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गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

वर्तमान की वह पगडंडी जो इस देहरी तक आती थी.....

युद्ध : बच्चे और माँ (कविता)

साहित्य अकादमी के वार्षिक राष्ट्रीय बहुभाषीकवि सम्मेलन की चर्चा मैंने अभी पिछली बार की थी। वहाँ काव्यपाठ में प्रस्तुत अपनी रचनाओं में से एक अभी बाँट रही हूँ।

२५ नव. की रात्रि में इसका पाठ करने से पूर्व मैंने अन्यभाषी श्रोताओं के लिए इसका सार अंग्रेजी में उपलब्ध कराते हुए कहा था कि बच्चे का आतंकवादी में रूपांतरण, आतंक और सृष्टि की निर्मात्री माँ के बीच दो विपरीत ध्रुवों को स्पष्ट करने के साथ साथ यह कविता रेखांकित करती है कि आतंक और युद्ध की स्थितियों की सर्वाधिक पीड़ा स्त्री भोगती है क्योंकि यह संसार उसका रचा हुआ है। तब क्या पता था कि अगले ही दिन २६ नव. को एक बड़ा हादसा भारत की धरती भी घटने की तैयारी कर चुका था। उन अर्थों में इस कविता को उन्नीकृष्णन की माता ( जिसे मैं भारत की वीर माता विद्यावती की प्रतीक मानती हूँ) के चरणों में समर्पित कर रही हूँ व प्रत्येक उस माँ के भी जिनके जाये आतंक या युद्ध का शिकार बने ।




युद्ध : बच्चे और माँ
- कविता वाचक्नवी





निर्मल जल के
बर्फ हुए आतंकी मुख पर
कुँठाओं की भूरी भूसी
लिपटा कर जो
गर्म रक्त मटिया देते हैं
वे,
मेरे आने वाले कल के
कलरव पर
घात लगाए बैठे हैं सब।



वर्तमान की वह पगडंडी
जो इस देहरी तक आती थी
धुर लाशों से अटी पड़ी है,
ओसारे में
मृत देहों पर घात लगाए
हिंसक कुत्तों की भी
भारी
भीड़ लगी है।



मैं पृथ्वी का
आने वाला कल सम्हालती
डटी हुई हूँ
नहीं गिरूँगी....
नहीं गिरूँगी....


पर इस अँधियारे में
ठोकर से बचने की भागदौड़ में
चौबारे पर जाकर
बच्चों को लाना है,
इन थोथे औ’ तुच्छ अहंकारी सर्पों के
फन की विषबाधा का भी
भय
तैर रहा है......।




कोई रोटी के कुछ टुकड़े
छितरा समझे
श्वासों को उसने
प्राणों का दान दिया है
और वहीं दूजा बैठा है
घात लगाए
महिलाओं, बच्चों की देहों को बटोरने

बेच सकेगा शायद जिन्हें
किसी सरहद पर
और खरीदेगा
बदले में
हत्याओं की खुली छूट, वह।



एक ओर विधवाएँ
कौरवदल की होंगी
एक ओर द्रौपदी
पुत्रहीना
सुलोचना
मंदोदरी रहेंगी..........।



किंतु आज तो
कृष्ण नहीं हैं
नहीं वाल्मीकि तापस हैं,
मैं वसुंधरा के भविष्य को
गर्भ लिए
बस, काँप रही हूँ
यहीं छिपी हूँ
विस्फोटों की भीषण थर्राहट से विचलित
भीत, जर्जरित देह उठाए।




त्रासद, व्याकुल बालपने की
उत्कंठा औ' नेह-लालसा
कुंठा बनकर
हिटलर या लादेन जनेगी
और रचेगी
ऐसी कोई खोह
कि जिसमें
हथियारों के युद्धक साथी को
लेकर
छिप
जाने कितना रक्त पिएगी।



असुरक्षित बचपन
मत दो
मेरे बच्चों को,
इन्हें फूल भाते हैं
लेने दो
खिलने दो,
रहने दो मिट्टी को उज्ज्वल
पाने दो सुगंध प्राणों को।



जाओ कृष्ण कहीं से लाओ
यहाँ उत्तरा तड़प रही है !!
वाल्मीकि !
सीता के गर्भ
भविष्य
पल रहा ।
अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ" (२००५) से


बुधवार, 8 मार्च 2017

वे सम्पादकों व लेखकों के मध्य स्वयं को सुरक्षित नहीं पाती थीं और न समझौते कर सकती थीं

'लमही' द्वारा आयोजित परिचर्चा के प्रश्नोत्तर


जनवरी २०१५ में प्रतिष्ठित पत्रिका 'लमही' के नववर्षांक को महिला कथा-लेखन विशेषांक के रूप प्रकाशित किया गया था। इसमें सम्मिलित एक परिचर्चा हेतु पत्रिका द्वारा १० प्रश्नों की एक प्रश्नावली भेजी गयी थी जिनके उत्तर मुझे देने थे और जिन्हें पत्रिका में सम्मिलित किया गया था। आज 'महिला दिवस' पर उनके वे प्रश्न और अपने वे उत्तर आपके समक्ष -


1 - कहा जाता है कि अभिव्यक्ति की बराबरी से बड़ी कोई बराबरी नहीं हो सकती. दुनिया भर के जनतांत्रिक आंदोलनों का अंतिम आदर्श भी यही अभिव्यक्ति की बराबरी रहा है.हिंदी जगत में स्त्रियों द्वारा रचे जा रहे साहित्य की प्रचुरता और विपुलता के मद्देनज़र क्या आपको लगता है कि आज एक स्त्री के लिए अभिव्यक्ति के समान अवसर हैं और वह निर्द्वंद हो कर मनचाहा रच और अभिव्यक्त कर पा रही है?


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कविता वाचक्नवी - यह ‘समान अवसर’ एक सापेक्ष शब्द है, समान से आपका अभिप्राय, सभी स्त्रियों में परस्पर समान अथवा पुरुषों की तुलना में समान, है , यह असपष्ट है। इसलिए इसके उत्तर भी दो होंगे। जो लेखिकाएँ मुख्यतः आज सक्रिय लिख रही हैं उनके पास कमोबेश परस्पर लगभग समान अवसर हैं। किन्तु यदि प्रश्न का निहितार्थ पुरुषों की तुलना में आँकना है तो कहना होगा कि कदापि नहीं। अभिव्यक्ति के अवसर को यदि आप रचने के अवसर मात्र के अर्थ में देखते हैं तो भी, और यदि रचनात्मकता / लेखन / साहित्य-सृजन आदि को रचे जाने और पाठकों तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया के रूप में देखते हैं तो भी विविध स्तरों पर, विविध विधाओं में, विविध क्षेत्रों, विविध आयुवर्गों व विविध पृष्ठभूमि वाली हिन्दी-जगत की स्त्रियों के सर्वाधिक बहुलता वाले इस कालखण्ड में भी उनके पास पुरुषों की तुलना में न तो रचने के समान अवसर हैं व न ही पाठकों तक पहुँचने के। 



2 - साहित्य को स्त्री, दलित, पिछड़ा जैसे खांचों में रख कर पढना और समझना मुझे उन्हें मुख्यधारा से परे धकेलने का एक षड्यंत्र ज्यादा लगता है. मगर, कुछ लोग अनुभवों और यथार्थ की प्रमाणिकता की दृष्टि से वर्गीकरण और रेखांकन को युक्तिसंगत भी ठहराते हैं. आप अपने लेखन पर चस्पां 'स्त्री लेखन' के लेबल से कितनी सहज या असहज महसूस करती हैं?

कविता वाचक्नवी - वस्तुतः यह पाठक पर निर्भर करता है कि आनुपातिक दृष्टि से अधिक पाठक किसे मुख्यधारा मानते हैं। मेरे तईं गत लगभग पन्द्रह वर्ष से मुख्यधारा का साहित्य बहुधा स्त्रियों द्वारा लिखा जा रहा साहित्य है। रमणिका जी, मृदुला जी, चित्रा जी, मैत्रेयी आदि व इनकी समकालीन अनेक वरिष्ठ लेखिकाओं ने जहाँ केंद्रीय विधा के स्तर पर परिदृश्य को बदला, वहीं मुख्यधारा में पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ा और स्त्रीलेखन को मुख्यधारा का साहित्य के रूप में स्थापित किया। स्त्री, दलित और पिछड़ा आदि वर्गीकरण प्रवृत्तियों के आधार पर जब तक होता रहे तब तक यह अध्ययन की सुविधा एवं दृष्टि से आवश्यक व महत्वपूर्ण है किन्तु यदि यह वर्गीकरण व्यक्ति के आधार पर होता है तो यह लेखक के साथ अन्याय से अधिक साहित्य, शिक्षा व पाठक के साथ अन्याय है। इतने पर भी मुझे निजी तौर पर अपने लेखन के 'स्त्री-लेखन' कहने-कहलाने से कोई कष्ट या असहजता अनुभव नहीं होती। इसके दो कारण हो सकते हैं कि 1 - विविध विधाओं में लिखी गई अनेक रचनाओं के पाठकों द्वारा कदापि मुझे ऐसा अनुभव नहीं करवाया गया, 2 - मैं अभी उस स्तर की लेखक नहीं हुई कि आलोचक मुझ पर अपना समय ज़ाया करें और मेरे लेखन को वर्गीकृत करें या किसी खाते में रखें, शायद इसलिए भी। वैसे किसी लेखक को लिखने के बाद अपने लेखन के लिए स्वयं किसी तमगे या वर्ग की तलाश मुझे बहुत गलत और बुरी लगती है। लेखक को आलोचना में कोशिश कर अपने लिए जगह तलाशने-बनाने जैसा लगता है, जो अनुचित है। फिर भी यदि आलोचना स्त्री-लेखन को मुख्यधारा से इतर मानती है तो यह पक्षपात, पूर्वाग्रह व वर्चस्ववादी पितृसत्तात्मक राजनीति ही कहा जाएगा; विशेषत: जब मुख्यधारा में पुरुषों का वर्चस्व लगभग समाप्त हो चुका है।
 

३.आधुनिक स्त्री रचनाधर्मिता में जाहिर तौर पर 'कॉमन थ्रेड' पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष और प्रतिरोध है. हिंदी साहित्य में लेखिकाओं ने भावनात्मक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर पितृसत्ता की जकड़न, उसकी प्रविधियों और उसके पाखंडों का उद्घाटन और उदभेदन बहुत कुशलता से किया है. यहाँ तक की स्त्री यौन शुचिता की खोखली अवधारणाओं की भी धज्जियाँ उड़ाई गई हैं.मगर, कुटिल पितृसत्ता जिस प्रकार आज भी राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में महिलाओं के लिए लक्ष्मण रेखाएं खींच रही है, उससे हिंदी जगत की लेखिकाएं आँखें फेरे क्यों दिखाई देती हैं?

