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गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

वैदिक नववर्ष मंगलमय व शुभकारी हो : कविता वाचक्नवी



सृष्टिसम्वत्सर (युगादि पर्व), नव विक्रमीसंवत्सर तथा आर्यसमाज स्थापना-दिवस की अनेकानेक शुभकामनाएँ !

हमारी सृष्टि की आयु एक अरब, छियानवें करोड़, आठ लाख, तिरपन हजार, एक सौ सोलह वर्ष व्यतीत हो चुकी है और आज एक अरब, छियानवे करोड़, आठ लाख, तिरपन हजार, एक सौ सत्तरहवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ है। दक्षिण भारत में सृष्टि सम्वत के दिन ही विक्रमी सम्वत मनाया जाता है, किन्तु भारत के कुछ भागों में विक्रमी सम्वत अलग दिन मनाया जाता है, यथा, गुजरात में दीपावली के अगले दिन नया विक्रमी सम्वत (नव वर्ष) मनाने का चलन है। 

वस्तुतः नव वर्ष विक्रमी सम्वत का सम्बद्ध राजा विक्रमादित्य की विजयों से सम्बंधित है, अतः विक्रमी सम्वत कुछ भागों में अलग-अलग दिनों को प्रारम्भ होता है; और दूसरी बात, उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में माह का अन्त भिन्न भिंन्न होता है, उत्तरभारत में पूर्णिमा पर माह समाप्त होता है और दक्षिण भारत में अमावस्या को माह समाप्त होता है, इन सब कारणों बिहार में होली के अगले दिन नव वर्ष समझा जाता है और दक्षिण में आज के दिन। 

यह तो रही विक्रमी सम्वत की बात। परन्तु सृष्टि सम्वत सदा से, एक साथ, आज ही के दिन मनाया जाता है। 

आज ही के दिन अर्थात् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (तदनुसार 7 अप्रैल 1875) ही के दिन महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मुम्बई के काकड़वाड़ी में आर्यसमाज की स्थापना की थी। अतः आज आर्यसमाज का स्थापना दिवस भी है। 

तीनों अति विशिष्ट व महत्वपूर्ण शुभ पर्वों की ढेर सारी हार्दिक शुभ कामनाएँ। परस्पर सभी प्रकार के मतभेद व ईर्ष्या-द्वेष मिटाकर सब एक दुसरे के सुख और उन्नति में सहायक बनें, सन्मार्ग पर चलें तथा विश्वशान्ति हेतु मिलकर समूचे मानव समाज की उन्नति में सहयोग दें। इन्हीं समस्त शुभ कामनाओं सहित !


शनिवार, 29 नवंबर 2014

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मान-समारोह एवं आमन्त्रण

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मान-समारोह एवं आमन्त्रण


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त अपने जीवन के इस अमोल अवसर पर मैं तो उपस्थित नहीं हो सकूँगी (मेरी ओर से मेरा कनिष्ठ पुत्र यह सम्मान ग्रहण करेगा), किन्तु मित्रों को आग्रहपूर्वक निमन्त्रण है कि वे अधिकाधिक उपस्थित होकर शोभा बढ़ाएँ। 

बड़े आकार में देखने के लिए एक-एक कर चित्रों पर क्लिक करें  -






शनिवार, 9 अगस्त 2014

'श्रावणी उपाकर्म', 'नारियली पूर्णिमा' व 'रक्षा-बन्धन' : डॉ. कविता वाचक्नवी

'श्रावणी उपाकर्म', 'नारियली पूर्णिमा' व 'रक्षा-बन्धन'  :  कविता वाचक्नवी


श्रावणी पूर्णिमा के पर्व रक्षा-बन्धन की ढेरों मंगलकामनाएँ ! 



इस अवसर की सार्थकता केवल कलाई पर रेशमी डोरे बाँधने में नहीं है, न सज-धज कर माथे पर तिलक करवा लेने में। इस पर्व की सार्थकता अपने जीवनऔर परिवेश में आने वाली स्त्रियों की समूल सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने में है। जब बहनें कलाई पर डोर बाँधती हैं तो केवल अपनी रक्षा का वचन लेने के लिए नहीं, अपितु अपने भाइयों को यह स्मरण दिलाने के लिए भी कि स्त्रियों के सम्मान की सुरक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है अर्थात् असुरक्षा का निषेध। 

कुछ लोग रक्षाबन्धन को स्त्री के सामर्थ्य का विरोधी बताने का अभियान प्रतिवर्ष की भाँति इस बार भी चलाएँगे, यह कहकर कि स्त्री क्या कमजोर है जो उसे सुरक्षा चाहिए। वस्तुतः यह पर्व स्त्री को कमजोर होने या सुरक्षा की अपेक्षा करने का नहीं अपितु भाइयों/पुरुषों को यह स्मरण दिलाने और कर्तव्यबोध करवाने का है कि वे अपनी दृष्टि और अपना शक्ति-सामर्थ्य स्त्री-मात्र के सम्मान के लिए प्रतिबद्ध होने और उस सम्मान की रक्षा में लगाने का संकल्प लें।


सुरक्षा करने के दो ढंग होते हैं। एक तो असुरक्षा होने पर सुरक्षा करना और दूसरा असुरक्षित अनुभव करवाने वाला कोई कार्य स्वयं भी न करना, न दूसरों को करने देना। यह पर्व सुरक्षा करने से अधिक असुरक्षित न करवाने का व्रत भी दिलवाता है। बहन-भाइयों के स्नेह का प्रतीक तो है ही। अतः बहनें अपने भाइयों से अपनी रक्षा का नहीं अपितु अपने मान-सम्मान सहित सभी स्त्रियों के मान-सम्मान की रक्षा का व्रत लेती हैं और साथ ही भाई-बहन के रिश्ते को उसी स्नेह-प्यार के साथ बनाए-बचाए रखने का संकल्प भी देती-दिलवाती हैं। 


रक्षा-बन्धन पर वस्तुतः मन की मलीनताओं का परिमार्जन करने के साथ-साथ उसे श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने का संकल्प करना चाहिए। रक्षा बन्धन आत्मोन्नति व मानवीय मूल्यों के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है। ऐसा करने वाले ही मातृशक्ति के उच्च अनुदानों के महत्व को समझ सकते हैं और तभी मातृशक्ति से स्नेह-सम्मान प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं। समाज व राष्ट्र के सदस्यों को यह पात्रता मिलती रहे इस योग्य बनाने के लिए ही इस पर्व का विधान किया गया। 


यही श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ही 'श्रावणी उपाकर्म' का दिन भी होता है। उपाकर्म का अभिप्राय होता है प्रारम्भ करना। अतः उपाकरण का अर्थ है प्रारम्भ करने के लिए पास लाना या आमन्त्रित करना। मूलतः वैदिक काल में वेदाध्ययन के लिए विद्यार्थियों का आचार्य के पास एकत्रित होने का काल था। गुरुकुलों में उपनयन व वेदारम्भ संस्कार किए जाते हैं, इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। यज्ञोपवीत बदल कर नए धारण किए जाते हैं। श्रावणी पूर्णिमा को ही 'संस्कृत दिवस' भी मनाया जाता है।


गत वर्ष भी मैंने लिखा था कि श्रावणी पूर्णिमा को 'नारियली पूर्णिमा' भी कहा जाता है क्योंकि समुद्र किनारे बसने वाले वेदपाठी लोग श्रावणी उपाकर्म के विधानानुसार कर, इस दिन केवल नारियल का फलाहार करते हैं। साथ ही संभवतः इसलिए भी क्योंकि सावन में वर्षा का आधिक्य होने के कारण समुद्र किनारे बसने वालों के लिए जल-थल और वर्षा आदि के तूफान में समुद्र में उतरने से आपदा की आशंका रहती थी तो वे समुद्र को नारियल अर्पित करके श्रावणी पूर्णिमा की पूजा आदि करते आए हैं। कोंकण व महाराष्ट्र में नारली पूर्णिमा शब्द का खूब प्रचलन है। प्रकृति एवं पर्यावरण के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का विधान भी है । 


हैदराबाद के निज़ाम द्वारा औरंगज़ेबी फ़रमान जारी कर राज्य में हिन्दू विधि-विधानों (पूजा, यज्ञ, मंदिरों पर झण्डा, यज्ञोपवीत, संस्कार, घंटे-घडि़याल बजाना, कीर्तन, जागरण करना, रामायण, गीता, महाभारत की कथा आदि समस्त कार्यों) पर प्रतिबंध लगा देने के विरोध में वहाँ के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए निज़ाम के विरुद्ध आर्यसमाज ने सत्याग्रह किया था, जिसका संयोजन महात्मा नारायण स्वामी जी ने किया था। आर्यों द्वारा प्रारम्भ किए इस आंदोलन में बलिदान देने के लिए देश भर से आर्यों के जत्थे हैदराबाद पहुँच रहे थे। तब वीर सावरकर भी साथ देने के लिए शोलापुर पहुँचे और कहा 'आर्यसमाज हैदराबाद आन्दोलन में अपने आपको अकेला न समझे'। सावरकर की प्रेरणा पर सनातन धर्मी विचारधारा के भी अनेक व्यक्ति हैदराबाद आन्दोलन में जेल गए और भीषण यातनाएँ सहन कीं। वीर सावरकर ने पुणे जाकर हिन्दू महासभा का विशाल जत्था हैदराबाद भिजवाया। इस प्रकार आर्यसमाज के इस सत्याग्रह आन्दोलन में हिन्दू महासभा ने भी सावरकर की प्रेरणा से पूर्ण सहयोग दिया। 


