रविवार, 21 अक्टूबर 2012

भारत : खतरे की कगार और विस्फोट के ढेर पर

भारत : खतरे की कगार और विस्फोट के ढेर पर
- (डॉ.) कविता वाचक्नवी



कल ही एक लेख व समाचार पढ़ रही थी, जिसमें बैंगलोर में कचरे के प्रबंधन से जुड़े, महापालिका के एक सकारात्मक निर्णय की जानकारी साझा की गई थी व जिसमें बताया गया था कि  "कूड़े को हमें अब अपने घर में ही अलग करना होगा, महापालिका के कर्मचारी उन्हें उसी रूप में एकत्र करेंगे, आपके द्वारा ऐसा नहीं करने में आपका कूड़ा स्वीकार नहीं किया जायेगा। निश्चय ही यह बड़ा प्रभावी निर्णय है, नागरिकों को कार्य अधिक करना पड़ेगा, महापालिका को कार्य अधिक करना होगा, पर नगर स्वच्छ रहेगा। उपरोक्त नियम अक्टूबर माह से लागू हो जायेंगे " 



 महापालिका के इस निर्णय को पढ़ने के पश्चात् अच्छा लगा किन्तु उस निर्णय की खामियों और सहायक घटकों के अधूरेपन के चलते सरकार का वह निर्णय किस तरह थोथा रह जाने वाला है, यह विचार भी आया  और इस प्रकार इस लेख की पृष्ठभूमि तैयार हुई। 






विदेशों (विशेषतः योरप, अमेरिका व विकसित देशों ) में कचरे/कूड़े की व्यवस्था बहुत बढ़िया ढंग से होती ही है। प्रत्येक परिवार के पास काऊन्सिल के Bins and waste collection विभाग की ओर से बड़े आकार के 3 Waste Bins मुख्यतः मिले हुए होते हैं, जो घर के बाहर, लॉन में एक ओर अथवा गैरेज या मुख्यद्वार के आसपास कहीं रखे रहते हैं। परिवार स्वयं अपने घर के भीतर रखे दूसरे छोटे कूड़ेदानों में अपने कचरे को तीन प्रकार से डालता रहता होता है अतः घर के भीतर भी कम से कम तीन तरह के कूड़ेदान होते हैं। एक ऑर्गैनिक कचरा, दूसरा `रि-साईकिल' हो सकने वाला व तीसरा जो एकदम नितांत गंदगी है... जो न ऑर्गैनिक है व न `रि-साईकिल' हो सकता है। सप्ताह में एक सुनिश्चित दिन विभाग की तीन तरह की गाड़ियाँ आती है, अतः उस से पहले (या भर जाने पर यथा इच्छा) अपने घर के भीतर के कूड़ेदानों से निकाल कर तीनों प्रकार के बाहर रखे Bins में स्थानांतरित कर देना होता है, जिसे वे निर्धारित दिन पर आकर एक-एक कर अलग-अलग ले जाती हैं। 


इसके अतिरिक्त पुराने कपड़े, बिजली का सामान, पोलिथीन बैग्स, बैटरीज़ व घरेलू वस्तुओं (फर्नीचर, टीवी, इलेक्ट्रॉनिक सामग्री, जूते, काँच आदि ) को एक निश्चित स्थान पर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी स्वयं व्यक्ति की होती है। बड़ी चीजों को कचरे में फेंकने के लिए उलटे शुल्क भी देना पड़ता है। 


इस पूरी प्रक्रिया के चलते लोगों में कचरे के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता बनी रहती है। जबकि ध्यान देने की बात यह भी है कि योरोप आदि के देश ठंडे हैं व यहाँ ठंडक के कारण रासायनिक प्रक्रिया (केमिकल रिएक्शन) बहुत धीमे होता है अतः कचरा सड़ने की गति बहुत कम है, इसलिए भारत की तरह बदबू और रोगों का अनुपात भी कम। ऐसा होने के बावजूद विकसित देशों की कचरे के प्रति यह अत्यधिक जागरूकता  देश के वातावरण व नागरिकों को ही नहीं अपितु पर्यावरण व प्रकृति को भी बहुत संबल देती है। 


स्वच्छता का सबसे कारगर ढंग होता है कि गंदगी कम से कम की जाए। यदि एक व्यक्ति किसी स्थान पर दिन-भर कुछ न कुछ गिराता-फैलाता रहे व दूसरा व्यक्ति पूरा दिन झाड़ू लेकर वहाँ सफाई भी करता रहे, तब भी वह स्थान कभी साफ नहीं हो सकता। अतः स्वच्छता का पहला नियम ही यह है कि गंदगी कम से कम की जाए। इसे व्यवहार में लाने के लिए व्यक्ति-व्यक्ति में स्वच्छता का संस्कार व गंदगी के प्रति वितृष्णा का भाव उत्पन्न होना अनिवार्य है। आधुनिक उन्नत देशों में एक छोटा-सा बच्चा भी गंदगी न करने/फैलाने के प्रति इतना सचेत व प्रशिक्षित होता है कि देखते ही बनता है। मैंने डेढ़ वर्ष की आयु के बच्चे को उसके माता पिता द्वारा बच्चे द्वारा फैलाई फल आदि की गंदगी उठाकर उसे दूर जाकर डिब्बे में डाल कर आने के लिए कहते (व बच्चे को करते) देखा है। अपने परिवेश के प्रति ऐसी चेतना भारतीय परिवारों में नाममात्र की है। वहाँ गंदगी तो परिवार व समाज का प्रत्येक सदस्य धड़ल्ले से फैला सकता है किन्तु सफाई का दायित्व बहुधा गृहणियों व सफाई कर्मचारियों का ही होता है। अतः सर्वप्रथम तो भारत में कचरा प्रबंधन के लिए लोगों में इस आदत के विरोध में जागरूकता पैदा करनी होगी कि स्वच्छता `सफाई करने' से होती है। उन्हें यह संस्कार बचपन ही से ग्रहण करना होगा कि स्वच्छता `गंदगी न करने' से होती है। 'सफाई करने' और 'गंदगी न करने' में बड़ा भारी अंतर है।


