उत्सवों पर एक टीप : कविता वाचक्नवी
मूलतः प्रत्येक देश के सभी उत्सव और त्यौहार तत् तत् स्थानीय प्रकृति और कृषि से प्रारम्भ हुए और उन्हीं से जुड़े हैं। कालांतर में ये सामाजिकता का पर्याय बन गए और समाज के चित्त की अभिव्यक्ति का माध्यम भी।
मूलतः प्रत्येक देश के सभी उत्सव और त्यौहार तत् तत् स्थानीय प्रकृति और कृषि से प्रारम्भ हुए और उन्हीं से जुड़े हैं। कालांतर में ये सामाजिकता का पर्याय बन गए और समाज के चित्त की अभिव्यक्ति का माध्यम भी।
समाज के चित्त में पारस्परिकता में आई स्वाभाविक खरोंचों के चलते कुछ और आगे आने पर क्रमश: लोगों ने जैसे जैसे इन्हें विभाजित किया तैसे तैसे इन्हें पूजा-पद्धतियों के नाम पर नियोजित आयोजित करना प्रारम्भ कर लिया और ऐसा करने का फल यह हुआ कि उत्सवों को ही बाँट दिया गया। इसी बँटवारे के बीच कुछ नए उत्सव और त्यौहार भी जोड़ दिए गए ताकि बँटवारे की रेखा स्पष्ट की जा सके या आयोजनों को संख्या अधिक की जा सके ।
प्रकृति, ऋतुएँ, कृषि और स्थानीयता से मानवमन के विलय की मूल भावना से जुड़ कर प्रारम्भ हुए उत्सवों की संरचना और विधान बदल लिए गए।
इस से और भी आगे आने पर, अब, उत्सव न तो कृषि आधारित रहे हैं, न सामाजिकता व लोकचित्त की पारस्परिकता और न ही उतना पूजा पद्धति और धर्म (?) के अधिकार में ।
धीरे-धीरे उत्सव अब बाजार की शक्तियों या बाजार की मानसिकता से संचालित व आयोजित होने लगे हैं। मानव-मन की उत्सवप्रियता ने इस सहसंबंध को और बल दिया है पर साथ ही इससे यह भी रेखांकित हुआ है कि मानव-मन और लोकचित्त से धीरे-धीरे जैसे कभी कृषि व पारस्परिकता की भूमिका क्रमश: कम होने लगी थी, उसी प्रकार वर्तमान समय में पंथों व पूजापद्धतियों का अंकुश भी कम होने लगा है.... कम से कम बाजार ने तो उसे पछाड़ ही दिया है। क्योंकि उत्सव अब सीधे-सीधे मनोरंजन पर केन्द्रित होने लगे हैं।
उत्सवों व त्यौहारों का बाजार से धीरे धीरे अधिकाधिक संचालित होते चले जाने वाला यह परिवर्तन कितना सकारात्मक है अथवा कितना नकारात्मक यह तो नहीं कह सकती किन्तु यह बहुत थोड़े अर्थों में अंतराल को पाटने का काम करता अवश्य दीखता है। पर साथ ही यह कहीं एक नए वर्ग अन्तराल को भी जन्म दे रहा है जो भले धर्म या पूजापद्धति से अलग न हो किन्तु आर्थिक स्तर पर अलग अवश्य होगा / है। धर्म का नाम लेकर बंटे हुए या अर्थ के आधार पर बंटे हुए किसी भी समाज में कोई अंतर नहीं।
किन्हीं अर्थों में ये स्वाभाविक प्रक्रियाएँ प्रतीत होती हैं क्योंकि सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति की क्षमताएँ भिन्न हैं, विशेषताएँ व कमजोरियाँ भी भिन्न हैं, इच्छाएँ व आकांक्षाएँ भी भिन्न। इसी मनोविज्ञान को समझ कर इन सब अंतरालों को पाटने के काम आने वाले उत्सव और त्यौहार कभी समाज ने मूलतः इसी उद्देश्य से प्रारम्भ किए होंगे कि चलो एक समय तो ऐसा हो जब लोग परस्पर मिल कर हँसे और खुशी मनाएँ। इसीलिए जैसे-जैसे स्थानीय ऋतुएँ और प्रकृति तत् तत् स्थानीय समाज को खुले में मिलने जुलने की भरपूर अनुमति नहीं देतीं, उन्हीं दिनों त्यौहार अधिकाधिक आते हैं ताकि उस बहाने पारस्परिकता बनी रहे और मांनवमन का उल्लास व ऊर्जा भी। हमारे मनोभेदों ने उस उल्लास का भी क्या से क्या कर दिया !