कविता वाचक्नवी - कुछ सीमा तक सहमत हूँ, इन अर्थों में कि कुटिल पितृसत्ता अभी भी जारी है और लेखिकाएँ कुछ अर्थों में आँखें फेरे हैं। इसके उत्तर में दोनों पक्षों के किए पर विचार करना होगा। पहली बात तो यह कि हिन्दी की लेखिकाएँ जिस पृष्ठभूमि से आती हैं, वहाँ स्त्री मूलतः उन स्थितियों के उद्घाटन के लिए भी दीक्षित नहीं होती। अतः उद्घाटन प्रतिकार की पहली सीढ़ी कहा जा सकता है और रोचक यह है कि यह उद्घाटन घटने के बाद होने वाली क्रिया है; जबकि विरोध तो घटने से रोकने की, प्रतिकार की क्रिया होता है। इस तरह आप देख सकते हैं कि भुक्तभोगी होने के बाद स्त्रीवर्ग के भोगे हुए यथार्थ का उद्घाटन और चित्रण तो स्त्रियाँ कर रही हैं किन्तु आनुपातिक दृष्टि से प्रतिकार की प्रविधियों का सन्निवेश होना अभी शेष है। रही क्षेत्र-विशेष की बात तो हिन्दी में अधिकांश लेखक साहित्य को राजनीति से दूर रखते आए हैं, यद्यपि विचारधारा के स्तर पर वे राजनीति-प्रेरित रहे हैं, उनका वर्चस्व भी लम्बे समय तक रहा किन्तु प्रत्यक्षतः वे राजनीति से सीधे नहीं जुड़े रहे, बल्कि कहना न होगा कि वे राजनीति का मोहरा भी बनते चले आए हैं और साहित्य की राजनीति भी इतनी अधिक होती चली आई है कि साहित्य ही लाभ की तुच्छ राजनीति का अखाड़ा, दलदल व पर्याय बन गया है किन्तु राष्ट्रीय राजनीति के लिए जिस प्रकार के प्रशिक्षण व तैयारी की आवश्यकता होती है, उसका नितान्त अभाव प्रत्यक्ष स्त्री व पुरुष लेखकों में देखा जा सकता है। ऐसे में लेखिकाओं की स्वयं क्योंकि राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ और सम्पृक्ति नहीं होती और सम्भवतः इसलिए भी कि वे दैनन्दिन जीवन और स्त्रीपुरुष सम्बन्धों के विविध पक्षों से अधिक जुड़ी हुई होती हैं। यों भी स्त्रियाँ जीवन और सम्बन्धों के अधिक निकट इसलिए होती हैं, कि उनकी संरचना ही ऐसी होती है, इसलिए भी वे शायद राजनीति में महिलाओं की अधिक सक्रिय व सतेज भूमिका के पक्ष में लिखने की अपेक्षा जीवन और सम्बन्धों पर लिखना बेहतर समझती हों। एक बात और जोड़ना चाहूँगी, कुटिलता से पार पाना स्त्री की दैहिक संरचना के अर्थों में सदा से कठिन रहा है और राजनीति का जिस प्रकार व जितना अधिक आपराधीकरण हुआ है उस स्तर के आपराधिक वातावरण की पहचान, उसका उद्घाटन, प्रतिकार या उस पर साधिकार लिखना आदि यह कुछ अधिक ही की अपेक्षा लगता है अभी ....। इसे आप सकारण आँख फेरना नहीं कह सकते।


४.व्यापक स्त्री हित से जुड़े राजनीति और अर्थनीति के ज्वलंत प्रश्न, जैसे विधायिका में महिला आरक्षण, मंत्रिमंडलों, नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में सानुपातिक प्रतिनिधित्व, इत्यादि महिलाओं के रचनात्मक सरोकारों में अपेक्षित स्थान क्यों हासिल नहीं कर पाते हैं?

कविता वाचक्नवी : इसका उत्तर भी पिछले उत्तर में ही काफी कुछ निहित है। यह जोड़ना यहाँ चाहूँगी कि जो लेखिकाएँ, यथा रमणिका जी, सुधा अरोड़ा जी इत्यादि, लेखिका होने के अतिरिक्त अपने जीवन में एक्टिविस्ट भी हैं, उनके लेखकीय सरोकारों में स्त्री के सामाजिक व संस्थागत जीवन की उपस्थिति उपलब्ध होती है। फिर भी यह कहना आपत्तिजनक नहीं माना जाना चाहिए कि वर्तमान स्त्री-लेखन में सरोकारों की व्यापकता आनी अभी काफी शेष है। उसके बहुत-से कारण हो सकते हैं, जिनके विस्तार में जाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है, किन्तु यह तथ्य है।



५. 'मातृत्व' एक ऐसा गुण है, जो स्त्री को श्रेष्ठ कृति बनाता है. सो, स्वाभाविक रूप से दुनिया भर के स्त्री-साहित्य में इसे 'सेलिब्रेट' किया जाता रहा है. मगर कुछ पश्चिमी नारीवादियों(फेमिनिस्ट्स) ने यह महसूस किया है कि मातृत्व के प्रति भावुक सम्मोहन को बढ़ावा देना किसी स्तर पर मर्दवादी राजनीति का एक आयाम भी हो सकता है. आप इस निष्कर्ष से कितनी सहमत हैं?

कविता वाचक्नवी : इसमें कोई राय नहीं कि मातृत्व स्त्री को श्रेष्ठ कृति बनाता है; किन्तु उस से भी बढ़कर स्त्री को ऐसा अपार सुख देता है जो संसार में उसे कोई और नहीं दे सकता, पुरुष भी नहीं, स्त्री को कई मानसिक व्याधियों से निकालता है और उसे अपने ‘कर्ता’ होने के गौरव से भरता है, इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकतीं। दूसरी ओर पश्चिमी नारीवादियों की बात रहने भी दी जाए तो इसी मातृत्व को आधार बनाकर ही पुरुष स्त्री पर सारे दबाव और बन्धन लगाता है। यद्यपि प्राकृतिक व संरचनात्मक दृष्टि से भी मातृत्व के साथ स्त्री पर बहुत से बन्धन और दबाव आ जाते हैं, उन बन्धनों में बँधी स्त्री को कमजोर समझ और उसके मातृत्व को उसकी कमजोरी समझ शासन करने वाली मानसिकता इसे उस अवसर के रूप में प्रयोग करती आई है जिसे स्त्रियों के शोषण के लिए अनुकूल समझा गया। बहुत बचपन में पढ़े अमृता जी के एक उपन्यास (अथवा कहानी) का एक अंश तब से मेरे मन में गड़ा हुआ है, जिसमें एक पुरुष पात्र दूसरे पुरुष पात्र को समझा रहा है कि औरत को यदि मारना है तो बाँध कर मारो। दूसरा पात्र बाँध कर मारने का अर्थ नहीं समझ पाता इसलिए बाँधने का औचित्य भी नहीं, तब पहला पात्र उसे समझाता है कि स्त्री के साथ हिंसा कर बदनाम होने की अपेक्षा उस से एक सन्तान उत्पन्न कर लो और फिर स्त्री आजीवन तुम्हारा सारा शोषण सहती रहेगी, कहीं नहीं भाग सकती। यह उदाहरण मैंने इसलिए दिया कि यह तथ्य आज से लगभग चालीस-पचास वर्ष पहले भी समाज जानता था और पहचानता था। आज पश्चिमी नारीवादी ही यह बात नहीं कह रहे हैं, अपितु यहाँ यॉरोप में तो बड़ी संख्या में एकल मातृत्व वाली स्त्रियाँ सब ओर मिल जाएँगी। यह एकल मातृत्व स्त्रियों ने स्वेच्छा से चुना है। वे किसी शुक्राणु-बैंक से किसी अनजान-अज्ञात व्यक्ति के शुक्राणु प्रत्यारोपित करवा माँ बनती हैं और अपनी सन्तान को जन्म देती हैं। यह पुरुषों द्वारा मातृत्व की आड़ में किए गए शोषण की प्रतिक्रिया भी है और साथ ही पुरुषों से होने वाले बुरे अनुभवों से बचने की जुगत भी। यॉरोप में यह कोई असाधारण घटना नहीं है। मैं कई बार पुरुष व स्त्री के सम्बन्धों के मिटते चले जाने से चिंतित भी होती हूँ कि ये पुरुष अपनी पत्नी ही नहीं अपितु सन्तान की कीमत पर भी अपने शोषण को जारी रखना चाहते हैं ... कैसी मानसिकता है कि वे अपनी पत्नी, अपनी सन्तान सबकी बलि लेकर क्या अर्जित करते हैं, केवल स्त्री पर मालिकाना अधिकार । यह सब कितना शर्मनाक है। क्यों नहीं पुरुष अपनी इस तुच्छ मानसिकता को छोड़ समाज को इस तरह बिखरने और विकृत होने से बच जाने देते ? घरों में स्त्रियों के ही नहीं अपितु बच्चों के भी जीवन बर्बाद होते देखे हैं मैंने, पुरुषों की कुण्ठाओं से उपजी स्थितियों के चलते।




६.समाज में स्त्रियों के संगठित दमन चक्र के कमजोर पड़ने और स्त्री स्वातंत्र्य की सशक्त छवियों के समानांतर इर्ष्या और कुंठा की लहरें भी दिखाई पड़ रही हैं. इस का नतीजा है कि यौन हमलों और हिंसा की बाढ़ सी आ गई है और कार्य स्थलों पर और अन्यत्र स्त्री-पुरुष रिश्ते असहज होते चले जा रहे  हैं..समाज में गहराती लैंगिक कटुता क्या आपको चिंतित करती है?

कविता वाचक्नवी : बहुत अधिक । मुझे स्त्री-पुरुष रिश्तों में आती असहजता जितना चिन्तित करती है, उस से अधिक चिन्तित करता है पूरे समाज में उत्पन्न होता असन्तुलन । समलैंगिकता भी कहीं न कहीं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में जन्मे विद्रूप की ही परिणति है कि स्त्रियों में पुरुषों के प्रति व पुरुषों में स्त्रियों के प्रति सहज आकर्षण मरने लगा है। एकल मातृत्व भी इसी लैंगिक कटुता का प्रतिफल हैं, सेक्स टॉय्ज़ भी इसी लैंगिक कटुता का ही रूप हैं, बलात्कार और हिंसा तो इसका कारण भी हैं और इसका परिणाम भी। एक स्त्री होने के नाते ही नहीं अपितु एक माँ होने के नाते मुझे परिवार के बच्चों का परिवारों से विमुख होना सर्वाधिक सालता है। बीस वर्ष पहले नॉर्वे में बसने जाने पर जिस प्रकार परिवार टूटे देखे और युवक-युवतियों का मादक पदार्थों की ओर जुड़ाव देखा उन सारे अनुभवों के बाद वर्तमान की लगभग सभी सामाजिक समस्याओं (आर्थिक को छोड़कर) के लिए केवल और केवल इसी लैंगिक कटुता को दोषी पाती हूँ । बिना प्रेम के निभती लाखों-करोड़ों गृहस्थियाँ हम सबने भारत में बखूबी देखी हैं , कितना कष्टप्रद है यह सब... कि इसकी व्याख्या भी नहीं कर सकती, किसी को सहज विश्वास नहीं होगा। उन्हीं का प्रतिफल है भारतीय युवाओं का असंतुलित मनोविज्ञान, आक्रोश और कुण्ठा, माता-पिता दोनों की नकार और उनके प्रति असम्वेदनशीलता।


७.आज पारंपरिक साहित्य की तुलना में सोशल मीडिया  का स्त्री-लेखन ज्यादा चर्चाएँ बटोर रहा है. सोशल मीडिया की अराजकता, उसका औसतपन, उसकी क्षणभंगुरता और उसके आभासी चरित्र की आलोचनाएँ और आक्षेप  अपनी जगह हैं, मगर अब उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है. साहित्य में सोशल मीडिया के विवादास्पद हस्तक्षेप को गंभीर लेखन और साहित्य में कहाँ देखती हैं आप?