 विकसित देशों की जिस व्यवस्था, सफाई, हरीतिमा, पर्यावरण की शुद्धता आदि की प्रशंसा होती है व जिसका आकर्षण आम भारतीय सहित किसी अन्य एशियाई (या इतर आदि) के मन में भी जगता है, वे लोग स्वयं भी संस्कार के रूप में अंकित, गंदगी फैलाते चले जाने वाले अपने अभ्यास से, विकसित देशों में रहने के बावजूद मुक्त नहीं हो पाते हैं और उन देशों की व्यवस्था को लुके-छिपे बिगाड़ते हैं। ऐसे लोग सार्वजनिक रूप से भले व्यवस्था भंग करने का दुस्साहस नहीं कर पाते, किन्तु अपने देश (यथा भारत आदि) लौटने पर पुनः आचरण में वही ढिलाई भी बरतते हैं। 


  अब रही कचरा प्रबंधन के तरीकों को अपनाए जाने की बात। यह `अपनाया जाना' भारतीय परिवेश में (ऊपर बताए कारण के चलते भी ) बहुत संभव नहीं दीखता; क्योंकि लोग इस सारी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए कचरे को नदी-नालों में फेंक देते हैं/देंगे। यह मानसिकता सबसे बड़ा अवरोध है किसी भी स्वच्छता के इच्छुक समाज, व्यवस्था, देश अथवा संस्था के लिए। दूसरा अवरोध एक और है। यहाँ विकसित देशों में प्रत्येक वस्तु और पदार्थ  पैकेट/कंटेनर/कार्टन में बंद मिलते हैं और उस पर अंकित होता है कि उसकी पैकिंग व उस पदार्थ/वस्तु के किस-किस भाग को किस-किस कचरा-विभाग में डालना है। भारत में लोगों को कचरे के सही विभाग का यह निर्णय लेने के लिए न्यूनतम शिक्षा, जानकारी तथा जागरूकता तो चाहिए ही, साथ ही जीवन में प्रयुक्त होने वाली प्रत्येक वस्तु और उत्पाद से जुड़े घटकों पर यह अंकित होना निर्माण के समय से ही आवश्यक है कि उनका अंत क्या हो, कैसे हो, कहाँ हो। सरकार उत्पादनकर्ताओं पर ऐसा नियंत्रण व नियम लागू करेगी, यह अभी पूरी तरह असंभव है। जो उत्पाद खुले मिलते हैं, उनका विसर्जन कैसे होगा यह अलग नया विषय होगा। 




बैंगलोर में कचरा प्रबंधन के लिए यद्यपि अच्छे निर्णय लिए गए हैं किन्तु इन सब कारकों के चलते वे निर्णय सही व पूरा फल दे पाएँगे, यह संदिग्ध ही नहीं, लगभग असंभव भी है। मुझे यह सब जल्दी संभव नहीं लगता कि ऐसा ठीक-ठीक आगामी 15-20 वर्षों में भी हो पाएगा।


भारत में जो लोग जागरूक व सचेत हैं वे अपने तईं कचरे का नियमन कर सकते हैं। हम जब भारत में थे तो ऑर्गैनिक कचरा (विशेष रूप से फल, सब्जी, अनाज व हरियाली आदि) को प्रतिदिन एक बैग में भर कर ले जाते थे व किसी पशु के आगे खाने को डाल देते थे। `रि-साईकिल' हो सकने वाली प्रत्येक वस्तु को धो साफ कर एक बड़े ड्रम में अलग-अलग सम्हाल रखा करते थे व उन्हें प्रति माह कार में भरकर, ले जाकर कबाड़ी को सौंप देते थे। केवल हर तरह से व्यर्थ हो चुकी गंदगी-मात्र को ही कूड़ेदान में डाल कर फेंकते थे। लॉन आदि के बुहारे गए सूखे पत्तों को लॉन के एक सिरे पर इसी प्रयोजन से बने स्थान पर गहराई में डाल देते थे ताकि उनकी खाद बन सके। 


अपने वातावरण के प्रति इतनी जागरूकता प्रत्येक में होनी ही चाहिए... वरना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है ? विदेश में रहने वालों के लिए इसीलिए भारत को देखना बहुधा असह्य हो जाता है व हास्यास्पद भी।




 प्रकृति की ओर से जिस देश को सर्वाधिक संसाधन व रूप मिला है, प्रकृति ने जिसे  सबसे अधिक सम्पन्न व तराशे हुए रूप के साथ बनाया है, वह देश यदि पूरा का पूरा आज हर जगह कचरे के ढेर में बदल चुका है, सड़ता दीखता है तो उसका पूरा दायित्व एक एक नागरिक का है।


