रविवार, 15 अगस्त 2010

हमारे दिल में : देश मेरा रंगरेज़ : हम लोग

हमारे दिल में  : देश मेरा रंगरेज़ : हम लोग  
कुछ दिन पूर्व "हम लोग "  (दैनिक) के द्वारा १५ अगस्त के विशेष संस्करण   हेतु आहूत एक प्रश्नोत्तर- परिचर्चा की प्रश्नावली उनके सौजन्य से प्राप्त हुई. उस प्रश्नावली में ५ प्रश्न थे, जिन पर अपने विचार लिख कर निर्धारित समय तक भेजने की बात थी. अनिल जनविजय जी, सुधा धींगड़ा जी व तेजेंद्र शर्मा जी सहित मुझे प्रत्युत्तर लिखने थे.


आज के उनके दैनिक समाचार पत्र में उक्त परिचर्चा को प्रकाशित किया गया है; इस आशय की सूचना सहित समाचार पत्र के इस विशेषांक पर केन्द्रित तीन पन्ने मुझे  डॉ. दुष्यंत जी के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं. मैं उनकी सदायता हेतु आभार व्यक्त करती हूँ कि उन्होंने यह अवसर हमें उपलब्ध करवाया. 



प्रिंटिंग / छपाई में कुछ प्रूफ की त्रुटियाँ व अंतर रह गए हैं, तदर्थ मैं अपने हिस्से के पाठ को मूल रूप में भी प्रस्तुत कर रही हूँ. ताकि वाक्य व कथन स्पष्ट हो सकें.


१. How do you feel being Indian?
स्वाभाविक है कि भारतीय होना मेरे अस्तित्व से जुड़ा है इसलिए अपने अस्तित्व के प्रति सहज निजता, गौरव व ममत्व का भाव है|

२. How do you miss India?
भारत का अभाव व कमी किस रूप में अनुभव करने का जहाँ तक प्रश्न है, तो उतना ही अभाव खटकता है जितना आज के भारत में अपने बचपन के भारत का खटकता था. वस्तुत: हमारे सपनों और वाँछाओं का भारत तो बरसों पहले जाने कहाँ खो गया या लुप्त हो गया. आज का भारत, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए, उतना ही पराया भारत से बाहर रहकर है, जितना कि भारत में रहकर . मेरी कल्पना के भारत से यह छवि मेल ही नहीं खाती, भले भारत में रहूँ या भारत से बाहर. लगभग सब कुछ जैसे विलुप्ति के कगार पर पहुँचा हुआ हो. भारत यों भी मूलतः किसी भोगौलिक सीमारेखा का नाम नहीं था, भारत एक संस्कृति था जिसके मानने वाले भारतीय कहाते थे. उस संस्कार के लिए किसी क्षेत्रीय सीमारेखा का अस्तित्व `नेशन' के रूप में सीमाएँ तय होने से पूर्व तक नहीं था. ये सीमाएँ बहुत नई व्युत्पत्ति हैं, जबकि भारत लाखों वर्ष पुराना ; जब इन भोगौलिक सीमाओं से देशों के अस्तित्व की अवधारणा भी उत्पन्न न हुई थी. इसलिए जब-जब वह संस्कार जहाँ जहाँ नहीं है , तहाँ तहाँ भारत भी नहीं. वहाँ वहाँ उस का अभाव खटकता है. 

३. Do you hope to settle in India in your life time ?
सच कहूँ तो मुझे भारत के अपराध की दर और निरंतर भ्रष्टतर होते चले जाते चरित्र से बहुत डर लगता है. परिवारों से लेकर संस्थाओं-संगठनों व प्रत्येक तंत्र में जितना छल-कपट, स्वार्थ- ईर्ष्या, झूठ-फरेब व चालाकी-राजनीति भर गई है, वह भीषण है. इन सारे कुचक्रों के बीच वह भारत कहीं दीखता ही नहीं जिसके पास दौड़ कर पहुँच जाया जा सके. इन अर्थों में वह गोद खो गई है मानो, जिसकी प्रतीति-भर से प्राणों में सुख का संचार होता है. लौट कर उस गोद की आस तक न होने पर कहाँ जाएगा व्यक्ति ? फिर पारिवारिक कारण भी एक महत्वपूर्ण तथ्य हैं क्योंकि जब-जब जहाँ परिवार रहेगा वहाँ-वहाँ रहना अनिवार्य होगा. हाँ, कल्पना में उस छाँव की खोज तो सदा बरसों से मन के भीतर चलती रहती है जैसी पंछियों का पेड़ कट जाने पर होती है. इतना निश्चित है कि मेरी तरह उस छाँव की कमी बहुत से भारत में रहने वाले लोगों को भी अवश्य अनुभव होती होगी, है.