कविता वाचक्नवी : यह बात समझना बहुत आवश्यक है कि सोशल मीडिया एक मंच है, एक माध्यम है और यह हम सब जानते हैं कि मंच व माध्यम का अच्छा-बुरा होना कुछ नहीं होता, जो कुछ होता है वह उसके प्रयोक्ताओं पर निर्भर करता है। यही स्थिति एक पत्रिका की भी हो सकती है कि किसी के हाथ में पत्रिका का माध्यम व अवसर लग गया पर उस पत्रिका में गम्भीर कुछ भी नहीं छपता या किसी पत्रिका में गम्भीर सामग्री छपती है। अनगिनत पत्रिकाएँ ऐसी होंगी जो आपको अपनी रुचि व स्तर की नहीं लगेंगी और आप उन्हें नहीं पढ़ते, कुछ आपको अपनी रुचि व स्तर की लगती हैं इसलिए आप उन्हें पढ़ते हैं। तो इन कारणों से आप हिन्दी की पत्रकारिता को धिक्कार या नकार तो नहीं देते न? न ही उसे कोई बाहर का, अस्पृश्य या विवादास्पद हस्तक्षेप का माध्यम घोषित करते हैं। बिल्कुल यही स्थिति सोशल मीडिया की भी है। बस, यह एक खुला व निश्शुल्क माध्यम है। इसका शुल्क समय व तकनीक की जानकारी है केवल, न कि पारम्परिक माध्यम व पारम्परिक शुल्क। भारत में विशेषतः हिन्दी समाज में तकनीक से परिचय अभी बहुत दूर की कौड़ी है; इसलिए अभी हिन्दी का लेखक वर्ग इसे अराजक, औसत व क्षणभंगुर (?) समझता है। सच तो यह है कि यह माध्यम सर्वाधिक दीर्घजीविता का माध्यम है, सर्वाधिक तेज है और सर्वाधिक व्यापक भी। जिसे कुछ लोग अराजक समझते हैं, उसे मैं सर्वाधिक लोकतान्त्रिक कहती हूँ। मैं अपनी ही कहूँ तो लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व मैंने प्रण किया था कि मैं किसी पत्रिका या किसी सम्पादक को कदापि अपनी पहल पर रचना नहीं भेजूँगी, जब तक कि स्वयं सम्पादक अथवा कोई बहुत सम्मानित व्यक्ति अपनी पहल पर मुझे रचना भेजने को न कहे। और मैंने अपना यह प्रण पूरी तरह निभाया भी (इक्का-दुक्का घटनाएँ इसका अपवाद हो सकती हैं)। आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी लेखक के लिए यह आत्महत्या है, जिसे मैंने स्वेच्छा से वरा। किन्तु मेरे लेखक को इस आत्महत्या से बचा कर पाठकों से सीधा जोड़ने वाला माध्यम है इन्टरनेट और सोशल मीडिया। यह सच है कि इस पर हजारों-लाखों-करोड़ों लोग लिख रहे हैं, पर वे तो पहले भी कहीं अपना-अपना लिखते आए हैं, बस तब आपको, हमें या समाज को उनका पता न चलता था क्योंकि अभिव्यक्ति के सभी संस्थानों पर इने-गिने लोगों का आधिपत्य व नियन्त्रण था और शेष तक किसी की पहुँच ही न थी, तो पता कैसे चलता कि उन लाखों लोगों में कौन हल्का लिख रहा है और कौन स्तरीय। आज निस्संदेह लिखने वालों की संख्या भी बढ़ी है तो वह इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति के संस्थानों पर से वर्चस्ववादी शक्तियों के अंकुश को नकार एक वैकल्पिक माध्यम दे दिया है और इस तरह अधिक अवसर होने के चलते लोगों में अभिव्यक्ति के प्रति उत्साह भी है और इसलिए आधिक्य भी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया पर लिखने वाला हर व्यक्ति लेखक है ही यह माना जाए। अस्सी प्रतिशत से अधिक वहाँ केवल अभिव्यक्ति और सम्वाद की इच्छा से हैं और उनके लिखे को कदापि साहित्यिक लेखन नहीं कहा जा सकता। किन्तु उसे आप साहित्यिक हस्तक्षेप समझते ही क्यों हैं? उस से विचलित या प्रभावित होने की तब तक कोई आवश्यकता ही नहीं जब तक रचना का स्तर और गुणवत्ता स्वयं नहीं बोलते। आपके-हमारे सामने एक अधिक विशद, विस्तृत और व्यापक फलक एवं अवसर हैं अब, कि प्रतिभा को चीन्ह पाएँ, इसमें मुझे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता। कष्ट उन्हें अवश्य है और होगा जिन्होंने अभिव्यक्ति के संस्थानों पर नियन्त्रण बना रखा था अब तक और सौगातें बटोरते चले आए हैं, लाभ लेते आए हैं। अब उनका अंकुश टूट रहा है, भले ही वे सम्पादक हों या लेखक। सोशल मीडिया में पाठक और लेखक आमने-सामने हैं और सोशल मीडिया ऐसा टूल है (दुर्भाग्य से हिन्दी लेखक अभी इसकी शक्ति नहीं जानते) कि पाठक को लेखक का पूरा व्यक्तित्व, उसका चरित्र आदि सब बिना बताए भी पता चल जाता है और इस आधार पर वे लेखक को सिरे से खारिज भी कर सकते हैं, कर देते हैं , अब दुराव सम्भव नहीं कि पाठक केवल लेखन से ही लेखक को जानता था और व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी, कैसा भी करते हुए आप पाठक को मोह सकते थे। इस माध्यम पर वह सम्भव नहीं। कई बड़े नामधारी हिन्दी लेखकों की ‘मोनोपली’ टूटी है यहाँ। स्त्रियाँ बिना सम्पादक की शर्तें माने भी लिखने व पाठकों तक पहुँचने में सफल हो सकती हैं, नेट पत्रिकाओं व वेबज़ीन्स का अम्बार लगा पड़ा है। कविताओं व साहित्य के कोष निश्शुल्क उपलब्ध हैं पढ़ने-पढ़ाने को, अकूत साहित्य वहाँ सदा के लिए डिजिटल रूप में सुरक्षित हो गया है, विश्व के प्रत्येक कोने से पाठक कुछ भी / कहीं भी / कभी भी पढ़ सकता है । और भी अनेकानेक लाभकारी परिवर्तन हुए हैं, अनुवाद, भाषा व लिपि की दृष्टि से तो क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं, अपने एक लम्बे लेख में विस्तार से इन व ऐसे अन्य अनेक पक्षों पर एक-एक कर कुछ वर्ष पहले लिखा भी था, उन सब को विस्तार से यहाँ नहीं बताया जा सकता। बस यही कि ये सब साहित्य के लिए नकारात्मक हस्तक्षेप कैसे कहे जा सकते हैं? क्या केवल इसलिए कि एकाधिकार व वर्चस्व को चुनौती मिली है या 80- 85 प्रतिशत को देखकर हमें उसके स्तरीय न होने से कष्ट होता है। क्या बीस बरस पहले समाज का 80-85 प्रतिशत वर्ग लेखक था ? नहीं ! तो यह वही वर्ग है। उन्हें उनकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का लाभ उठाते देख चिन्तित होने की भला क्या आवश्यकता है? और क्यों ?




८.साहित्य के बारे में शुरू से एक मासूमियत भरी स्थापना रही है कि स्तरीय साहित्य अपने बूते जिंदा रहता है. मगर हकीकत यह है कि आज जो रचना साहित्यिक परिचर्चा, गोष्ठी, जलसा, विमोचन, समीक्षा, पुरस्कार के जुगाड़ तंत्र में अपनी जगह नहीं बना पाती, पाठक उस तक पहुँच भी नहीं पाता, चाहे वह जितनी भी उच्च कोटि की हो. एक स्त्री के नजरिये से साहित्य की यह धक्कम-पेल आपको हताशाजनक लगती है या चुनौतीपूर्ण?

कविता वाचक्नवी : हताशाजनक भी और चुनौतीपूर्ण भी; बल्कि स्पष्ट कहूँ तो हताशाजनक कम और चुनौतीपूर्ण अधिक । किन्तु ध्यान देने की बात यह है कि मेरा नजरिया हर स्त्री लेखक का नज़रिया नहीं हो सकता, न होना चाहिए क्योंकि हर किसी का मनोविज्ञान अलग होता है। कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी मैं जानती हूँ जिन्होंने लेखन सदा के लिए इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वे सम्पादकों व लेखकों के मध्य स्वयं को सुरक्षित नहीं पाती थीं और न समझौते कर सकती थीं। बहुत-से ऐसे भी लेखक-लेखिकाओं को जानती हूँ जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए खूब समझौते किए और किसी का भी, कैसा भी प्रयोग करने से नहीं हिचकिचाए, जो सम्पादक समझते थे कि वे उनका इस्तेमाल कर रहे हैं वस्तुतः वे भी प्रयोग होते गए... उनके माध्यम से लेखकों-लेखिकाओं ने वह सब किया, कर रहे हैं जिसका आपने उल्लेख किया है, निजी सम्बन्धों से लेकर जाने कहाँ तक। इसलिए ऐसे में मेरे जैसे व्यक्ति के लिए जिसके पास न कोई पद है, न प्रकाशन, न किसी एक से भी कोई सम्पर्क या मैत्री है कि मेरे लिए कोई कुछ करे, न मैं किसी वर्ग-विशेष, विचार-विशेष या ‘स्कूल’-विशेष की हूँ कि कोई मुझे प्रमोट करे, न मेरा कभी भी साहित्य आदि में कोई गॉड-फादर है, न कोई जान-पहचान, न दिल्ली या हिन्दी क्षेत्र में कभी रहने-बसने का मौका मिला, न मैं किसी को घर आमन्त्रित करती या उपहार आदि दे सकती हूँ, सिवाय उन एकाध लोगों को आदर-सम्मान देने के जिनकी विद्वत्ता और नैतिक शुचिता अभिनन्दनीय हो, न मैं दावतें / सिगरेटें या बोतलें देती-छूती हूँ, बल्कि इन सब से भी बढ़कर परिवार व मूल्यों के प्रति अक्खड़ प्रतिबद्धता व ऐसा न करने वालों का डंके की चोट पर खुला विरोध आदि वे कारण हैं, जो मुझे साहित्य की परिधि से निष्कासित करने और तन्त्र से बहिष्कृत करने के लिए बहुत पर्याप्त हैं, रहे हैं। मुझे साहित्य की चौखट पर पैर भी धरने न देने वालों की चहुंदिशी भीड़ में विरलों के लिए ही यह अनुमति देना वश का है जो निस्संदेह अत्यधिक निष्पक्ष व ईमानदार हों, तभी वे मुझ जैसी नितान्त अ-लाभकारी व्यक्ति को भी अवसर देने से नहीं हिचकिचाए या हिचकिचा सकते। क्या यह सब मुझ जैसी अनाम स्त्री को हताश करने के लिए पर्याप्त नहीं होना चाहिए ? किन्तु है ठीक इस से उलटा, एकाध अवसरों को छोड़ मुझे कभी हताशा नहीं हुई और अपने उपर्युक्त ‘दुर्गुणों व कमियों’ (?) को ही शक्ति समझ आगे बढ़ने व अपनी राह चलते रहने का अपने पिताजी का दिया आदर्श हरदम सामने रहता है और डिगने न देने की शक्ति देता है। यह तो रही व्यक्तिगत हताशा या चुनौती की बात। किन्तु सच कहूँ तो साहित्य के भविष्य व भविष्य के साहित्य की दृष्टि से ये आपकी बताई व हम सब की देखी-समझी स्थितियाँ बहुत निराश करती हैं... इच्छा होती है हिन्दी वालों को पढ़ना-मिलना पूरी तरह छोड़ दूँ.... शोध और शिक्षा तक को बर्बाद कर दिया है इन स्थितियों ने... क्या लाभ है ऐसे लेखन-पठन-पाठन का ? तब ऐसे में उबरने (चुनौती) और डूबने (हताशा) दोनों को ही अनुभव नहीं करती। बस कर्तव्य की भाँति अपना काम किए चले जाने को आधार बना लेती हूँ । सोशल मीडिया और उस माध्यम द्वारा मुझ से सीधे जुड़े पाठक ही वह शक्ति हैं जिन्होंने मेरे अस्तित्व को पूरी तरह बनाए-बचाए रखा है। अन्यथा इन स्थितियों का क्या प्रभाव हुआ होता कह नहीं सकती।




९. एक सवाल जो मुझे हमेशा परेशान करता है कि आखिर हिंदी के स्त्री लेखन से 'हास्य' और 'विनोद' लगभग निष्कासित क्यों है? कटाक्ष और व्यंग अगर है तो उसकी प्रकृति हास्य-मूलक नहीं है. ऐसा क्यों?

कविता वाचक्नवी : साहित्य में विधाओं की दृष्टि से कहानी आज केन्द्रीय विधा है। उसके बाद स्थान आता है उपन्यास का। दोनों क्षेत्रों में महिलाओं की भरपूर उपस्थिति है। कविता तो यों भी हाशिये पर है, आलोचना और सम्पादन में महिलाओं के नाम हैं ही, निबन्ध, ललित निबन्ध आदि तो वैसे भी सभी तरह से सिरे से जैसे लुप्त ही होते जा रहे हैं.... हास्य केवल मंचीय कवियों के पास बचा है (स्तरीयता का प्रश्न उस पर भी मुँह बाए खड़ा है) । व्यंग्य तब तक व्यंग्य है ही नहीं जब तक उसमें मिठास और हास्य का पुट नहीं है, इसलिए जो कुछ वह है उसे व्यंग्य तो नहीं ही कहा जा सकता। रही स्त्रीलेखन में इन विधाओं की बात तो अभी स्त्रीलेखन की उम्र ही कितनी हुई है ... तनिक सब्र करें ... स्त्रियों को भी कुछ हँसने-हँसाने के अवसर दें... वे हास्य भी उत्कृष्ट रच कर दिखाएँगी और तब पुरुषों का रचा भौंडा हास्य हाशिये पर चला जाएगा। आपने कहा कि औरतें केवल कहानी लिखती हैं तो उन्होंने कविता रच कर दिखा दी, आपने कहा कि वे आलोचना नहीं लिखतीं तो उन्होंने वह भी लिख कर दिखा दी; अब आप कह रहे हैं वे राजनीति नहीं लिखतीं तो यह बात अर्धसत्य है क्योंकि राजनैतिक सरोकार स्त्रीलेखन में अपने अलग अन्दाज़ में आने प्रारम्भ हो गए हैं। अब नया यह आक्षेप कि हास्य नहीं रचतीं.... भाई यह आलोचना इतनी डिमांडिंग क्यों है कि बस कुछ न कुछ माँगती ही रहती है ! आप यह कब देखेंगे कि स्त्री क्या लिख रही है; या बस यही संकल्प है कि आँख मूँद कर यही रट लगाते रहेंगे कि स्त्री यह नहीं लिख रही... वह नहीं लिख रही।