मणिकर्ण में पार्वती नदी


 वर्ष 2010 के अंत में हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में कुल्लू से 45 किलोमीटर दूर व मनाली से आगे पार्वती व व्यास नदियों के मध्य स्थित  मणिकर्ण नामक अत्यधिक सुरम्य स्थल पर  अत्यधिक उल्लास व चाव से गई थी, किन्तु कार से बाहर पाँव रखते ही ऐसा दृश्य था कि पाँव रखने का भी मन नहीं होता था... सब ओर गंदगी के अंबार... उफ़...उबकाई आ जाए ऐसी स्थिति दूर दूर तक थी । यह स्थल अपने गंधक के स्रोतों के कारण भी विश्वप्रसिद्ध है। नदी के एक किनारे पर स्थित पर्वत से खौलता हुआ `मिनरल वाटर' बहता है जिसे नगर व होटलों आदि में स्नानादि के लिए भी धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है, जबकि उस पर्वत की तलहटी में बहती नदी का जल कल्पनातीत ढंग से बर्फ़ीला व हाड़ कंपा देने वाला है।  धार्मिक स्थल के रूप में भी इसका बड़ा माहात्मय लोग सुनाते हैं। 


मणिकर्ण में हिमालय का दृश्य 


किन्तु गंदगी में डूबी इस स्थल की प्राकृतिक संपदा व पर्यावरण की स्थिति को देख कर त्रस्त हो उठी थी।  ऐसी ही स्थिति चामुंडा, धर्मशाला, मैक्लोडगंज और धौलाधार पर्वतमाला के आसपास के अन्य क्षेत्रों  में थी। ये वे क्षेत्र हैं जो प्राकृतिक सुषमा की दृष्टि से अद्भुत हैं और हमारे जलस्रोत यहाँ से प्रारम्भ होते हैं। मैंने प्रत्यक्ष देखा कि हमारी नदियाँ, हमारे जलस्रोत अपने स्रोत स्थल पर ही प्रदूषण व गंदगी से लबालब कर दिए जाते हैं। बाढ़ आदि विभीषिकाएँ कालांतर में इसी का प्रतिफल हैं। पॉलीथीन इत्यादि के प्रयोग व विसर्जन तथा `रि-साईकिल' हो सकने वाली वस्तुओं को गंदगी में डाल/फेंक कर दो-तरफा हानि करने के  अन्य भी अनेक भीषण दुष्परिणाम हैं। अतः वृक्षों की कटाई का एक बड़ा पक्ष भी इस से जुड़ा है।


जब हिमालय की तराई के क्षेत्रों की ( जहाँ जनसंख्या व उसका घनत्व कम है)  यह स्थिति है तो भारत के नगरों की दयनीय स्थिति पर क्या लिखा जाए ! मेरे मस्तिष्क में इस समय ऐसा कोई उदाहरणीय नाम ही नहीं सूझ रहा जहाँ स्थिति दूभर न हो। उत्तर का हाल तो बेहद भयावह है, किन्तु दक्षिण भारत तुलना में स्वच्छ होते हुए भी ऐसे कुत्सित व कुरुचिपूर्ण दृश्य प्रस्तुत करता है कि उबकाई आ जाए। देश में विधिवत् सर्वाधिक स्वच्छ नगर की उपाधि पाने वाले हैदराबाद सिकंदराबाद जैसे महानगर के आधुनिक परिवेश वाले स्थलों पर भी गंदगी के अंबार लगे होते हैं। सार्वजनिक मूत्रालयों से `ओवर फ़्लो' हो कर फ़र्लांग-भर दूरी तक पहुँचने वाली मूत्र की धाराएँ और हर एक कदम पर फेंकी गई थूकों का अंबार ऐसी वितृष्णा पैदा करते हैं कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। दुर्गंध व गंदगी से भभकते-खौलते सार्वजनिक कूड़ेदानों से बाहर तक फैली गंदगी में कुत्तों का मुँह मारते मचाया जाने वाला उत्पात असहनीय कहा जा सकता है। 


इसी कूड़ा कचरा अव्यवस्था / अप्रबन्धन  के चलते कचरा बीनने वाले बच्चों का जीवन नष्ट हो जाता है। इस बार दिल्ली में एक युवक ने सप्रमाण पुष्टि की कि जब उसने कॉलोनी में साफ सफाई के लिए अपने हाथ से स्वयं अभियान चलाया तो एक माफिया ने उसे जान से मार देने की धमकियाँ दीं; क्योंकि बच्चों को चुराने व चुरा कर उन्हें कचरे के ढेरों में झोंकने व फिर आगे  कॉलोनियों में चोरी व हत्या आदि तक, इसी प्रक्रिया के माध्यम से सिरे तक पहुँचाए जाते हैं। पूरे अपराध- रैकेट इस से संबद्ध व इस पर केन्द्रित होकर गतिशील हैं। कितने जीवन भारतीयों की इस आदत व अ-नियमन से दाँव पर लगे होते हैं। दूसरी ओर यदि इसी कचरे का सही प्रबंध किया जाए तो देश को कितने प्राकृतिक उर्वरक मिल सकते हैं और `रि-साईकिल' हो सकने वाली वस्तुओं के सही प्रयोग द्वारा कितनी राष्ट्रीय क्षति बचाई जा सकती है, इसका अनुमान हजार लाख में नहीं अपितु अरबों खरबों में लगाइये। पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा तथा उनके क्षय पर रोक भी लगेगी। स्वास्थ्य व जीवन रक्षक दवाओं पर होने वाला खर्च कम होगा, व्यक्ति का शारीरिक मानसिक  स्वास्थ्य उत्तरोत्तर सुधरेगा... विदेशी पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी और इससे विदेशी पूँजी भी। देश की छवि जो सुधरेगी वह एक अतिरिक्त लाभ। 


