`प्रेम' और `तटस्थ' : `समकालीन भारतीय साहित्य' में
- कविता वाचक्नवी
साहित्य अकादमी, (३५,रवींद्र भवन, नई दिल्ली) की प्रतिष्ठित द्वैमासिक हिन्दी पत्रिका `समकालीन भारतीय साहित्य' के नववर्षांक (जनवरी-फरवरी २००९ ) के हिन्दी कविता स्तम्भ में मेरी २ कविताएँ ( `प्रेम' तथा `तटस्थ') प्रकाशित हुई हैं। अंक तो यद्यपि काफी पहले ही आ गया था, किंतु ऐसा सूझा ही नहीं कि उन्हें अपने नेट के मित्रों से बाँटा जाए। इसका मूल कारण अपने लिखे को संकोचवश प्रसारित प्रचारित न करने की वृत्ति का रहा। आत्मश्लाघा जैसा लगता है। अब कुछ सहृदय मित्रों की इच्छा का मान रखते हुए ( विशेषत: अनूप भार्गव जी के पत्र ) इन्हें नेट पर प्रस्तुत करने का मन बनाया है|
तो इन दोनों को अविकल प्रस्तुत कर रही हूँ।
----प्रेम----
तो इन दोनों को अविकल प्रस्तुत कर रही हूँ।
----प्रेम----
****************
बात दरअसल इतनी -सी है
कि बच्चे हो गए हैं बड़े
आँगन में सूखे पत्ते बुहारती
माँ की कमर
अब कभी सीधी नहीं होती
झल्लाती है पत्तों पर
कुछ कम गिरा करें वे
अपने न रहने पर
दरवाजे के आगे जमे ढेर में
एकाकी भविष्य वाले
पिता की लाचारी पर
गुपचुप आँख पोंछती है
कि पानी दूर से लाएगा कौन?
अपने रहते सहेजी चीजें
सही हाथों तक
बाँट दी हैं उसने
पोती के पदवीदान का चित्र
लोहे के संदूक से निकाल
देखते
नहीं भरता जी
भरती हैं आँखें।
घुटनों के विश्वासघात से बेहाल
बूढ़ा पिता
खाँसता है लगातार,
धर्मकाँटे पर
रातपाली और बुढ़िया की चिंता करता
कमा लाता है कुछ सौ रुपये
माँ की हथेली
खुली रह जाए
उस से पहले तक सौंपने के लिए
कहीं बच्चों के न पूछने की चोट में
उदास न हो जाए माँ |
*******************************
----तटस्थ----
- कविता वाचक्नवी
***************
बर्फ की आँधी बार- बार आती है
दरककर लुढ़कते उड़ने लगते हैं पहाड़
ढलान पर
सफेदी में खड़े जंगलों से मिल
जमे बर्फीले पत्त्थर
कूद जाते हैं खाईयों में
सूखने लगते हैं रक्त के उबाल
ऊँचाई छूने को उठा कोई हाथ
लुढ़क कर लगातार फिसल जाए
दिग्भ्रम बवंडर की उठान में,
कुछ सामान
अकड़ी हड्डियों वाली ऐंठी देह
जीवाश्म होती रहे निरंतर,
संसार सारे कोहराम के बीच भी
सो लेता है आराम से
क्योंकि उसकी देहरी तक
पहुँचते नहीं तूफ़ान
और घर में
उजाला, आग और रोटी
भरपूर हैं अभी ।
*************
(पृष्ठ ३४-३५, वर्ष २९,अंक १४१, जनवरी-फरवरी २००९, समकालीन भारतीय साहित्य (साहित्य अकादमी की द्वैमासिक पत्रिका), सम्पादकमंडल : सुनील गंगोपाध्याय, सुतिंदर सिंह नूर, ए. कृष्णमूर्ति।
सम्पादक : ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
बात दरअसल इतनी -सी है
कि बच्चे हो गए हैं बड़े
आँगन में सूखे पत्ते बुहारती
माँ की कमर
अब कभी सीधी नहीं होती
झल्लाती है पत्तों पर
कुछ कम गिरा करें वे
अपने न रहने पर
दरवाजे के आगे जमे ढेर में
एकाकी भविष्य वाले
पिता की लाचारी पर
गुपचुप आँख पोंछती है
कि पानी दूर से लाएगा कौन?