१०.अपनी आगामी लेखकीय योजनाओं के बारे में बताएँ

कविता वाचक्नवी : बहुत सारी पाण्डुलिपियाँ बस्तों में बन्द पड़ी हैं, चाहती हूँ उन्हें सलीके से लगाकर प्रकाशित करवाऊँ, अपना एक कहानी संकलन, एक कविता संकलन, एक लेख-संग्रह, एक साक्षात्कारों की पुस्तक (इन सब की सामग्री तैयार है, पर इस तरह तैयार नहीं कि प्रकाशक को थमा सकूँ) तो इन्हें तैयार करना है। ‘भाषा प्रौद्योगिकी और हिन्दी कम्प्यूटिंग’ विषयक एक पुस्तक की योजना दो-तीन वर्ष से अधर में लटकी है, उसकी सामग्री पूरी कर प्रकाशन के लिए देना चाहती हूँ। पत्र-पत्रिकाओं व अपनी वेबसाईट आदि के लिए समय-समय पर लिखना भी होता है, कुछ पत्रिकाओं ने नियमित स्तम्भ लिखने का वादा लिया हुआ है, जिन्हें हाँ कह कर भी प्रारम्भ तक नहीं कर पाई, उन्हें प्रारम्भ करना चाहती हूँ। गत वर्ष रमणिका जी के 'हाशिये उलाँघती औरत' शीर्षक (40 भाषाओं के 25 खण्डीय स्त्री-संकलन) के 'प्रवासी कहानियाँ' खण्ड का सम्पादन किया तो उसी दौरान अपनी एक अन्य योजना पर काम शुरू किया था। वह योजना है कि विश्व के सभी महाद्वीपों के हिन्दी लेखकों के कहानी संकलन को तीन-चार खण्डों में लाने की; बस उसकी शर्त यह है कि जो लेखक जिस देश में रहता है, वहाँ के स्थानीय मुद्दों पर उसे लिखना है, उन कहानियों में स्थानीयता उभर कर आनी चाहिए, अमेरिका में बैठ कर आप भारत या भारतीयों या भारत के मुद्दों व समस्याओं की कहानी न लिखें, जिसके कारण हिन्दी आलोचना अब तक ऐसी-तैसी करती आई है, जो कुछ हद तक सही भी है। इसलिए लेखकों को गत वर्ष भेजे पत्र में यह चुनौती पूरा करने का आह्वान किया था कि वे तत् तत् देशीय शिक्षा, समाज, सम्बन्ध, राजनीति, मेडिकल आदि-आदि किसी भी मुद्दे को आधार बना अपने देश को हिन्दी में अभिव्यक्त करें, कुछ कहानियाँ आईं भी, किन्तु विशद योजना है व अपने पारिवारिक एवं विश्वविद्यालयीय दायित्वों के बीच नियमित लेखादि लिखने के साथ-साथ इन्हें निभाना समयाभाव में दुरूह भी। ऊपर से पैसा देकर कदापि कहीं नहीं छपना का अपना संकल्प भी याद रहता है तो प्रकाशक न मिल पाने की अपनी सीमा भी जानती हूँ। इसलिए इन्हें योजनाओं की अपेक्षा स्वप्न कहना अधिक उचित है। तो इस प्रकार योजनाओं के नाम पर कुछ स्वप्न ही हैं अपने पास ! बस !!
नवम्बर २०१४

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

गगन गिल और अनिल जनविजय विवाद : कीचड़उछाल का खेल

गगन गिल और अनिल जनविजय विवाद  : कीचड़उछाल का खेल     - क. वा.


इधर कुछ दिनों से दो लोगों का एक व्यक्तिगत विवाद हिन्दी साहित्य से जुड़े लोगों की चर्चा के केंद्र में है और उसकी आग लगातार फ़ैल रही है। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर #कीचड़ उछालने के खेल में रस ले-ले कर या बदले की भावना से तत्पर हो नित नए प्रहार कर रहे हैं और इस तरह वस्तुतः अपने आप को ही एक्सपोज़ कर रहे हैं और अपना स्तर गिराते-दिखाते जा रहे हैं। 


जो अनिल #जनविजय ने किया, वह गलत था और पहल उन्होंने ही की, जिसकी प्रतिक्रिया में #गगनगिल ने जो किया वह भी गलत ही था। एक व्यक्ति किसी की इज्जत उतारे तो वह गलत होता ही है, किन्तु बदले में हम उसकी इज्जत उतारते समय यह भूल जाएँ कि हमारी प्रतिक्रिया हमारा स्तर भी बताती है, यह तो कोई बात न हुई। 


दो लोगों के निजी संबंधों के चलते साहित्य से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति कटघरे में आ गया है,इसकी परवाह दोनों पक्षों में से किसी को नहीं रही। इक-दूजे के मान-सम्मान की धज्जियाँ उड़ाते समय अपने मान-सम्मान की धज्जियाँ और उड़ रही हैं, यह जब उनकी चिंता का विषय नहीं तो साधारण पाठक और दूसरे लोग क्यों और कब तक चिंतित हों ! 


दो लोग कीचड़ से खेल रहे हैं तो लथपथ होना स्वाभाविक है। जो निकट जाएगा, उस पर भी कीचड़ के कुछ न कुछ छींटे गिरेंगे ही। ऐसे में दोनों पक्षों के आत्मीय अपने पर कीचड़ गिरने का खतरा उठाते हुए भी उन्हें बचाने या साथ देने आगे बढ़ते हैं और कुछ-न-कुछ कीचड़ इस सहानुभूति के चलते वहन करते हैं। किन्तु बाकी बचे हुओं को उस कीचड़ में जाने की आवश्यकता क्यों है ? जो जितना कीचड़ से दूर रहकर बच सके उतना अच्छा है। 
यह कोई बड़ी सामाजिक नैतिकता और सामजिक मूल्यों या समाज-कल्याण की बात तो है नहीं कि हर किसी को लोक-कल्याण के लिए कीचड़ की परवाह न करते हुए भी उसमें कूदना-ही-कूदना है। 


इसलिए आवश्यक है कि किसी भी पक्ष की निंदा करने की अपेक्षा दोनों को शांत करने की और दूर हटाने की चेष्टा की जाए और उन्हें यह सन्मति और सलाह दी जाए कि इस कीचड़-उछाल में आपकी अपनी भी हानि ही हानि है। दूसरे पर कीचड़ उछाल कर आप दूध से धुले हुए निष्कलंक नहीं रह सकते। जितनी जल्दी जिसे समझ आ जाए और जो जितनी जल्दी इस से बचेगा उतना उसी का कल्याण है। 


दूसरे की गरिमा भंग करते समय व्यक्ति अपनी ही गरिमा से च्युत हो रहा होता है। हम तो इससे दूर रहने में ही सबका भला समझते हैं। जितने लोग अधिक जुड़ेंगे वे अपने-अपने पक्ष की हानि ही अधिक करेंगे, लाभ नहीं। सभी का दूर रहना और चुप रहना ही साहित्य और समाज के हित में है अन्यथा इस विकराल कीचड़-उछाल को और-और हवा-पानी मिल रहा है। 
यह कैसा प्रेम है, भई ?
- कविता वाचक्नवी 

बुधवार, 4 मई 2016

वे यदि ये न करें तो क्या करें

वे यदि ये न करें तो क्या करें : कविता वाचक्नवी 

मुझे नहीं लगता कि किसी लेखिका को लेकर नजरिया उसके लेखक होने, न होने, से ताल्लुक रखता है। वस्तुतः यह वह दृष्टि है जो उसके स्त्री होने के सत्य के साथ जुड़ी है; वह लेखक है, या कोई अन्य स्त्री; इस से उसके प्रति दृष्टि बदलने की अपेक्षा करना दूर की कौड़ी है। हिन्दी समाज में महिला लेखकों को इसका दंश जो झेलना पड़ता है उसकी जड़ें स्त्री के लेखक होने की अपेक्षा, वह जिस संसार और जिस वर्ग (हिन्दी लेखकों) में कार्यरत है, उसमें जमी हैं। क्योंकि दुर्भाग्यपूर्ण कड़वी बात यह है कि हिन्दी लेखक जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह पिछड़ा (कई अर्थों में), बचा खुचा, हीनभावना से त्रस्त, चरित्र से दोगला, मूल्यों से बेवास्ता, और बहुधा अपढ़, सामन्तवादी, दोहरा और दोगला है। हिन्दी के इने गिने लेखक ऐसे होंगे, जो यदि लेखक न होते तो और भी बहुत कुछ होते। या लेखक होने के अतिरिक्त और भी कुछ हैं। अन्यथा अधिकांश हिन्दी बिरादरी लेखक होने की धन्यता पा-भर गई है; वास्तव में हो न हो। ऐसे किसी भी समाज अथवा वर्ग में स्त्री के प्रति बर्ताव की अन्य आशाएँ ही निरर्थक हैं। वह स्त्री के पक्ष में लिख रहा है तो इसलिए नहीं कि वह स्त्री का पक्षधर है अपितु इसलिए कि यह उसके लेखक बने रहने की चुनौती है , डिमांड है। और जिस हिन्दी लेखक समाज की बात लोग करते हैं उसमें कितने ऐसे हैं, जो दोगले नहीं है ? अलग-अलग प्रसंगों में लगभग 80 प्रतिशत बिरादरी दोगली निकलेगी; क्या महिलाएँ और क्या पुरुष !



स्त्री होने के नाते मान कर चलना चाहिए कि यहाँ ऐसे ही विरोध, तिरस्कार, चरित्र हनन, सबक, बॉयकॉट, लेखक के रूप में निष्कासन किन्तु स्त्री के रूप में बगलगिरी, आदि आदि ही हैं। यह इसलिए नहीं कि आप, वह या मैं स्त्री हैं; अपितु इसलिए कि वे पुरुष हैं, उनकी दृष्टि कुत्सित है, वे दोगले हैं, वे लेखक न होते तो और किसी लायक नहीं हैं, उनका असली चरित्र यही है, वे जाने कैसी जोड़ तोड़ के कारण लेखक बने हैं, वे (अस्तित्व की एकमात्र पहचान) लेखक बने रहने की बाध्यता के चलते कुछ भी लिखते हैं, उनके संस्कार उनके व्यवहार को बाध्य करते हैं, उनका चरित्र उन्हें उकसाता है, वे जिस भी पद या स्थान पर हैं - हैं तो एक ही बिरादरी के, और वे यदि ये न करें तो क्या करें !! (जून 2011)

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

असंयमी लोगों को चाहिए कि अपने लिए बुर्के तलाश लें

"असंयमी लोगों को चाहिए कि अपने लिए बुर्के तलाश लें"  


बघारतीय स्टेट बैंक की राजभाषा अधिकारी अर्पिता शर्मा द्वारा बैंक की पत्रिका के महिला विशेषांक हेतु लिए गए साक्षात्कार का अविकल पाठ जिसे फरगुदिया ने अपने ब्लॉग पर लगाया है  



"भारतीय स्टेट बैंक की त्रैमासिक पत्रिका हेतु बैंक की राजभाषा अधिकारी अर्पिता शर्मा द्वारा 28 मार्च 2014 को लिए गए साक्षात्कार में उन्होंने 16 दिसंबर ( दामिनी, निर्भया प्रकरण ) की घटना के सन्दर्भ में महिलाओं-लड़कियों के प्रति समाज के नजरिये पर सार्थक प्रतिक्रिया दी है ! आदरणीय लेखिका का बहुत आभार अपने सार्थक विचारों को फरगुदिया पाठकों से साझा करने के लिए !

हाल ही में साहित्यकार डॉ कविता वाचक्नवी को विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित तथा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "हिंदी विदेश प्रसार सम्मान" (2013 ) तथा इंडियन हाईकमीशन,ब्रिटेन द्वारा समग्र एवं सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक अवदान हेतु हरिवंश राय बच्चन के शताब्दी वर्ष पर स्थापित "हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान एवं पुरस्कार" (2014) से सम्मानित किया गया ! "






अर्पिता शर्मा - सबसे पहला प्रश्न सिर्फ एक महिला से, ( न माँ, न बेटी, न पत्नी, न साहित्यकार, सिर्फ एक महिला), कैसा महसूस होता है महिला होकर। क्या कोई पछतावा है? 

कविता वाचक्नवी – महिला होने के अपने सुख दु:ख हैं । कुछ इतने भीषण दु:ख कि उनका उल्लेख भी संसार से नहीं किया जा सकता। इसलिए नहीं कि छिपाना है, बल्कि इसलिए कि संसार के पास उस संवेदनशीलता का अभाव है कि वह उन दुखों के मर्म तक पहुँच सके। 

कुछ ऐसे सुख भी हैं जो बहुत बड़े हैं.... ! 

