कबीर का अंग-राग : जीवनमूल्य 'आऊटडेटेड' : कविता वाचक्नवी
============================================
संस्कृत साहित्य में तो कदापि नहीं व हिन्दी साहित्य में भी सबसे पहली बार साबुन का प्रयोग कबीर ही ने किया है, अन्यथा संस्कृत में तो "अद्भिर्गात्राणि शुध्यंति... ' (जल से देहशुद्धि) की बात है। पूर्ववर्ती साहित्य में तो केवल चूर्ण, अंगराग और उबटन आदि ही शुद्धि के इस कार्य के लिए प्रयोग होने के उदाहरण व संदर्भ मिलते हैं।
============================================
पिछले दिनों निराला की 'मातृवन्दना' को साझा किया तो एक मित्र ने टिप्पणी करते हुए कहा कि कविता तो अच्छी चुनी किन्तु इसमें तो पराधीन भारतमाता का स्मरण किया है। इस पर एक दूसरे मित्र ने तर्क दिया कि भारतमाता अभी भी बेड़ियों में बंद है, इसलिए समीचीन है।
समय-विशेष या घटना-विशेष बीत जाने से कालजयी कविताओं के अप्रासंगिक अथवा अ-समीचीन हो जाने के तर्कों वाले इस काल में आज मुझे फिर से कबीर का एक दोहा पढ़ने को मिला। आपने भी कई बार पढ़ा सुना होगा -
निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निरमल करे सुभाय॥
इसे पढ़कर बरबस एक हँसी मन में तैर गई। निंदा तो क्या, स्वस्थ आलोचना तक न सहन कर पाने वाले इस काल में [ जब आम आदमी से लेकर हिन्दी के दिग्गज तक अपने अस्तित्व को बनाए रखने की जद्दोजहद में एक दूसरे को गालियों से निरंतर नवाज रहे हैं और उन्हें धड़ाधड़ प्रकाशित भी करवा रहे हैं (देखिए, विष्णु खरे प्रसंग) ] तो यह दोहा उनके संदर्भ में कितना अप्रासंगिक ही कहा जाएगा !!
हम लोगों ने इसका अवमूल्यन कर भले इसे 'आऊटडेटेड' प्रमाणित कर दिया हो किन्तु इतिहास की दृष्टि से कम से कम एक कारण से तो यह निस्संदेह सदा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण रहेगा; यह प्रमाणित करने के लिए, कि कबीर के समय तक साबुन का आविष्कार हो चुका था और भारत में भी कबीर व उनके परिचित लोग साबुन का प्रयोग नियमित किया करते थे।
संस्कृत साहित्य में तो कदापि नहीं व हिन्दी साहित्य में भी सबसे पहली बार साबुन का प्रयोग कबीर ही ने किया है, अन्यथा संस्कृत में तो "अद्भिर्गात्राणि शुध्यंति... ' (जल से देहशुद्धि) की बात है। पूर्ववर्ती साहित्य में तो केवल चूर्ण, अंगराग और उबटन आदि ही शुद्धि के इस कार्य के लिए प्रयोग होने के उदाहरण व संदर्भ मिलते हैं।
हो सकता है, आने वाले समय में हिन्दी का कोई वीर शोधार्थी कबीर की सामाजिक चेतना व समाज से आडंबरों की धुलाई सफाई की प्रेरकशक्ति के रूप में इसी साबुन की महती भूमिका को प्रमाणित कर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसरशिप ही /भी पा जाए।
साबुन और निन्दक, कबीर के हस्ताक्षर, नितप्रासंगिक..
जवाब देंहटाएंरुचिपूर्ण लेख पढ़ कर हंसी के साथ अश्रू भी
जवाब देंहटाएंकहाँ गया हमारा साहित्य
एक प्रश्न ? हम साक्षर हैं या निराक्षर
शुभ कामनाएँ बिट्टो
मै समझता था कि 'निंदक नियरे राखिए...' दोहा रहीमदास जी का है। यद्यपि आपके द्वारा प्रदत्त जानकारी पर सहसा संदेह सम्भव नहीं है तथापि यदि पुन: आप इस सूचना की पुष्टि कर देंगी तो मेरा संदेह निर्मूल हो जायेगा।
जवाब देंहटाएंआशीष जी,
जवाब देंहटाएंमेरी जानकारी अनुसार यह दोहा कबीर का ही है।
संभव है कि साबुन तत्कालीन शासक वर्ग विदेश से आयात करके इस्तेमाल करता हो और जनता में जिसकी चर्चा हो लेकिन वह आम जनता के लए सुलभ होगा यह मानना कठिन है !अच्छा आलेख !
जवाब देंहटाएं