एक-एक व्यक्ति के थोड़े-से उत्तरदायित्वपूर्ण हो जाने से कितने-कितने लाभ हो सकते हैं ... यह स्पष्ट देखा जा सकता है। अन्यथा विधिवत् विदेशी साहित्य और अंतर-राष्ट्रीय स्तर की फिल्मों (ऑस्कर विजेता  
Slumdog Millionaire ) के साथ साथ  मीडिया में  समूचे भारत को `सार्वजनिक शौचालय'  माना/कहा जाता रहेगा।  भावी पीढ़ियाँ कचरे के ढेर पर अपना जीवन बिताएँगी और उनके पास साँस लेने के लिए भी पर्याप्त साफ स्थान और वातावरण तक नहीं होगा। अच्छे स्थलों की खोज में कुछ अवधि के लिए धनी तो विदेश घूम आएँगे किन्तु मध्यमवर्ग व शेष समाज उसी त्राहि-त्राहि में जीवन जीने को शापित रहेगा। कचरे से उपजी विपदा के चलते भारत एक गंभीर खतरे की कगार और विस्फोट के ढेर पर बैठा है।





Children in Kanpur, India, sift through a garbage dump looking for anything that can be recycled to make money.


सोचना आपको है, निर्णय आपका !! क्या देना चाहते हैं अपने बच्चों को विरासत में ? केवल कूड़े कचरे की विरासत और गंदगी का साम्राज्य !!  जो स्वयं, कभी भी हो जाने वाले विस्फोट पर टिका है....  

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यह लेख दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ व चंडीगढ़ से एकसाथ प्रकाशित होने वाले हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' के 21 अक्तूबर 2012 के "रविवारीय" में कवर स्टोरी के रूप में उनके पृष्ठ 13 पर प्रकाशित हुआ है।

उसे इस लिंक पर देखा जा सकता है - http://epaper.jansatta.com/63760/Jansatta.com/21-October-2012#page/13/1


बड़े आकार में देखने के लिए चित्र पर या इस लिंक क्लिक करें 





यहाँ भी इसे देखा जा सकता है 



20 अक्तूबर 2012 शनिवार के जनसत्ता के मुखपृष्ठ पर रविवारी अंक की सूचना 

74 टिप्‍पणियां:

  1. हमने अपनी जीवनशैली बदल ही पर साफ सफाई से संबंधित जो व्यवस्थायें व मानसिकता निर्मित करनी थीं, वह नहीं कर पाये। आज नहीं तो कल, बदलना तो होगा ही। लेख पढ़ने व उसे सुव्यवस्थित ढंग से विस्तार देने का आभार।

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  2. मेरे गुरु जी ने सिखाया था कि गन्दा मत करो, तो साफ़ नहीं करना पड़ेगा. इस सूत्र को लागू करके मुझे और मेरे बच्चों को बहुत सुविधा हुई है. अधिकतर लोग पहले गन्दा कर लेते हैं और तब साफ़ करते हैं.

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  3. ''अपने वातावरण के प्रति जागरूकता प्रत्येक में होनी चाहिये...वर्ना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है''

    कविता, ''कचरे के ढेर पर'' भारत की इस भयानक समस्या पर इतना प्रभावशाली लेख लिखने के लिये बहुत-बहुत बधाई. जिसने भी पढ़ा होगा उसकी आत्मा हिल गयी होगी. शायद सरकार व नागरिकों में अब जागरूकता आये.

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  4. सब जगह लाइक कर दिया। ब्लॉग पर पढ़ भी लिया। अच्छा लिखा है। अखबार में छपने के लिये बधाई। कुछ पैसे भी मिले क्या ? :)

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  5. न तो पैसे के लिए लिखा था, न ही अब तक पैसे की कोई बात उठी है, न उठाने वाली हूँ। न उसकी कोई इच्छा है।

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  6. अरे हम आपकी मंशा पर थोड़े कुछ कह रहे हैं। हमने एक सवाल पूछा। इत्ते अच्छे लेख भी अखबार वाले मुफ़्त में छापना चाहते हैं। बहुत ग्रीब हैं अखबार वाले।

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  7. असल बात यह है कि यह लेख अखबार ने ब्लॉग या कहीं से उठाकर नहीं लगाया। मूलतः यह लेख अखबार में ही छपा है, उसी छपे हुए का मूल व अविकल पाठ मैंने प्रकाशन के बाद ब्लॉग पर अब लगाया है।

    अखबार की अपनी सीमाएँ व बंधन होते ही हैं। उन्हों अपने विशेष संस्करण में और वह भी सभी संस्करणों में (दिल्ली कोलकाता लखनऊ चंडीगढ़ ) रविवारीय का पूरा का पूरा मुखपृष्ठ इस एक ही लेख को दे दिया है, यह क्या कम बड़ी बात है !

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  8. Environment Conscious Article, with Proficient Write-up over a most wanted, desired subject. Custodian of Nature- Poetess, Writer on Provoking Style, Subject, Consistency and Articulation! To read a few times. Good One for nature and environment lovers like me..Great Poetess DrKavita Vachaknavee...I appreciate your subject, love for Mother India although living abroad! Good Wishes to you, your family on the occasion of Dusshera; Praying Almighty Goddess during Navrathri for a sky rocketing Trajectory Path of Literature upwards!