परन्तु कई बार मुझे लगता है कि पुरुष होने के भी अपने सुख-दु:ख हैं। मनुष्य-मात्र और प्राणिमात्र के अपने दु:ख हैं । अतः जब सुख दु:ख सभी के साथ हैं तो फिर अपने ही दु:खों पर पछताना-रोना कैसा ? 

अर्पिता : स्त्री होने के ?

कविता वाचक्नवी : जिन्हें हम स्त्री होने के दु:ख समझते हैं, वस्तुतः वे स्त्री होने के दु:ख न होकर समाज की स्त्रियों के प्रति दृष्टि और व्यवहार के दु:ख हैं, समाज की स्त्री के प्रति सोच और बर्ताव के दु:ख हैं । इसलिए मुझे अपने स्त्री होने पर कोई पछतावा नहीं अपितु समाज के निर्मम और क्रूर होने पर क्षोभ है। 

अर्पिता : तो स्त्री होना कैसा अनुभव लगता है ?

कविता वाचक्नवी : ऐसे हजारों क्षण क्या, हजारों घंटे व हजारों अवसर हैं, जब मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व हुआ है। जब-जब मैंने पुरुष द्वारा स्त्री के प्रति बरती गई बर्बरता व दूसरों के प्रति फूहड़ता, असभ्यता, अशालीनता, अभद्रता, लोलुपता, भाषिकपतन, सार्वजनिक व्यभिचार के दृश्य, मूर्खतापूर्ण अहं, नशे में गंदगी पर गिरे हुए दृश्य और गलत निर्णयों के लट्ठमार हठ आदि को देखा-सुना-समझा​-​झेला, तब-तब गर्व हुआ कि आह, स्त्री-रूप में मेरा जन्म लेना कितना सुखद है। 

रही इसके विपरीत अनुभव की बात, तो गर्व का विपरीत तो लज्जा ही होती है। आप इसे मेरा मनोबल समझ सकती हैं कि मुझे अपने स्त्री होने पर कभी लज्जा नहीं आई। बहुधा भीड़ में या सार्वजनिक स्थलों आदि पर बचपन से लेकर प्रौढ़ होने तक भारतीय परिवेश में महिलाओं को जाने कैसी-कैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है, मैं कोई अपवाद नहीं हूँ; किन्तु ऐसे प्रत्येक भयावह अनुभव के समय भी /बावजूद मुझे अपने स्त्री होने के चलते लज्जा कभी नहीं आई या कमतरी का अनुभव नहीं हुआ, सिवाय इस भावना के कि कई बार यह अवश्य लगा कि अमुक-अमुक मौके पर, मैं स्त्री न होती तो, धुन देती अलाने-फलाने को। 

यदि मेरा अगला जन्म मनुष्य के रूप में ही होता है, तो निस्संदेह मैं स्त्री होना ही चुनूँगी / चाहूँगी। कामना है यह संसार तब तक कुछ अधिक सुसभ्य व मानवीय हो चुका हो। 

अर्पिता शर्मा - आज के दिन में महिलाओं को किस स्थिति में पाती हैं, विशेषकर भारत में महिलाओं को, सामाजिक, आर्थिक परिप्रेक्ष्य में ? 

कविता वाचक्नवी – महिलाओं की स्थिति में यद्यपि दृश्यरूप में कुछ सुधार हुआ है। स्वतन्त्रता आंदोलन के काल या उससे पूर्व के साथ तुलना करें तो कई अर्थों में सुधार हुआ है, बालविवाह, सतीप्रथा आदि अब लुके-छिपे घटते हैं या न के बराबर हैं, स्त्रीशिक्षा का प्रचलन बढ़ा है, पर्दा काफी कम हुआ है, स्त्रियाँ लगभग प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ी हैं। वे अपनी बात कह सकती हैं, जो स्त्री 'विवाह के कारण सार्वजनिक जीवन से निर्वासित' (महादेवी वर्मा के शब्द) जैसी हो जाती है, सोशल नेटवर्किंग ने उस स्त्री को भी घर बैठे ही समाज से जुडने का अवसर दे दिया है, नगर की स्त्री के जीवन में परिवर्तन अधिक हुए हैं। आश्चर्य यह है कि इन सामाजिक परिवर्तनों और सुधारों के चलते भी समाज का रवैया स्त्रियों के प्रति बहुत नहीं सुधरा, अधिक भयावह ही हुआ है। इन सब सुधारों का प्रतिशत भी बहुत कम है, उन भयावहताओं की तुलना में जिन्होंने स्त्री को घेर लिया है। पितृसत्तात्मक ढाँचा कमजोर नहीं हुआ। बस उसके रूप बदल गए हैं। बलात्कार, भ्रूण-हत्याएँ, छेड़छाड़ और जाने क्या-क्या ! अब तो स्त्री अपनी माँ के गर्भ तक में सुरक्षित नहीं है, जो प्राणिमात्र के लिए संसार का सबसे सुरक्षित स्थान होता है। पितृसत्ता के हाथ माँ के गर्भ तक से उसे खींच बाहर निकाल ला मारते हैं। ऐसे समाज को आप व हम कैसे मानवीय व उदार कह-मान सकते हैं ? भ्रूण की हत्या इसलिए नहीं होतीं कि लड़कियाँ नापसंद हैं, अपितु इसलिए होती हैं क्योंकि यह समाज लड़कियों के लिए मानवीय नहीं है। उस अमानवीयता से बचने / बचाने के लिए उन्हें धरती पर साँस लेने से पहले ही समाप्त कर दिया जाता है। ऐसे भारतीय समाज को कैसे मैं मान लूँ कि स्त्रियों के लिए बेहतर हुआ है ? बलात्कारों का अनुपात और बलात्कार से जुड़ी भयावहताएँ इतनी कारुणिक हैं कि वे सुधार के सब आँकड़ों को अंगूठा दिखाती हैं।

अर्पिता : और आर्थिक सुधारों व स्त्री की आर्थिक निर्भरता ? 

कविता वाचक्नवी : रही आर्थिक स्थिति की बात, तो महिलाओं की आर्थिक स्थिति/ निर्भरता में सुधार यद्यपि हुआ है और वह इन मायनों में कि स्त्रियाँ अब कमाने लगी हैं, किन्तु इस से उनकी अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने का प्रतिशत बहुत कम है क्योंकि वे जो कमाती हैं उस पर उनके अधिकार का प्रतिशत बहुत न्यून है। वे अपने घरों/परिवारों के लिए कमाती हैं और जिन परिवारों का वे अंग होती हैं, उन घरों का स्वामित्व व अधिकार उनके हाथ में लगभग न के बराबर है। समाज में जब तक स्त्री को कर्तव्यों का हिस्सा और पुरुष को अधिकार का हिस्सा मान बँट​वारे की मानसिकता बनी रहेगी,​ तब तक यह विभाजन बना रहेगा। स्त्री के भी परिवार में समान अधिकार व समान कर्तव्य हों, यह निर्धारित किए/अपनाए बिना कोई भी समाज, अर्थोपार्जन में स्त्री की सक्षमता-मात्र से उसके प्रति अपनी संकीर्णता नहीं त्याग सकता। स्त्री की शारीरिक बनावट में आक्रामकशक्ति पुरुष की तुलना में न के बराबर होना, उसे अशक्त मानने का कारण बन जाता है। तीसरी बात यह, कि महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक निर्णयों में भूमिका हमारे पारम्परिक परिवारों में नहीं होती है और यदि शिक्षित स्त्रियाँ अपनी वैचारिक सहमति असहमति व्यक्त करती भी हैं तो इसे हस्तक्षेप के रूप में समाज ग्रहण करता है, जिसकी समाजस्वीकार्यता न के बराबर है। अतः महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए मात्र उनकी आर्थिक सक्षमता ही पर्याप्त नहीं है, अपितु अन्य भी कई कारक हैं। 

अर्पिता शर्मा – फिर थोड़ा लौटते हैं; महिला होने की क्या चुनौतियाँ​, उपलब्धियाँ​ रही हैं, या भविष्य में किन-किन की संभावना / आशंका देखती हैं ?


कविता वाचक्नवी – सामाजिक, शैक्षिक या पारिवारिक जीवन में महिला होने के नाते सदा ही असंख्य भीषण चुनौतियाँ रहीं। संयुक्त परिवार में पलते हुए, कुलीन उच्चकुल की बेटी होने के कारण​ एक ऐसा समय भी था जब हमें चारदीवारी के भीतर रहने की कड़ी हिदायतें थीं। आवश्यकता के समय बाहर जाने पर अकेले जाना हमारे कार्यों व हमें संदिग्ध बनाने को पर्याप्त था। किसी का साथ होना अनिवार्य होता था; भले ही डेढ़, दो, चार वर्ष के चचेरे भाई की उंगली पकड़ कर उसे साथ लिया जाए। मैं बरसों तक अपनी एक अध्यापिका के घर उनसे मिलने जाते समय हाई स्कूल के बाद अपने चलना सीखे चचेरे भाई को साथ ले कर जाती रही। लड़कियों के साथ ही खेली। यह उल्लेख अनिवार्य है कि मेरे पिताजी ने यह भेदभाव कदापि नहीं किया। जब-जब मैं उनके साथ रही, तब-तब उन्होने सहशिक्षा वाले विद्यालयों में पढ़ाया, लड़कों के साथ खूब खेलने भेजा, उनसे कुश्ती तक करवाया करते थे, आर्यसमाज के मंचों पर ले जाते थे, वक्तृता, अध्ययन, लेखन, सामाजिक कुरीतियों व गलत का जी-जान से खुला विरोध आदि करने का कौशल उन्होने ही विकसित किया, किन्तु पिताजी के स्थानांतरण की स्थिति में जैसे ही कक्षा 8वीं के बाद संयुक्त परिवार में आई, तैसे ही रहन-रहन बिलकुल उलटा हो गया। इसीलिए मैं आवश्यकता से अधिक दुस्साहसी बनी क्योंकि पिताजी के स्वतन्त्रचेता होने के संस्कार भीतर थे, उन्हीं का अभ्यास भी था, किन्तु जब उन से अलग वातावरण में रहना पड़ा तो मस्तिष्क और मन को यह स्वीकार्य नहीं हुआ। माँ-पिताजी के यहाँ दूध-दही आदि सब श्रेष्ठ वस्तुओं पर पहला अधिकार मेरा रहता था और संयुक्त परिवार में मक्खन आदि केवल घर के कमाऊ पुत्रों को मिलता था, जबकि घर में गाय थीं और घर में बिलोया जाता था, कोई किसी प्रकार की कमी न थी। ये तो वे अनुभव हैं जो इतने सामान्य हैं कि इन्होंने मन पर कोई खरोंच तक नहीं छोड़ी, किन्तु कुछ दृश्य, अवसर और संस्मरण बड़े कसैले हैं ..... हजारों अनुभव हैं, उन्हें स्मरण तक करने की इच्छा नहीं है क्योंकि उनकी पीड़ा सहन करने का सामर्थ्य आज भी नहीं है, उनके विवरण देने का औचित्य भी नहीं, वे सारे क्लेद हृदय की अतल गहराइयों में हैं, टीसते हैं, रुलाते और तड़पाते हैं, उन्हें कभी किसी कागज पर लिखा-कहा नहीं जाएगा, नहीं जा सकता, आवश्यकता भी नहीं। कह-लिख दूँगी तो शायद चुक जाऊँगी, क्योंकि वे ही तो आग भरते हैं स्त्रियों के लिए लड़ने की। 

अर्पिता : और विवाह के बाद ? 

