संस्कृत : छन्दविज्ञान, सैद्धान्तिकी और कबीर : कविता वाचक्नवी
बहुत बचपन में ही पूरा छन्दशास्त्र पढ़ डालने के अनगिन लाभों की याद बरबस ही बनी रहती है। आज वह सैद्धान्तिकी तो भले याद नहीं, किन्तु कविता रचते समय उस सैद्धान्तिकी का नियमन हर समय कलम की नोक को साधता आ रहा है।
बचपन के उन दिनों में गुरुजी से निरुक्त पढ़ना कभी-कभी बड़ा कष्टसाध्य और कभी बड़ा रोचक लगा करता था। हजारों प्रसङ्ग आज भी मन में करवट लिया करते हैं और किसी रुष्क विषय को कैसे सरस बनाया जा सकता है, यह स्मरण दिलाए रखते हैं।
परन्तु उसके पश्चात् जैसे ही लौकिक संस्कृत का छन्दशास्त्र पढ़ने लगे तो अलग प्रकार का आनन्द आने लगा। पूरे छन्दविज्ञान की आधार गणना को एक श्लोक में पढ़ लेने के बाद छन्दशास्त्र हस्तामलकवत् लगने लगा था। वह श्लोक आज भी कण्ठस्थ है जिसने सारी गणना साधना सिखा दिया था -
मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो ।
भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः ।
जो गुरुमध्यगतो रलमध्यः
सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः ॥
गत दिनों एक पाठक / सज्जन ने भाषा के प्रसङ्ग में एक आपत्ति व तर्क दिया और कहने लगे कि "जो भाषा आम आदमी की समझ में आ सके, उसी में अभिव्यक्ति हो तो मन को सुन्दर लगता है,और बरसों से अब रचनाकार, इसी सरलता की तरफ चल पड़े है। पक्का तो पता नही , लेकिन अमीर खुसरों और तुलसीदास जी आदि ने सरल, आम आदमी की ही भाषा को अपनाया और जनता में प्रसिद्ध भी हुये। कालिदास, भास आदि कवि महान तो अवश्य है, मगर स्कूल--- कोलिज और पुस्तकालय तक सीमित हैं' । "
अब उन्हें कौन समझाए कि जो जिसे समझता है या समझने के लिए कुछ यत्न करता है, वही उसे समझने लगता है। बिना पढ़े और समझे तो लोगों को अब तुलसी और रसखान तक समझ नहीं आते। कल को वे इसी तर्क से ही उन्हें भी 'आऊटडेटेड' करार दे देंगे और उन्हें भी स्कूल, कॉलेज और पुस्तकालय तक सीमित रह जाने वाले घोषित कर देंगे, तब क्या कीजिएगा? किस-किस को तज कर 'अपडेटेड' और 'अप टू डेट' बनेंगे हम ? सरलता के नाम पर तो सब से सरल कुछ भी न जानना है, तो फिर सारा ज्ञान-विज्ञान भी क्यों पढ़ना उसे पढ़ना कोई सरल है क्या ? लोगों को अब हिन्दी भी अंग्रेजी मिलाकर बोली जाने पर समझ आती है। तब तो हिन्दी भी ठण्डे बस्ते में डाल दी जाए। दया यह करें कि हम जैसे कुछ लोगों को हमारे हाल पर चीजों को बचाए रखने की अलख जगाने के लिए छोड़ दें।
इतने पर ही मामला ठण्डा नहीं हुआ। उनका साथ देने कुछ और सज्जन फिर कबीर को घसीटने लगे कि 'कबीर तो पढे-लिखे नहीं थे, ये सब बेकार की चीजें हैं, असली चीज अपने मन के भाव होती है, क्या जरूरत है शास्त्र-वास्त्र की, आज के समय में कौन शास्त्र पढ़ता है और बिना शास्त्र जाने भी इतने कवि आदि हैं। कविता के लिए यह सब जरूरी चीजें नहीं हैं। बेकार है यह सब ' आदि आदि।