'हैदराबाद सत्याग्रह स्मारक व्याख्यान-माला' के अनुसार - "खेद है कि गांधीजी एवं अन्य कांग्रेसी नेताओं ने कुसंस्कारों के अनुसार, मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के अनुसार ही आर्य समाज के इस असाम्प्रदायिक आर्य सत्याग्रह को साम्प्रदायिक आर्य सत्याग्रह बताया। इतना ही नहीं, गांधी जी ने अपने ‘हरिजन’ पत्र में इसकी कटु आलोचना की। पूर्व मध्य प्रदेश तथा बरार विधान सभा के अध्यक्ष श्री धनश्याम सिंह जी गुप्त ने गांधी जी को निजाम के अत्याचार तथा नागरिक अधिकारों का विशेषकर धार्मिक अधिकारों का हनन करने का सम्पूर्ण विवरण बताया, तब कहीं गांधी जी ने अपने अधखुले मुंह से इस सत्याग्रह की सफलता के लिए कुछ शब्द कहें। गांधी जी के असहयोग रवैये की देशभर में कटु आलोचना हुई। तब सामाजिक अपयश से बचने के लिए उन्होंने कहा- “धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए चलाए गए आन्दोलन से तो मुझे सहानुभूति है, किन्तु हिन्दू महासभा द्वारा आन्दोलन में कूद पड़ने से यह साम्प्रदायिक हो गया है।" ऐसी कड़वी बात हिन्दू महासभा के तत्कालीन कर्णधार कैसे सहन कर सकते थे ? उन्होंने तत्काल नहला पर दहला मारा। वीर सावरकर तथा डॉ. मुंजे ने गांधी जी के वक्तव्य का उत्तर देते हुए कहा - "गांधीजी बताएँ, कि वन्देमातरम् को सहन न करने वालों, हिन्दी भाषा का विरोध करने वालों एवं स्वाधीनता संग्राम में सहयोग न देने की धमकी देने वालों की चापलूसी करना, उन्हें सिर पर चढ़ाना क्या बड़ा भारी धर्म निष्पक्षता व न्याय है? क्या वह साम्प्रदायिकता का पोषण करना नहीं है?" उल्लेखनीय है कि गांधी जी के इस निराशा भरे वक्तव्य से आर्य सत्याग्रह को और भी बल मिला और उसमें तेजी आ गई।" 

अन्ततः रक्षा बंधन के दिन ही आर्यसमाज को अपने इस सत्याग्रह में विजय मिली और निज़ाम को झुकना पड़ा। 

आज उपाकर्म, वेदपाठ, अपने भाई-बान्धव, रक्षाबन्धन के सुनहले धागे, संस्कृत दिवस के हजारों संस्मरण और महाराष्ट्र खूब याद आ रहे हैं। 


...तो इस इस बार पुनः इस श्रावणी पूर्णमा के दिन अपनी बेटी, अपनी ननद व अपनी ओर से संयुक्त रूप में नारियल के लड्डू व सेवइयाँ बनाऊँगी ताकि बेटी के भाइयों (अपने सुपुत्रों) ननद के भाई (अपने पति) व साथ ही अपने भाइयों को खिला सकूँ। बेटा व उनके पिताश्री को तो अपनी-अपनी बहन की ओर से प्रत्यक्ष खिला दिया जाएगा; रह जाएँगे तो बस मेरा छोटा बेटा और मेरे भाई ! 


सुपुत्र और अपने भाइयों को बार-बार असीसती हुई ढेरों मंगल कामनाएँ भेज रही हूँ। वे जहाँ भी हैं सदा सुखी रहें और अपने मन-वचन या कर्म से कभी किसी स्त्री के सम्मान व सुरक्षा को आघात न पहुँचाएँ। सभी प्रकार का सुख-सौभाग्य उन पर बना रहे। चिरायु-शतायु हों! 

इन आधुनिक माध्यमों से जुड़े अपने भाइयों के लिए भी यही मंगल कामना है। 

सस्नेह ...
क. वा.


मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

स्त्री,विमर्श, समाज और करवाचौथ

स्त्री, विमर्श, समाज और करवाचौथ  : कविता वाचक्नवी


करवाचौथ की परम्परा मेरे ददिहाल व ननिहाल में सदा से रही है और मुझे अपने घर की महिलाओं, ताई, चाचियों, बुआ आदि व मोहल्ले की शेष स्त्रियों/ कामवाली तक को साज-शृंगार में लदे-फदे दिन बिताते देखना सदा से अच्छा लगता रहा है। मुझे करवाचौथ इसलिए भी अच्छा लगता रहा है क्योंकि घरों के कामकाज में आकण्ठ डूबी रहने वाली महिलाएँ इस दिन इन सब से मुक्ति पा जाती हैं और यह दिन पूरा इन्हें समर्पित होता है, सास से उपहार मिलते हैं, सुबह उठकर नितांत अपने लिए कुछ खाती बनाती हैं,  अपने सूखे से सूखे कठोर हाथों तक पर भी शृंगार सजाती हैं। शादी का सहेज कर रखा जोड़ा वर्ष में एक दिन निकाल कर पहनती हैं और स्वयं को दुल्हन के रूप में पा कर जाने कितनी जीवन-ऊर्जा अर्जित कर लेती हैं।


परस्पर मिलती जुलती हैं, हँसती बोलती और हँसी ठिठोली करती हैं। शाम को एकत्र होती हैं, रात को उत्सव मनाती हैं, पति के हाथ से साल में एक दिन गिलास से घूँट भरती हुईं दाम्पत्य- प्रेम के इस प्रदर्शन में सराबोर हो शर्माती-सकुचाती व गद-गद होती हैं, भीतर तक मन खिलखिला उठता है उनका। बाजार व सिनेमाहाल इस दिन महिलाओं की टोलियों से भरे होते हैं .... ! आप उन महिलाओं की प्रसन्नता समझ नहीं सकते जो घर गृहस्थी में जीवन बिताने के बाद भी एक पूरा दिन अपने ऊपर बिताने को स्वतंत्र नहीं हैं ।


मुझे महिलाओं का यह उत्फुल्ल रूप देखना सदा ही मनोहारी लगता रहा है और इसमें किसी बड़े सिद्धान्त की हानि होती नहीं दीखती कि इसका विरोध किया जाए या इस पर नाक-भौंह सिकौड़ी जाए या हल्ला मचाया जाए। 


यद्यपि यह भी सच है कि मैंने अपनी दादी व सास को कभी करवा-चौथ करते नहीं देखा। स्वयं मैंने एक बार शौकिया के अतिरिक्त तीस वर्ष से अधिक की अपनी गृहस्थी में कभी करवा-चौथ आदि जैसा कोई भी व्रत-उपवास कभी नहीं किया। न मैं सिंदूर लगाती हूँ, न बिछिया पहनती हूँ, न मंगलसूत्र, न बिंदिया, न चूड़ी, न कुछ और। हाँ शृंगार के लिए जब चाहती हूँ तो चूड़ी या कंगन या बिंदिया आदि समय-समय पर पहनती रहती हूँ, हटाती रहती हूँ। न मेरी बेटी सुहाग का कोई ऐसा चिह्न पहनती है या ऐसा कोई उपवास आदि करती है जो एकतरफा हो। उसके पति (दामाद जी) व वह, दोनों ही विवाह का एक-एक चिह्न समान रूप से पहनते हैं। इसके बावजूद एक दूसरे के लिए दोनों का बलिदान, त्याग और समर्पण किसी से भी किन्हीं अर्थों में रत्ती भर कम न होगा, अपितु कई गुना अधिक ही है। मेरे दीर्घजीवन की कामना मेरे पिता, भाई, पति, बेटों व बेटी से अधिक बढ़कर किसी ने न की होगी व न मेरे लिए इन से अधिक बढ़कर किसी ने त्याग किए होंगे, बलिदान किए होंगे, समझौते किए होंगे, सहयोग किए होंगे।  दूसरी ओर इनके सुख सौभाग्य की जो व जितनी कामना व यत्न मैंने किए हैं, उनकी कोई सीमा ही नहीं।  


इसलिए प्रत्येक परिवार, दंपत्ति व स्त्री को अपने तईं इतनी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह/वे क्या करें, क्या न करें। जिन्हें करवाचौथ, गणगौर या तीज आदि करना अच्छा लगता है उन्हें अवश्य करना चाहिए। महिलाओं / लड़कियों के हास-परिहास और साज- शृंगार के एकाध उत्सव की इतनी छीछालेदार करने या चीरफाड़ करने की क्या आवश्यकता है ? दूसरी ओर किसी को बाध्य भी नहीं करना चाहिए कि वे/वह ये त्यौहार करें ही। इतनी स्वतन्त्रता व अधिकार तो न्यूनतम प्रत्येक व्यक्ति का होना चाहिए और व्यक्ति के रूप में स्त्री /स्त्रियों का भी। 


मैं अपनी सभी मित्रों, सखियों, स्नेहियों व परिवारों को करवाचौथ के पर्व पर बधाई व शुभकामनाएँ देती हूँ॥ उनका दाम्पत्य-प्रेम अक्षुण्ण हो, स्थायी हो, दो-तरफा हो और सदा बना रहे !