४. How nostalgic you are about India and your places in India ?  

बिना लाग लपेट के कहें तो पागलपन की सीमा तक वे स्थल रीता बना गए हैं, छूटने के बाद से. बचपन की गलियाँ और पर्वत घाटियाँ मानो हरदम बुलाती हों.
इसी की खोज पूरी नहीं होती. तरसती हूँ कि कहीं से लौट आएँ वे मधुर आत्मीय दिन.
 

५. Are you satisfied with image of India outside India?
कदापि नहीं, भारत में रहने वाले और भारत से बाहर रहने वाले भारतीयों ने देश के सम्मान के साथ भयंकर खिलवाड़ किए हैं, उस पर राजनीति के चौसर पर गोटियाँ खेलने वालों व लूट खसोट करने वालों ने रही सही कमी पूरी कर दी. स्वाभिमानी और सम्मानजनक भारत की इस विकट कुरूप छवि में सुधार के लिए प्रत्येक भारतीय को आत्मानुशासन, औदात्य व चरित्र का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करना होगा, जिसकी अत्यंत कमी है समकालीन अवस्था में तो. समूचे भारत में केवल भारतीय सेना ही है जिसकी छवि तुलनात्मक दृष्टि से उन्नत है और उसका कारण है भारतीय सेना का देश के प्रति असीम आस्थावान व समर्पित होना, केवल औपचारिकतावश या नौकरी समझ कर नहीं अपितु वास्तव में धैर्यशीलता से देश के स्वाभिमान के लिए संवेदनावश बलिदान हो जाने की भावना की विद्यमानता और उदाहरण; अन्यथा प्रत्येक क्षेत्र में हमें बहुत सार्थक प्रयत्न करने हैं. 


http://www.google.com/profiles/kavita.vachaknavee


सभी के विचार जानने के लिए नीचे समाचार पत्र के उक्त पृष्ठ को देखा जा सकता है. ( बड़े आकार में देखने के लिए चित्र को क्लिक करें) -





यहाँ विशेषांक के वे चार पन्ने एक एक कर देखे जा सकते हैं - 




Pg 1 - Humlog  Pg 1 - Humlog
Pg 2 - Humlog  Pg 2 - Humlog
Pg 3 - Humlog  Pg 3 - Humlog
Pg 4 - Humlog  Pg 4 - Humlog




सोमवार, 2 अगस्त 2010

"उसकी" बाँहों का सम्बल निर्भय करे

"उसकी" बाँहों का सम्बल : (डॉ.) कविता वाचक्नवी




तथाकथित मैत्रीदिवस के तामझाम देखते मन में दो दिन से अथर्ववेद (१९/१५/६) का मन्त्र प्रार्थना बन उमड़ता रहा है; जो यों है  -

" अभयं मित्रादभयममित्रादभयम् ज्ञातादभयं परोक्षात् |
       अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु || "


वैसे इसका अर्थ बहुत सरल है। 

मन्त्र का शाब्दिक अर्थ है - 

" हे अभय, निर्भय प्रभो! हमें मित्र और अमित्र से तथा ज्ञात और अज्ञात से सर्वथा अभय करें। सभी दिशाओं के निवासी प्राणी मेरे मित्र व हितकर हों |"