उन्हें कैसे समझाया जा सके कि पढ़ा तो आज लाखों कवियों ने काव्यशास्त्र भी नहीं, या अलंकारशास्त्र भी नहीं । हजारों-लाखों लोगों ने आलोचना की प्रविधियाँ नहीं पढीं। इससे क्या आलोचना-शास्त्र को पढ़ने वाले अपराधी हो गए ? या विश्वविद्यालयों में उसका अध्ययन-अध्यापन बंद करवा दिया जाना चाहिए ? या पुस्तकों को आग के हवाले कर देना चाहिए और लिखने-पढ़ने पर प्रतिबन्ध लगवा देना चाहिए ? लोगों द्वारा किसी विषय के न पढ़ने से किसी ज्ञान की उपादेयता कम हो जाती तो संसार के सारे ज्ञान को तिलाञ्जलि दे देनी चाहिए कि अमुक का जीवन उक्त विषय के ज्ञान के बिना भी मजे से कट गया। किसी ने कुछ नहीं पढ़ा तो उनके न पढ़ने से पढ़ने वाला दोषी कैसे हो गया ? अजब तर्क हैं ! किसी चीज को न पढ़ कर पढ़ने वालों या ज्ञान को ही धिक्कारा जाए .... क्या यही महानता है !! अहम् की भी पराकाष्ठा होनी चाहिए और अहम भी कैसा !! सही कहा गया है कि अज्ञानी का अहम् बहुत बड़ा होता है।
अत्याधुनिक पाश्चात्य जगत तक में अभी भी संगीत के शास्त्र से लेकर सब विद्याओं के शास्त्रों का मनोयोगपूर्वक अध्ययन-अध्यापन होता है और यह नया युग तो विधिवत् पारङ्गतता (स्पेशलाईज़ेशन) प्राप्त करने का है, लोग विषय की पारङ्गतता (स्पेशलाईज़ेशन) प्राप्त करने के लिए सम्बन्धित विषय की सैद्धान्तकी पर जीवन लगा देते हैं आजकल। ऐसे में हिन्दी साहित्य के प्रबुद्ध कहे जाने वालों की इस मानसिकता पर क्षोभ ही किया जा सकता है। वस्तुतः कष्ट सारा संस्कृत को लेकर है। इसलिए इनके तर्क से तो नागार्जुन और त्रिलोचन भी निरस्त हो जाएँ। मूलतः यह हिन्दी-साहित्य की एक बड़ी प्रवृत्ति के रूप में समाज में पनप रहा नया रोग है। लोग 'भाषा समझ नहीं आती' के तर्क से हमारी भाषाओं की हत्या कर रहे हैं, 'ग्रन्थ समझ नहीं आते' के तर्क से भारतीय ज्ञान-विज्ञान को खारिज करने की साजिश कर रहे हैं। अपना स्तर बढ़ाने की अपेक्षा चीजों के सरलीकरण के नाम पर हर चीज की हत्या करने को सहन करना उपयुक्त नहीं।
अत्याधुनिक पाश्चात्य जगत तक में अभी भी संगीत के शास्त्र से लेकर सब विद्याओं के शास्त्रों का मनोयोगपूर्वक अध्ययन-अध्यापन होता है और यह नया युग तो विधिवत् पारङ्गतता (स्पेशलाईज़ेशन) प्राप्त करने का है, लोग विषय की पारङ्गतता (स्पेशलाईज़ेशन) प्राप्त करने के लिए सम्बन्धित विषय की सैद्धान्तकी पर जीवन लगा देते हैं आजकल। ऐसे में हिन्दी साहित्य के प्रबुद्ध कहे जाने वालों की इस मानसिकता पर क्षोभ ही किया जा सकता है। वस्तुतः कष्ट सारा संस्कृत को लेकर है। इसलिए इनके तर्क से तो नागार्जुन और त्रिलोचन भी निरस्त हो जाएँ। मूलतः यह हिन्दी-साहित्य की एक बड़ी प्रवृत्ति के रूप में समाज में पनप रहा नया रोग है। लोग 'भाषा समझ नहीं आती' के तर्क से हमारी भाषाओं की हत्या कर रहे हैं, 'ग्रन्थ समझ नहीं आते' के तर्क से भारतीय ज्ञान-विज्ञान को खारिज करने की साजिश कर रहे हैं। अपना स्तर बढ़ाने की अपेक्षा चीजों के सरलीकरण के नाम पर हर चीज की हत्या करने को सहन करना उपयुक्त नहीं।