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

पितर, श्राद्ध और विधि

पितर, श्राद्ध और विधि  :   कविता वाचक्नवी


'श्राद्ध' शब्द बना है 'श्रद्धा' से। 'श्रद्धा' शब्द की व्युत्पत्ति 'श्रत्' या 'श्रद्' शब्द से 'अङ्' प्रत्यय की युति होने पर होती है, जिसका अर्थ है- 'आस्तिक बुद्धि। ‘सत्य धीयते यस्याम्’ अर्थात् जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है। 
छान्दोग्योपनिषद् 7/19 व 20 में श्रद्धा की दो प्रमुख विशेषताएँ बताई गई हैं - मनुष्य के हृदय में निष्ठा / आस्तिक बुद्धि जागृत कराना व मनन कराना।


मनुष्य समाज की समस्या यह है कि वह दिनों-दिन विचार और बुद्धि के खेल खेलने में तो निष्णात होता जा रहा है, किन्तु श्रद्धा का अभाव उसके जीवन को दु:ख और पीड़ा से भरने का बड़ा कारक है। विचार के बिना श्रद्धा पंगु है व श्रद्धा तथा भावना के बिना विचार । वह अंध-श्रद्धा हो जाती है क्योंकि विवेक के अभाव में यही पता नहीं कि श्रद्धा किस पर व क्यों लानी है या कि उसका अभिप्राय क्या है। इसीलिए ध्यान देने की आवश्यकता है कि मूलतः श्रद्धा का शाब्दिक अर्थ हृदय में निष्ठा व आस्तिक बुद्धि है..... बुद्धि के साथ श्रद्धा। 


यह तो रही 'श्राद्ध' के अर्थ की बात। पितरों से जोड़ कर इस शब्द की बात करें तो उनके प्रति श्रद्धा, कुल- परिवार व अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, अपनी जातीय-परम्परा के प्रति श्रद्धा, माता-पिता-आचार्यों के प्रति श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर किए जाने वाले कार्यों को 'श्राद्ध' कहा जाता है। यदि हमने अपने घर-परिवार व समाज के जीवित पितरों व माता-पिता के शारीरिक-मानसिक-आत्मिक सुख की भावना से कुछ नहीं किया तो मृतक पितरों के नाम पर भोजन करवाने मात्र से हमारे पितरों की आत्मा शान्ति नहीं पाएगी। न ही पितर केवल भोजन के भूखे होते हैं। वे अपने कुल व सन्तानों में वे मूलभूत आदर्श देखने में अधिक सुख पाते हैं जिसकी कामना कोई भी अपनी सन्तान से करता है । इसलिए यदि हम में वे गुण नहीं हैं व हम अपने जीवित माता-पिता या बुजुर्गों को सुख नहीं दे सकते तो निश्चय जानिए कि तब श्राद्ध के नाम किया जाना वाला सारा कर्मकाण्ड तमाशा-मात्र है। 


संस्कृत न जानने वालों को बता दूँ कि 'पितर' शब्द संस्कृत के 'पितृ' से बना है जो पिता का वाचक है, किन्तु माता व पिता (पेरेंट्स) के लिए संस्कृत में 'पितरौ' शब्द है। इसी से हिन्दी में 'पिता' व जर्मन में 'Vater' (जर्मन में 'V' का उच्चारण 'फ' होने से उच्चारण है 'फाटर' ) शब्द बना है व उसी से अङ्ग्रेज़ी में 'फादर' शब्द बना। संस्कृत में 'पितरौ" क्योंकि माता व पिता (अर्थात् 'पेरेंट्स' ) का वाचक है तो जर्मनी में इसीलिए 'पितर' शब्द के लिए 'Manes' (उच्चारण कुछ-कुछ मानस शब्द जैसा) शब्द कहा जाता है जबकि इसी से अङ्ग्रेज़ी में शब्द बना Manes (उच्चारण मैनेस् )। 'माँ' से इसकी उच्चारण व वर्तनी साम्यता देखी-समझी जा सकती है।


समस्या यह है कि श्राद्ध को लोग कर्मकाण्ड समझते व करते हैं और वैसा कर वे अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जबकि मृतक पितरों के नाम पर पूजा करवा कर यह समझना कि किसी को खाना खिलाने से उन तक पहुँच जाएगा, यह बड़ी भूल है। जीवित पितरों को सुख नहीं दो व मृतक पितरों के नाम पर कर्मकाण्ड करना ही गड़बड़ है। कर्मकाण्ड श्राद्ध नहीं है। कोई भी कर्मकाण्ड मात्र प्रतीक-भर है मूल जीवन में अपनाने योग्य किसी भी संस्कार का। यदि जीवन में उस संस्कार को आचरण में नहीं लाए तो कर्मकाण्ड केवल तमाशा है। घरों परिवारों में बुजुर्ग और बड़े-बूढ़े दु:ख पाते रहें, उनके प्रति श्रद्धा का वातवरण घर में लेशमात्र भी न हो और हम मृतक पितरों को जल चढ़ाते रहें, तर्पण करते रहें या उनके नाम पर श्राद्ध का आयोजन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते रहें, इस से बड़ा क्रूर व हास्यास्पद पाखण्ड और क्या होगा।


वस्तुतः मूल अर्थों में श्राद्ध, श्रावणी उपाकर्म के पश्चात् अपने-अपने कार्यक्षेत्र में लौटते समय वरिष्ठों आदि के अभिनंदन सत्कार के लिए होने वाले आयोजन के निमित्त समाज द्वारा प्रचलित परम्परा थी, जिसका मूल अर्थ व भावना लुप्त होकर यह केवल प्रदर्शन-मात्र रह गई है। मूल अर्थों में यह 'पितृयज्ञ' का वाचक है व उसी भावना से इसका विनियोग समाज ने किया था, इसीलिए इसे पितृपक्ष भी कहा जाता है; किन्तु अब इसे नेष्ट, कणातें, अशुभ, नकारात्मक दिन, शुभकार्य प्रारम्भ करने के लिए अपशकुन आदि मान लिया गया है। हमारे पूर्वजों से जुड़ा कोई दिन अशुभ कैसे हो सकता है, नकारात्मक प्रभाव कैसे दे सकता है, अपशकुन कैसे कर सकता है ? क्या हमारे पूर्वज हमारे लिए अनिष्ट चाह सकते हैं ? क्या किसी के भी पूर्वज उनके लिए अशुभकारी हो सकते हैं? माता-पिता के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य सम्बन्ध केवल और केवल हितकारी व निस्स्वार्थ नहीं होता। सन्तान भी माता-पिता का वैसा हित कदापि नहीं चाह सकती जैसा माता-पिता अपनी संतान के लिए स्वयं हानि, दु:ख व निस्स्वार्थ बलिदान कर लेते हैं, उसे अपने से आगे बढ़ाना चाहते हैं, उसे अपने से अधिक पाता हुआ देखना चाहते हैं और ऐसा होता देख ईर्ष्या नहीं अपितु सुख पाते हैं। ऐसे में 'पितृपक्ष' (पितृयज्ञ की विशेष अवधि) को नकारात्मक प्रभाव देने वाला मानना कितना अनुचित व अतार्किक है। 


आज समाज में सबसे निर्बल व तिरस्कृत कोई हैं, तो वे हैं हमारे बुजुर्ग। वृद्धाश्रमों की बढ़ती कतारों वाला समाज श्राद्ध के नाम पर कर्मकाण्ड कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले तो यह भीषण विडम्बना ही है। यदि हम घर परिवारों में उन्हें उचित आदर-सत्कार, मान-सम्मान व स्नेह के दो बोल भी नहीं दे सकते तो श्राद्ध के नाम पर किया गया हमारा सब कुछ केवल तमाशा व ढोंग है। यों भी वह अतार्किक व श्राद्ध का गलत अभिप्राय लगा कर किया जाने वाला कार्य तो है ही। जब तक इसका सही अर्थ समझ कर इसे सही ढंग से नहीं किया जाएगा तब तक यह करने वाले को कोई फल नहीं दे सकता (यदि आप किसी फल की आशा में इसे करते हैं तो)। वैसे प्रत्येक कर्म अपना फल तो देता ही है और उसे अच्छा किया जाए तो अच्छा फल भी मिलता ही है। 


मृतकों तक कोई सन्देश या किसी का खाया भोजन नहीं पहुँचता और न ही आपके-हमारे दिवंगत पूर्वज मात्र खाने-पीने से संतुष्ट और सुखी हो जाने वाले हैं। भूख देह को लगती है, आत्मा को यह आहार नहीं चाहिए। मृतक पूर्वजों को भोजन पहुँचाने ( जिसकी उन्हें आवश्यकता ही नहीं) से अधिक बढ़कर आवश्यक है कि भूखों को भोजन मिले, अपने जीवित माता पिता व बुजुर्गों को आदर सम्मान से हमारे घरों में स्थान, प्रतिष्ठा व अपनापन मिले, उन्हें कभी कोई दुख सन्ताप हमारे कारण न हो। उनके आशीर्वादों के हम सदा भागी बनें और उनकी सेवा में सुख पाएँ। किसी दिन वृद्धाश्रम में जाकर उन सबको आदर सत्कार पूर्वक अपने हाथ से भोजन करवा उनके साथ समय बिताकर देखिए... कितने आशीष मिलेंगे। परिवार के वरिष्ठों व अपने माता-पिता आदि की सेवा सम्मान में जरा-सा जुट कर देखिए, कैसे घर पर सुख सौभाग्य बरसता है। 


श्राद्ध के माध्यम से मृतकों से तार जोड़ने या आत्माओं से संबंध जोड़ने वाले अज्ञानियों को कौन बताए कि पुनर्जन्म तो होता है, विज्ञान भी मानता है; किन्तु यदि इन्हें आत्मा के स्वरूप और कर्मफल सिद्धान्त का सही-सही पता होता तो ये ऐसी बात नहीं करते। आत्मा का किसी से कोई रिश्ता नहीं होता, न आप हम उसे यहाँ से संचालित कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा अपने देह के माध्यम द्वारा किए कर्मों के अनुसार फल भोगता है और तदनुसार ही अगला जीवन पाता है । आत्मा को 'रिमोट ऑपरेशन' से 'कंट्रोल' करने की उनकी थ्योरी बचकानी, अतार्किक व भारतीय दर्शन तथा वैदिक वाङ्मय के विरुद्ध है।


अभिप्राय यह नहीं कि श्राद्ध गलत है या उसे नहीं करना चाहिए। वस्तुतः तो जीवन ही श्राद्धमय हो जाए तब भी गलत नहीं, अपितु बढ़िया ही है। वस्तुत: इस लेख का मूल अभिप्राय यह है कि श्राद्ध क्या है, क्यों इसका विधान किया गया, इसके करने का अर्थ क्या है, भावना क्या है आदि को जान कर इसे करें। श्राद्ध के नाम पर पाखण्ड व ढकोसला नहीं करें अपितु सच्ची श्रद्धा से कुल- परिवार व अपने पूर्वजों के प्रति, अपनी जातीय-परम्परा के प्रति, माता-पिता-आचार्यों के प्रति, समाज के बुजुर्गों व वृद्धों के प्रति श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर अपने तन, मन, धन से तथा निस्स्वार्थ व कृतज्ञ भाव से जीवन जीना व उनके ऋण को अनुभव करते हुए पितृयज्ञ की भावना बनाए रखना ही सच्चा श्राद्ध है। 




गुरुवार, 15 अगस्त 2013

भारत माता : अभिनय से संस्कार तक






indian_flag.htmlअपने जीवन के प्रारम्भिक दौर में मैंने मंचों पर खूब अभिनय आदि किया है। मेरे द्वारा अभिनीत नाटकों व भूमिकाओं के बाद स्थिति यह होती थी कि महीनों-सालों तक लोगों की भीड़ मुझे दैनिक जीवन में आते-जाते भी मेरी किसी न किसी अभिनीत भूमिका के पात्र के रूप में पहचानती थी और यह भी याद है कि अपने जीवन की अन्तिम अभिनय-भूमिका  मैंने वर्ष 1978 -79 में की थी, जिसके परिणाम स्वरूप मुझे राज्य का 'बेस्ट एक्टिंग अवार्ड' मिला था। यह भूमिका दहेज विरोधी एक नाटक में दुल्हन की थी। इसका श्वेत-श्याम एक चित्र अभी पिताजी की एल्बम में भी पड़ा हुआ है। इस भूमिका के साल भर बाद तक कॉलेज से बाहर आते हुए लोगों की भीड़ रास्ता रोक लिया करती थी और राह चलते लोग उंगली से 'दुल्हन' कह कर इशारा किया करते थे, स्कूल कॉलेज की लड़कियों में तो धक्का मुक्की हो जाया करती थी मुझे आते-जाते आगे बढ़ कर देखने वालों के बीच। उस जमाने व उस उम्र में वैसी लोकप्रियता किन्हीं विरलों को ही मिला करती थी। खैर ! 


