मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

प्रचलित तत्सम / तद्भव शब्द और उनके भाषांतर पर्याय

प्रचलित तत्सम / तद्भव शब्द और उनके भाषांतर पर्याय
               - (डॉ.) कविता वाचक्नवी
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संस्कृत के 'संस्कार' के लिए अंग्रेज़ी पर्याय खोजने वालों को बहुधा समस्या आती है क्योंकि संबन्धित कोषों में इसका एक ही अर्थ Rite (जैसे अंतिम संस्कार/ Last rites) बताया जाता है, जबकि इसके अनेक निहितार्थ होते हैं। 

केवल 'संस्कार' ही नहीं अपितु 'धर्म' के लिए भी किसी भाषा में कोई शब्द नहीं है, 'रिलिजन' तो 'सम्प्रदाय' अथवा 'पंथ' का वाचक है; इसी प्रकार `निर्वाण' शब्द के लिए भी कोई समानार्थी शब्द, असंभव है कि कहीं मिले। क्योंकि निर्वाण की संकल्पना केवल भारतीय दर्शन में उपलब्ध है। 

वस्तुत: दर्शन (+ जीवनदर्शन ) की शब्दावली के लिए यह समस्या बनी रहेगी कि उसके लिए अधूरे विकल्पों में से ही किसी का चुनाव मन मार कर करना पड़ेगा। 

जिन भाषासमाजों में जिस जीवनदर्शन की परम्परा है, उन भाषासमाजों में ही तो वे शब्द मिलेंगे ना! 

यही स्थिति रिश्ते नाते के शब्दों की भी है कि साढ़ू, समधिन, चचिया सास, पतोहू, चचेरा, ममेरा, फुफेरा, सलहज जैसे ढेरों संबंध वाचक शब्दों के लिए सही, सटीक व निश्चित शब्द भारतीय भाषाओं से इतर भाषा-समाजों में नहीं है; जहाँ भाभी भी 'सिस्टर इन लॉ ' है, तो साली भी, सलहज भी, ननद भी, जेठानी भी और देवरानी भी। 

अतः इनके लिए भी सही शब्द बस ढूँढते रह जाएँगे वाली बात है । 


इसीलिए भारतीय रचनाओं के अनुवाद करते समय, यहाँ तक कि गद्य का अनुवाद करते समय भी, हमारी जीवन व दर्शन की शब्दावली का सही सही अनुवाद नहीं हो पाता है। ऐसे में अनुवादक पाद-टिप्पणियों के द्वारा संबन्धित संकल्पना को कितना व कैसे समझा पाता है, यह उसकी निजी क्षमता पर निर्भर है। किन्तु इसके अभाव में सांस्कृतिक शैली की रचनाओं की हत्या अनुवाद में बहुधा हो ही जाती है। 


इसका एक पक्ष संस्कृत से भी जुड़ा है। खेद है कि देश के नहीं अपितु समूची मानव जाति के अहित में है / हुआ, कि भारत में संस्कृत को वर्गविशेष की भाषा के रूप में कर्मकाण्ड तक सीमित मान लिया गया और अब ऐसा ही षड्यंत्र हिन्दी के साथ स्वयं कुछ हिन्दी वाले भी करने में लगे हैं ( कि हिन्दी हिन्दुओं कि व उर्दू मुस्लिमों की भाषा है) | इसके कितने घातक परिणाम होंगे, इसका उन्हें अनुमान भी नहीं। विश्व के अन्य देशों के भाषाविदों या विद्यार्थियों द्वारा जिस प्रकार संस्कृत को भाषाओं की मूल मान कर अध्ययन किया जाता है उसी प्रकार भारत में भी सभी पूर्वाग्रहों से हट कर संस्कृत का अध्ययन किया जाना अनिवार्य है। दुर्भाग्य है कि भारत के अधिकाँश आधुनिक भाषाविज्ञानी संस्कृत के अध्ययन से कोरे होते हैं। प्रसंगवश बता दूँ कि पाणिनी पर अब तक विश्व में जितने कार्य हुए हैं उनकी परिगणना मात्र करने वाला एक सर्वेक्षण जर्मनी के एक भाषाचेता ने किया है, जो कई वॉल्यूम में छपा ( यद्यपि उसमें केवल लिस्टिंग की गई है)| दुर्भाग्य यह कि केवल दो भारतीय प्रखर विद्वान उस में अपनी महता प्रमाणित कर विशेषष रूप में उल्लिखित हैं, वे हैं श्रद्धेय ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ( जो लाहौर में रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा संचालित एक मात्र आर्ष गुरुकुल के आद्य आचार्य व संस्थापक थे व पश्चात् मोतीझील बनारस आ गए थे; दूसरे उल्लिखित विद्वान हैं महामहोपाध्याय स्वर्गीय पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक। 