इससे भी अधिक हास्यास्पद बात यह कि लोग चीजों को बिना पढ़े उन्हें अनावश्यक, घटिया, निरर्थक व महत्वहीन सिद्ध करने में दौड़े रहते हैं और उन्हें खारिज करने में जुट जाते हैं। इस से यही प्रमाणित होता है कि लोग अपने न पढ़े होने को भी अपनी विशिष्टता प्रमाणित करने की जिद्द इसलिए करते हैं क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार वे किसी कुंठा (कॉम्प्लेक्स) से ग्रस्त होते हैं। ऊपर से मजे की बात यह है कि ले-दे कर ऐसे लोगों को कबीर ही याद आते हैं, अर्थात् एक तरह से ये लोग स्वयं को कबीर सिद्ध करना चाहते हैं। लोगों द्वारा इस प्रकार अपनी तुलना कबीर से करते हुए रत्ती-भर भी संकोच नहीं करना हत्प्रभ करता है कि क्या खाकर लोग स्वयं को कबीर समझते हैं ? कबीर क्या अपढ़ या कुपढ़ थे, जो ज्ञान को निरस्त करने वाले ऐसे लोग कबीर को सदा ज्ञान के विरोध का प्रतीक मान कर अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करते हैं? कबीर की 'मसि-कागद न छूने और कलम न पकड़ने' की बात से लोगों ने यह कैसे प्रमाणित कर दिया कि कबीर अज्ञानी थे या ज्ञानविरोधी थे, या अपढ़ थे ? कबीर के काव्य में रत्ती-भर भी छन्द-मात्रा का दोष ढूँढ कर दिखाएँ तो सही ! कबीर का ज्ञान का स्रोत भले किताबें नहीं थीं, किन्तु उन्होंने अपने गुरुओं से जो शिक्षा पाई, उसका क्या कोई मोल नहीं है ? क्या कबीर ने उस शिक्षा को गाली दी, नकारा या निरस्त किया ?
किसी भी विद्या के शास्त्र और ज्ञान अथवा सैद्धान्तिकी को खारिज / निरस्त करने वाले तर्कों और तार्किकों का दम्भ देखकर यह तो निस्सन्देह पता चलता ही है कि दम्भ का स्रोत कहाँ व क्या होता है। ज्ञान को खारिज करना निस्सन्देह सबको दम्भी ही बनाता है।
छन्दविज्ञान की उपर्युक्त चार पंक्तियाँ जो उद्धृत की थीं; उन पंक्तियों का हिन्दी में भी अर्थ बताने की इच्छा कुछ पाठकों ने सन्देश भेजकर व्यक्त की। अतः इस बहानेअपनी स्मृतियों को व प्राप्त सीख को इन पंक्तियों के माध्यम से दुहराने का अवसर मिल रहा है। अतः थोड़ा संक्षेप में इन पंक्तियों के बारे में -
काव्यशास्त्र के अनुसार विविध छन्दों में विविध मात्राओं ( जिन्हें वहाँ लघु व दीर्घ कहा जाता है ) का नियोजन होता है। यों तो प्रत्येक काव्यरचना में वही दो प्रकार की मात्राएँ होती हैं, किन्तु संस्कृत में इन दो मात्राओं को तीन-तीन के अलग-अलग प्रकार के 'सेट' (वर्गों ) में बाँट दिया गया है (मात्राओं को अलग-अलग ढंग से प्रयोग करने के निर्धारित इन वर्गों को गण कहा जाता है) तो कई गण बने हुए हैं, जैसे यगण, मगण, तगण इत्यादि। ये यगण, मगण, तगण इत्यादि जिस क्रम से रचना में प्रयोग होते हैं, वही क्रम तय करता है कि उक्त रचना में उक्त-उक्त छंद है। संगीत में जैसे राग-रागिनियाँ होते हैं, कुछ वैसा ही समझ लीजिए।
एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जैसे, एक छन्द है 'इन्द्रवज्रा ' । 'इन्द्रवज्रा' छन्द के प्रत्येक चरण में 11 -11 वर्ण होते हैं। ये 11 -11 वर्ण (यगण, तगण. मगण आदि ) जब, जहाँ, जिस रचना में एक निर्धारित क्रम मे आएँगे, वह रचना इन्द्रवज्रा छन्द की होगी। इस छ्न्द की परिभाषा है - " स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः " अर्थात् इन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु के क्रम से वर्ण होते हैं।