यह तो रही अन्तिम भूमिका की बात, किन्तु आज इसका स्मरण इसलिए आया क्योंकि अपने जीवन में प्रथम भूमिका मैंने कक्षा प्रथम से ही निभानी शुरू कर दी थी, जब प्रत्येक वर्ष स्वतन्त्रता दिवस व गणतन्त्र दिवस के अवसर पर हर बार विद्यालय के प्रिंसिपल (उस समय के मेरे हीरो अध्यापक नरेश शर्मा जी) पूरे कार्यक्रम व ध्वजारोहण के समय मुझे "भारत माता" के रूप में ध्वज के पास 2-3 घण्टों के लिए ( हाथ से मुख्य ध्वजा के स्तम्भ को छूते हुए ) खड़ा करवा देते थे, वासन्ती साड़ी व तीन रंगों की कई सारी पुष्पमालाएँ मेरे गले में पहनाई जाती थीं व माथे पर बड़ा-सा टीका किया जाता था। स्कूल की मेरी अध्यापिकाएँ ही मुझे तैयार भी किया करती थीं।  


कार्यक्रम के उपरांत उस सार्वजनिक मैदान में उपस्थित विद्यालय के छात्रों के परिवार वाले व सभी अन्य लोग आ आकर चरण छुआ करते थे। बाँटे जाने वाले लड्डुओं का थाल मेरे आगे एक पटिया पर रखा जाता था, जिसे कार्यक्रम के पश्चात् सभा विसर्जित होने से पूर्व सभी को बाँटा जाता था। किसी विद्यालय का यह ध्वजारोहण कार्यक्रम, उस नगर के उस क्षेत्र का आधिकारिक ध्वजारोहण कार्यक्रम होता था जिसमें दूर दूर के मोहल्ले वाले बड़े-छोटे सभी भाग लेते थे, तम्बू-कनातें लगते थे, छिड़काव होता था, लाऊडस्पीकर पर बहुत भोर से ही ज़ोर ज़ोर से देशभक्ति के गीत बजाए जाने लगते थे और विद्यालय के एक कमरे में सुई की नोक पर बजने वाले रेकॉर्ड लिए लाऊडस्पीकर वालों की तरफ से एक व्यक्ति हर समय डटा रहता अदला-बदली करता रहता था। 


आज स्वतन्त्रता दिवस पर लगभग पैंतालीस-अड़तालीस बरस बाद उन दृश्यों का अनायास स्मरण हो आया है। भारतमाता के प्रति जन-जन की उस आस्था के चलते लोगों ने उस बालक कविता को भारतमाता का प्रतीक मान चरण छू छू कर मन में राष्ट्रीयता व देशभक्ति के प्रथम संस्कार विकसित किए होंगे। आज उनमें से कोई विरला ही उन दृश्यों व घटनाओं को याद करने वाला होगा किन्तु मैं अपने इन शब्दों के माध्यम से उन की उस भावना को प्रणाम निवेदित करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ।


वह बच्ची आज मन में पुनः सिर उठाकर ध्वज थामे उसी ठसक से आ मूर्ति की तरह स्थापित हो गई है। तब भले ही वह अभिनय मात्र था, किन्तु था शुद्ध व सात्विक ! संस्कार ऐसे ही बनते होंगे शायद। आज जब नन्हे नन्हें बच्चों को भौण्डे फिल्मी गीतों पर कूल्हे मटकाते मंचों पर अभिनय करते देखती हूँ तो लगता है कि कैसे यह पीढ़ी देशप्रेमी पीढ़ी में रूपांतरित हो सकती है या संस्कारित हो सकती है भला ! 


पता नहीं, अब भारत में जन जन का सैलाब भारत माता के ऐसे प्रतीकों के प्रति उसी आवेश और उसी निष्ठाभाव से उमड़ता भी है या नहीं ... या वे लोग सच में पूरी तरह कहीं खो गए ....


आज यद्यपि सब ओर इतना कुछ भयावह, दु:खद व कलुषित है कि राष्ट्र की मुक्ति के संघर्ष में जी-जान लागकर उसे अर्जित करने वाले लाखों-लाख बलिदानियों का वह अनुपम त्याग और बदले में देशवासियों को मुक्ति का आकाश देने की भावना का मूल्य तिरोहित हो चुका है। किन्तु मेरे लिए तो स्वातन्त्र्यपर्व और गणतन्त्रदिवस का अर्थ राष्ट्रीयमुक्ति-संघर्ष में स्वेच्छा से प्राण दे देने वाले लक्षाधिक वीरों के ऋण से स्वयं को उऋण न होने देने के स्मरण की वार्षिकी ही होता है। हमारी व हमारी आगामी पीढ़ियों की जिस शुभ-कामना से उन्होंने अपना, अपने परिवारों व अपनी पीढ़ियों का जीवन दाँव पर लगाया, यह राष्ट्र उसका सदा ऋणी रहेगा। इस वातावरण व राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों के पतन के गर्त में देश को देखकर विचार यह भी आता है कि जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा में उन्होंने प्राण दिए उनके पुनर्जागरण  का अंकुर कब व कहाँ पनपेगा .... !यह भी अभी मानो काल के गर्भ ही में है।



भारत माता की भूमिका से शुरू हुआ वह अभिनय तो कब का तभी समाप्त हो गया, किन्तु भारतमाता संस्कार के रूप में मन के भीतर आकर तभी से विराज गई हैं। उन्हें शत-शत वन्दन और उसके अमर बलिदानी सपूतों को भी शत शत वन्दन, अभिनन्दन, प्रणाम !! 




गुरुवार, 1 अगस्त 2013

मॉर्निंग न्यूज़, जयपुर में ललित निबन्ध

मॉर्निंग न्यूज़, जयपुर में ललित निबन्ध


28 जुलाई, 2013 को जयपुर से प्रकाशित दैनिक हिन्दी समाचारपत्र 'मॉर्निंग न्यूज़' के रविवारीय साहित्यिक परिशिष्ट के मुखपृष्ठ (संख्या10) पर प्रकाशित मेरा ललित निबन्ध - "रंगों का पंचांग"


जिन्हें पढ़ने में असुविधा हो वे इस लिंक पर जाकर 28 जुलाई चुन कर उस दिन का ई-पेपर देख सकते हैं । http://www.morningnewsindia.com/epaper/news.php?city=Jaipur


नेट पर इसे अन्यत्र यहाँ पढ़ सकते हैं -



बड़े आकार में पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें -


बुधवार, 5 जून 2013

जब दुल्हन आने पर घर में नाचे मोर

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           (विश्व पर्यावरणदिवस पर विशेष )


राजस्थान, 26 दिसंबर की कड़कड़ाती शीत मेरे विवाह के बाद पहली सुबह थी और लगभग 7 बजे हमें आवाज देकर उठाया गया क्योंकि आँगन में कई सारे मोर-मोरनियाँ आ गए थे। बाद में इन मोरों से ऐसा रिश्ता बना कि मेरे आँगन में 4-5 मोर तक एक साथ नाचा करते थे... जीवन में शायद ही किसी ने इतने रोमांचक अनुभव पाए हों। मेरे परिवार के लोग कहा करते थे कि ब्याह वाले घर बहू आने पर हीजड़े (शब्द के लिए क्षमा) तो घर-घर में नाचते/नचवाते हैं लोग, पर तुम्हारे ब्याह के बाद तो अपने आप ही मोर नाचने आ जाने की गाथा विरल ही के भाग्य में होती है :) । उस पहली मोर-नाच वाली सुबह की एक 'मूवी' भी हमने लगभग 31 वर्ष पहले घर पर तभी बनाई थी। 


घरों में बिस्तर पर कुत्तों और बिल्लियों की कहानी तो बहुतों ने सुनी होगी पर बिस्तर पर मोर की अलबेली गाथा केवल मेरे ही साथ हुई। एक मोर हमारा पालतू ही हो गया था और वह शीत की दुपहरी में आँगन में फोल्डिंग चारपाई बिछा कर धूप सेंकने के लिए मेरे सोए होने पर चारपाई पर चढ़ आता और वहीं अपने पैकेट को खींच कर ला उढ़ेलता दाने खाता या मेरे हाथ से खाता .... । हम लोग नियमित दैनिक अग्निहोत्र करते तो वह नियम से पूरा समय निश्शब्द साथ में वहीं बैठा रहता। मेरे इधर उधर होने पर स्वयं भण्डार में घुस जाता और अपने लिए रखे अनाज के डिब्बे को गिराकर या पैकेट को उढ़ेल कर दाने खाया करता। मैं न दीखती तो घर के सब कमरों को पार करता एक ओर से दूसरी ओर पूरा घर चहलकदमी करते हुए फलाँग आ जाता। घर में चोर घुस आने की आशंका में उसने एक दिन ऐसा कोहराम मचाया कि जब तक मुझे अपने कदमों के पीछे चलाता हुआ लेकर दूसरी ओर दीवार खोदते कर्मचारियों तक नहीं ले गया तब तक डेढ़ घण्टा चीखता रहा। उसके साथ मेरे पचासों चित्र हैं, चारपाई पर, हाथ से खाते हुए, नाचते हुए आदि आदि। वे सब चित्र भारत के सामान में बंद पड़े हैं अन्यथा आज उन्हें अवश्य लगाती। 


