हमदर्द की हिन्दी : कविता वाचक्नवी
अपनी भाषा के प्रति हमदर्दी दिखाने के नाम पर दूसरी भाषाओं का मखौल उड़ाना अत्यंत हास्यास्पद और लज्जाजनक काम है। हिन्दी के दिखावटी हमदर्दों में यह प्रवृत्ति बहुत आम है कि वे हिन्दी को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अंग्रेजी का मखौल उड़ाते हैं। अंग्रेजी की शक्ति को कम करके आँकने से हिन्दी की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती अपितु उल्टे इस से हम हिन्दी वाले और मूर्ख ही प्रमाणित होते हैं।
अपनी भाषा के प्रति हमदर्दी दिखाने के नाम पर दूसरी भाषाओं का मखौल उड़ाना अत्यंत हास्यास्पद और लज्जाजनक काम है। हिन्दी के दिखावटी हमदर्दों में यह प्रवृत्ति बहुत आम है कि वे हिन्दी को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अंग्रेजी का मखौल उड़ाते हैं। अंग्रेजी की शक्ति को कम करके आँकने से हिन्दी की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती अपितु उल्टे इस से हम हिन्दी वाले और मूर्ख ही प्रमाणित होते हैं।
आज ऐसी ही एक और घटना देखी जब एक व्यक्ति ने प्रश्न उछला - "अगर शुभ रात्रि "GOOD NIGHT" होता है तो शुभ दीपावली "GOOD DEEPAWALI" क्यों नहीं ? या अगर शुभ दीपावली "HAPPY DEEPAWALI" होता है तो शुभ रात्रि "HAPPY NIGHT" क्यों नहीं ?"
उस पर उत्तर देने वालों ने लिखा - (1) "Because ...English is a very Funnnny language :)" और किसी ने लिखा "Kyunki Engligh Koi language nhi hai....jabardasti hi language haii"
यदि किसी भाषा के दो अलग अलग शब्दों का अनुवाद कोई अन्य भाषा अपने एक ही शब्द से करती है तो यह अनुवाद करने वाले की गलती है। Good और Happy दो अलग-अलग शब्दों को यदि दूसरी भाषा वाले एक ही अर्थ दे रहे हैं तो यह मूल भाषा की गलती कैसे हो गई, यह या तो अनुवादकों की गलती है या उनकी सुविधा।
हिन्दी के दो अलग अलग शब्दों को अंग्रेजी के किसी एक ही शब्द से अनूदित कर दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा ? यह हमारी समस्या या सुविधा है कि हम Haapy, Merry और Good तीनों के लिए 'शुभ' ही अर्थ लगा रहे हैं। .... और मजे की बात यह कि लोग हिन्दी से हमदर्दी दिखाने के नाम पर अंग्रेजी का मखौल उड़ा रहे हैं।
काश, इन्होंने संस्कृत पढ़ी होती तो भाषा के विकल्पों की जानकारी होती और अंग्रेजी के तीन अलग-अलग शब्दों के लिए कुछ अन्य पर्याय प्रयोग करना कम से कम जानते तो, और संस्कृत पढ़ी होती तो हिन्दी की शब्दावली में पर्यायों का अभाव है जैसा हिन्दी का मखौल भी न बनाते। फिर उसे जानने के बाद तो अंग्रेजी का यह मखौल बनाने का आधार ही समाप्त हो जाता। अस्तु !
कोई भी समझदार व्यक्ति अपनी भाषा की श्रेष्ठता दिखाने के लिए दूसरी भाषा का मखौल कभी नहीं उड़ाता। अंग्रेजी यदि हिन्दी की तुलना में कमतर है तो उसके पक्ष में यह बात हिन्दी वालों को नीचा दिखाने के लिए पर्याप्त है कि एक कमतर भाषा होने के बावजूद संसार के सारे अधुनातन ज्ञान-विज्ञान को वे अपनी भाषा में ले आए हैं, यह उस भाषा की शक्ति भी है कि वह उस सारे को अभिव्यक्त करने में समर्थ है। दूसरी ओर हम लोग आज तक अपने यहाँ के उच्चशिक्षा के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों तक को हिन्दी में नहीं ला सके हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति दूसरी भाषाओं का बहिष्कार नहीं करता क्योंकि स्वयं में कोई भी भाषा निकृष्ट या हास्यास्पद नहीं होती है वह एक बड़े भाषासमाज के सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम होती है। फिर किसी बड़े भाषासमाज की भाषा का मखौल उड़ाना तो वस्तुतः अपनी मूर्खता या उथलापन प्रमाणित करना होता है।
किसी ने सच ही कहा है कि "जो दूसरे की माँ का सम्मान नहीं कर सकता, वह अपनी माँ का सम्मान स्वयं ही नष्ट कर देता है..."