अब छन्द के इस लक्षण (परिभाषा) का पता होने के बावजूद किसी को भी 'वर्ण' को पहचानना कठिन हो सकता है कि तगण किसे कहते हैं और जगण आदि क्या होता है। इसलिए पूरे छन्दविज्ञान के आधार को ऊपर उल्लिखित चार पंक्तियों में समाहित कर दिया गया है। ( उन पंक्तियों की व्याख्या लिखने से पहले यह सब भूमिका लिखना अनिवार्य था ताकि बात पूरी स्पष्ट हो सके )।
अब आते हैं उन चार पंक्तियों के शाब्दिक अर्थ पर। उनका अर्थ यह है कि -
म (मगण ) में तीन गुरु, तीन लघु न (नगण) में, भ (भगण) के आदि में गुरु (अर्थात् बाकी दो लघु), य (यगण) के आदि में लघु (अर्थात् बाकी दो गुरु), ज (जगण) के मध्य में गुरु (अर्थात् बाकी दोनों ओर लघु), र (रगण) के मध्य में ल (लघु) (अर्थात् बाकी दोनों ओर गुरु, स (सगण) के अंत में गुरु (अर्थात् उस से पूर्व दो लघु), त (तगण) के अन्त में लघु (अर्थात् उस से पूर्व दो गुरु)।
( 'ऽ' यह चिह्न गुरु मात्रा का है ) व '।' यह चिह्न लघु मात्रा का है )
म ऽऽऽ
न ॥।
भ ऽ॥
य ।ऽऽ
ज । ऽ।
र ऽ। ऽ
स ॥ ऽ
त ऽऽ।
अतः उन चार पंक्तियों में सारे गणों की गणना व परिभाषा अद्भुत ढंग से समझा/कह दी गई है। उसे याद कर लेते ही प्रत्येक छन्द की गुत्थी सुलझ जाती है। "यमाताराजभानसलगम्" कह कर इसे और भी संक्षिप्त बना दिया गया किन्तु इस अति संक्षिप्तीकरण में गणना करनी पड़ती है, जबकि उपर्युक्त पंक्तियों में अंकों व गणना को भी साथ-साथ दे दिया गया है। जिसे जो विधि अनुकूल लगे वह उसे अपना सकता है।
छन्द और संगीत का सौन्दर्य सृष्टि रहने तक समाप्त नहीं होने वाला। संस्कृत के आचार्यों ने इसके गूढ़ रहस्यों को सरलता से समझ में आने की विधियाँ भी विकसित कीं। यह उनका हम पर अत्यंत उपकार है।
बहुत अच्छी लेख है, मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ.... आज इस सोच के साथ बहुत कम लोग बचे हैं, ये विलुप्त होती जा रही है.. ये लेख पढ़कर बड़ा अच्छा लगा.मैं खुद कयी बार इस भंवर में फसां हूँ जहाँ लोग परिष्कृत भाषा तथा व्याकरण को ताक पर रहने के लिए आतुर दिखे हैं. मैं समझाने की चेष्टा करता हूँ पर भाषा को कभी विषय के रूप में नहीं पढ़ा तो उस आत्मविश्वास और दृढ़ता से नहीं समझा पाता. मैंने जो भी सीखा है अपने दादाजी (जो कि स्वयं मेरे गुरु भी हैं, और मैथिली साहित्य में अभी वरिष्ठ हैं) से ही सीखा है और इस तरह की सोच ही रखता हूँ. आपके लेख पढ़ मन प्रसन्न हुआ, मुझे लगा था कि ये सोच मृत हो चुकी है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लेख है, मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ.... आज इस सोच के साथ बहुत कम लोग बचे हैं, ये विलुप्त होती जा रही है.. ये लेख पढ़कर बड़ा अच्छा लगा. मुझे भी ऐसे कई लोग मिले हैं जो कविता के नाम पर परिष्कृत भाषा और व्याकरण को ताक पे रखने को आतुर दिखाई देते हैं. मैंने कुछ को समझाने की चेष्टा भी की पर ढाक के तीन पात जैसी स्थिति होती है, और दूसरी बात मैं शायद ठीक से समझा भी नहीं पाता क्यूंकि भाषा कभी विषय के रूप में नहीं पढ़ा. जितना सीखा है वो दादाजी के सानिध्य में रहकर.