अपने रहते सहेजी चीजें
सही हाथों तक
बाँट दी हैं उसने
पोती के पदवीदान का चित्र
लोहे के संदूक से निकाल
देखते
नहीं भरता जी
भरती हैं आँखें।
घुटनों के विश्वासघात से बेहाल
बूढ़ा पिता
खाँसता है लगातार,
धर्मकाँटे पर
रातपाली और बुढ़िया की चिंता करता
कमा लाता है कुछ सौ रुपये
माँ की हथेली
खुली रह जाए
उस से पहले तक सौंपने के लिए
कहीं बच्चों के न पूछने की चोट में
उदास न हो जाए माँ |
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----तटस्थ----
- कविता वाचक्नवी
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बर्फ की आँधी बार- बार आती है
दरककर लुढ़कते उड़ने लगते हैं पहाड़
ढलान पर
सफेदी में खड़े जंगलों से मिल
जमे बर्फीले पत्त्थर
कूद जाते हैं खाईयों में
सूखने लगते हैं रक्त के उबाल
ऊँचाई छूने को उठा कोई हाथ
लुढ़क कर लगातार फिसल जाए
दिग्भ्रम बवंडर की उठान में,
कुछ सामान
अकड़ी हड्डियों वाली ऐंठी देह
जीवाश्म होती रहे निरंतर,
संसार सारे कोहराम के बीच भी
सो लेता है आराम से
क्योंकि उसकी देहरी तक
पहुँचते नहीं तूफ़ान
और घर में
उजाला, आग और रोटी
भरपूर हैं अभी ।
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(पृष्ठ ३४-३५, वर्ष २९,अंक १४१, जनवरी-फरवरी २००९, समकालीन भारतीय साहित्य (साहित्य अकादमी की द्वैमासिक पत्रिका), सम्पादकमंडल : सुनील गंगोपाध्याय, सुतिंदर सिंह नूर, ए. कृष्णमूर्ति।
सम्पादक : ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
आपकी दोनों रचनाये बेहद अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचनाएँ दोनों ही ॥
जवाब देंहटाएंतस्वीर देख कर भरता नहीं है दिल भरती हैं आँखें ॥
बहुत सुंदर ...
शुभकामनायें ...
कविता जी, आप की दोनो कविताएँ बहुत अच्छी लगीं. दोनों मे दो सत्य बहुत प्रभावकारी ढंग उद्घाटित/अभिव्यक्त हुए हैं. एक करूणार्द करता है और दूसरा सुरक्षा कवच में बैठे लोगों के लबादों हटाता है. बहुत-बहुत बधाई और कविताएँ उपलब्ध करवाने के लिये धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंaapki dono rachnaen sunder bhaw liye behad khoobsurat hai,bahoot bahoot badhai ho geete ji
जवाब देंहटाएं@Amar Tak जी, आपको रचनाएँ अच्छी लगीं, अत्यंत आभार।
जवाब देंहटाएंगीते जी सम्बोधन संभवतः आपने असावधानी से लिखा गया है। वस्तुतः संयोग से यह मेरा ब्लॉग है व रचनाएँ भी। :) शशिकांत गीते जी, अनुपम त्रिपाठी जी व महेंद्र मिश्र जी ! आप सभी का हार्दिक धन्यवाद।
प्रेम आपकी बहुत तथ्यपरक और समसामयिक रचना है।
जवाब देंहटाएंएक अच्छी रचना पढ़वाने का आपने जो रचनात्मक सुख उपलब्ध कराया है उसके लिए आपको धन्यवाद कहने का मन हो ही गया।
Kavita ji maine apki kavita padha jo diwas mere jehan me aaj tak nahi tha use aapne kavita se yad dilaya
जवाब देंहटाएंvastivikta ka parichay deti kavita ,mn kai bhavo ko vakyat karti yaha kavita,bhumulaya kerti hai-dhayavad.
जवाब देंहटाएं...दोनों कविताएँ बहुत सुन्दर है!...भावविभोर कर देती है!
जवाब देंहटाएंAapne 'Prem' Kavita mein budhaape ki bebasi ko dil chhu lene wale andaaz mein pesh kiya hai........ Bahut Khoob DrKavita ji
जवाब देंहटाएंKavitaji,
जवाब देंहटाएंrachnayen to sach me bahut achchhi hain.....bachchon ka to pata nahi budha budhi ke liye bahut sochta aur karne ki kosish karta hai .........bujurg divas per sachhe bujurg sathi ko salaam........antim lines padhkar aisa laga
Ashutosh Shukla जी,
जवाब देंहटाएंआपने सही समझा। इसीलिए रचना का शीर्षक प्रेम दिया गया है। बुढ़ापे का प्रेम ऐसा ही होता है... यौवन के प्रेम से नितांत भिन्न...वस्तुतः वही सच्चा प्रेम है।
lovely & nice
जवाब देंहटाएंBahut hi marmik kavita hai aur sach bhi ......kaise likh leti hain aap .......kaise padh letin hain hridaya ki...