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  9. I am reading your Write-up only now...Enjoyed and Written... by such write-ups, we are motivated, inspired on Preservation of Nature which is high-time on Summit and Priority for any country..For India, where we have assets like rivers, Himalayas, Mountains, this is a must. In that responsibility, your article or write-up is a mile stone..I am more overwhelmed by that move!

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  10. कल सुबह ही आपका यह आलेख पढ़ लिया था। बधाई आपको।

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  11. बहुत बधाई आपको। आपने अपनी गहन खोजी वृत्ति से लेख को रोचक के साथ प्रामाणिक भी बनाया है। सच तो यह है कि इस दिशा में कोई जिम्मेदार व्यक्ति सोच ही नहीं रहा है। हंसब अपनी रफ्तार में दौड़ रहे हैं। आपका इस विषय को उठाने के लिए भी धन्यवाद।

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  12. बधाई कविता जी ... इस विषय पर जानकारी दूर तक पंचुचे .... सार्थक आलेख .....

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  13. लेख बहुँत अच्छा है.. ज्ञानवर्धक है.. काफी हद तक सच भी है कि भारत में कचरे कि तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा .. हम लोगो को अपने अडोस पड़ोस की सफाई का ध्यान खुद रखना चाहिए.. सरकारों की तो ज़िम्मेदारी है ही लोगो को भी सहयोग करना चाहिए.. और सबसे मत्वपूर्ण बात ये है.. की सफाई रखना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है.. हमरे भारत के 65 % लोग गांवो में रहते हैं.. और गांवो की सफाई व्यवस्था शहरों से कहीं बेहतर है.. इस बात की तरफ ख़ास ध्यान देने की आवश्यकता है.. की जब गाँव के बीचो बीच कूड़े कचरे के ढ़िर नहीं लगते तो शहरो में क्यों लग जाते हैं..

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  14. कविता जी का यह लेख उदघाटित करता है कि कचरा करने और कचरे को साफ़ करने के मामले में हम कितने पीछे हैं. जहाँ विकसित देशों में कचरे के तीन डिब्बे घरों में होते हैं, वहीँ हमारे यहाँ एक ही डिब्बा वक्त पर मिल जाये तो गनीमत है. हालांकि अब जागरूकता आ रही है तथा नयी कालोनियों में साफसफाई का खास ख्याल रखा जा रहा है लेकिन प्रतिशत देखा जाये तो काफी कम है क्योंकि भारत अभी भी गावों में बसता है, हमारे यहाँ एक माध्यम वर्ग है और एक निम्न माध्यम वर्ग है जिनके कुछ जांबाज़ सदस्य केले के छिलके को चलती बस से बाहर डालने पर यकीन रखते हैं. यही गति मूंगफली के छिलकों की होती है. उच्च वर्ग चूंकि एसी कार में सफर करता है अतः छिलका-मुक्ति का चलती सड़क पर तत्काल प्रावधान संभव नहीं हो पाता. यह जागरूकता राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार होने पर ही संभव है.राजनीतिक स्तर पर 'कचरे' को साफ़ करने के प्रयास शुरू हो गए हैं, देखें घरों के कचरे का नंबर कब आता है.

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  15. वाह ,कविता जी ,सही मुद्दे को सही विस्तार दिया है ,मैं भी हाल ही मैं शिकागो से लौटी हूँ ,यही सब चिंतन कर रही थी ।दर असल एक विकसित और विकासशील देश का अंतर तो है ही ,शिक्षा का भी अंतर है ।बहरहाल असहनीय समस्या है ।व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर पहल करना हमारा फ़र्ज है ।आपके लेख का भी बड़ा प्रभाव होगा ।

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  16. काश, आपके शब्द सही हों और लेख का प्रभाव वास्तव में हो जाए ... !

    @राजरानी जी!

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  17. सुबह होते ही सबसे पहले आपका लेख पढ़ा, कचरे कि हम बात तो करते हैं मगर एक सीमित दायरे तक। आपने दूर गाँव से लेकर ... पर्वतों तक की जो गंदगी की व्याख्या की वह अलग और सार्थक है॥ नगरों मैं ही नहीं अपितु पूरे भारत में इस सड़न को देखा जा सकता है। ऊफ़ उबकाई ..... जहां वर्णित था सच मैं .... आ ही गई थी। सरल , सहज शैली मैं लेख मन को भ गया , लेख की सार्थकता देखते ही बनती है... बधाई!!!!!

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  18. कविता जी जनसत्ता में आप का लेख पढ़ा सुचना प्रद
    कहूँ तो संकोच होता है क्योंकि यह स्थिति यहाँ यत्र तत्र सर्वत्र है .इस के अनेक कारन हैं पर बड़ा कारण जन संख्या विस्फोट ,अशिक्षा ,जागरूकता की कमी तो है ही सव्फायी कर्मचारियों की बे रुखी भी उत्तर दायी है .एक ज़रूरी समस्या को आप ने उठाया ,यह बड़ा सामयिक है .

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  19. "सफाई करने और गंदगी न करने में बड़ा भरी अंतर है..।" गूढ लेकिन सरल बात है कविता जी ! अभिभूत हुआ ...