आम तौर पर दिनों दिन अधिसंख्य लोगों के वैचारिक 'बरियर' और वैचारिकता के अभाव पर चकित रह जाना पड़ता है, इतना अधिक दिवालियापन है। इसका कारण उनकी जल्दबाज़ी नहीं लगता और न ही बोलने से पहले सोचना नहीं, अपितु सोचने की क्षमता और संस्कार कम होता जा रहा है, क्योंकि बहुसंख्य समाज अब पढ़ता नहीं। स्वाध्याय बहुत आवश्यक होता है। पाती हूँ कि ऐसे लोग बड़े बड़े पदों पर हैं और ऐसी मूर्खता के साथ। तिस पर ये पद उनके अहंकार में और वृद्धि करते हैं । एक तो अज्ञान के कारण थोथा अहंकार और ऊपर से पद का अहंकार।
लोगों की दूसरी भाषाओं का अपमान करने की ऐसी मूर्खताओं के चलते ही भारत में हिन्दी के विरुद्ध वातावरण निर्मित होने में बड़ी भूमिका बनी। ऐसे लोग अंग्रेजी ही नहीं अपितु दक्षिण भारतीय भाषाओं या उत्तरपूर्व की भाषाओं का भी ऐसा ही अपमान करते चले आए हैं। जिसका परिणाम है कि भाषा के नाम पर देश बुरी तरह बंट चुका है और दूसरी भाषाओं के लोग भी इस कारण हिन्दी के विरोधी होते चले गए हैं।
किसी ने सच ही कहा है कि "जो दूसरे की माँ का सम्मान नहीं कर सकता, वह अपनी माँ का सम्मान स्वयं ही नष्ट कर देता है..."
हिन्दी से हमदर्दी दिखाने के दूसरे भी कई तरीके हैं, कई काम हैं। वैसे हिन्दी को ऐसी हास्यास्पद हमदर्दी की जरूरत भी नहीं है।
एक अलग विषय वस्तु पर स्वतंत्र चिन्तन । मुझे अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंसादर
हिन्दी या हमारी किसी भी मातृभाषा का सम्मान तभी होगा जब हम दूसरी भाषाओं का सम्मान करना सीखें । फिर हिन्दी सही अर्थों में राष्ट्रभाषा बने , यह आज भी एक दिवास्वप्न-सा है । ऐसे में अंग्रेज़ी, फ्रेंच आदि ही नहीं उर्दू, पंजाबी, सिंधी,गुजराती, बांग्ला, तमिल, तेलुगू,मलयालम इत्यादि समस्त क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति सम्मान का भाव रखे बिना हम कैसे हिन्दी का वास्तविक उत्कर्ष संभव कर सकते हैं ? आपके विचार अत्यंत सार्थक एवं मनन योग्य हैं ।
जवाब देंहटाएंसच्चे विचार...
जवाब देंहटाएंएक बात पढ़ी थी कहीं, यहाँ पूरी तरह लागु होती है,
किसी की अच्छाई छोड़ कर उसकी बुराई देखने वाला व्यक्ति उस मक्खी की तरह है जो सारा सुन्दर शरीर छोड़ कर घाव पर जा बैठती है.
