सोमवार, 14 जनवरी 2013

साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' का दिसंबर अंक व मेरी 3 कविताएँ

साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' का दिसंबर अंक व मेरी 3 कविताएँ  :  कविता वाचक्नवी



'भारतीय भाषा परिषद'  कोलकाता की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' के  दिसंबर 2012  अंक में मेरी तीन कविताएँ क्रमशः 'राख' , 'व्रतबंध'  व 'औरतें डरती हैं'   प्रकाशित हुई हैं। पत्रिका परिवार व संपादक के प्रति कृतज्ञ हूँ।

 इस बीच जिन अनेकानेक लोगों ने ईमेल से व भारत से यहाँ फोन करके कविताओं पर अपनी-अपनी शुभकामनाएँ व प्रतिक्रियाएँ दी हैं, उन सब के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ। 

यद्यपि 'व्रतबंध' शीर्षक कविता के अंत में कुछ शब्द बदल दिए गए हैं । इस त्रुटि के चलते कविता का सांस्कृतिक अर्थ व रूपक छिन्न-भिन्न हो गया है। इस कविता की मूल पंक्तियाँ हैं - 


मैं आँखें टिका

दो आँसुओं से
हस्त-प्रक्षालन करवा दूँ।

(कृपया उक्त कविता की पंक्तियों को इसी रूप में पढ़ें) 

पत्रिका के ध्यान में लाने पर अब वे 'वागर्थ'  के आगामी अंक (फरवरी) में इस त्रुटि पर पाठकों का ध्यान दिलाएँगे, ऐसी सूचना मिली है। अस्तु !

 नीचे उक्त अंक के वे पन्ने सम्हाल सहेज रही हूँ । पन्नों पर क्लिक कर बड़े आकार में पढ़ा जा सकता है। 











अपडेट फरवरी 2013

मूल कविता के एक शब्द को बदल कर प्रकाशित किए जाने पर आपत्ति करते हुए  'वागर्थ' को भेजा पत्र उनके अंक फरवरी 2013 में प्रकाशित हुआ -




9 टिप्‍पणियां:

  1. jhakjhorne par aamaada hain ye kavitayen ... samaj ko disha...vyanjnatmak sundar arthpurn abhivyakti ..
    --- shobha rastogi shobha

    जवाब देंहटाएं
  2. पद्मानन्द साहित्य सम्मान से सम्मानित वरिष्ठ कथाकार उषा वर्मा जी द्वारा प्रेषित ईमेल -

    प्रिय कविता जी,
    आपकी कविताओं पर मैं मुग्ध हूं। इतनी भाव-प्रवणता और सुंदर उपयुक्त शब्दों का चयन पहले नहीं देखा था।
    क्या अपनी एक कहानी भी भेज सकती हैं।

    उषा वर्मा
    (यॉर्क)

    जवाब देंहटाएं
  3. वरिष्ठ कवि रचनाकार अजितकुमार चौधरी जी द्वारा प्रेषित ईमेल -

    " प्रिय कविता जी,
    भाई विजय द्वारा प्रेषित और 'वागर्थ' में छपी आपकी कविताएं पढ़कर खुशी हुई । मेरी बधाई लें ।

    उनका कथ्य और संवेदनशीलता प्रशंसनीय है लेकिन दबी ज़बान से यह ज़रूर सुझाना चाहता हूं कि सांस्कृतिक सन्दर्भ की व्यंजना के लिए कविता में ' हस्त-प्रक्षालन ' का प्रयोग व्यक्तिगत स्तर पर मुझे कुछ पंडिताऊ या अकादमिक जान पड़ा । यह मानते हुए कि अभिव्यक्ति में गरिमा बनी रहनी चाहिए, आज की हिन्दी कविता के मिजाज़ में जो बदलाव आ गया है, उससे आप अपरिचित न होंगी..
    इसका मतलब यह नहीं कि सब 'भेड़-चाल में शामिल हो ही जाँय; केवल यह कि अपने निर्णय की परिणतियों को सब जानें और-समझते रहें । आप स्वयं विदुषी हैं, अधिक क्या लिखूँ !

    आपके लेखों का संग्रह छपने को था..उसका क्या हुआ ? हो सके तो हिन्दी में ई-पुस्तकों की स्थिति या संभावना के बारे में अपनी राय बताइए ।
    नव वर्ष की शुभकामना सहित
    आपका
    अजितकुमार

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय अजित जी,
      आपकी स्नेहिल टिप्पणी पा मन कृतार्थ हुआ। आपने यद्यपि सही कहा है कि आजकल संस्कृतनिष्ठ प्रयोग पंडिताऊ समझे जाने लगे हैं। उस संदर्भ में 'प्रक्षालन' को 'धुलाना' करना साधारणतः सही प्रतीत होता है किन्तु जो लोग 'व्रतबंध' का सांस्कृतिक अर्थ ( `उपनयन संस्कार', जिसके द्वारा व्यक्ति को तीनों ऋणों से उऋण होने का व्रत दिलवाया जाता है) को जानते हैं वे भली भांति जानते हैं कि ऐसे संस्कारों में प्रक्षालन एक पारिभाषिक शब्द की भांति आता है जो एक 'विधि' से जुड़ा है, वह विधि जो 'आचमन' की विधि के उपरांत की जाती है व 'अंगस्पर्श' की विधि से पूर्व। इसके पश्चात् विशिष्ट होमादि/संस्कार/ विधियों में संकल्प के मंत्र आचमन में जल लेकर पढ़े जाते हैं जिसके द्वारा यजमान एक प्रतिज्ञा करता है और उसमें स्थान, काल व देश आदि की घोषणा की जाती है।