जवाब देंहटाएंमुझे ये लेख पढ़कर अत्यधिक प्रसन्नता हुई क्यूंकि मुझे लगा था कि ये सोच मृतप्राय ही नहीं अपितु मृत हो चुकी है. मन प्रसन्न है.
लिखने की क्षमता न होने से छंदों का सौन्दर्य तो कम नहीं हो जाता है।
जवाब देंहटाएंसरल एवं वैज्ञानिक विवेचन है । व्यंजन को शरीर और स्वर को आत्मा कहा गया है । बिना स्वर के अभिव्यक्ति सम्भव नहीं । तीन स्वतंत्र ध्वनि समूह को "गण" मानें तो तीन स्वरों के variations 23 = 8 होंगे. 000, 001, 010, 011, 100, 101, 110, 111 .
जवाब देंहटाएं0 को लघु और 1 को गुरु कह सकते हैं।
भाषा और गणित को जोड़ने के लिए छन्द शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है ।
सभी उन्नत देशों में Science & Mathematics की सघन पढ़ाई पर बल दिया जा रहा है । भारत में यह पुरानी प्रथा रही है ।
भैंस के आगे बीन बजाना शायद सार्थक हो जाए क्योंकि भैंसों के आस पास कोई सुन ले, समझ ले, अनुयायी या सहचर बन जाए । ज्ञान की लौ मन्द हो जाए, पर बुझ न पाए ।
आप सदा नए पथ की ओर इंगित करती हैं । साधुवाद ।
सस्नेह .... ओम
अत्यन्त रुचिकर व ज्ञानवर्धक ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
विषय पर आपकी गहरी पकड है, साधुवाद
जवाब देंहटाएंइस रचना की डेप्थ देखकर पता लगा कि आप वाचक्नवी क्यों हैं
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत हूँ.....कुछ लोग जीवन भर नहीं समझ पाएंगे...कि किसी बड़ी लकीर को छोटा कैसा किया जाता है...शायद किसी गुरु ने ज्ञान नहीं दिया है ऐसे लोगों को...
जवाब देंहटाएंप्रणाम कविता जी ,
जवाब देंहटाएंसुबह आपकी पोस्ट पढ़ कर पुराने दिन याद आ गये ,वस्तुतः बहुत ही अच्छा सूत्र दिया ,मैंने तो लिख भी लिया ,हमें तो यमाताराजभानसलगा ही पढ़ा था ।आप के ख़ज़ाने में ऐसे और भी अनमोल सूत्र हों तो शेयर कीजिए ,आभारी रहूँगी ।
जवाब देंहटाएंआदरणीया कविता दीदी, बहुत ही शानदार बात कही आपने..और धाराप्रवाह..बहुत खूब..आप से पूरा इत्तफाक रखता हूँ, इस मसले पर..