kavita ji bhut acha likha he apne sahi he her dherm or bhasha ka samman kerna chahiye, yadi hum chahte ki koi hume samman de to hume bhi unka samman kerna chahiye {geeta purohit}
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संस्कृत की अनुपस्थिति में भारत में हिन्दी सहित अनेक भाषाओं की अवस्था अनाथ बच्चों जैसी है। संस्कृत को तज कर अंग्रेजी और उर्दू की ओर हिन्दी जितने कदम बढ़ा रही है, उतना ही झेंपने वाली स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। अवचेतन में अंग्रेजी के आधिपत्य के चलते अंग्रेजी शैली के हिन्दी वाक्यांश आम हो चुके हैं। बोलचाल में विरले ही ऐसे मिलेंगे जो अंग्रेजी के सम्मिश्रण के बिना अपने विचारों को सहजता से अभिव्यक्त कर सकें। हिन्दी में अनुवाद की भी यही स्थिति है। हिन्दी चाह कर भी वो करिश्मा शायद ही कर सके जो अंग्रेजी ने कर दिखाया है। अंग्रेजी का पथानुगमन हिन्दी को विपन्न ही कर रहा है। संस्कृत को पंडितों की भाषा मान कर लोग द्वेष करने लगे हैं- ऐसा मैंने पाया है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि भारतवासी पहले अपने अवचेतन से दासता का केंचुल उतार फेंके और सच्चे अर्थों में स्वयं को मुक्त अनुभव कर सकें। प्रश्न यह है कि रूपान्तरण हो तो कैसे... गांधी को हम पहले ही नकार चुके हैं.. जिन्होंने हमारे आगे वास्तविक भारत एवं स्वराज का एक धुंधला सा चित्र खींचा था.. अतीत के प्रति हमारी वितृष्णा हमें किस ओर ले जा रही है... ऐसे में भारतीय संस्कृति की बेल झुलस रही है तो आश्चर्य क्या..
जवाब देंहटाएंअपनी माँ संस्कृत के साथ हिन्दी सुन्दर और सौम्य दोनों हो जाती है, अंग्रेजी और उर्दू के साथ भटकी भटकी लगती है हिन्दी।
जवाब देंहटाएंहिन्दी को किसी की हमदर्दी की जरूरत नहीं है। वह किसी के घड़ियाली आंसुओं की मोहताज भी नहीं है जो हिन्दी की दयनीयता को इंगित करता हाओ। हिन्दी अब बाज़ार के बीच से ही अपनी जगह बना रही है। जैस की मैं कहता आया हूँ कि आने वाले समय में हिन्दी सीखने के लिए ट्यूटर रखने पड़ सकते हैं। कदाचित वह दिन दूर भी नहीं है।
जवाब देंहटाएंमैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूं
जवाब देंहटाएंरिलायंस रूपी रावण कब और कैसे जलेगा ?”आप अपने अनमोल सुझाव हमें लगातार भेजते रहें क्योंकि जामनगर (गुजरात) के पेट्रोलियम कारखाने में आए दिन लोगों द्वारा आत्महत्या करना किसी भयानक स्थिति को सूचित करता है इस सीमावर्ती क्षेत्र में राष्ट्रभाषा – हिंदी वा राष्ट्रीयता का विरोध तथा उसपर ये कहना कि सभी हमारी जेब में हैं रावण की याद ताजा कर देता है अंजाम भी वही होना चाहिए..... !!!!! जय हिंद......... ! जय हिंदी......... !!!
जवाब देंहटाएंमेरे मित्रों, भाइयों- बहनों तथा देश के नौनिहालों क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपके शिक्षक/शिक्षिका को गला दबाकर गालियाँ देते हुए कोई निकालकर बाहर करे ? क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपकी राष्ट्रभाषा का अपमान कोई हिंदी दिवस के दिन माइक पर बच्चों के सामने करे ? क्या आप ये पसंद करेंगे कि आपके बच्चों को भारतीय संस्कृति-सभ्यता के खिलाफ कोई सिखाए ? यदि नहीं तो रिलायंस कम्पनी का पूरी तरह बायकाट कीजिए जहाँ भी हैं यथासंभव उनका विरोध अपनी-अपनी तरह से कीजिए क्योंकि रिलायंस जामनगर ( गुजरात ) में ये सब हो रहा है ....! देखिए :-
जवाब देंहटाएंबच्चों के मन में राष्ट्रभाषा - हिंदी के खिलाफ जहर भरने वाले मिस्टर एस. सुन्दरम जैसे लोगों को प्रिंसिपल जैसी जिम्मेदारी के पद पर रखने वाली कंपनी का हमें हर तरह से बहिष्कार करना है , आज गुरुपूर्णिमा के दिन आओ मिलकर हम सब दृढ.प्रतिज्ञा करें कि राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के खिलाफ बोलने वालों से किसी तरह का कोई वास्ता नहीं रखेंगे , उनका पूरी तरह से बायकाट करेंगे ……! .