राजस्थान छोड़ते समय उसके छूट जाने की पीड़ा से मन बहुत व्यथित था। अपनी गोदावरी बाई को दस-बीस किलो अनाज के पैसे देकर आई थी कि वह रोज नियत समय पर आकर उसे दाना देती रहे। गोदावरी ने कहा कि उसे पहचानेगी कैसी, तो चलते चलते मैंने उस नीलकण्ठ की गर्दन पर सफ़ेद पेंट के कुछ चिह्न बना दिए थे ताकि पहचाना जा सके। वह कैसा विकल हुआ होगा कई दिन तक ! कोई छोटा-मोटा जीव होता तो उसे साथ ही ले आती पर इतने बड़े मोर को छोड़कर ही जाना संभव था। 


बाद में तोता (मधुरम्), खरगोशों का जोड़ा, मछलियाँ और अब हमारी मौलि (बिल्ली) हमारे प्रेम के ऐसे पात्र बने कि इनके स्नेह और लगाव से मन द्रवित हो जाया करता है ... पर मोर के पालतू जो जाने का संस्मरण संसार में शायद ही किसी के पास हो.... मैं इकलौती वैसी भाग्यशाली हूँ । 


विवाह से पूर्व घर में पलती गाय-बछड़ों आदि से चल विवाह के बाद मोरों के साथ शुरू हुई यह जीवनयात्रा आज 'राजहंसों', बतखों, मौलि (हमारी बिल्ली) और जाने कितने पंछियों के सान्निध्य में आ पहुँची है। ये जीव हमारा जीवन कितना स्निग्ध बना डालते हैं... हमारा अस्तित्व इनके सामीप्य में और सँवर उठता है। विश्व पर्यावरण दिवस पर इन अपने चहेतों के लायक सृष्टि बचाई रख पाने की कामना से बड़ी कामना और क्या हो ! 

(हंसों के कई चित्र गत दिनों लगाए थे कुछ और चित्र दो चार दिन में लगाऊँगी। तब तक एक चित्र गोद में सवारी करती मौलि का )
कुछ चित्रों को यहाँ देखा जा सकता है - क्लिक करें यहाँ  / यहाँ

और लोमड़ी के साथ हमारा एक वीडियो भी गत दिनों मैंने साझा किया था -


सोमवार, 10 दिसंबर 2012

क्रिसमस, पुनर्पाठ `चरित्रहीन' और 'बर्फ की चट्टानें'

 क्रिसमस, पुनर्पाठ `चरित्रहीन' और 'बर्फ की चट्टानें'  :  कविता वाचक्नवी
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शरतचंद्र को पढ़ना हर बार अपने को अपनी संवेदना को पुनर्नवा बनाने के कार्य में नियुक्त करने जैसा होता है।


'चरित्रहीन' सबसे पहली बार वर्ष 1976 में पढ़ा था; जब मेरी हिन्दी अध्यापिका 'तारा' ने पुस्तकों के प्रति मेरे अतिरिक्त अनुराग के चलते हमारे हायरसेकेंडरी स्कूल की भरपूर समृद्ध लायब्ररी में मुझे आधिकारिक रूप से विशिष्ट दायित्व की अनुमति (मेरे लिए वह अधिकार था) दिला दी थी।


मैं अपने साथ घर में इस उपन्यास को लेकर आई तो बुआ ने नाम देखकर परिवार के बड़े लोगों से मेरी शिकायत की कि 'चरित्रहीन' जैसे गंदेनामों के 'घटिया नॉवेल' (?) पढ़ने लगी है (पर संयुक्त परिवार की सारी लानत- मलानत, विरोध, प्रतिबंध के बावजूद छिप-छिपा कर यह उपन्यास दो दिन में पूरा पढ़ डाला था) ....... उन्हें नहीं पता था कि मैं विश्व के महान लेखक शरतचन्द्र के शब्दों का पारायण कर रही हूँ.... जिसका जादू एक बार सिर चढ़ जाए तो व्यक्ति बौरा जाता (हिप्नोटाईज़) है। शरतचंद्र ने 'चरित्रहीन' से मुझे पहले पहल जो हिप्नोटाईज़ किया तो आज तक "पुनर्मूषको भव" संभव ही नहीं हो पाया और मूर्च्छा बनी चली आ रही है। 


नशा तारी करने के लिए पुनर्पाठ हेतु इस बार फिर इसे खोजकर कहीं से ले आई हूँ और साथ ही दो और पुस्तकों का प्रबंध किया है।

 क्रिसमस और हिमपात के आयोजनों के बीच इनका साथ अक्षय ऊर्जा का स्रोत बनेगा, भले ही 'बर्फ की चट्टानें' भी साथ रख ली हैं। 




शनिवार, 3 नवंबर 2012

उत्सवों पर एक टीप : कविता वाचक्नवी

उत्सवों पर एक टीप  :  कविता वाचक्नवी


Holi - Dancersमूलतः प्रत्येक देश के सभी उत्सव और त्यौहार तत् तत् स्थानीय प्रकृति और कृषि से प्रारम्भ हुए और उन्हीं से जुड़े हैं। कालांतर में ये सामाजिकता का पर्याय बन गए और समाज के चित्त की अभिव्यक्ति का माध्यम भी। 


समाज के चित्त में पारस्परिकता में आई स्वाभाविक खरोंचों के चलते कुछ और आगे आने पर क्रमश: लोगों ने जैसे जैसे इन्हें विभाजित किया तैसे तैसे इन्हें पूजा-पद्धतियों के नाम पर नियोजित आयोजित करना प्रारम्भ कर लिया और ऐसा करने का फल यह हुआ कि उत्सवों को ही बाँट दिया गया। इसी बँटवारे के बीच कुछ नए उत्सव और त्यौहार भी जोड़ दिए गए ताकि बँटवारे की रेखा स्पष्ट की जा सके या आयोजनों को संख्या  अधिक की जा सके । 


प्रकृति, ऋतुएँ, कृषि और स्थानीयता से मानवमन के विलय की मूल भावना से जुड़ कर प्रारम्भ हुए उत्सवों की संरचना और विधान बदल लिए गए। 


इस से और भी आगे आने पर, अब, उत्सव न तो कृषि आधारित रहे हैं, न सामाजिकता व लोकचित्त की पारस्परिकता और न ही उतना पूजा पद्धति और धर्म (?) के अधिकार में । 


धीरे-धीरे उत्सव अब बाजार की शक्तियों या बाजार की मानसिकता से संचालित व आयोजित होने लगे हैं। मानव-मन की उत्सवप्रियता ने इस सहसंबंध को और बल दिया है पर साथ ही इससे यह भी रेखांकित हुआ है कि मानव-मन और लोकचित्त से धीरे-धीरे जैसे कभी कृषि व पारस्परिकता की भूमिका क्रमश: कम होने लगी थी, उसी प्रकार वर्तमान समय में पंथों व पूजापद्धतियों का अंकुश भी कम होने लगा है.... कम से कम बाजार ने तो उसे पछाड़ ही दिया है। क्योंकि उत्सव अब सीधे-सीधे मनोरंजन पर केन्द्रित होने लगे हैं। 


उत्सवों व त्यौहारों का बाजार से धीरे धीरे अधिकाधिक संचालित होते चले जाने वाला यह परिवर्तन कितना सकारात्मक है अथवा कितना नकारात्मक यह तो नहीं कह सकती किन्तु यह बहुत थोड़े अर्थों में अंतराल को पाटने का काम करता अवश्य दीखता है। पर साथ ही यह कहीं एक नए वर्ग अन्तराल को भी जन्म दे रहा है जो भले धर्म या पूजापद्धति से अलग न हो किन्तु आर्थिक स्तर पर अलग अवश्य होगा / है। धर्म का नाम लेकर बंटे हुए या अर्थ के आधार पर बंटे हुए किसी भी समाज में कोई अंतर नहीं।


किन्हीं अर्थों में ये स्वाभाविक प्रक्रियाएँ प्रतीत होती हैं क्योंकि सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति की क्षमताएँ भिन्न हैं, विशेषताएँ व कमजोरियाँ भी भिन्न हैं, इच्छाएँ व आकांक्षाएँ भी भिन्न। इसी मनोविज्ञान को समझ कर इन सब अंतरालों को पाटने के काम आने वाले उत्सव और त्यौहार कभी समाज ने मूलतः इसी उद्देश्य से प्रारम्भ किए होंगे कि चलो एक समय तो ऐसा हो जब लोग परस्पर मिल कर हँसे और खुशी मनाएँ। इसीलिए जैसे-जैसे स्थानीय ऋतुएँ और प्रकृति तत् तत् स्थानीय समाज को खुले में मिलने जुलने की भरपूर अनुमति नहीं देतीं, उन्हीं दिनों त्यौहार अधिकाधिक आते हैं ताकि उस बहाने पारस्परिकता बनी रहे और मांनवमन का उल्लास व ऊर्जा भी। हमारे मनोभेदों ने उस उल्लास का भी क्या से क्या कर दिया ! 