      अतः उक्त कविता का शीर्षक 'व्रतबंध' उस सांस्कृतिक अभिव्यंजना को / उस रूपक को लेकर एक नए अर्थ में व्यंजित करने के लिए लिखी गई कविता है। पूरी कविता का रूपक शीर्षक के अतिरिक्त मात्र इसी एक शब्द पर टिका हुआ है , यह शब्द हटाते ही 'संकल्प के मंत्र' के साथ व्रतबंध की प्रोक्ति असंप्रेष्य ही नहीं हुई अपितु पूरी तरह नष्ट हो गई है। कविता में कोई अभिव्यंजना ही नहीं बची। शाब्दिक अर्थ जानने वालों को केवल संस्कृत के एक शब्द के स्थान पर दूसरा सरल शब्द रख दिया प्रतीत होता है, जबकि ऐसा है नहीं। विशेष रूप से इसलिए भी क्योंकि "हस्तप्रक्षालन" व "संकल्प के मंत्र" मात्र ये दो ही कविता के Key-Word हैं और इन्हीं के सहारे पूरी कविता का संदर्भ व अर्थ पूरा खुलता है।

      एक उदाहरण से बात और स्पष्ट हो जाएगी। विवाह संस्कार में एक विधि होती है जिसे "शिलारोहण" कहते हैं। किसी कविता में विवाह का निहितार्थ देने के लिए बिना अभिधा के व बिना संस्कार व विधि का प्रसंग उठाए 'शिलारोहण' शब्द का प्रयोग हो तो पाठक उसका संदर्भ ग्रहण कई अर्थस्तरों पर करता है और वह कविता अपने इस सांस्कृतिक अर्थ के साथ-साथ कई और अभीष्ट अर्थ भी संप्रेषित करती है। किन्तु यदि इसे हटा कर "पहाड़ पर खड़ी हो जाओ" कर दिया जाए तो पूरी कविता भरभरा कर धड़ाम से गिर पड़ेगी। क्योंकि संभवतः वही एकमात्र शब्द था जो पूरी कविता की कुंजी था।

      आशा है, मैं अपनी बात स्पष्ट कर पाई हूँ।

      सादर स्नेहाभिलाषी

      हटाएं
  4. आप की तीनों कविताएँ मैं ने पढ़ीं । सर्वोत्तम मुझे व़तबन्ध लगी । उपनयन संस्कार की ध्वनि इस में है ,पर
    केवल इसी ध्वनि में कविता की सफलता निहित नहीं है । यह तो इस के ंशिल्प से जुड़ी बात हुई । कविता
    का मूल्याँकन उस के कथ्य की व्यंजना में करना बेहतर है । इस दृष्टि से इस में नारी मन की कोमल
    भावनाओं ,जैसे सखा अर्थात पति के प़ति निर्व्याज समर्पंण , गृहिणी की छवि ,कर्तव्यपरायणता आदि
    उदात्त भावनाओं की कुशल व्यंजना हुई है ,जिस ने मुंझे अधिक प़भावित किया । कविता जी को अपनी
    शुभकामनाएँ दे कर मैं कृतार्थ हुंआ ।

    जवाब देंहटाएं
  5. ईमेल से प्राप्त एक और टिप्पणी

    Dear Dr. Kavita,


    I read your poems in Disha-Moscow page in Facebook.

    1. The first 'राख' poem impressed me for its deep meaning.

    2. The second poem 'व्रतबंध' reminded me my childhood and the village life. Nature and mental state of a woman is
    narrated in a nice flow using simple words. I think you should not worry about the changes made by the editors. It is rather easier for us (readers) to grasp the culmunation of the poem in the edited version.

    3. Re. the third poem 'औरतें डरती हैं' - My subjective opinion : message could have been made little clearer. Many things are left to the reader to guess.

    Although I am not from Hindi speaking belt. After repeated reading of all the three poems I felt like writting you.





    Best regards,

    Santosh Mishra

    Operations Director

    Phoenic International

    Moscow

    जवाब देंहटाएं
  6. ईमेल से प्राप्त एक और संदेश

    Respected Kavita Vachaknaveeji Namaskaarji.
    I congratulate you for the publication of yours poems 'RAAKH', 'VIRATBANDHAN' and 'AURTEYN DARTEE HAIN' in Dec. 2012 VAAGARTH a monthly patrika of BHAARTYA BHASHA PARISHAD. And I also thanks to write in Hindi and about Indian ladies' life. I think that you are a lady of a creative mind and so I request you to send yours views about the life of a lady after marriege and before marriage. I'm also writing some books and ghazals.
    With Thanks
    N.K.'Jeet'( ek Writer)
    Dehradun(Uttrakhand)
    INDIA.

    जवाब देंहटाएं

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