मात्र इन दो प्रकांड विद्वानों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि इनके जितना गंभीर काम करने वालों में शेष सभी भाषावेत्ता विदेशी मूल के हैं, बहुधा फ्रांस व जर्मनी के। है ना आश्चर्य की बात ! यह संस्कृत और संस्कृत के भाषाविज्ञानी पाणिनी का महत्व प्रतिपादित करता है; जिसे अपने देश में ही सही महत्व नहीं मिला,जो मिलना चाहिए। इसलिए यदि कोई इस पूर्वाग्रह के कारण संस्कृत से पल्ला झाड़ता है कि वह केवल पंडितों या कर्मकाण्ड की भाषा है तो यह उस भाषा का नहीं अपितु स्वयं ऐसा करने वालों का दुर्भाग्य है। 

.... और उस भाषा का ही नहीं अपितु व्यापक अर्थ में यह हिंदी का भी दुर्भाग्य ही है; मात्र भाषा के रूप में नहीं अपितु हिंदी के साहित्य का भी दुर्भाग्य। क्योंकि आप हम भारतीय भाषाओं के साहित्य से सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को वर्जित या अलग नहीं कर सकते। उस पृष्ठभूमि के चलते उसके अनुवाद की ऐसी समस्याएँ सदा बनी रहेंगी। साहित्यानुवादकों का मात्र लक्ष्यभाषा में अधिकार होने ही से काम नहीं चलता अपितु स्रोतभाषा और उसकी पृष्ठभूमि पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ होना अनिवार्य होता है। उसके अभाव में किस बूते हम भारतीय भाषाओं के सही व सटीक साहित्यिक अनुवाद की कल्पना कर सकते हैं ? 


अनध्ययन और अभाव के चलते होने वाली हानियों का यह मात्र एक ही पक्ष है। भाषा के सरलीकरण का कुतर्क भी इसी के साथ जुड़ा है। 

उन सब पर फिर कभी....

21 टिप्‍पणियां:

  1. शब्दों में अर्थ नहीं, इतिहास छिपा होता है, उसे कौन समझायेगा भला ।

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    1. प्रवीण पाण्डेय जी! शब्द में 'अर्थ' ही छिपा होता है. क्योंकि; शब्द और अर्थ का नित्य सम्बन्ध होता है. 'अर्थ' में इतिहास ही नहीं धर्म-दर्शन-अध्यात्म-विज्ञान-राजनीति-समाज-भूगोल-आदि सब कुछ सन्निहित है. आप प्रौढ़ पण्डित प्रतीत होते हैं, अत: निवेदन करता हूँ - आपका दृष्टिकोण समष्टि में होना चाहिये, व्यष्टि में नहीं. आपकी आई० डी० नहीं है, कहाँ भेजूँ..?

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    2. बंधु ! आपकी बात से पूर्ण सहमति है।

      लगता है कि प्रवीण पाण्डेय जी का अभिप्राय यह था कि 'शब्दों में अर्थ ही नहीं, इतिहास भी छिपा होता है'। 'ही' और 'भी' टिप्पणी में छूट गए है। उनका आशय वह नहीं रहा होगा जो दिखाई दे रहा है। मैंने तो 'अर्थ ही नहीं' के अर्थ में ही ग्रहण किया उसे।

      वैसे आपका परिचय, नाम आदि कुछ पता नहीं चल सका है। कृपया विचारों के साथ-साथ नाम भी तो पता लगने दें।