    आगे भी ऐसे विषयों पर चर्चा हो, ऐसी अपेक्षा है...

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  20. kavitaji,itane mauju aur sarthak leh ke liye kotishah badhaiyan.apki lekhani yun hi chalti rahe,aisi kamana hai.

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  21. कविता जी मैंनेआपका लेख पढ़ा बहुत अच्छा लगा .........लेख बहुत कुछ सोचने और अपने व्यव्हार में परिवर्तन की मांग करता है जिसके लिए कोई खास तरीके अपनाने की जरूरत है | सच में अगर हम इन चीज़ों को ध्यान में रखें और रोजमर्रा की जिंदगी में भी लागू करें तो बहुत बड़ा फर्क नज़र आ सकता है ...किन्तु समस्या यही है की हर एक की मानसिकता यही बनी है कि ये इंडिया है यहाँ नही हो सकता और बाहर से आकर विदेशों की खूब तारीफ़ कर देंगे लेकिन ये नही सोचते कि प्रयास तो वहाँ भी उस देश के नागरिक ही करते हैं .फिर हम क्यूँ नहीं ?...........बधाई

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  22. आप सब के इस स्नेह के लिए हृदय से कृतज्ञ हूँ।

    'जनसत्ता' परिवार के प्रति भी आभारी हूँ, जिन्होंने 'रविवारी' का पूरा एक पन्ना इस नाचीज के नाम कर दिया। चकित भी हूँ और हर्षित भी। धन्यवाद !

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  23. Mubark Kavita ji, khub achha lekh aur display bhi achha.Jairam ramesh ne kya thik nahin kaha, ke toilet banane mandir bannae se jayada zaroori hain, lekin bharmar aur illegal mandiron ki hi hai

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  24. "कचरे के ढेर पर ".........पढ़ा अभी .....बचपन खेलता है इन ढेरों पर हमारे अतुलनीय भारत में :(((

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  25. अच्छा लिखा है आप ने ...."कचरे के ढेर पर" ....निश्चय ही भारत......की बात कर रही है आप ...पर इस निष्कर्ष पर पहुचने से पहले भारत के सामाजिक परिदृश्य ,बुनाबट,आर्थिक विषमता,शिक्षा ,गुलामी के प्रभाव ,संस्कृती और हाँ ..सबसे महत्वपूर्ण जनसंख्या की चर्चा और विश्लेषण भी होना चाहिए था.....तब ये कहा जा सकता था की ...एक तुलनात्मक अध्यन के बाद इसे लिखा गया है.....क्षमा कीजियेगा कविता जी...लन्दन में बैठ कर विश्लेषण कर देने से ..या जनसत्ता में इस लेख के छप जाने से मणिकर्ण की महत्ता और पवित्रता घट नहीं जाएगी...और न ही गन्दगी की समस्या का समाधान ही निकल पायगा ....भारत को सार्वजानिक शौचालय कहने से पहले आप और हम दोनों को अपने गिरेबान में झाकना चाहिए...काश ...!! आप ने कुछ सार्थक प्रयास सुझाये होते....जिस का अनुशरण कर हम लोग लाभान्वित होते.....!!

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  26. @ Ashish Kandhway !
    शीर्षक पढ़कर वक्तव्य जारी कर देने पर ऐसा ही होता है। अच्छा होता कि लेख का अविकल पाठ पढ़ा होता।

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  27. साहित्य में जो कचरे का अम्बार लगा है उस पर भी बात होनी चाहिए।

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  28. उस पर तो रोज ही झाड़ू लिए लगी रहती हूँ ... इसीलिए बदनाम भी हूँ, बुरी भी और वरिष्ठों द्वारा त्याज्य भी । @Bodhi Sattva !

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  29. इसके छपने के लिये बधाई दूँ या धन्यवाद चेताने के लिये .......... साधुवाद आपको दीदी कि इस समस्या का समाधान इस देश में तो यही हो सकेगा कि स्वयं सुधार किया जाए।

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  30. इस आलेख से कई नवीनतम जानकारियां और उपयोगी जानकारियां मिली हैं, इसके लिए DrKavita Vachaknavee जी का ढेर सारा आभार।

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  31. मेरे गुरु जी ने सिखाया था कि गन्दा मत करो, तो साफ़ नहीं करना पड़ेगा. इस सूत्र को लागू करने से मुझे और मेरे बच्चों को बहुत सुविधा हुई है. अधिकतर लोग पहले गन्दा कर लेते हैं और तब साफ़ करते हैं.

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  32. लेख,वाकई आँखे खोलने वाला है I आखिर पर्यावरण के प्रति कब सचेत होंगें हम? अच्छे लेख के लिए धन्यवाद! जनसत्ता में प्रकाशन के लिए बधाई.

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  33. Bahut bahut Badhai.

    yeh hai sakartmak lekhan. writers ko aapse kuch seekhna chahyae.

    - KBL Saxena (London)


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  34. बेहद मन से लिखा गया लेख. सुचिंतित, सुविचारित और सबसे बड़ी बात रास्ता भी दीखता है यह...आप की कलम से निकला लेख बेहद पठनीय भी है सहज-सरल भाषा और कलात्मक भी. बिलकुल ''कविता'' की तरह

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  35. This write up is very well written and on an extremely relevant topic....i hope this gives fodder to more such discussions and takes this topic in closer public view.
    Congrats Dr. Kavita!