इस बरस उत्सवों की इस बेला में उल्लास का यह बंटवारा कम से कम करें, यह हमारा उद्देश्य होना चाहिए। तभी आपका और हमारा त्यौहार मानना सार्थक है। स्थानीयता व स्थानीय समाज से कट कर या उन्हें काटकर, त्यौहार मनाना या उनके त्यौहारों से अलग रहना, दोनों सामाजिक अपराध हैं और त्यौहारों की मूल भावना के विरुद्ध भी। ऐसा कदापि न किया जाए। जो-जो जिस भौगोलिक स्थान पर है, वहाँ के स्थानीय समाज को उत्सव में सम्मिलित करें और उनके उत्सवों को स्वयं भी मनाएँ; तभी उत्सव मनाना कुछ अर्थों में सार्थक होगा। धीरे-धीरे समाज से जुड़ने की यह प्रक्रिया जब हमारे मनों के भीतर तक बस जाएगी, उस दिन पूरे अर्थों में सार्थक। 


शनिवार, 21 जुलाई 2012

हिन्दी : सम्मेलन, सार्थकता और औचित्य

हिन्दी : सम्मेलन, सार्थकता और औचित्य 
- कविता वाचक्नवी




सितंबर में होने जा रहे "9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन" की सार्थकता और औचित्य पर उठाए जाते प्रश्नों को पढ़ कर कुछ विचित्र-सा लगा कि मित्र लोग इसके आयोजन को लेकर हिन्दी के भले और बुरे की बात कर रहे हैं....  कि इस से हिन्दी का भला क्या भला होगा। 


किसी भी सम्मेलन से हिन्दी का या किसी और चीज का क्या भला होता है? किसी सम्मेलन आदि से कुछ नहीं। तब भी वे होते आए हैं। फिर हिन्दी के विश्व-सम्मेलन के औचित्य पर ही आपत्ति क्यों की जाए, उसे क्यों संदिग्ध बनाया जाए ?  मेरे जैसे हजारों लाखों लोगों के लिए दुनिया के किसी भी कोने में ऐसे कार्यक्रम का होना एक सात्विक गौरव की अनुभूति-भर है, संवेदना से जुड़ा हुआ। उसे काहे ध्वस्त किया जाए !  

जब देश और दुनिया में इतना कुछ निरर्थक हो रहा है .... तो कम से हिन्दी का नाम इस बहाने विश्वपटल या कुछ समाचारों में आ जाएगा, वहाँ की जनता के लिए एक ज्वलंत विषय के रूप में कौतूहलवश कुछ परिचय और जानने का अवसर देगा, वहाँ बसे हिन्दीभाषियों की आत्मीयता को कुछ विस्तार के अवसर देगा....  आदि-आदि कुछ तो चीजें हैं ही। इस बात पर प्रसन्न और संतुष्ट क्यों न हो लिया जाए ? 

सम्मेलन का इतना सुंदर,सार्थक और सर्जनात्मक `लोगो' चयनित किया गया है कि मैं तो बस मुग्ध हो गई।

 कुछ चीजें कई बार तर्क से परे रख दी जानी अच्छी लगती हैं, उनसे संवेदना जुड़ी होती है, परंपरा और इतिहास जुड़ा होता है;  जो मेरे जैसे अदना-से व्यक्ति को भी आत्मगौरव से भर देता है और इस बहाने कितने लोग बार-बार विश्व हिन्दी सम्मेलनों के इतिहास आदि से परिचित होंगे, यह भी ऐसे दुर्दिनों में कम है क्या ?


  मैं तो भाग न ले सकने की विवशता के बावजूद इस बात पर हर बार आह्लादित होती आई हूँ कि हिन्दी का एक विश्वस्तर का आयोजन कहीं हो रहा है । .... और अपने इस आह्लाद, आत्मगौरव, इतिहास /परंपरा से (भले ही मन ही मन ) जुडने के भाव में निमग्न रहना चाहती हूँ और इस बृहत घटना से आनंदित भी !!   :-)  और आप ? 



मंगलवार, 26 जून 2012

लंदन में आज आकाश से काव्यवर्षा : - (डॉ॰) कविता वाचक्नवी

लंदन में आज आकाश से काव्यवर्षा :   - (डॉ॰) कविता वाचक्नवी



साहित्य को लेकर जितना अराजकता, छल और निकृष्टता का वातावरण हिन्दी में है, वह अनुपमेय है। 


मैं आँख खोलने से लेकर होश सम्हालने व उसके बरसों बाद तक भी साहित्य के प्रति अत्यंत महनीय, पावन व आदरास्पद वातावरण में पली बढ़ी हूँ और तत्कालीन अनेक श्रेष्ठ साहित्यकारों के वात्सल्य की छाया में भी;  अतः साहित्य और रचनाकर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यंत श्रद्धा और सम्मान का संस्कार व भाव मेरे मन का एक स्थाई भाव रहा है। अक्षुण्ण भी। 


किन्तु कुछ वर्ष पूर्व नॉर्वे की अपनी गृहस्थी को ताला लगा कर भारत जाने पर जैसे-जैसे हिन्दी के साहित्यिक/ भाषिक परिदृश्य और इनके तत्कालीन कर्ता-धर्ताओं को निकट से जाना समझा तैसे-तैसे मूर्ति टूटती चली गई और अब तो पूरी की पूरी तहस नहस हो चुकी है जैसे। इतनी अधिक त्रस्त हूँ वातावरण का हाल देख-सुन, समझ कर कि मेरे लिए अपने संस्कारों के भीतर मरते अपने आप को बचाए रखना मुश्किल हो गया है। हरदम इस पीड़ा से त्रस्त हूँ कि क्यों देश, भाषा और नायकों के प्रति श्रद्धा के संस्कार रोपे, पिता जी ने और आचार्यों ने ! हर पल हृदय में जैसे कोई घोंपे हुए भालों को बाहर खींच रहा हो ... ऐसी पीड़ा और त्रास है... जैसे अपना, कुछ बहुत व्यक्तिगत-सा, नष्ट हो रहा है... हो गया है.....! अस्तु। 


इन सब के मध्य कुछ चीजें पलों का नहीं बल्कि दीर्घकालीन सुख दे जाती हैं। आज भी ऐसा ही हुआ। 






आज अभी अभी संवाद आया कि आज ही सायं Southbank Centre (सेंन्ट्रल लंदन) पर 9 बजे Rain of Poems का आयोजन है। वस्तुतः यह आयोजन 26, 27 और 28 जून में से किसी भी एक दिन होना तय था जिस भी दिन मौसम खुला, सूखा व चमकीला रहेगा।  तो वह दिन आज आया है। अतः आज ही यह सम्पन्न होगा।


  कविताओं के  The Poetry Parnassus नामक समारोह  के अंतर्गत जैसे ही सूर्यास्त होगा उसी समय एक हेलिकॉप्टर से विश्व-भर के व अलग अलग भाषाओं के 300 समकालीन कवियों की 100,000 (एक लाख) कविताओं की वर्षा लंदन के जुबली गार्डन में आज दोपहर से इसी प्रयोजन से एकत्रित हो रही भीड़) पर की जाएगी। इस काव्य-वर्षा के साथ इस वर्ष के (The Poetry Parnassus) समारोह का उद्घाटन हो जाएगा। 


 हेलीकॉप्टर से कविताओं की वर्षा का यह क्रम निरंतर आधा घंटा चलेगा। कविताएँ बुकमार्क्स आकृति  के रूप में उन पर अंकित होंगी। लोग लपक लपक कर उन कविताओं को अपने साथ ले जाते हैं, पढ़ते हैं और संग्रहित कर रखते हैं। 


 यू.के.  के  इस सबसे बड़े काव्य-समारोह (The Poetry Parnassus)  का आयोजन लंदन 2012 फ़ेस्टिवल  के आयोजनों की शृंखला में किया जा रहा है। इस (The Poetry Parnassus) समारोह के आगामी दिनों में विश्व की अलग अलग 50 भाषा बोलियों के कवि, कहानीकार, लेखक, वक्ता और लोकगायक  अपनी अपनी रचनाओं का पाठ करेंगे और प्रस्तुतियाँ देंगे। 


एक वेबलिंक के माध्यम से साधारण जनता को अपनी  पसंद के रचनाकर को नामांकित करने का अधिकार दिया गया था। जिसमें जनता ने 6000 लोगों को दुनिया की सभी भाषाओं से चुना व नामांकित किया। 


आगामी कुछ दिनों में ओलंपिक्स के कारण लंदन में जुटने वाले दुनिया-भर के लोगों को सामाजिक दायित्वों व मानवीय संवेदना के प्रति जागरूक रहने की अपनी इच्छा, वरीयता व प्राथमिकता का संदेश देने के लिए इस आयोजन से ओलंपिक्स समारोह शृंखला का  सूत्रपात किया जा रहा है।  आज विश्व-भर के रचनाकार लंदन में एकत्रित हो रहे हैं, हो चुके हैं। 


इस पूरे आयोजन की प्रेरणा ग्रीकस्थित Mount Parnassus से ली गई है। Mount Parnassus को ग्रीक मिथक परंपरा में Home of Muses कहा जाता है जो साहित्य, विज्ञान और कलाओं की देवी मानी जाती हैं।


इस दृश्य का नजारा कुछ यों होगा (बर्लिन आयोजन में Bombing of Poems  नाम से हुए ऐसे ही एक आयोजन की झलक) -       



POETRY PARNASSUS
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List of Poets
Event Tickets




अपडेट 
(27 जून मध्यरात्रि 00.10 बजे )

आज का अद्भुत कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।

विश्व में पाँच स्थानों ( Berlin, Warsaw, Guernica, Dubrovnik, Santiago de Chile) के बाद छठे स्थल के रूप में कुछ घंटे पूर्व यह भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ।

लंदन की Belvedere Road को ट्रैफिक के लिए बंद कर दिया गया था क्योंकि सैकड़ों लोग शेल सेंटर की ओर दौड़ रहे थे ताकि आकाश से उतरती कविताओं को लपक सकें क्योंकि हवा का रुख व गति बदल जाने से कविताएँ वाटरलू स्टेशन की ओर उड़ी जा रही थीं। अभी अभी नई लैंडस्केपिंग के बाद जुबली गार्डन पर आयोजित यह पहला समारोह था।

इस समारोह का एकदम ताज़ा वीडियो देखें -





शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

10वाँ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव : `हिन्दी की वैश्विक भूमिका' - स्मारिका में लेख

10वाँ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव : `हिन्दी की वैश्विक भूमिका' - स्मारिका में लेख 

राष्ट्रीय लिपि देवनागरी : कविता वाचक्नवी



गत माह दिल्ली में प्रवासी दुनिया, अक्षरम, हंसराज कॉलेज-दिल्ली विश्वविद्यालय, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् विष्णु प्रभाकर जन्मशताब्दी समारोह समिति के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित `10वाँ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव' 10 से 12 जनवरी को सम्पन्न हुआ। 


गत वर्षों से उत्सव अपने महत्वपूर्ण व सार्थक आयोजनों के चलते अपनी एक महत्वपूर्ण व विशिष्ट पहचान बना चुका है। 8वें अंतराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव में 6 व 7 फरवरी 2010 को मैं स्वयं इसमें भागीदार रहकर इसका साक्षात् अनुभव कर चुकी हूँ। 


इस वर्ष के आयोजन का विषय था "हिन्दी की वैश्विक भूमिका"। इस विषय पर केन्द्रित एक स्मारिका भी प्रतिवर्ष की भांति प्रकाशित की गई। 


इस स्मारिका में मेरा भी एक लेख "राष्ट्रीय लिपि : देवनागरी" संकलित है, जिसे आप यहाँ देख सकते हैं। यह लेख मैंने मूलतः वर्ष 1999 ई. में लिखा था। 

पूरी स्मारिका  यहाँ देखें 





गुरुवार, 5 जनवरी 2012

"स्‍त्री होकर सवाल करती है....!" : "कविता समय"

"स्‍त्री होकर सवाल करती है....!"