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  2. कविता जी,
    आपके विचारों से सहमत हूँ. हिंदी के सरलीकरण के विषय में आपके विचार पढ़ना चाहूँगा. मेरे एक सम्बन्धी और मित्र हैं उमेश अग्निहोत्री (शायद आप भी उन्हें जानती हों). अब तो वे रिटायर हो चुके हैं किन्तु कई वर्ष वे Voice of America में और उससे पहले आकाशवाणी में प्रसारक रहे हैं. उन्हीं के शब्दों में उनकी बात दोहराता हूँ -
    'यह आकाशवाणी है. अब आप हिंदी में समाचार सुनिए' के स्थान पर वे कहा करते हैं 'यह आकाशवाणी है. अब आप समाचारों में हिंदी सुनिए'. आपकी क्या राय है? मेरे विचार में Language is meant to be understood not just heard.

    शुभकामनाओं सहित,मेरे विचार में

    महेंद्र दवेसर (लंदन)

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    1. महेंद्र जी!"यह आकाशवाणी है. अब आप समाचारों में हिन्दी सुनिए". इस वाक्य में हिन्दी के प्रति अत्यन्त लगाव दृष्टिगोचर हो रहा है. वे यह कहकर अहिन्दियों को हिन्दी और उसके शुद्ध उच्चारण के प्रति सावधान होने का आग्रह करते प्रतीत होते हैं. वहीँ वे समाचारों को गौण करके अपनी शुद्ध हिन्दी का स्वाभिमान भी प्रकट कर रहे हैं.

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  3. Meri pustak "Bhaartiya Bhashaon se Hindi mei Anuvad ki Samasyain" IIAS Shimla se prakshit huyi hai.(1999 se lekar 2001 tak mei vaha Fellow tha)Usmei in sabhi samasyaon par vistar se vichar kiya gaya hai.Anuvad ke baaray mei aapki sundar tipanni padhkar achha laga.

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    1. आपके व आपकी पुस्तक के विषय में जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। स्नेह संपर्क बनाए रखें ।

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  4. साढ़ू, समधिन, चचिया सास, पतोहू, चचेरा, ममेरा, फुफेरा, सलहज ननद जेठानी और देवरानी इत्यादि को हम उनके मूल रूप में लिखे तो बुराई क्या है?आखिर ये संज्ञा ही तो हैं|दूसरी बात अंग्रेजी के मूल शब्द मात्र दस - बारह हजार ही तो हैं|अंग्रेजी में अनुवाद के लिए जबरन नए शब्द भारतीय ही बनाते हैं|हमें हिंदी को सशक्त करना है तो उनके मूल रूपों की स्वीकार्यता बढ़ानी ही होगी|

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  5. कविताजी ! आपने बहुत महत्वपूर्ण समस्या को रेखांकित किया है! .....यह मात्र संयोग नहीं है कि श्री ब्रह्मदत्त जिग्यासु ( क्षमा करें मेरे पास इस शब्द को शुद्ध अंकित करने की सुविधा नहीं है) तथा श्री युधिष्ठिर मीमांसक दोनों ही विद्वान ऋषि दयानन्द के अनुयायी थे! संयोगवश ये दोनों विद्वान मेरे स्वर्गीय पिताश्री के मित्र एवम सहयोगी थे! महापंडित राहुल सांकृत्यायन भी एक समय तक ( पंडित केदार पाण्डेय रहने तक ) मेरे पिताश्री तथा इन विद्वानों के सहयोगी रहे थे!

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    1. Dhananjay Singh जी, जानकर हर्ष हुआ।
      युधिष्ठिर जी मेरे पितृतुल्य थे, हमारा पारिवारिक सम्बन्ध रहा उनसे व उनकी संस्था से। आज भी है।

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  6. अत्यंत सटीक एवं सार्थक विवेचना हेतु बधाई। अनर्थ और गलत अनुवाद के साथ मूल ग्रंथों में प्रक्षेप की समस्या भी बहुत गम्भीर रही है जिस पर लोगों का बहुत कम ध्यान गया है।

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  7. आनन्दम्...बहुत.सार.गर्भित. और.सरल.आलेख.है...बधाई...

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