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  36. कचरा प्रबंधन को पहले तो कचरा मानना बंद करना जरूरी है,

    यह समस्या प्रत्येक जगह है, कचरा प्रबंधन को जब तक तकीनीकी रूप से

    परिभाषित नहीं किया जाएगा तब तक इस समस्या को उचित तरीके से

    प्रबंधित नही किया जा सकता, कचरे के पैदा होने से इसके उचित निस्तारण के आभाव में

    पूरा देश ही कचरा घर बन जाता है, कचरा अछूत है तो इसका प्रबंधन गरिमामय कैसे होगा.

    कर्म की गरिमा हाशिये पर हो जहां

    कर्म का रूप संवर्धित हो जहां

    कैसे मानसिकता बदलेगी

    कैसे धरा सुन्दर बनेगी

    विन्यास प्रकृति का बिगाड़ना अभिमान

    और स्वयं को निखारना भर हो सम्मान हो जहां

    कैसे शस्य श्यामला प्रदूषण रहित बनेगी

    कैसे धरा सुन्दर बनेगी वहाँ

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  37. KAVITA JI LEKH GYAN VARDHAK TO HAI HI JGANE WWALA BHI HAI IS TARAH KE LEKH LGATAR CHHAPE JAY TO AUR ACHCHHA HOGA.

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  38. बहुत अच्छा है.... परन्तु इसमें कचरा के कुशल प्रवंधन के सन्दर्भ सुझाव होता तों जायदा ही जनहितकारी होता.... फिर भी बहुत ही अच्छा है..

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  39. Kumar Dhiraj जी, वे सुझाव लेख में स्थान स्थान पर अलग अलग तरह से आए हैं। यदि आप संविधान बनाकर जारी किए जा सकने वाले आदेशों की बात कर रहे हैं तो ऐसे आदेश भारत में भरे पड़े हैं और उनका कूड़ेदान में फेंकने से अधिक कोई मोल नहीं समझा जाता। उनकी विफलता के चलते ही तो ऐसी स्थितियाँ निर्मित हुई हैं।
    आपने यदि केवल समाचार पत्र में पढ़ा है तो इस आलेख का मूल पाठ भी यहाँ पढ़ें, तो शायद अधिक स्पष्ट हो सके।

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  40. Lekh Grahaneey Hai : Kaash ki Ham bhii Apne vyavahaar main parivartan laane ke ichhuk hote... haalaat dekh kar yeh sab Asambhav saa lagtaa hai ...

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  41. लेख पढ़ कर बहुत देर तक सोचता ही रह गया पर जब अपने सहर को देखता हूँ सारे घर दुकानों के लोग अपना कूड़ा कचरा एक स्थान पर एकत्रित करने के विपरीत ठीक सड़क के बीच में डालते है तब मन करता है इनकी तस्वीरें खींच कर पूरी दुनिया में वितरित कर दूं.

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  42. Hemchander Saklani जी,
    यही हाल भारत-भर का है, किन-किन की तस्वीरें डालेंगे ! लोगों को तब भी शर्म नहीं आएगी

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  43. कविता जी,
    आपका लेख पूरा पढ़ा.
    जो लिखा है बहुत ठीक लिखा है. काश भारत का प्रत्येक नागरिक, प्रत्येक राजनैतिक दल और हर प्रांतीय और केन्द्रीय सरकार अपने को एक sanitary inspector के रूप में देखे और इस महाभियान में बराबर का हिस्सेदार समझे!

    शुभकामनाओं सहित,

    महेंद्र दवेसर (लंदन)

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  44. गहरे शब्द भले न हो
    बात लाख की कहता हूँ
    झूठ लगे तो झूठा कहना
    सच कहने से नहीं डरता हूँ

    'कविता' जी तो कूच कर गई
    गंदगी से गंधक की ओर
    हमको असहाय छोड़ गई
    कूड़े-कचरे कुत्सित भविष्य की ओर

    सुन्दर-सुन्दर लेख लिख रही हैं
    निज अनुभव विशेष लिख रही हैं
    "सोचना आपको है,निर्णय आपका।।"
    न जाने क्यों अपनी वाणी में, क्यों
    अपनो के प्रति द्वेष लिख रही हैं

    नहीं नहीं उनको न पैसा चाहिए
    न मेरी तरह झूठी प्रसंसा चाहिए
    लेख स्वतः बोल उठा उनका
    उनको तो स्वच्छ भारत चाहिए

    क्या उत्तम लेख से भारत स्वच्छ हो जाएगा?
    क्या लंदन में चिंतन से बैंगलोर बदल जाएगा?
    क्या यात्रा वृतांत अख़बार में देने से 'हल' हो पाएगा?
    क्या एक प्रवासी भारतीय का यत्न सफल हो पाएगा?