यदि आप जयपुर में हैं तो अवश्य सम्मिलित हों .....

आप सादर आमंत्रित हैं ...............................


"स्‍त्री होकर सवाल करती है....!"
(127 रचनाकारों की स्‍त्री विषयक कविताओं का संग्रह)


प्रकाशक - बोधि प्रकाशन (जिन्होंने प्रत्येक पुस्तक का दाम 100/- मात्र की अपनी प्रतिबद्धता के कारण नया कीर्तिमान स्थापित कर एक नई परंपरा को जन्म दिया व हिन्दी पुस्तकों के क्षेत्र में नई क्रान्ति के बीज रोप कर सर्वत्र ख्याति पाई है )

संपादक - डॉ लक्ष्‍मी शर्मा

पेपरबैक/प्रथम संस्‍करण - जनवरी 2012

पृष्‍ठ  - 384

मूल्‍य - 100 रुपये मात्र

लोकार्पण  - दिनांक 8 जनवरी 2012, रविवार, सुबह 11.45, ''कविता समय'' कार्यक्रम के कविता पाठ सत्र में

स्‍थान: राजस्‍थान हिन्‍दी ग्रंथ अकादमी, झालाना सांस्‍थानिक क्षेत्र, जयपुर

मुझे हर्ष है कि मेरी कविताएँ भी इस संकलन में सम्मिलित हैं।


384 पृष्ठ की इस पुस्तक का मूल्‍य 100 रुपये मात्र है (डाक से मँगाने पर पैकेजिंग एवं रजिस्‍टर्ड बुकपोस्‍ट के 50 रुपये अतिरिक्‍त)।

 इसे Bodhi Prakashan ने प्रकाशित किया है। 

उनके "बोधि प्रकाशन, एफ 77, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर 302006 राजस्‍थान। संपर्क दूरभाष : 099503 30101, 08290034632 (अशोक) " के पते से इसे क्रय किया जा सकता है। 

जो भी मित्र इस पुस्तक की समीक्षा/ पुस्तक चर्चा / रिव्यू इत्यादि लिखें, उनसे निवेदन है कि कृपया उसे Maya Mrig जी, बोधि प्रकाशन तथा मुझसे + अन्य सम्मिलित लेखकों से अवश्य बाँटें/ सूचित करें।

कविता समय कार्यक्रम की अद्यतन जानकारियों के लिए देखें -  यह लिंक 




रविवार, 23 अक्टूबर 2011

दीपपर्व अति मंगलमय हो !

दीपपर्व अति मंगलमय हो !


दीपपर्व अति मंगलमय हो !

" असतो मा सद् गमय 
   तमसो मा ज्योतिर्गमय 
      मृत्योर्मा अमृतम् गमय "







सोमवार, 13 अप्रैल 2009

वैशाखी : यमुना और बच्चे



वैशाखी, यमुना और बच्चे
डॉ. कविता वाचक्नवी



गर्मी अभी जलाने वाली नहीं हुई थी। आँगन में सोना शुरू हो चुका था। आँगन इतना बड़ा कि आज के अच्छे समृद्ध घर के दस-ग्यारह कमरे उसमें समा जाएँ। एक ओर छोटी-सी बगीची थी। बगीची के आगे आँगन और बगीची की सीमारेखा तय करती, तीन अँगुल चौड़ी और आधा बालिश्त गहरी, एक खुली नाली थी, जिसे महरी सींक के झाड़ू से,  आदि से अंत तक एक ही `स्ट्रोक'  में साफ़ करती आँगन की दो दिशाएँ नाप जाती थी। नीचे हरी-हरी काई की कोमलता, ऊपर से बहता साफ़ पानी....। मैं कल्पना किया करती कि चींटियों के लिए तो यह एक नदी होगा....| ....और मैं चींटी बन जाती अपनी कल्पना में। फिर उस नन्हें आकार की तुलना में इस तीन अंगुल चौड़ी नाली के बड़प्पन की गंभीरता में, एक फ़रलाँग की दूरी पर बहती यमुना याद आती। ....याद  आता उसके पुल पर खड़े होकर नीचे गर्जन-तर्जन, भँवर, पुल के खंभों का दोनों दिशाओं में काफी बाहर की ओर निकला भाग, उनसे टकराती, बँटकर बहती धाराएँ। पुल पर खड़े-खड़े मैं इतना डूब जाती थी कि लगता पुल बह रहा है और मैं निरंतर आगे-आगे बहे जा रही हूँ......जंगला थामे खड़ी।


आज भी डर लगता है। मैं जिसे भी यह समझाने की कोशिश करती, सब हँसते। इसीलिए जब कभी वहाँ से गुज़रती, एकदम बीचोंबीच होकर। पुल के किनारों की ओर चलने में मुझे हर समय भय लगता। आज भी वैसा ही है। सड़क के बीच `डिवाईडर' पर खड़े होकर `ट्रैफिक' रुकने की प्रतीक्षा करनी पड़े तो चक्कर आ जाता है....गिर ही जाऊँ, ... इसलिए उस से सटकर नीचे सड़क पर ही खड़े होना बेहतर लगता है।


नाली को नदी और स्वयं को चींटी बनाकर जाने कितनी बार मैंने नाली सूखने की प्रतीक्षा की होगी। .... और यह वह ऋतु थी, जब दोपहर दो बजे तक के रसोई के कामकाज निपटने के बाद पाँच बजे तक नाली आराम करती-करती ऐंठना शुरू हो जाती। अप्रैल से ज्यों-ज्यों धूप बढ़ने के दिन आने लगते, दोपहर बाद ही से नाली का हरित-सौंदर्य बुढ़ापे की खाल-सा सूखा व बेजान होकर दीवारों से अंदर की ओर मुड़ने लगता। पपड़ियाँ बनकर तुड़ते-मुड़ते मुझे विचलित करता रहता। उधर मुझे पानी के नीचे काई के लंबे-लंबे हरे तंतु कोमलता से बहते ऐसे लगा करते थे, जैसे नदी की धार के विपरीत मुँह करके सिर का पिछला भाग पानी में ढीला छोड़ देने पर लंबे-लंबे बाल सुलझे-से होकर धार में लहराते-तिरते हैं। पर अप्रैल आते-आते नाली कुरूप हो जाती।



नदी और नाली! कोई संयोग नहीं। कोई मेल नहीं। बिल्कुल ही बेमतलब बात हो गई।



होली में नाली रंग-बिरंगी हो जाती, उस पर स्वच्छ पानी बहता तो उसमें होली के छींटें देख मुझे हरी घास पर गिरे, बिखरे फूलों की रंगीन पाँखुरियाँ याद आतीं।


.......पर आज यह सब क्यों याद आ रहा है?



तो यों होली व बैसाखी आकर नाली के रंग-ढंग बदल जातीं। जब कभी घर में पुताई होती, नाली उसमें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती, बिना हील-हुज्जत के।


इस नाली को नदी का रूप तब और भी मिलता, जब आती वैसाखी। हमारे यमुना की रेत में पगे कपड़े पछारकर, पानी सारी रेत नाली के छोर पर छोड़ देता; तो और भी असली रूप लगता उसका। किताबों में `डेल्टा' पढ़ा-ही-पढ़ा होगा उन दिनों, क्योंकि `डेल्टा'  का रूप भी मैंने नाली के उल्टे बहाव की कल्पना करके वहीं समझने की कोशिशें की थीं -  हमारे बीस लोगों के परिवार के कपड़ों की रेत खाई बैसाखी की दुपहरी की नाली में।



आज फिर बैसाखी है। पर वे दिन अतीत बन गए हैं। 


`केबल' का एक चैनल दरबार-साहब'  (स्वर्ण-मंदिर) से गुरुबाणी का सीधा प्रसारण फ़ेंक रहा है। मन में बैसाखी उमगती ही नहीं अब। उमगती हैं -  केवल यादें, ... जिनसे जोड़-जोड़ कर मैं आज के बच्चों के लिए पश्चाताप से उमड़ती-तड़पती रहती हूँ। कितनी चीज़ों से वंचित हैं ये। न ये खुली नाली वाले आँगन जानते हैं, न छतों पर सोना, न आँगन में देर रात तक चारपाइयाँ सटाए खुसर-पुसर बतियाना, न गर्मी में बान की चारपाई पर केवल गीली चादर बिछा कर सोने का मज़ा,  न सत्तू का स्वाद,  न कच्ची लस्सी,  न कड़े के गिलास, न चूल्हे की लकड़ियों के अंगार पर फुलाई गरमागरम पतली छोटी चपातियाँ, न भूसी में लिपटी बर्फ़ की सिल्ली से तुड़वाकर झोले में टपकाते लाई बर्फ़, जिसे झोले सहित गालों से छुआया जा सकता है ... और ज़्यादा ही शैतानी की नौबत आ जाए तो चुपके से, घर पहुँचने से पहले,  चूसा भी जा सकता है, न गर्मियों में सूर्यास्त के बाद ईंटों-जड़े आँगन में बाल्टियों से पानी फेंकना, ताकि खाना खाने और सोने के लिए आँगन में चारपाइयाँ डाली जाने से पूर्व `हवाड़' निकल जाए और ठंडा हो जाए,  न इस प्रक्रिया में जहाँ-तहाँ खड़े होकर अपने ऊपर  बाल्टी भर-भर पानी उड़ेलने, भीगने व भागने की आज़ादी का रोमांच व मज़ा।


