष पहले एक समाज सेविका बाल विवाह रुकवाने गई थी तो उसके हाथ ही काट दिए गए थे. यह दर्दनाक खबर दूरदर्शन पर सुनते हुए रजत शर्मा तक के चेहरे पर गहरा दुःख मैंने देखा था. अतः भारतीय समाज की असंख्य परतें हैं, असंख्य जटिलताएं हैं, जिन में आमिर खान मात्र घोर अँधेरे में नज़र आ रही एक आशा की किरण प्रस्तुत कर रहे हैं, कम से कम कुछ तो नज़र आ रहा है! फिर आमिर fast track court द्वारा चल रहे कई मुकदमों के बारे में सरकार को एक पेटीशन भी तो भेजना चाहते हैं? कुछ व्यहवारिक कदम भी तो लिये जा रहे हैं? हमें निश्चित रूप से स्वागत करना चाहिए ऐसे प्रयासों का.

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  4. कोई भी प्रयास व्‍यर्थ नहीं जाता, कुछ बच्‍चियां किताबों के कारण बचेंगी, कुछ आमिर के प्रोग्राम के कारण। हर बुरी को खत्‍म करने के लिए माहोल का होना जरूरी है। वैसे एक बात कितने लोग पढ़ पाते हैं बड़े बड़े लेखकों की कविताएं। तीन वक्‍त का खाना आता है गरीब के घर एक कविता के बदले। कोई अच्‍छा करने निकला नहीं कि हम खडे हो जाते हैं बुराई अालोचना करने। खुद को भगवान साबित करने। अन्‍ना निकला, लोगों ने तरह तरह की बातें करनी शुरू कर दी। हम भीतर से करप्‍ट हैं, और बातें करते हैं समाज सुधार की। किसी ने पहल की है तो उसकी सराहना करो। कोई पल भर के लिए प्‍यार कर ले झूठा ही सही।

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  5. bahut sahi kaha kavita ji aapne ! waise desh se burai mitane ke liye sabka swagat hona chahiye raste chahe jo ho .

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  6. मेरे मित्रों, भाइयों- बहनों तथा देश के नौनिहालों क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपके शिक्षक/शिक्षिका को गला दबाकर गालियाँ देते हुए कोई निकालकर बाहर करे ? क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपकी राष्ट्रभाषा का अपमान कोई हिंदी दिवस के दिन माइक पर बच्चों के सामने करे ? क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपके बच्चों को भारतीय संस्कृति-सभ्यता के खिलाफ कोई सिखाए ? यदि नहीं तो रिलायंस कम्पनी का पूरी तरह बायकाट कीजिए जहाँ भी हैं यथासंभव उनका विरोध अपनी-अपनी तरह से कीजिए क्योंकि रिलायंस जामनगर ( गुजरात ) में ये सब हो रहा है ....! देखिए :-

    बच्चों के मन में राष्ट्रभाषा - हिंदी के खिलाफ जहर भरने वाले मिस्टर एस. सुन्दरम जैसे लोगों को प्रिंसिपल जैसी जिम्मेदारी के पद पर रखने वाली कंपनी का हमें हर तरह से बहिष्कार करना है , आज गुरुपूर्णिमा के दिन आओ मिलकर हम सब दृढ.प्रतिज्ञा करें कि राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के खिलाफ बोलने वालों से किसी तरह का कोई वास्ता नहीं रखेंगे , उनका पूरी तरह से बायकाट करेंगे ……! .

    प्रिंसिपल मिस्टर एस. सुन्दरम विना बी.एड.या शिक्षक - योग्यता के रिलायंस टाउनशिप जामनगर ( गुजरात ) में स्थित के.डी.अम्बानी विद्या मंदिर में प्राचार्य पद पर सुशोभित हैं और बच्चों को सिखाते हैं - "बड़ों के पांव छूना गुलामी की निशानी है, आपके पीछे खड़े शिक्षक -शिक्षिकाएं अपनी बड़ी-बड़ी डिग्रियां खरीद कर लाए हैं ये आपके रोल मोडल बनने के लायक नहीं हैं , गांधीजी पुराने हो गए उनको छोडो - फेसबुक को अपनाओ ......" केवल यही नहीं १४-९-२०१० ( हिंदी दिवस ) के दिन प्रातः कालीन सभा में प्रिंसिपल सुन्दरम साहब को जब आशीर्वाद के शब्द कहने को बुलाया गया तो इन्होंने माइक पर सभी बच्चों तथा स्टाफ के सामने कहा - " कौन बोलता है हिंदी राष्ट्र भाषा है, हिंदी टीचर आपको मूर्ख बनाते हैं.गलत पढ़ाते हैं "

    केवल इन्होंने हिंदी सी०डी० और डी० वी० डी० का ओर्डर ही कैंसिल नहीं किया, कक्षा ११ - १२ से हिंदी विषय ही नहीं हटाया बल्कि सबसे पुराने व आकाशवाणी राजकोट के हिंदी वार्ताकार को एच० ओ० डी० के पद से गलत तरह से हटाकर अति जूनियर को वहां बैठाकर राष्ट्रभाषा - हिन्दी को कमजोर कर दिया है.

    छात्र -छात्राओं के प्रति भी इनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण रहा है यही कारण है कि १० वीं कक्षा के बाद अच्छे बच्चे विद्यालय छोड़कर चले जाते हैं, जिस समय मेरे पुत्र की प्री बोर्ड परीक्षा थी - मुझे सस्पेंड किया गया, फिर महीनों रुके रहे जैसे ही बोर्ड परीक्षा 2011 शुरू हुई मेरी इन्क्वायरी भी शुरू करवा दिए, उसके पेपर के पहले इन्क्वायरी तिथि रख करके उसे डिस्टर्ब करने का प्रयास किये, इन्टरनेट कनेक्सन भी कटवा दिया जिससे वो अच्छी तैयारी नहीं कर सका और परीक्षा ख़त्म होते ही रोते हुए अहमदाबाद आ गया. मैं १०-अ का अध्यापक था उन बच्चों का भी नुक्सान हुआ है जिनको मैं पढाता था . मेरी पत्नी तथा बच्ची को जेंट्स सेक्युरिटी भेजकर - भेजकर प्रताड़ित करवाते रहे और नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिए .

    अभी तक इन्होंने उस विद्यालय के पुराने व अनुभवी लगभग ४० शिक्षक-शिक्षिकाओं को प्रताड़ित करके जाने पर मजबूर कर दिया है या इनकी गलत शिकायतों पर कंपनी ने उन्हें निकाल दिया है . पाकिस्तान से सटे इस इलाके में इस तरह बच्चों को पाठ पढ़ाना कितना उचित है, देश व समाज के लिए कितना नुकसानदायक है ये आप पर छोड़ता हूँ ...............!!!

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  7. महान लेख, सूझबूझ के साथ लिखा गया,मार्गदर्शक।

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