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शव्दों में कहूं तो ‘‘ कबीर भाषा के डिक्टेटर थे’’ कबीर को अनपढ समझने की भूल मत करिये। आत्म ज्ञान, आत्म चिन्तन जिसके केन्द्र में मानस हो सर्वोच्च है।
जवाब देंहटाएंdekhiy..padh likh ke hi to agayaan ka gyaan hot hai. Nahi? rahi baat kabir ki to unka gyan regimented nahi tha...sayad wo sajjan ye duraagrah kar rah honge??
जवाब देंहटाएंheek kaha kavita---kavita ke tevar aise hi hone chahiye
जवाब देंहटाएंकाेई ऐसी अच्छी बात नही जिसे पूर्वजाेँ ने धराेहर के लायक नहीं बनाया फिर भी प्रजातंत्र छा ही गया ! इसका संचालन अापके उद्देश्य काे प्राप्त करना नहीं !
जवाब देंहटाएंdarasal kabeer par jyada focus raajneetik kaarno se hai...samaajvaadee aur vaampanthee vicharon vaale kathit budhejeevee aisee harkat karte hai...
जवाब देंहटाएंachcha lagta h aapke katu satya sunkar ,khud ko bhi y ehsaas hota h ki kitni baate galat hote hue bhi hum sunkar khamosh rah jaate h...u r gr8
जवाब देंहटाएंज्ञानी के पहली निशानी है "विनयशीलता", फिर "गुणग्राहकता" और सबसे बढ़कर "ज्ञानपिपासा".....जिसमे यह न हो, वह ज्ञानी कैसा..?
जवाब देंहटाएंIt is amazing....
जवाब देंहटाएंHow do u write so. Very well
वास्तव में कबीर ज्ञान व पढ़ाई के इसी दंभ के विरोधी थे, ज्ञान व पढ़ाई के नहीं।
जवाब देंहटाएंसोलह आने सच्ची बात है आपकी. क्या ऐसे लोग इन महान कवियों के समतुल्य सहज स्वीकार्यता प्राप्त कर सकते हैं. यह उनका व्यर्थ प्रलाप है.
जवाब देंहटाएंSahi...satya kaha...Kabeer ji param gyani thay....badi se badhi goodh baate itnee assani se samjha di...
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही व तर्कपूर्ण उत्तर है. सरलीकरण के नाम पर विग्यान की हत्या करने की प्रवृति का विरोध होना चाहिए.
जवाब देंहटाएंJI didi lag raha hai abhi kuchh bacha hai mer bheetar jise sahejkar aaj bhi bachaya ja sakta hai........prayas shuru kar diya hai,,,,,,,,chhand se jude post tasalli se padhna chahti hoon.............chhand kya samskrit ka ganit hai.sahi kaha hai vidhya ko sanchit hi rakho to vinasht hoti jati hai. kabhi mujhe lagta tha CHHANDpar mera theek theek adhikar hai aaj jab samne aaya to aisa lag raha hai jaise .........kabhi pahale janm mein padha tha.
जवाब देंहटाएंआपने बिलकुल सही कहा है ..... वैसे भी जो लोग सटीक ज्ञान नहीं रखते वो कुछ न कुछ भ्रमित पेश करते हैं और कबीर का सहारा लेकर उसको सही बनाने का प्रयास करते हैं ....इससे तो बेहतर है कि जितना जानते हैं उसे अपने से ही प्रस्तुत करें ....
जवाब देंहटाएंवाह, आनद आ गया पढ़ कर.....छंद ज्ञान ज़रूरी है, मगर यह मुझे कभी समझ नहीं आया. फिर भी मैं छंद-प्रेमी हूँ. चाहता हूँ. यह परम्परा ज़िंदा रहे..
जवाब देंहटाएंprosody is a fascinating subject
जवाब देंहटाएंaapko padhne se funde to clear ho hi jyate hain..sayad kavita me bhi asar aaye...