इस बरस उत्सवों की इस बेला में उल्लास का यह बंटवारा कम से कम करें, यह हमारा उद्देश्य होना चाहिए। तभी आपका और हमारा त्यौहार मानना सार्थक है। स्थानीयता व स्थानीय समाज से कट कर या उन्हें काटकर, त्यौहार मनाना या उनके त्यौहारों से अलग रहना, दोनों सामाजिक अपराध हैं और त्यौहारों की मूल भावना के विरुद्ध भी। ऐसा कदापि न किया जाए। जो-जो जिस भौगोलिक स्थान पर है, वहाँ के स्थानीय समाज को उत्सव में सम्मिलित करें और उनके उत्सवों को स्वयं भी मनाएँ; तभी उत्सव मनाना कुछ अर्थों में सार्थक होगा। धीरे-धीरे समाज से जुड़ने की यह प्रक्रिया जब हमारे मनों के भीतर तक बस जाएगी, उस दिन पूरे अर्थों में सार्थक।
बिलकुल सही निष्कर्ष दिया है आपने।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सही और संप्रेषणीय लेख है ।बधाइयाँ ।
जवाब देंहटाएंत्यौहार पर सटीक आलेख ..
जवाब देंहटाएंबढिया निष्कर्ष निकाला है
उत्सव तो हैं मगर उत्सव मनाने की मूल भावना खो चुकी है ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
आदरणीय महोदय ,, आपके इस संकलन को पढ़कर बहुत ही आनंद आया और इसमें जो आपने कविता, लेख,छायाचित्र ,धार्मिक बातें का जो संयोजन किया गया है वो अद्वतीय है,आपकी जितनी तरफ की जाये वो बहुत ही कम है ,मेरा सौभाग्य है की में इसका एक हिस्सा बन पाया ,धन्यवाद,
जवाब देंहटाएंप्रताप आसर
जहाँ आपने लिखा कि उत्सव कृषि और सामाजिकता से जुड़े हैं, उसी को आगे बढ़ाते हुए, नए परिवेश और परिवर्तनों तथा भूमंडलीय हस्तक्षेप के परिप्रेक्ष्य में कुछ और पड़ताल हो जाती तो क्या कहने! इससे अधिक सामयिक और गंभीर विषय तो अभी कुछ नहीं दिखता. हमारी संस्कृति भी तो चपेट में आकर, एक भाग रही गाड़ी के पहिये में किसी कपड़े के टुकड़े की तरह फंसी जैसी है. गाड़ी को आप विकास, सभ्यता आदि कुछ भी कह लें. इस विषय को मत भूलिएगा, लिखियेगा पड़ताली की तरह.
जवाब देंहटाएं्विचारणीय आलेख
जवाब देंहटाएंसज रहे खोलों से नाता,
जवाब देंहटाएंगूँजते ढोलों से नाता,
bahut sach... aur haan vicharniya bhi..
जवाब देंहटाएंIn Depth Subjective; A subject of interest.
जवाब देंहटाएंMy ferocious attachments for the Poems and the Blogs of you as an admirer or a commentator brings now the begiinning of the views with an unparralleled compassion which endears the seal of impression. Your writing skills and vision are a curious mix of a mission with goals. Dr has an unsettling and an uncompromised settling of ennui with the same enthusiasm on the subject of Society's Cultural Values. True to the vision, the write-up of this blog chaneled to propel the strength as also gleefully narrating the pros and cons of the critical subject in the most undesrstanding way of "Layman' like me. For this arduous exercise, Dr would have burnt the proverbial midnight (here day time0 oil almost regularly as she would have been with a different moods of the knowledge and happenings. the views and the write-up engross the concepts to a reality with the knowledge of the terrains and domains. The depth analysis and the write-up ending on hittings on a right note with a stir-up of cultural values like a spalsh in a pool.. Dr didnot compromised the cultural values with any blunt views or lacks of aggression but a right setting. This blog of write-ups can be taken as a Magna Carta or an Almanac. Good Wishes.
जवाब देंहटाएंDear Dr. Kavita ji,
You are really very very constructive. Your comment on festivals is befitting in the field of Social Sciences. Being an Athropologist I understand your explanation. I have also read many of your comments on Facebook. We really need persons like you who always think rationally and scientifically. Congratulations.
For the first time we met during the Spain Hindi Conference organised by Prof Shrish Jaswal. I felt sorry when you were abruptly asked to end your deliberation by the Chairman of the Session when he took enormous time in his comments as a moderator. I am sure there would be an opportunity when we couild meet. I might learn many things from you. Keep on writing.
Unfortunately I can only use Hindi Devnagri script if I use my gmail account. I do not know how to use Hindi in hotmail.
With kind regards,
Mohan Gautam
(Prof. M.K.Gautam)
आपने एकदम सही कहा है,उत्सवों के उत्स में महत्वपूर्ण कारण सामाजिकता ही रहा है.आज भी सामजिक-समरसता के संरक्षण में उत्सवों की ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है .ये जुड़ाव के महत्वपूर्ण आधार हैं .हमें एकाकी जीवन की कई विसंगतियों से बचाते हैं.
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