कविता वाचक्नवी : विवाह जब हुआ उस समय जो कुछ पढ़ रही थी, वह पढ़ाई बीच ही में छोड़ देनी पड़ी। उस समय (लगभग तीस बरस पहले)​ संस्कृत लेक्चररशिप / नियुक्ति लगभग पुष्ट​ (क​न्फ़र्म​) हो चुकी थी किन्तु सब कुछ को तुरन्त अलविदा कहना पड़ा। पर किसी ने दबाव नहीं डाला; यह तो स्वेच्छा से ही तय की गई वरीयता थी। मेरी सन्तान को मेरी आवश्यकता थी। कई ​बरस बाद​ अपने से भी छोटी आयु की लड़कियों / लोगों को प्रोफेसर या रीडर होने के दम्भ में इतराते देखती तो कभी-कभी वे दिन याद आते कि यदि वह न होता तो क्या होता। वर्ष ​ 82’ की छोड़ी पढ़ाई वर्ष 98’ के अन्त में पुनः शुरू की और परिवार चलाते हुए गृहस्थी के साथ ​हिन्दी में एम ए किया, एम फिल (स्वर्णपदक) किया और पीएच डी की। जो कुछ पुस्तक-लेखन, अध्ययन, प्रकाशन, सम्पादन, अध्यापन, संगोष्ठियाँ या उपलब्धियाँ मेरे बायोडेटा या खाते में दर्ज़ हैं वे सब 1998 के बाद की हैं। तो जीवन के लगभग 16 वर्ष केवल गृहिणी, माँ व पत्नी हो कर रही। इन सोलह वर्ष में कुछ न करने का मलाल भी होता है किन्तु स्वयं पर गर्व भी कि अपने बूते, बिना किसी के कन्धों का सहारा लिए, बिना किसी रिश्तेदार, सम्बन्धी के हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाए, बिना रत्तीभर भी समझौता किए, बिना किसी गॉडफादर के, बिना महत्वाकांक्षाओं या उनकी पूर्ति के लिए रत्तीभर भी समझौते किए, अपनी शर्तों पर, अपने बूते, कर्तव्य अकर्तव्य के पिताजी के दिए विवेक के बूते यहाँ पहुँची हूँ, जहाँ आज हूँ। 

अर्पिता : आज तो आपके मायके व ससुराल को आप पर गर्व होता होगा... इतनी योग्यता व उपलब्धियाँ आपके नाम हैं ! 

कविता वाचक्नवी : मैं जिस संयुक्त परिवार से हूँ, वहाँ बेटियाँ नहीं होतीं, पिताजी सात भाई और दो बहन। इन सात भाइयों के घर केवल तीन बेटियाँ, बुआओं के सात पुत्र। तब भी बेटी होने का कोई विशेषाधिकार किसी के पास नहीं। अपने पूरे मायका-कुल में (ददिहाल व नहिहाल में) मैं सर्वाधिक पढ़ी हूँ, सर्वाधिक एकेदेमिक छवि व कार्यक्षेत्र है। मुझसे बाद की पीढ़ी में भी मास्टर्ज़ डिग्री से आगे अब तक कोई नहीं गया। यों यह कोई बड़ी बात नहीं है, किन्तु जब अपने को वहाँ ले जाकर देखती हूँ या कभी-कभार आयोजनों में समूचे परिवार के साथ मिलती-जुलती हूँ तो चुभने वाले कई बीते प्रसंग याद आते हैं और तब दूसरों को भले हो न हो किन्तु अपने पर गर्व होता है। कई बार लगता है कि पिताजी की व उनके माध्यम से आर्यसमाज की रोपी स्वातंत्र्यचेतना और परिस्थितियों द्वारा उस पर लगा अंकुश ही चैलेंज के रूप में रहा हो कि उसने मुझे जुझारु बना दिया। 

अर्पिता : स्त्री होने के नाते बहुत कुछ खोना भी पड़ता ही है भारतीय समाज में, अधिकांश महिलाएँ उस व्यूह में टूट जाती हैं। कोई विशेष अनुभव ? 

कविता वाचक्नवी : स्त्री होने के नाते ​बहुत कुछ खोया भी है। सामाजिक जीवन के कई अनुभव भी बड़े कुरूप हैं। भारतीय समाज में स्त्री का स्त्री होना उसका बड़ा अपराध है। जिसकी सजा हर राह चलता व्यक्ति उसे देने का अधिकार रखता है। मैं सोचती हूँ यदि मुझ जैसी निडर, साहसी और दो टूक स्त्री के प्रति समाज निर्मम हो सकता है तो चुपचाप सब कुछ सहन करने वाली स्त्रियों की क्या दशा होती होगी। जीवन के कुछ अनुभव तो एकदम कभी न मिटने वाली पत्थर पर खोद कर बनाई लकीरों की तरह मन में खुद-खुभ गए हैं। परन्तु विकट से विकट अनुभव ने मुझे और-और साहसी ही बनाया, और-और जुझारु ही बनाया, थकना, टूटना या हार मानना तो कभी सीखा ही नहीं। एक तरह से आप यों कल्पना कर सकती हैं कि जो भारतीय समाज आज्ञाकारी और सहनशील स्त्री तक को सुख से जीने नहीं देता उस भारतीय समाज ने एक विद्रोही, न झुकने वाली और जुझारु स्त्री को भला कैसे सहन किया होगा ? अपने इस विद्रोही, साहसी आदि होने के कई मीठे-कड़वे प्रसंग हैं। अधिकांश तो कड़वे ही हैं । कुछ को मैंने संस्मरणबद्ध भी किया है, जिनमें से एक अत्यन्त लोकप्रिय भी हुआ था "जब मैं छुरा लेकर परीक्षा देने गई" शीर्षक से। शायद आपने देखा-पढ़ा हो | 

अर्पिता : और भविष्य की चुनौतियों का प्रसंग तो छूट ही गया ...

कविता वाचक्नवी : रहा भ​विष्य की चुनौतियों की आशंका का आपका प्रश्न, तो उसके बारे में अभी से क्या कहा जा सकता है। हाँ इतना अवश्य कहूँगी कि भारत में रहते हुए जिन साधारण से साधारण इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता था, आज ब्रिटेन में रहते हुए मैं उन सब को पूरा करने में लगी रहती हूँ। जैसे, स्कूल-कॉलेज के समय से मेरी बहुत इच्छा हुआ करती थी कि मैं चारों ओर से खुले में धरती पर आकाश के नीचे लेट जाऊँ और घण्टों आकाश को देखूँ सब ओर से बेपरवाह होकर..... । वहाँ वह इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई क्योंकि भारत में खुले में सार्वजनिक रूप से एक स्त्री के लेटे होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। किन्तु अब लन्दन में मैं इसे पूरा कर पाती हूँ। जब-जब धूप निकलती है, तो मैं झील के किनारे वाले बहुत बड़े मैदान में अकेली जाकर धरती पर घण्टों लेटी रहती हूँ, कई बार सो भी जाती हूँ । यहाँ कोई इसे अन्यथा नहीं लेता व न इसे मेरी अनधिकार चेष्टा समझता है। कुछ पुरुषों की टीम थोड़ी दूरी पर सदा ही वहाँ फुटबाल खेल रही होती हैं। वे भी मुझे लेटा जानकर थोड़ा आदर करते हुए कुछ दूर चले जाते हैं। यहाँ मुझे कोई अनुभव ही नहीं करवाता कि मैं स्त्री हूँ तो कुछ दोयम हूँ, कुछ दर्शनीय वस्तु हूँ, कुछ कमतर हूँ, कुछ खाद्य हूँ, कुछ छू कर देखने की वस्तु हूँ, कुछ छेड़छाड़ की छूट मेरे प्रति ली जा सकती है, कुछ मुझे धकेला, बरगलाया जा सकता है, मेरे वस्त्रों के पार देखने की चेष्टा की जा सकती है, मेरी देह कोई लज्जा की वस्तु है कि उसे लेकर मुझे सदा अपराधबोध से ग्रस्त रहना चाहिए और उसे संसार की नजरों से बचाए-छिपाए रखना चाहिए, या मैंने स्त्री होकर कोई अपराध कर दिया है, या मेरा बौद्धिक स्तर स्त्री होने के नाते निस्सन्देह कमतर होगा, या मुझे स्वयं को शक्तिहीन समझना चाहिए और पुरुष के पशुबल से आक्रान्त रहना चाहिए। अर्थात् स्त्री होने के नाते मुझे अपनी सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। ऐसी निश्चिंतता मैंने भारत में कभी नहीं पाई। हाँ, स्त्री होने के नाते जो बुरा अनुभव मुझे यहाँ होता है वह यह कि अधिकांश लोग भारतीय समाज की स्त्री होने के कारण बलात्कार वाले वातावरण से जोड़ कर देखते हैं कि इनके देश में तो स्त्री से जब चाहे, जो चाहे, जहाँ, जैसे चाहे बलात्कार कर सकता है। 
अर्पिता : और वहाँ पुरुषों का आपसे व्यवहार कैसा है ? 

कविता वाचक्नवी : इस देश में लोग (पुरुष भी) हमें छूते हैं, गले लगाते हैं, सार्वजनिक रूप से चूमते हैं (वह अभिवादन का तरीका है) किन्तु उनके स्पर्श में कभी रत्ती भर भी लैंगिक आकर्षण का अंश नहीं होता। यह अनुभव आत्मविश्वास और सुरक्षा लौटाता है। पुरुष डॉक्टर तक मनोबल बढ़ाने के लिए आकर गाल सहलाते हैं, कई बार दोनों हाथों में चेहरा लेकर सहला देते हैं, ये अनुभव मुझे विशेष राहत और सुख देते हैं। यहाँ की स्त्री के लिए भले विशेष न हों किन्तु हम भारतीय परिवेश की पली-बढ़ी स्त्रियों के लिए ये स्वस्थ स्पर्श पुराने घावों पर मरहम-से प्रतीत होते हैं, जो कई घाव भर देते हैं। हमने अपरिचित पुरुष का यह रूप नहीं देखा हुआ होता, इस वातावरण व सहज सम्पर्क से हमारा परिचय हमें अकुण्ठ करता जाता है मानो। 

अर्पिता शर्मा - बहुचर्चित दामिनी प्रकरण (16 दिसम्बर, दिल्ली में बस में हुए जघन्य बलात्कार) के भारतीय समाज में क्या मायने पाती हैं? क्या परिवर्तन होगा या फिर शांति? 

कविता वाचक्नवी – दामिनी के साथ हुए जघन्य काण्ड से देशभर में एक लहर-सी आ गई थी। किन्तु वह आक्रोश का बुलबुला जिस तेजी से फूला था, उसी तरह फूट भी गया। भारतीय समाज के साथ विडम्बना यह है कि वहाँ सब के सब ओर की परिस्थितियाँ बहुत आक्रोशपूर्ण हैं। व्यक्ति किस-किस के विरुद्ध आक्रोशित हुआ रहे और कब तक ? व्यक्ति की मानसिकता कितने दिन इसे सहन और वहन किए रख सकती है ? ऊपर से जीवन जीने की विवशताएँ और दबाव भी हैं जिनमें उन्हें जुटना है, उनके पास इतनी सुविधा नहीं कि वे हर एक बात और घटना पर अपने आक्रोश को सिरे तक पहुँचाएँ और कोई हल निकालें। उन्हें उन्हीं के साथ जीना मरना है। इसलिए दामिनी प्रकरण हो या गोहाटी का प्रकरण, ये तो वे प्रकरण हैं जो प्रकाश में आ गए किन्तु इनके समानान्तर ठीक उसी दिन, उसी नगर में अन्य कई लड़कियों के साथ निरन्तर अमानवीय क्रूरताएँ होती रहीं किन्तु उनका देश ने नोटिस ही नहीं लिया। प्रति २० मिनट पर एक स्त्री बलात्कार की शिकार होती है भारत में। ​यह केवल दर्ज अपराधों का आंकड़ा है। अतः वास्तव में यह दर क्या होगी, इसकी कल्पना से रोंगटे खड़े हो जाएँगे ३, ५ व ८ वर्ष की बच्ची से तो आगामी दिन ही बलात्कार की सूचना समाचारपत्रों में थी​। ​ इसी बीच इम्फाल में १८ दिसम्बर २०१३ को ही एक २२ वर्ष की अभिनेत्री व मॉडल Momoko को भरी भीड़ में से खींच कर उसके साथ यौनिक व्यभिचार के लिए ले जाया गया। इसके विरुद्ध सड़कों पर विरोध के लिए उतरी भीड़ पर पुलिस द्वारा चलाई गयी गोली से दूरदर्शन के एक पत्रकार मारे गए। इस प्रकार स्त्री के प्रति जघन्यतम अमानवीयताएँ वहाँ दैनन्दिन जीवन का हिस्सा हैं। 

भविष्य में दामिनी प्रकरण का क्या परिणाम होगा उसके अनुमान के लिए थोड़ा पीछे जाएँ। वर्ष 78’ में गीता और संजय चोपड़ा भाई-बहन के साथ हुई क्रूरता भी तत्कालीन समाज में बड़ी घटना थी, पर फिर धीरे-धीरे समाज उसका अभ्यस्त होता चला गया। कुछ भी नहीं बदला, अपराध उल्टा तब से अब अधिक बढ़े ही हैं। इसलिए शान्ति का तो निकट भविष्य में प्रश्न ही नहीं। कोई सरकार इस पर पूर्ण अंकुश नहीं लगा सकती क्योंकि जब तक जन-जन में स्वानुशासन और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था नहीं, संस्कार नहीं, तब तक डण्डे के ज़ोर पर समाज को बदलना सम्भव नहीं। हम भारत के लिए पिछड़े देशों जैसी न्याय-व्यवस्था की कामना नहीं कर सकते । 

अर्पिता : लोगों ने दण्ड कड़े करने, स्त्रियों को नियन्त्रण में रहने और वस्त्रों आदि की हिदायतें दी हैं। क्या वे ठीक हैं ? 

