जूते वर्जित क्यों हैं : क. वा.
दक्षिण-भारत में रहने वाले जानते हैं कि वहाँ लोग अपने व दूसरों के घरों के भीतर भी जूते नहीं ले कर जाते हैं। यदि पहनने ही हों तो घर के जूते अलग होते हैं जिन्हें भीतर ही पहना जाता है। इसके पीछे कारण यह है कि बाहर पहने जाने वाले जूतों में मल, मूत्र, थूक और इस बहाने जाने किस किस बीमारी के बैक्टीरिया घर व भवन के भीतर प्रवेश कर जाते हैं और अंदर / भीतर पनपने लगते हैं। खुले वातावरण में धूप आदि रहती है तो कुछ कीटाणु नष्ट भी होते हैं और खुले में अंकुश रखा भी नहीं जा सकता, सिवाय लोगों को यह समझाने के कि जगह जगह थूको / मूतो आदि मत / कूड़ा कबाड़ा न फेंको और न सड़ने दो। किन्तु घरों के भीतर छाया व बंद होने के कारण ऐसे कीटाणु दिन दूनी गति से पनपते हैं और बीमारियाँ फैलाते हैं। ऐसे में घरों की साफ सफाई दिन-भर / बार-बार / हर-बार करते रहना गृहिणी के लिए संभव ही नहीं होता। अतः सभी सामाजिक सदस्य अपने उत्तरदायित्व को समझ कर बाहर की गंदगी के संपर्क में आए जूते बाहर ही छोड़ देते हैं, बहुधा परिवारों में तो शौचालय के जूते भी अलग होते हैं। इसके पीछे बड़ा वैज्ञानिक रहस्य है कोई कठमुल्लापन नहीं। जिन स्थानों को हम शुद्ध देखना चाहते हैं, वहाँ ऐसा करते हैं। जापान में आज भी ऐसा ही होता है।
मन की बात, तो मन कोई पदार्थ नहीं है जो कक्ष अथवा भवन में कीटाणु ले आएगा। वह तो यदि व्याधि वाले कीटाणुओं / विषाणुओं जैसे दोष से भरा है तो उसकी शुद्धि के तरीके अलग हैं, वह भले बाहर हो या भवन के भीतर बराबर बीमार करेगा। दूसरों को बीमार करने से पहले खुद अपने मालिक को ही। उसे शोध न सकने वाले को दूसरों को शारीरिक रूप से बीमार करने की अनुमति दे दी जाए यह उचित तो नहीं। न उस पर अंकुश लगाना संभव है। परंतु जितना अंकुश संभव है, उतना करना कोई अपराध नहीं।
शायद कुछ ने वह ज़माना देखा होगा जब ऑफिस के कंप्यूटर हॉल में जूते उतार कर जाना पड़ता था, क्योंकि उस समय के सिस्टम धूल आदि में तुरंत ठप्प पड़ जाते थे। आज यद्यपि कंप्यूटर सिस्टम काफी हद्द तक रफ इस्तेमाल करने योग्य हो गए हैं किन्तु अभी भी सेंसेटिव उत्पाद यथा ऑडियो स्टूडिओ, रोगियों के लिए बने विशेष यंत्रादि कक्ष व कई बार रोगी का विशेष (इंटेसिव केयर ) कक्ष आदि इस नियम का अनुपालन करते हैं। आजकल विकसित पाश्चात्य देशों में डिस्पोज़ेबल 'शू-कवर' भी होते हैं। मेरे अपने ही घर में प्रवेशद्वार पर रखे रहते हैं, हैंडीमैन, बिजलीवाला या कामगार आदि जिन्हें सुरक्षा कारणों से जूते पहने हुए ही रहना होता है, वे जब घर के भीतर आते हैं तो अपने जूतों पर उन्हें पहन लेते हैं और फिर शू-कवर को फेंक दिया जाता है। पुरातन समय में दरवाजे पर हल्दी की रंगोली और गोबर से लीपना प्राकृतिक कीटाणुनाशक विधि ही थी। हम परम्परा की वैज्ञानिकता को भूल कर पोंगापंथी मात्र बन गए, जिसका परिणाम यह निकला कि जो कुछ पारम्परिक है,वह सब त्याज्य है और उसे गाली दी जानी चाहिए का अधिकार तथाकथित आधुनिकों को दे दिया। #KavitaVachaknavee
(ये विचार वर्ष २०१२ में किसी प्रसंग में व्यक्त किए थे)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।
अग्रिम आभार जैसे शब्द कहकर भी आपकी सदाशयता का मूल्यांकन नहीं कर सकती।
आपकी इन प्रतिक्रियाओं की सार्थकता बनी रहे कृपया इसका ध्यान रखें।