जवाब देंहटाएंkaise itna sundar likh pati hain hridaya ki vani ko shabd de pati hain ....Bahut bhavuk ho gayi main to ....BADHAII
Rajrani Sharma जी,
जवाब देंहटाएंएक दिन मुझे भारत में एक प्रोफेसर मित्र का कॉल आया जो विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष हैं व प्रतिष्ठित साहित्यकार भी। उन्होने कहा कि मैं अभी तुरंत विभाग में उनके कार्यालय में आ जाऊँ। मैं बात समझ नहीं पाई। तब पता चला कि उनके विभाग में नगर के दूसरे विश्वविद्यालय के एक अन्य प्रोफेसर आए हुए थे ( वे भी अपने हिन्दीविभाग के अध्यक्ष हैं)। उन दूसरे सज्जन ने वहाँ रखा उक्त पत्रिका का अंक खोला व मेरी यह कविता `प्रेम' पढ़ी और वास्तव में फूट फूट कर वहीं विभाग के कार्यालय में उनके सम्मुख रोने लगे। उन्हें थोड़ा सम्हालने की दृष्टि से मुझे फोन मिलाया गया ताकि वे इस कविता पर कुछ कहकर अपना मन हल्का कर सकें। मुझ से फोन पर भी वे लगातार सुबकते रोते रहे... मेरे लिए यह कल्पनातीत अनुभव था। आज बरबस याद हो आया।
आदरणीया डा० कविता जी , सादर नमस्ते । परिवार के लिए कुशल और मंगल कामनाएँ । मैं आप सहित पूरे परिवार की दीर्घायु , स्वस्थ जीवन , उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ । आप के निर्देशानुसार आप की कविताएँ "प्रेम" और "तटस्थ" को ध्यान से पढ़ा और आंतरिक आशीर्वाद प्रकट हुआ । भविष्य में आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा । मैं अभी कम्प्यूटर में सक्षम नहीं हूँ , कोई कमी रह जाये तो क्षमाप्रार्थी हूँ । मेरी शुभ कामना स्वीकार करना। आपका सुहृदयी फेसबुक मित्र =हरिचन्दस्नेही,2190 सेक्टर 12 पार्ट-3 सोनीपत(हरियाणा)131001 {09416693290}धन्यवाद ॥
जवाब देंहटाएंGhar me ujala aag or roti bharpoor hain abhi..marmik kavitayen hain...pahali kavita vardhky ke vanprasthi bhavon ko or bhi ekant sounpti si gujarti hai..badhai di..
जवाब देंहटाएंबहोत अच्छी रचनाये हे,,,,, भावों को अच्छे से सहेजा हे आप ने शब्दों में,,, उम्दा रचनाएँ,,,,,,कविता जी,,,
जवाब देंहटाएंdono rachnayein shandar ...........badhai
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर! बधाई और शुभकामना!
जवाब देंहटाएंबर्फ की आंधी से याद आया, ठण्ड इस वर्ष खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।
हिमपात एवं भीषण शर्दी यूरोप के जीवन को कितना कठिन बना देती है, अंदाज नहीं था। छह महीने ठण्ड, बर्फ और अन्धकार में डूबे रहने के बाबजूद यहाँ के लोगो ने इतनी तरक्की की है। इनसे सीख मिलती है की कठिनाइयों का समाधान करो और आगे बढ़ो। एक कविता इनको समर्पित।
http://amitabh-jha.blogspot.de/2010/12/blog-post.html
बच्चे बड़े हो गए हैं एक अच्छी रचना।
माँ और पिता का महत्व बाप बनाने के बाद ज्यादा समझ में आ रहा है। एक रचना पिताजी के लिए
http://amitabh-jha.blogspot.de/2012/07/blog-post_07.html
रचना माँ के लिए
हाड़ मांस का पुतला - http://amitabh-jha.blogspot.de/2010/11/blog-post.html
माँ मुझको कलेजे से लगाये रखना - http://amitabh-jha.blogspot.in/2010/08/blog-post.html
bahut hi umda kavitaye..............
जवाब देंहटाएंदोनों ही कविताएँ भावपूर्ण व सारगर्भित।शुभकामनाएँ कविता जी।
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