    हाँ ढोंग ! ढोंग ! ये महाढोंग है
    भारत के प्रति झूठे चिंतन का
    आकर्षण का केन्द्र बनने का
    मार्क जकरबर्ग के खिलौने का सही उपयोग है

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    उत्तर
    1. Amit Bhuker, किसी भी देश में रहते हुए उसे स्वच्छ रखने की ज़िम्मेदारी वहाँ रहने वालों की होती है, किसी अन्य की नहीं। अपनी गंदगी को साफ करने का माद्दा न हो तो दूसरों पर गंदगी फेंकने लगना, आपकी नीति दिखाई दे रही है।

      दर्पण दिखाने वाला और सच्चाई तथा वास्तविकता बताने वाला भी आपको द्वेष लिखता प्रतीत होता है तो 'आप कुछ लेते क्यों नहीं, क्या हाल बना रखा है अपना'।

      `विचार' की भूमिका इतनी ही महत्वहीन प्रतीत होती है तो सारे भारतीय वाङ्मय को आग लगा कर जला ही देना चाहिए आपके विचार से ? आपकी बुद्धि की बलिहारी ! अरे हाँ, विचार से तो आपको परहेज ही है तो इस वाक्य में प्रयोग के लिए बुद्धि और विचार के स्थानापन्न शब्द ढूँढ लें।

      हटाएं
    2. और हाँ, झूठे नाम पते और नकली प्रोफाईल से सच बोलने के नाम पर गंदगी उलीचने वाली आपकी शूरवीरता समझ में आती है।

      हटाएं
    3. सर्वप्रथम पुनः क्षमा माँगत हूँ
      आपका लेख अति उत्तम है इसमें कोई दोहराई नहीं है
      परंतु 'ललित कुमार'- नकारात्मक खोजने का यत्न करे तो वह मिल ही जाती है
      द्वारा कहे गए इस कथन पर मैं स्वयं प्रयोग करके देखना चाहता था
      प्रयोग तब सफल हुआ जब मैंने आपके लेख का चार बार गहन अध्ययन किया
      कृपया मुझे माफ़ करे ऐसी टिप्पणी के पीछे मेरा कोई निहित स्वार्थ नहीं था
      जब सभी लोग लेख की परसंसा कर रहे है
      और अख़बार वाले लेख को मुख्य पृष्ठ पर छाप रहें है
      आपको बधाई के अनेक संदेश मिल रहे है

      इस पर लेख की आलोचना करना मूर्खतापूर्ण बात होगी जिसे मैंने सिद्ध भी कर दिया है
      मेरी प्रोफ़ाइल को नक़ली कहना कुछ उचित नहीं लगा
      यहाँ शायद आपकी नज़र धोखा खा गई

      मेरी नज़र में कुछ ऐसे हुआ होगा कि मेरी इस कडवी टिप्पणी के बाद आप मेरे ब्लाग पर गई होगी और वहाँ आपने प्रोफ़ाइल देखी तो वहाँ कुछ न पाकर आपने सोचा कि ये कैसी प्रोफ़ाइल है,ये तो फेक है
      लेकिन कविता जी ऐसा कुछ नहीं है न तो मैं अपना ब्लाग प्रयोग करता हूँ और न ही मुझे प्रयोग करना आता,वो बस टिप्पणी करने के लिए मैं वहाँ चला गया | बाद में पता चला कि ब्लाग पर sing किए बिना भी टिप्पणी की जा सकती है
      मैंने आपकी प्रोफ़ाइल देखी हे भगवान स्तब्ध रह गया
      ज्ञान का सागर नहीं महासागर हो आप तो
      कितने सम्मान पुरस्कार
      कितनी पुस्तकें प्रकाशित
      कितने देशों में कार्य
      और न जाने कितने विविध प्रकार के कार्य और हिन्दी साहित्य में योगदान मैं तो पढ़ते पढ़ते थक गया
      अंततः मैं पुनः क्षमा माँगता हूँ अपनी टिप्पणी के लिए
      B.A 2nd year का अलपज्ञानी विद्यार्थी आप पर क्या टिप्पणी करेगा

      हटाएं
    4. कल आपकी प्रोफाईल पर गई थी तो वहाँ जमा कुल 3 पेज-व्यू थे और नई ही बनाई गई थी, कोई परिचय नहीं था, कोई चित्र नहीं, कोई संपर्क अथवा मित्र सूची नहीं, कोई रीडिंग लिस्ट नहीं, कोई ब्लॉग नहीं.... यानि कुल मिलाकर कुछ भी दिखाई नहीं दिया सिवाय नाम के। इसलिए यह शंका उठाना स्वाभाविक था कि कोई छ्द्म नाम से टिप्पणी कर रहा है। और फिर टिप्पणी भी तर्क संगत न हो कर निराधार थी। अस्तु ! छ्द्म प्रोफाईल न होने की आपने पुष्टि कर दी, धन्यवाद।

      हटाएं
    5. हरिवंशराय बच्चन छायावादी क्षेणी में आते है
      या प्रयोगवादी में
      कृपया मार्गदर्शन करे

      हटाएं
  45. पहली सूचना मिलते ही यह लेख मैंने पढ़ लिया था. जब इस पर चर्चा चली तो दोबारा भी पढ़ा. मैं लेखिका की चिंताओं को महत्वपूर्ण मानता हूँ. इतना ही नहीं, मुझे तो प्रायः यह भी लगता है कि लोकतंत्र और नागरिकता से जुड़े मुद्दों पर लिखकर पाठकों का ध्यान खींचना जागरूकता के लिए अधिक महत्वपूर्ण है - कविता कहानी लिखने की तुलना में. अस्तु....

    बधाई.

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  46. बेहद आवश्यक लेख है , हमें अधिक जागरूक होना पड़ेगा !
    आपका आभार !

    जवाब देंहटाएं
  47. आपका आभार की साहित्य के क्षेत्र से होते हुए भी कचरे पे आपने लेख लिखा और सभी पढ़ने वालों को अपने अंदर झाँकने का मौका दिया की हमारी ज़िम्मेदारी क्या है...

    धन्यवाद
    आदित्य नाथ
    http://www.facebook.com/adityan9

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