कविता वाचक्नवी : हैवानियत से बचाव का उपाय सुझाना, संस्कारों के नाम पर पर्दे की वकालत, दण्ड-व्यवस्था के रूप में अरब आदि देशों के उदाहरण, कोई न कोई हल सुझाने की हड़बड़ी व अदूरदर्शिता आदि की बातें भारत को नष्ट करने के लिए बहुत काफी हैं । कोई हल न निकाल पाने की मजबूरी के चलते भारत को भी लीबिया या सीरिया जैसा देश नहीं ​बना दिया जा सकता । सब लोग मानो एक साजिश के तहत भारत को और हजार साल पीछे धकेलने वाले अमानवीय तरीकों को सुझावों और हल के रूप में देख रहे हैं। ​ऐ​से लोगों की ​आँखें ही नहीं खुलतीं कि यही सब जारी रहा और यही सब हल व तरीके ​यदि स्त्री-सुरक्षा के​ समाधान रहे तो भारत जल्दी ही बुर्के और घूँघटों ​वालियों का ऐसा देश बन जाएगा जहाँ ​पिछड़े​ देशों की तरह ​की दण्डप्रणाली लागू की जाए। समाधान के तरीकों पर बात करते समय इन खतरों से वाकिफ रहना बेहद जरूरी है। कोई समाधान या उदाहरण हजार साल पीछे व पिछड़े हुए देशों का नहीं अपनाया जा सकता....​। दूसरी ओर देश में बलात्कारों ​के लिए लड़कियों के रहन-सहन और वस्त्रों को लेकर हर बार की तरह बहस करने वाले लोग लड़कियों को ही दोष देने लग गए, मानो वे स्वयं बलात्कारियों को आमन्त्रित करती हैं। 

जिन लोगों को स्त्री के वस्त्र और उसका खुले में घूमना या साँस लेना स्वीकार्य नहीं, वे वही लोग हैं जिन्हें अपने पर संयम नहीं। ऐसे असंयमी लोगों को चाहिए कि अपने लिए बुर्के तलाश लें और ऐसे समय बाहर निकला करें जब संसार की हर औरत सो चुकी हो। या फिर बाहर निकला ही न करें। ऐसे असंयमी पशुओं को अपने असंयम के चलते मनुष्यों को दड़बे में बंद करने का कोई अधिकार नहीं। जंगली पशु को दड़बे/पिंजरे/सलाखों में बंद किया जाता है, न कि जंगली पशुओं से बचाए जाने वालों को। 

लड़कियों के वस्त्रों और शाम के बाद बाहर घूमने या पुरुष मित्र के साथ फिल्म देखने की आड़ में स्त्री को दोषी ठहराने व बंदी बनाने वाले कुतर्क करते हुए यह याद रखना अनिवार्य है कि दुनिया के सारे सभ्य देशों में महिलाएँ कई-कई बार पूरी रात भी बाहर रहती हैं, घूमती हैं, पार्टी करती हैं.... और तो और योरोपीय देशों में तो पुरुष मित्रों के साथ प्रगाढ़ चुम्बन लेती हैं, सार्वजनिक स्थलों पर लेटी भी मिलती हैं, कपड़े भी अत्याधुनिक व कई बार तो न्यूनतम पहनती हैं; अर्थात वह सब करती हैं, जो पुरुष या पूरा समाज सार्वजनिक रूप से करता / कर सकता है। परन्तु क्या उन सबके साथ इन कारणों और इन कुतर्कों का बहाना बना कर हरदम बलात्कार हुआ करते हैं ? 

वस्तुतः यह स्त्रियों पर शासन करने की प्रवृत्ति ही तो बलात्कारी मानसिकता की जनक है। जो ऐसे दुष्कर्म करते हैं वे भी किसी के भाई और बेटे तो होते ही हैं, भले ही वे अपनी सगी बहनों से शारीरिक बलात्कार न करते हों, पर मानसिक, वैचारिक व भावनात्मक बलात्कार (बलपूर्वक किया गया कार्य)​ तो घरों में अपनी बहनों, पत्नी व माँ के साथ भी होते हैं। अपने घर की स्त्रियों से शुरू हुई इसी शासन की आदत से दूसरों की बेटियाँ इन्हीं भाइयों और बापों द्वारा मारी गई हैं... इन्हीं भाइयों और बापों की आधिपत्य लिप्सा और स्त्री को अपने सुख की वस्तु और लिप्सापूर्ति का साधन समझने की आदत के कारण स्त्रियों की दुर्दशा है। 

और जब तक स्त्री पर शासन करने का संस्कार और मानसिकता आमूलचूल समाज से नहीं जाती तब तक स्त्री की सुरक्षा या बलात्कारों पर अंकुश या शान्ति जैसी कल्पनाएँ केवल कल्पनाएँ हैं, यथार्थ नहीं।


अर्पिता शर्मा – आपकी आभारी हूँ कि साधारण से प्रश्नों में निहित भावों को भाँप कर आपने उनका समाधान करते हुए मुझे इतना समय दिया। अपनी ओर से व पत्रिका की ओर से आपका आभार व्यक्त करती हूँ।


शनिवार, 29 नवंबर 2014

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मान-समारोह एवं आमन्त्रण

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मान-समारोह एवं आमन्त्रण


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त अपने जीवन के इस अमोल अवसर पर मैं तो उपस्थित नहीं हो सकूँगी (मेरी ओर से मेरा कनिष्ठ पुत्र यह सम्मान ग्रहण करेगा), किन्तु मित्रों को आग्रहपूर्वक निमन्त्रण है कि वे अधिकाधिक उपस्थित होकर शोभा बढ़ाएँ। 

बड़े आकार में देखने के लिए एक-एक कर चित्रों पर क्लिक करें  -






शनिवार, 1 नवंबर 2014

भाषा और साहित्य के विद्वान व लेखक सम्मानित

भाषा और साहित्य सम्मान

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान सहित प्रत्येक ज्ञात-अज्ञात के प्रति आभार सहित

मुखपृष्ठ, दैनिक जागरण, 1/11/14
पृष्ठ 4,  दैनिक जागरण, 1/11/14 

सोमवार, 15 सितंबर 2014

पीढ़ियाँ

पीढ़ियाँ


'नई दुनिया' (इन्दौर) के 7 सितम्बर 2014 के रविवासरीय 'तरंग' में प्रकाशित कविता, 'पीढ़ियाँ'



मंगलवार, 2 सितंबर 2014

बच्चे : प्रधानमन्त्री की वरीयता

बच्चे और प्रधानमन्त्री :  साधारण से असाधारण तक  : कविता वाचक्नवी


आजकल प्रत्येक समझदार व्यक्ति इस बात से चिन्तित है कि समाज की भावी पीढ़ी सही मार्ग पर कैसे चले, उसका सही निर्माण कैसे हो, उसे अच्छे संस्कार कैसे मिलें, वह अधिक सामाजिक कैसे हो, वह अधिक मानवीय व अधिक योग्य कैसे हो। जो लोग स्वयं माता-पिता बन चुके हैं वे तो और भी अधिक चिन्तित रहते हैं और पैसा खर्च कर-कर कर जाने सुबह से रात तक अपने बच्चों को क्या-क्या सिखाने के लिए यहाँ से वहाँ भेजते हैं या ले जाते हैं। प्रत्येक सचेत ही नहीं, बल्कि बुरे-से-बुरे व्यक्ति भी माता-पिता बनने पर अपनी सन्तान को एक अच्छा, बेहतर व भला नागरिक बनाना चाहते हैं (यह बात दीगर है कि वे इसमें अपनी कमियों या अपनी असमर्थताओं के कारण कई बार सफल नहीं होते)। 


हमारे समय में भी, जब हम छोटे-छोटे थे तो हमारे व हमारे साथियों के माता-पिता हमें ऐसी प्रत्येक जगह ले जाते थे, दिखाते थे, समझाते थे, पढ़ाते थे, जहाँ/जिस से कुछ भी अच्छा हो रहा हो और कोई भी अच्छा संस्कार मिलता हो, या जिस से हम में योग्यता, आत्मविश्वास, सद्गुण, गौरव की भावना अथवा प्रेरणा मिलती हो /बढ़ती हो। उस समय भले हमें अच्छा लगता हो या न लगता हो, किन्तु अब बड़े होने पर उनका मूल्य पता चला है कि उन घटनाओं ने हमारे निर्माण में कितनी महती भूमिका निभाई है और आज यदि हम साधारण से थोड़ा भी कुछ विशेष हैं तो उन्हीं सब के कारण। 


फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे टीवी आया, बच्चों और परिवार का समाज से व सत् + संग (अच्छे लोगों की संगत) आदि सब से नाता टूट गया। रही-सही कसर कंप्यूटर ने पूरी कर दी कि बच्चे अपने माता-पिता तक की नहीं सुनते जब वे कंप्यूटर पर किसी खेल में लगे होते हों। बच्चों पर उनके माता-पिता का ही बस नहीं चलता। भारतीय भाषा समाजों की स्थिति तो और भी खराब है क्योंकि हमने नेट पर उनके लिए कोई विकल्प ही उपलब्ध नहीं करवाए। अतः ले-दे कर बच्चे नेट पर गलत-सलत चीजों में समय बर्बाद करते रहते हैं और माता-पिता अवश से इस प्रतीक्षा में रहते हैं कि काश कोई हमारे बच्चों को ऐसा मिल जाए जो उन्हें कुछ समझा सके, सिखा सके या जिस से वे कोई सही बात समझ-सीख सकें। 


ऐसे में देश के प्रधानमन्त्री बच्चों से एक सम्वाद स्थापित करना चाहते हैं, तो यह प्रत्येक माता-पिता के लिए एक अवसर है कि इस घटना से उनके बच्चे को किसी प्रेरक अनुभव की संभावना है। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आज़ाद ने भी युवा पीढ़ी से संवाद स्थापित किया था, वे स्वयं उन्हें पढ़ाने का उदाहरण बने। मोदी आज युवा से भी आगे जाकर बालकों और किशोरों को कुछ उद्बोधन देना चाहते हैं तो यह माता-पिता के लिए एक हितकारी अवसर है, किसी भी माता-पिता को इसमें आपत्ति नहीं हो सकती। पर देश को बर्बाद करने वाले राजनीति के खिलाड़ियों की तो असली रुचि सदा से इस देश की भावी पीढ़ी का विनाश करने में रही है। इसलिए उन्हें डर लग रहा है कि देश की भावी पीढ़ी कहीं देशभक्त प्रधानमन्त्री से देशभक्ति का पाठ न पढ़ ले। अगर देशभक्ति का पाठ पढ़ लिया तो गंदी राजनीति करने वालों की दाल नहीं गलने देंगे ये बच्चे युवा होने पर। वैसे भी जिसने अपनी ही सन्तान पर कभी ध्यान नहीं दिया और मतिमन्द सन्तान बनाई, उस से देश के बच्चों का यह हित देखा नहीं जा रहा। इसलिए इसमें भी राजनीति के पाँसे फेंक रहे हैं। माता-पिता से चाहते हैं कि वे अपनी ही सन्तान के दुश्मन हो जाएँ। एक सुअवसर को खो दें। कैसे-कैसे प्रपंची लोग भरे पड़े हैं !!

सच तो यह है कि कोई भी समझदार और जिम्मेदार माता-पिता इस अवसर का लाभ लेने से अपनी सन्तान को वंचित नहीं करना चाहेगा व न ही वंचित रहना चाहिए। 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

'श्रावणी उपाकर्म', 'नारियली पूर्णिमा' व 'रक्षा-बन्धन' : डॉ. कविता वाचक्नवी

'श्रावणी उपाकर्म', 'नारियली पूर्णिमा' व 'रक्षा-बन्धन'  :  कविता वाचक्नवी


श्रावणी पूर्णिमा के पर्व रक्षा-बन्धन की ढेरों मंगलकामनाएँ ! 