लगभग २ माह पूर्व बर्मिंघम में घूमते घूमते अकस्मात् मन में प्रेरणा हुई कि शैशव से आज तक वैदिक थाती व अपने आचार्यों से जो कुछ पाया है, उसका ऋण इतना है कि शेष बचे जीवन की अल्पावधि उसे चुकाने के लिए अपर्याप्त है। न चुका पाने के कारण जितनी अपराधी मैं परम्परा व संस्कृति की हूँ, उतने ही परिमाण में मुझ पर अपनी विद्या व स्नेह सर्वस्व-सा न्यौछावर करने वाले आचार्यों की तथा  उससे कहीं अधिक परिमाण में भावी पीढियों की। जाने यह कोई दैवीय प्रेरणा थी (या इसे मेरी भावुकता का नाम भी दिया जा सकता है)  कि मैंने तत्काल ठाना / संकल्प किया कि मैं नेट पर प्रतिदिन जो लगभग १५ -१५ घन्टे  काम करते बिताती हूँ, उसमें से थोड़ा समय नियमित अपने इस संकल्प की पूर्ति में लगाऊँगी और अपने किसी एक ब्लॉग पर इस उद्देश्य से एक स्तम्भ प्रारम्भ करूँगी, जिसमें उस धरोहर को सहेजने सँजोने का काम करूँगी। तुरन्त मैंने इस विचार से अपने पति को भी अवगत करवा दिया। 



किन्तु जैसा कि मेरे साथ सदा से होता आया है कि जिस भी विषय के संबन्ध में मैंने उसकी जानकारी किसी से भी बाँटी, वह वहीं अधर में अटक जाता है। मैं वहाँ से लौट कर वापिस घर (लन्दन ) आ गई  और दिन रात भूत की भाँति नेट पर काम करने के बीच परिवार की व्यस्तताओं में लग गई। ऊपर से गत ये लगभग २ माह मेरे परिवार की मानो विकराल संकट की घड़ी बन गए। तीनों बच्चों पर कई कई ओर से आपदाएँ आईं, मैं स्वयं दुर्घटनाग्रस्त होकर डेढ़ माह से बिस्तर पर पड़ गई हूँ, दुर्घटना के कारण अमैरिका- कैनेडा के  दो माह के मेरे प्रवास के रिटर्न एयर टिकट (ईबुकिंग होने के कारण, बिना एक भी पैसा रिफ़ण्ड हुए) निरस्त हुए, जिससे  लगभग एक लाख से अधिक की आर्थिक क्षति हुई और यात्रा प्लान बदलने से आगामी कई माह  के लिए तय निर्धारित योजनाएँ सब खटाई में पड़ गईं। एक रास्ता निकालने का मार्ग सूझा तो  उस पर भी कल आपद आ गई और द्वार मानो बन्द हो गया। इतना ही नहीं इस बीच मायके परिवार में २ मृत्यु हो गईं। यहीं बस नहीं हुआ, तीसरी मृत्यु ( परसों प्रात: मुझ से लगभग १०-१५ वर्ष छोटे युवा फुफेरे भाई का ६ वर्ष  की बेटी को अनाथ करके चले जाने ) का सम्वाद पाने  तक यह क्रम थमा नहीं है। 



इन सब के बीच  उत्पन्न विकलता ने इस प्रकार मन व संकल्पशक्ति को जर्जर कर दिया है कि क्षण क्षण मन  डरपाता रहा और कुछ भी कर्तव्य अकर्तव्य की सुध न रही व न ही स्तम्भ प्रारम्भ कर पाई।  इस बीच परसों व कल  की विकल घड़ियों में नेट पर मित्रों से मैत्रीदिवस की शुभकामनाएँ व सूचना भी मिली। तो कल दिनभर जाने अकस्मात् मन में अथर्ववेद का मैत्री विषयक यह मन्त्र कौंधता रहा; जिसे यहाँ प्रारम्भ में ऊपर अंकित किया है। इस मन्त्र के अर्थ व भाव के साथ मन के त्रास की मुक्ति और सर्वत: अभय की प्रार्थना / इच्छा से संचालित मनोगति के चलते स्मरण हो आया कि क्यों न  इस वैदिक चिन्तन व विचार को सब मित्रों से व अधिकाधिक लोगों से बाँटा जाए। फिर लगा कि इस मन्त्र के बहाने क्यों न आज से व इसी से ही अपने संकल्प को पूरा करने का शुभारम्भ किया जाए! 



तो उस कड़ी में आज यह पहला चरण धरा है। जीवन का पहला चरण जब धरा होगा धरती पर, तो मेरे माँ पिताजी की बाँहों के घेरे ने मुझे लड़खड़ाने से बचा कर निर्भय किया था। आज पुन: अभय की  अभिलाषा ले धरती हूँ यह प्रथम चरण। आशा है, "उसकी" अनन्त अज्ञात बाँहों का घेरा लड़खड़ाने  से बचा सर्वत: अभय निर्भय कर सम्बल देगा।


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