ये तो बंद बाथरूम में नहाते हैं-  शयनकक्ष के भी भीतर।


कभी-कभी मौका लगता तो ४०-४५ फुट लंबे चिकने बरामदे में खूब पानी फैलाकर फिसला-फिसली का खेल या `खुरे' की नाली में कपड़ा ठूँस कर डेढ़ बालिश्त गहरी तलैया का मज़ा, जिसमें एक-दूसरों पर खूब पानी फेंकने, धक्का-मुक्की करने और हाथों की छपाकियों से पानी उड़ाने......हो-हल्ला करने से बाज़ नहीं आते थे हम।


मैं अपने बच्चों के लिए कलपती हूँ कि कितना कुछ नहीं देखा इन्होंने। हमारा बचपन भी इन बच्चों की विरासत में न आया।



 इन सारी कारगुज़ारियों में हैंडपंप और टोंटी, दोनों ही पानी का अवदान देते न अघाते। दोनों `खुरे' के भीतर मुख किए आमने-सामने डटे थे। इतना सब होते-हवाते `हैंडपंप' का पानी इतना ठंडा हो जाता कि एक गिलास पीने में दाँत `ठिर' (ठिठुर) जाते। आज `बोर-वेल' के पानी के `टैस्ट'  करवाने के बावजूद हाथ के नल्के की गुंजाइश नहीं मिलती, मोटर से चलाते हैं और पीने में घबराते हैं।



हमारे लिए वैसाखी कमरों से शाम की मुक्ति के पर्व मनाने आती थी। दादी जी,  जिन्हें हम `भाब्बी जी' कहकर बुलाते थे, पिछली ही रात ताकीद कर देतीं, " कुड़ियों! जे सवेरे जमना जी जाणा होए ते रातीं छेत्ती सो जाणा,  गल्लां नाँ करदियाँ रहणा। छड्ड जाणै नईं ते आप्पाँ.... जे नाँ उठ्ठियाँ ते"। ( अर्थात- " लड़कियो! यदि सुबह  यमुना जी जाना हो तो सुबह जल्दी उठ जाना,  न उठीं तो हम घर में ही छोड़ जाएँगे)|  दादी जी दुल्हन बनकर नन्हीं-सी बालिका के रूप में ही इस घर आई थीं। परिवार की सबसे बड़ी वधू। सास थी नहीं। तीन-तीन गबरू-गँवार और पेंडू देवर! पहला संबोधन इस खानदान में आते ही दादी को `भाब्बी'  का मिला। उन्हीं की देखा-देखी अपने बच्चे भी `भाब्बी' कहते। हमें झाई जी ने "भाब्बी जी" कहना जीभ पर चढ़वाया|



सुवख्ते मुँह-अंधेरे उठ जाती थीं भाब्बी जी, वड्ढे झाई जी, विजय,  दीदी (बुआ) , पम्मी, चाची जी, मैं,  कद्दू (छोटे भाई का प्यार का नाम),  और चाचा लोग। हालाँकि बिस्तर से उठने की ज़रा इच्छा नहीं होती थी। हम हर बार कहते - "असीं नईं जाणाँ" (हमें नहीं जाना)। दीदी कहतीं  - " फ़ेर रोवोगियाँ..."  (बाद में रोती रह जाओगी) .... और अपनी पतली-पतली नाज़ुक उँगलियों वाले नन्हें-नन्हें हाथों से हमें गुदगुदी करके उठा देतीं। झोलों में पिछली रात ही कपड़े वगैरह भर लिए जाते थे। हम तीनों बच्चे अधमुँदी आँखों से खीझे-खीझे नाक और गालों को ऊपर चढ़ाए ऊँह-ऊँह,  डुस-डुस करते,  हाथ पकड़े हुए, लगभग लाद-लूदकर ले जाए जाते।




 तारे अभी आकाश में होते थे। हम में से कोई पूछता - "जमना किन्नी दूर हैगी अजे" (यमुना अभी कितनी दूर और है)। भाब्बी जी डपटतीं-   "सौ वारी सखाया ए, जमना ‘जी’ आक्खी दै। चज्ज नल नाँ वी लित्ता नईं जांद्दा, ते चल्ले ने वसाखी न्हाणं" (सौ बार सिखाया है,  जमुना ‘जी’ कहते हैं,  ठीक से नाम भी नहीं लिया जाता और चले हैं वैसाखी नहाने)।




 वहाँ पहुँच डुबकियाँ लगाती भीड़, दूर दूसरी ओर नहाते पुरुष, महिलाओं-बच्चों का शोरगुल... सारी नींद उड़ा देता। धीरे-धीरे,  सहमते-सहमते हाथ पकड़कर `जमना जी'  में उतरना, पैर रखते ही रेत का दरक जाना, या पैर का धीरे-धीरे और-और अंदर गड़ना,  डराने के लिए काफी होता। ठंडा पानी छू-छू कर हमारे दुस्साहस को उकसाता। हमें तो कपड़े पहने ही पानी में उतरना होता था। ब्याहता स्त्रियाँ कंधों के नीचे बगलों में पेटीकोट बाँध लेतीं। ढँकने योग्य भाग ढँक जाता, लगभग घुटनों तक का। हम सभी घेरा बनाकर एक-दूसरे के हाथ पकड़ लेते। एक साथ पानी के भीतर जाते एक साथ उठ खड़े होते। कूल्हों तक के पानी में उतरना निरापद माना जाता था। वैसे आसपास भीड़ के कारण यों भी डर कम रहता। इतने पानी के माप में पहुँचना यानि यमुना के मध्य भाग के एक ओर का तीसरा भाग। हम लोग, यानि बच्चे, तो फिर पानी से निकलने का नाम ही नहीं लेते थे। पौ फटने को होती तो सब लोग जल्दी मचाते और हम बच्चों में से कोई तर्क देता कि अभी तो उँगलियाँ भी बूढ़ी नहीं हुई हैं। पेल-पाल कर हमें निकाला जाता। घर से फर्लांग-भर ही दूरी थी, अतः हमें वहाँ खुले में कपड़े नहीं बदलने दिए जाते थे| हम चाहते भी यही थे। उन्हीं भीगे टपकते कपड़ों में चमकीली, हल्के हरे-नीले रंग की रेत आँज कर, रेत सनी चप्पलें पहने घर लौटते।



वैसाखी के सारे आयोजनों में इतना-भर मतलब का लगता। बाकी दिन क्या पका, क्या हुआ, वह कुछ भी नहीं लगता। या याद हैं तो "जट्टा आई वसाखी"  का गीत और पंजाबी भंगडे-गिद्दे, `वारणे'  के छोटे-छोटे फ्लैश।



अब घर जाते हुए दिल्ली में बस की खिड़की से झाँकने पर यमुना का पराई-सी लगना तो दूर,  `यमुना रही ही नहीं'  दीखती है। नीचे नदी में किसी खड्डे में मैले पानी का ज़रा-सा जमाव है बस। यमुना का अपना पानी कहीं नहीं सूझता है। नगर के लिए वह `सीवर-लाइन'  फेंकने का गड्ढा-भर है। अभी कुछ साल पहले दिल्ली में एक स्कूल-बस के यमुना में गिरने से बच्चों की मौत का भयानक समाचार कई दिन की दहशत भर गया था। देश में यमुना से इतनी दूर के हिस्से में बैठे, न अपनी स्मृतियों की यमुना से यह मेल खाया, न दुर्घटना से पहले देखी यमुना के उस रूप से, जिसमें पानी नदारद था और ट्रकों से रेत लादने के लिए उन्हें सूखी नदी में उतारा गया था।



वैसाखी अब फिर आई है। मुझे अपने पैतृक नगर अमृतसर के सरोवर और जलियाँवाला बाग़ के लाश-भरे कुएँ के साथ-साथ अपनी यमुना की यादें ही आती हैं।


..... और लो, इन्हीं के सहारे वैसाखी बीत भी गई है।



यमुना का एक रूप टोकरी में कृष्ण के साथ जुड़ा है..... बालक कृष्ण को बचाने वाली यमुना।
रंग-स्थली यमुना का एक दूसरा रूप है, `
निराला'  की `यमुना के प्रति'  की यमुना का भी एक अपना रूप है
और एक रूप मेरी यादों में बसी यमुना का है।

पर मेरे बच्चों के पास यमुना की कोई याद नहीं।

 इनमें से कोई कान्हा के गीतों वाली यमुना को कैसे तलाशे?
 कैसे लिखेगा कोई ‘यमुना के प्रति’ ?


 वैसाखी की असली संजोने लायक स्मृतियाँ बनी ही नहीं इनकी। हाँ! इस युग में स्कूल-बस यमुना में गिरने से पूरी बस के बच्चे मारे अवश्य गए थे -  इतना तो अख़बार और इतिहास याद रखेंगे।




मैं नहीं जानती मरा कौन है। 
क्या यमुना? 
 क्या बच्चे? 
 क्या स्मृतियाँ? 
 क्या भविष्य?
 या बचपन?




 स्मृतिविहीन भविष्य के लिए कौन कान्हा गुँजा सकता है बंसी की धुन?  या कैसे बजेंगी झाँझरें रुनझुन?


 हमारी पाँचवी कक्षा की पाठ्य.पुस्तक वाली वह कविता तो पच्चीस वर्ष पहले से ही हटा दी गई है।


 सुनाऊँ?


" यह  कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
  मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे- धीरे


 ले देती यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली,
 किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली......"




....  औरों को भी याद आती होगी ना शायद ........!!


१३ अप्रैल २०००





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