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंवास्तव में आपको काव्यशास्त्र का अथाह, अगाध और असीमित ज्ञान है
कमाल है कविता जी. आभार. १९७८ में मुझे काव्यशास्त्र में पी-एच.डी. का विषय सुझाया गया था, लेकिन चार माह तक सिर खपाने के बाद अंततः मैंने उससए तौबा कर लिया था और बाद प्रतापनारायण श्रीवास्तव के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कार्य किया था. आपको इतना सब आज भी याद है यह प्रशंसनीय बाद है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी दी आपने
जवाब देंहटाएंआदरणीया, मै तो समझता हूँ कि, नेट पर उपस्थित 99% लोगों को काव्य शास्त्र का इतना गहन ज्ञान नहीं होगा....शायद...वास्तव में आप जैसी विदुशियाँ भारतवर्ष का गौरव होने के साथ ही हमारी संस्कृति की थाती भी हैं.....
जवाब देंहटाएंएक बात और बता दूँ....99% लोगों में मै भी हूँ।:-)
कविता जी,
जवाब देंहटाएंमेरी हिन्दी कविता एवं छंद विधा में रुचि है पर उसका तकनीकी ग्यान नहीं है, कृपया इस पर भी एक आलेख लिखने की कृपा करें।
सादर...
दीपक शुक्ल...
Bachpan main parde aur ab vismrirt hue ye sutr vaaky yaad dilaa kar apne puranee sikshaa paddhati ki mahaantaa aur ab congressi pseudo Seculariism prerit sikshaa ka khokhalaa pan bhee bakhoobi ujaagar kar diyaa hai, @Dhanyabaad @Drkavita Vachaknavee ji
जवाब देंहटाएंहमारे लिए तो आपकी बातें बड़ी सार्थक हैं ,विद्यार्थियों को पढ़ाने में सहायता मिलती है ।प्रसंगवश बताना चाहूंगी कि यमाताराजभानसलगा इसी श्लोक की तरह हिन्दी सूत्र है ,जिसका अर्थ है -यमाता अर्थात एक लघु दो गुरु का यगण होता है ,फिर मातारा अर्थात मगण में तीनों मात्राएँ गुरू ,फिर ताराज अर्थात तगण में दो गुरु एक वर्ण लघु ।
जवाब देंहटाएंइसी तरह राजभा से रगण जिसमें दो गुरु के मध्य में लघु वर्ण होता है ,जगण का ज़भान यानी एक लघु फिर गुरु फिर लघु ,भानस से भगण जिसमें आदि में गुरु पुन: दो लघु आते हैं ।नगण अर्थात् नसल जिसमें तीनों वर्ण लघु होंगे ।अंत में सगण का प्रतीक है सलगा इसमें दो लघु एक गुरु आयेगा ।
आदरणीया
जवाब देंहटाएंमेरी रुचि कविता लेखन मेँ है , परंतु तकनिकि ज्ञान न होने कि वजह से अनियंत्रित सा हो जाता है , बहुत धन्यबाद इस प्रस्तुति केलिए । प्रणाम
Kavita ji,sabse pahale chhand vigyan ke baare me jaankaari dene ke liye mai aapko dhanyavaad gyapit karta hu aur apne jeevan me 45 varsh peechhe jaane ka avsar milaaKabhi maine bhi ye sutra 1966-67 me padhe the parantu baad me vigyaan a ganit ki uchh shiksha lene ke kaaran mai inhe lagbhag bhool sa gaya tha.Parantu aapne ise facebook par lakar mere jaison ko kritarth kar diya.aapka bahut dhanyavaad.
जवाब देंहटाएंaap sadaiv aisi jaankaariyan post karti rahe.
जवाब देंहटाएंसुन्दर सटीक सार्थक और सदुपयोगी ज्ञान....
जवाब देंहटाएंKavita ji aap ki smritiyon me abhi bhi tajagi hai.aap ki baoddhik urja ko salam.
जवाब देंहटाएंसदुपयोगी ज्ञान.
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जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.
नमस्ते कविता जी! आपके आचार्य और गुर्कुल का भी परिचय दीजिये ना. कितने सौभाग्यशाली हैं आप कि इतने सुदृढ़ और प्रामाणिक पद्धति में विद्याध्ययन किया और आज कल हम हैं, कहने के लिए साक्षर बस वही पर रुक जाते है, मेकाले के स्वप्न की पूर्ति में लगे हुए; पर आपका बहुत धन्यवाद इस धरोहर की विशिष्टता, सुन्दरता और प्रासंगिकता का हमें आभास दिलाते रहने का.