इस अवसर की सार्थकता केवल कलाई पर रेशमी डोरे बाँधने में नहीं है, न सज-धज कर माथे पर तिलक करवा लेने में। इस पर्व की सार्थकता अपने जीवनऔर परिवेश में आने वाली स्त्रियों की समूल सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने में है। जब बहनें कलाई पर डोर बाँधती हैं तो केवल अपनी रक्षा का वचन लेने के लिए नहीं, अपितु अपने भाइयों को यह स्मरण दिलाने के लिए भी कि स्त्रियों के सम्मान की सुरक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है अर्थात् असुरक्षा का निषेध। 

कुछ लोग रक्षाबन्धन को स्त्री के सामर्थ्य का विरोधी बताने का अभियान प्रतिवर्ष की भाँति इस बार भी चलाएँगे, यह कहकर कि स्त्री क्या कमजोर है जो उसे सुरक्षा चाहिए। वस्तुतः यह पर्व स्त्री को कमजोर होने या सुरक्षा की अपेक्षा करने का नहीं अपितु भाइयों/पुरुषों को यह स्मरण दिलाने और कर्तव्यबोध करवाने का है कि वे अपनी दृष्टि और अपना शक्ति-सामर्थ्य स्त्री-मात्र के सम्मान के लिए प्रतिबद्ध होने और उस सम्मान की रक्षा में लगाने का संकल्प लें।


सुरक्षा करने के दो ढंग होते हैं। एक तो असुरक्षा होने पर सुरक्षा करना और दूसरा असुरक्षित अनुभव करवाने वाला कोई कार्य स्वयं भी न करना, न दूसरों को करने देना। यह पर्व सुरक्षा करने से अधिक असुरक्षित न करवाने का व्रत भी दिलवाता है। बहन-भाइयों के स्नेह का प्रतीक तो है ही। अतः बहनें अपने भाइयों से अपनी रक्षा का नहीं अपितु अपने मान-सम्मान सहित सभी स्त्रियों के मान-सम्मान की रक्षा का व्रत लेती हैं और साथ ही भाई-बहन के रिश्ते को उसी स्नेह-प्यार के साथ बनाए-बचाए रखने का संकल्प भी देती-दिलवाती हैं। 


रक्षा-बन्धन पर वस्तुतः मन की मलीनताओं का परिमार्जन करने के साथ-साथ उसे श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने का संकल्प करना चाहिए। रक्षा बन्धन आत्मोन्नति व मानवीय मूल्यों के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है। ऐसा करने वाले ही मातृशक्ति के उच्च अनुदानों के महत्व को समझ सकते हैं और तभी मातृशक्ति से स्नेह-सम्मान प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं। समाज व राष्ट्र के सदस्यों को यह पात्रता मिलती रहे इस योग्य बनाने के लिए ही इस पर्व का विधान किया गया। 


यही श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ही 'श्रावणी उपाकर्म' का दिन भी होता है। उपाकर्म का अभिप्राय होता है प्रारम्भ करना। अतः उपाकरण का अर्थ है प्रारम्भ करने के लिए पास लाना या आमन्त्रित करना। मूलतः वैदिक काल में वेदाध्ययन के लिए विद्यार्थियों का आचार्य के पास एकत्रित होने का काल था। गुरुकुलों में उपनयन व वेदारम्भ संस्कार किए जाते हैं, इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। यज्ञोपवीत बदल कर नए धारण किए जाते हैं। श्रावणी पूर्णिमा को ही 'संस्कृत दिवस' भी मनाया जाता है।


गत वर्ष भी मैंने लिखा था कि श्रावणी पूर्णिमा को 'नारियली पूर्णिमा' भी कहा जाता है क्योंकि समुद्र किनारे बसने वाले वेदपाठी लोग श्रावणी उपाकर्म के विधानानुसार कर, इस दिन केवल नारियल का फलाहार करते हैं। साथ ही संभवतः इसलिए भी क्योंकि सावन में वर्षा का आधिक्य होने के कारण समुद्र किनारे बसने वालों के लिए जल-थल और वर्षा आदि के तूफान में समुद्र में उतरने से आपदा की आशंका रहती थी तो वे समुद्र को नारियल अर्पित करके श्रावणी पूर्णिमा की पूजा आदि करते आए हैं। कोंकण व महाराष्ट्र में नारली पूर्णिमा शब्द का खूब प्रचलन है। प्रकृति एवं पर्यावरण के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का विधान भी है । 


हैदराबाद के निज़ाम द्वारा औरंगज़ेबी फ़रमान जारी कर राज्य में हिन्दू विधि-विधानों (पूजा, यज्ञ, मंदिरों पर झण्डा, यज्ञोपवीत, संस्कार, घंटे-घडि़याल बजाना, कीर्तन, जागरण करना, रामायण, गीता, महाभारत की कथा आदि समस्त कार्यों) पर प्रतिबंध लगा देने के विरोध में वहाँ के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए निज़ाम के विरुद्ध आर्यसमाज ने सत्याग्रह किया था, जिसका संयोजन महात्मा नारायण स्वामी जी ने किया था। आर्यों द्वारा प्रारम्भ किए इस आंदोलन में बलिदान देने के लिए देश भर से आर्यों के जत्थे हैदराबाद पहुँच रहे थे। तब वीर सावरकर भी साथ देने के लिए शोलापुर पहुँचे और कहा 'आर्यसमाज हैदराबाद आन्दोलन में अपने आपको अकेला न समझे'। सावरकर की प्रेरणा पर सनातन धर्मी विचारधारा के भी अनेक व्यक्ति हैदराबाद आन्दोलन में जेल गए और भीषण यातनाएँ सहन कीं। वीर सावरकर ने पुणे जाकर हिन्दू महासभा का विशाल जत्था हैदराबाद भिजवाया। इस प्रकार आर्यसमाज के इस सत्याग्रह आन्दोलन में हिन्दू महासभा ने भी सावरकर की प्रेरणा से पूर्ण सहयोग दिया। 


'हैदराबाद सत्याग्रह स्मारक व्याख्यान-माला' के अनुसार - "खेद है कि गांधीजी एवं अन्य कांग्रेसी नेताओं ने कुसंस्कारों के अनुसार, मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के अनुसार ही आर्य समाज के इस असाम्प्रदायिक आर्य सत्याग्रह को साम्प्रदायिक आर्य सत्याग्रह बताया। इतना ही नहीं, गांधी जी ने अपने ‘हरिजन’ पत्र में इसकी कटु आलोचना की। पूर्व मध्य प्रदेश तथा बरार विधान सभा के अध्यक्ष श्री धनश्याम सिंह जी गुप्त ने गांधी जी को निजाम के अत्याचार तथा नागरिक अधिकारों का विशेषकर धार्मिक अधिकारों का हनन करने का सम्पूर्ण विवरण बताया, तब कहीं गांधी जी ने अपने अधखुले मुंह से इस सत्याग्रह की सफलता के लिए कुछ शब्द कहें। गांधी जी के असहयोग रवैये की देशभर में कटु आलोचना हुई। तब सामाजिक अपयश से बचने के लिए उन्होंने कहा- “धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए चलाए गए आन्दोलन से तो मुझे सहानुभूति है, किन्तु हिन्दू महासभा द्वारा आन्दोलन में कूद पड़ने से यह साम्प्रदायिक हो गया है।" ऐसी कड़वी बात हिन्दू महासभा के तत्कालीन कर्णधार कैसे सहन कर सकते थे ? उन्होंने तत्काल नहला पर दहला मारा। वीर सावरकर तथा डॉ. मुंजे ने गांधी जी के वक्तव्य का उत्तर देते हुए कहा - "गांधीजी बताएँ, कि वन्देमातरम् को सहन न करने वालों, हिन्दी भाषा का विरोध करने वालों एवं स्वाधीनता संग्राम में सहयोग न देने की धमकी देने वालों की चापलूसी करना, उन्हें सिर पर चढ़ाना क्या बड़ा भारी धर्म निष्पक्षता व न्याय है? क्या वह साम्प्रदायिकता का पोषण करना नहीं है?" उल्लेखनीय है कि गांधी जी के इस निराशा भरे वक्तव्य से आर्य सत्याग्रह को और भी बल मिला और उसमें तेजी आ गई।" 

अन्ततः रक्षा बंधन के दिन ही आर्यसमाज को अपने इस सत्याग्रह में विजय मिली और निज़ाम को झुकना पड़ा। 

आज उपाकर्म, वेदपाठ, अपने भाई-बान्धव, रक्षाबन्धन के सुनहले धागे, संस्कृत दिवस के हजारों संस्मरण और महाराष्ट्र खूब याद आ रहे हैं। 


...तो इस इस बार पुनः इस श्रावणी पूर्णमा के दिन अपनी बेटी, अपनी ननद व अपनी ओर से संयुक्त रूप में नारियल के लड्डू व सेवइयाँ बनाऊँगी ताकि बेटी के भाइयों (अपने सुपुत्रों) ननद के भाई (अपने पति) व साथ ही अपने भाइयों को खिला सकूँ। बेटा व उनके पिताश्री को तो अपनी-अपनी बहन की ओर से प्रत्यक्ष खिला दिया जाएगा; रह जाएँगे तो बस मेरा छोटा बेटा और मेरे भाई ! 


सुपुत्र और अपने भाइयों को बार-बार असीसती हुई ढेरों मंगल कामनाएँ भेज रही हूँ। वे जहाँ भी हैं सदा सुखी रहें और अपने मन-वचन या कर्म से कभी किसी स्त्री के सम्मान व सुरक्षा को आघात न पहुँचाएँ। सभी प्रकार का सुख-सौभाग्य उन पर बना रहे। चिरायु-शतायु हों! 

इन आधुनिक माध्यमों से जुड़े अपने भाइयों के लिए भी यही मंगल कामना है। 

सस्नेह ...
क. वा.


बुधवार, 9 जुलाई 2014

संकलन हेतु रचनाएँ आमन्त्रित

संकलन हेतु रचनाएँ आमन्त्रित 

An appeal to the writers based outside India / भारत से बाहर के लेखकों से रचनाएँ आमन्त्रित

A book named `Meri Maan' (My Mother) has been planned to be published on the concept, ethos and practices of motherhood in different parts of the world. The nature of the book will be literary, cultural and social only. The object of the book is to present a contemporary scenario as well as traditional aura of motherhood in different societies. 

The project is being supported and sponsored by Shri B. K. Birla, renowned industrialist of India. A committee of Indian scholars has been constituted for compilation of articles related to the subject.

We will be grateful if you kindly spare some time for this noble cause and write an article on the above subject, especially in view of the land to which you belong or the country in which at present you reside. The language of the article should be either Hindi or English. In special cases, we will try to translate valuable articles received in other languages too. 
We shall also welcome some poems related to the subject, composed by you or other prominent poets of your country.

We will also require your photograph (passport size) and your bio data. Please, try your best to mail to me all the press materials at the earliest.

A copy of the printed book along with a memento will be sent to you as a mark of respect.

'मेरी माँ' शीर्षक से एक पुस्तक के लिए विश्वभर के रचनाकारों की रचनाएँ/लेख ( साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक) आमन्त्रित हैं। पुस्तक का उद्देश्य विभिन्न समाजों में मातृत्व और उसकी गरिमा/महिमा के विविध पक्षों को रेखांकित/प्रस्तुत करना है। यह योजना भारत के प्रमुख उद्योगपति श्री बी. के. बिरला द्वारा संपोषित है। 

आप जिस देश में रहते हैं, वहाँ मातृत्व की किसी विशिष्ट छवि को उकेरेते हुए एक लेख हिन्दी अथवा अंग्रेजी में हमें शीघ्रातिशीघ्र भेजें। कुछेक महत्वपूर्ण लेखों के अनुवाद का प्रावधान भी है। कुछ बहुत महत्वपूर्ण कविताओं को भी इसमें सम्मिलित किया जाएगा। अतः आप अपने देश के किसी महत्वपूर्ण रचनाकार की 'माँ' विषयक कोई विशिष्ट कविता भी हमें भेज सकते हैं। प्रयास करें कि शब्दसीमा 1000 के लगभग रहे। शेष जानकारी हेतु टिप्पणी द्वारा सम्पर्क करें। 

रचना के साथ रचनाकार का पासपोर्ट आकार का चित्र व संक्षिप्त औपचारिक परिचय भी शीघ्रातिशीघ्र भेजें।  30 अगस्त के पश्चात् भेजी गई रचनाएँ स्वीकार नहीं की जाएँगी। 

प्रकाशनोपरांत स्मृतिचिह्न के साथ लेखकीय प्रति सादर भिजवाई जाएगी। पुस्तक का लोकार्पण आगामी वर्ष दिल्ली में होगा। 

(यदि आप किसी विदेश में रहने वाले लेखक से परिचित हैं तो कृपया उन तक इस सूचना को भिजवाएँ)



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