प्रिंसिपल मिस्टर एस. सुन्दरम विना बी.एड.या शिक्षक - योग्यता के रिलायंस टाउनशिप जामनगर ( गुजरात ) में स्थित के.डी.अम्बानी विद्या मंदिर में प्राचार्य पद पर सुशोभित हैं और बच्चों को सिखाते हैं - "बड़ों के पांव छूना गुलामी की निशानी है, आपके पीछे खड़े शिक्षक -शिक्षिकाएं अपनी बड़ी-बड़ी डिग्रियां खरीद कर लाए हैं ये आपके रोल मोडल बनने के लायक नहीं हैं , गांधीजी पुराने हो गए उनको छोडो - फेसबुक को अपनाओ ......" केवल यही नहीं १४-९-२०१० ( हिंदी दिवस ) के दिन प्रातः कालीन सभा में प्रिंसिपल सुन्दरम साहब को जब आशीर्वाद के शब्द कहने को बुलाया गया तो इन्होंने माइक पर सभी बच्चों तथा स्टाफ के सामने कहा - " कौन बोलता है हिंदी राष्ट्र भाषा है, हिंदी टीचर आपको मूर्ख बनाते हैं.गलत पढ़ाते हैं "
केवल इन्होंने हिंदी सी०डी० और डी० वी० डी० का ओर्डर ही कैंसिल नहीं किया, कक्षा ११ - १२ से हिंदी विषय ही नहीं हटाया बल्कि सबसे पुराने व आकाशवाणी राजकोट के हिंदी वार्ताकार को एच० ओ० डी० के पद से गलत तरह से हटाकर अति जूनियर को वहां बैठाकर राष्ट्रभाषा - हिन्दी को कमजोर कर दिया है.
छात्र -छात्राओं के प्रति भी इनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण रहा है यही कारण है कि १० वीं कक्षा के बाद अच्छे बच्चे विद्यालय छोड़कर चले जाते हैं, जिस समय मेरे पुत्र की प्री बोर्ड परीक्षा थी - मुझे सस्पेंड किया गया, फिर महीनों रुके रहे जैसे ही बोर्ड परीक्षा 2011 शुरू हुई मेरी इन्क्वायरी भी शुरू करवा दिए, उसके पेपर के पहले इन्क्वायरी तिथि रख करके उसे डिस्टर्ब करने का प्रयास किये, इन्टरनेट कनेक्सन भी कटवा दिया जिससे वो अच्छी तैयारी नहीं कर सका और परीक्षा ख़त्म होते ही रोते हुए अहमदाबाद आ गया. मैं १०-अ का अध्यापक था उन बच्चों का भी नुक्सान हुआ है जिनको मैं पढाता था . मेरी पत्नी तथा बच्ची को जेंट्स सेक्युरिटी भेजकर - भेजकर प्रताड़ित करवाते रहे और नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिए .
अभी तक इन्होंने उस विद्यालय के पुराने व अनुभवी लगभग ४० शिक्षक-शिक्षिकाओं को प्रताड़ित करके जाने पर मजबूर कर दिया है या इनकी गलत शिकायतों पर कंपनी ने उन्हें निकाल दिया है . पाकिस्तान से सटे इस इलाके में इस तरह बच्चों को पाठ पढ़ाना कितना उचित है, देश व समाज के लिए कितना नुकसानदायक है ये आप पर छोड़ता हूँ ...............!!!
शिक्षा को पूंजीपतियों के दायरे से निकालना आवश्यक है.. निजीकरण के चलते शिक्षा व्यावसायिक हो गयी है। यह सुनिश्िचित किया जाना चाहिए कि शिक्षा संस्थानों मे निर्णय अभिभावक, छात्र, शिक्षक और प्रबंधतन्त्र सभी मिलकर लें। अन्यथा, मात्र अर्थदोहन का माध्यम बने हुए ऐसे शिक्षा संस्थानों का समाज पर अत्यन्त घातक प्रभाव होगा।
हटाएंकविता जी ... बहुत उपयुक्त मुद्दा...अगर आप इज़ाज़त दे तो मेरे ब्लॉग पर पुन:पुब्लिश करना चाहूँगा. [raajupatel@gmail.com, raajubook@gmail.com ]
जवाब देंहटाएंविचार एवं सोच बिलकुल सटीक हॆ। मॆं तो हमेसा यही कहता-लिखता भी रहा हूं। अपने-अपने सम्दर्भ में सब भाषाएं किसी न किसी की मां (मातृभाषा) होती हॆं। अत: किसी भाषा का अपमान करना ’मां’ का अपमान करना होता हॆ।
जवाब देंहटाएंदिविक रमेश