जवाब देंहटाएंvaah! Jayatu sanskritam!! Aapki ekaadh kaavy panktiyaan padhte hi lag gayaa thaa ki aap sanskrit-mool ki hain aur chhand-vidhaan kaa bodh aapko h. Pr maatr chhandah-shaastr-pathan se hi kaam nahi bantaa. Tadarth kanthaabhyaas bhi apekshit h aur mujhe lagtaa h aap madhur-kanth-swaaminee bhi hain, uske vinaa kaavy-rachanaa me layaatmaktaa dushkar h. App gun-gan-bhooshit hain,tabhi to hujur ke maitri bhav adyaavadhi na svikaarne ke baad bhi aapki hr post padhane ki tamannaa rahti hai.ukt shlok ke bajaay YAMAATAARAAJBHAANSALAGAA sankshipt va samaan roop se upyogi h.
जवाब देंहटाएंछन्द शास्त्र से अपरिचित लोगों के जबरिया कवि बन जाने का ही नतीजा है जो आज कविता भुगत रही है. भाई लोग छन्द को जाने बग़ैर ही उसे तोड़ने की बात करने लग गए.
जवाब देंहटाएंAho. Net pr itne vidyaa-vyasanee mitro ke madhya Sanskrit aur tanmoolak chhand,Nirukt, kaavyshaastraadi ki charchaa ke pravartan ke liye badhaai mam !
जवाब देंहटाएंसंस्कृत की गेयता और छंदबद्धता का एक आदर्श उदहारण - http://www.youtube.com/watch?v=4M_hoHuJc8g
जवाब देंहटाएंVyakaran shuruaati waqt me neeras aur shushk lagta avashya hai,but aisa hai nahi. jaise-2 gati badhti jati hai,vaise-2 aanand aata jata hai.
जवाब देंहटाएंNIRUKTA MAHABHASHYA ka adhyayan maine bhi kiya hai.
ab jo aanand aata hai, vo atulneeya hai.
fir bhi Kavita ji aapka kehna aanshik roop me satya hai.
Aap bahot bhagyashalu hai aap ko Sanskrit sikhane ko mila..
जवाब देंहटाएंDr Kavita ji ap ki tippani,un par apattiyon aur ap ke uttaron ko main ne dhyan se padha.Khed hai ki itne vilamb se apni pratikriyan li kh raha Hun.Asal men ajkal Sanskrit,sanskrit kavyshashtr ke virodh ki hava bah rahi hai jis men chhand bhi anavahyak mane ja rahe hain .Jo chhand ya lay ki bat karta hai use puratanpanthi man liya jata hai .Is chhand aur lay ke samarthan men main ne San 1966 men ek pustak likhi thi par use alochakon ne raddi men phenk diya.
जवाब देंहटाएंIs pustak ka nam hai Sahaj Kavita ,us ka swarup aur sambhavnayen,jis ki kuchh patrikaon men smikshayen chhapi thi.Ap Apni koshish jari rakhiye.
@चंदेल जी,
जवाब देंहटाएंसौभाग्य से काव्यशास्त्र मेरा एक प्रिय विषय रहा है। मैंने यद्यपि इसमें पारंगतता (स्पेशलाईज़ेशन) नहीं की, किन्तु बस शौक है। इसी शौक के चलते किसी जमाने में लगभग 35 वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से 'ऑनर्स इन हिन्दी' करते समय, परीक्षा से पहले और बाद में, सब कहते थे कि आलोचना और काव्यशास्त्र सबसे अधिक कठिन पर्चा होता है, उसमें कभी किसी के 40 प्रतिशत अंक भी आ जाएँ तो गनीमत है। किन्तु मजे की बात यह है कि जब परिणाम आया तो उक्त विषय में प्रथम श्रेणी के साथ मेरे अंक विश्वविद्यालाय में सर्वाधिक थे।
इसलिए यह लत और शौक की ही बात है बस।
ek rochak lekh.
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