"माँ बूढ़ी है"
-- अपनी पुस्तक " मैं चल तो दूँ " (२००५) से
माँ बूढ़ी है
- कविता वाचक्नवी
झुककर
अपनी ही छाया के
पाँव खोजती
माँ के
चरणों में
नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले ;
कमरे से आँगन तक आकर
बूढ़ी काया
कितना ताक-ताक सोई थी,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँख, इकहरी काया
कितना काँप-काँप रोई थी।
बच्चों के अपने बच्चे हैं
दूर ठिकाने
बहुओं को घर-बाहर ही से फुर्सत कैसे
भाग-दौड़ का उनका जीवन
आगे-आगे देख रहा है,
किसी तरह
तारे उगने तक
आपस ही में मिल पाते हैं
बैठ, बोल, बतियाने का
अवसर मिलने पर
आपस ही की बातें कम हैं?
और बहू के बच्चों को तो
हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें
निपट जुगाली-सी लगती हैं
दिनभर बंद निजी कमरों में
आपस में खोए रहते हैं।
दिनभर भागा करती
चिंतित
इसे खिलाती, उसे मनाती
दो पल का भी चैन नहीं था
तब इस माँ को,
अपना होना भी बेमानी
अपने बच्चों में अनजानी
कान नहीं सुन पाते उतना
आँख देखती धुँधला-धुँधला
हाथ काँपते ही रहते हैं
पाँव लड़खडा़ कर चलते हैं
पलकों से नींदें गायब हैं
उभरा सीना पिचक गया है
गालों की रंगत ढुलकी है
होठों की काली सुरखी है
कमर धरा की ओर झुकी है
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँखों
अपनी ही छाया के
पाँव टोहती माँ के
चरणों में नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले...।
अपनी ही छाया के
पाँव खोजती
माँ के
चरणों में
नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले ;
कमरे से आँगन तक आकर
बूढ़ी काया
कितना ताक-ताक सोई थी,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँख, इकहरी काया
कितना काँप-काँप रोई थी।
बच्चों के अपने बच्चे हैं
दूर ठिकाने
बहुओं को घर-बाहर ही से फुर्सत कैसे
भाग-दौड़ का उनका जीवन
आगे-आगे देख रहा है,
किसी तरह
तारे उगने तक
आपस ही में मिल पाते हैं
बैठ, बोल, बतियाने का
अवसर मिलने पर
आपस ही की बातें कम हैं?
और बहू के बच्चों को तो
हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें
निपट जुगाली-सी लगती हैं
-
-
- सुंदर चेहरों की तस्वीरें मन में टाँके
- किसे भला ये गाल पोपले सोहा करते?
-
दिनभर बंद निजी कमरों में
आपस में खोए रहते हैं।
दिनभर भागा करती
चिंतित
इसे खिलाती, उसे मनाती
दो पल का भी चैन नहीं था
तब इस माँ को,
-
-
- अब फुर्सत में खाली बैठी
- पल-पल काटे
- पास नहीं पर अब कोई भी।
-
अपना होना भी बेमानी
अपने बच्चों में अनजानी
-
-
- माँ बूढी़ है।
-
कान नहीं सुन पाते उतना
आँख देखती धुँधला-धुँधला
हाथ काँपते ही रहते हैं
पाँव लड़खडा़ कर चलते हैं
पलकों से नींदें गायब हैं
उभरा सीना पिचक गया है
गालों की रंगत ढुलकी है
होठों की काली सुरखी है
कमर धरा की ओर झुकी है
-
-
- मिट्टी में अस्तित्व खोजती
- बेकल माँ के
- मन में
- लेकिन
- बेटे के मिलने आने की
- अविचल आशा
- चढी़ हिंडोले झूल रही है,
-
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँखों
अपनी ही छाया के
पाँव टोहती माँ के
चरणों में नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले...।
-- अपनी पुस्तक " मैं चल तो दूँ " (२००५) से
- कविता वाचक्नवी
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संसार की समस्त माताओं को नमन
जवाब देंहटाएंमां को नमन।
जवाब देंहटाएंbahut hi bhavpurn rachna...
जवाब देंहटाएंaapki kavita padh kar ek poori yaatra se guzar gayaa...waah !! (RAVI)
जवाब देंहटाएंईमेल / फ़ेसबुक द्वारा प्राप्त सन्देश
जवाब देंहटाएंVashini Sharma commented on your post:
"आज के दिन ऐसी मार्मिक कविता पढ़ी । मेरा जीवन सफल हुआ ।
बरबस अपनी माँ याद आई जो दूर हैदराबाद में है ।
बरसों पहले अपनी बेटी को खोकर मन आज पुनः विगलित हो रहा है ।
अपने छोटे से जीवन-काल में उसने हम दोनों को जितना प्यार दिया वही मेरी थाती है ।"
बहुत ही सुन्दर. एक अक्स बन गया आँखों के सामने ....
जवाब देंहटाएंईमेल द्वारा प्राप्त प्रभु जोशी जी का सन्देश
जवाब देंहटाएंmaa ki ek bahut samvaidansheel smriti ki abhivyakti..
bahut achha laga..badhayim
prabhu joshi
Vashini Sharma commented on your link:
जवाब देंहटाएं"कविता जी ,
आपकी कविता "माँ बूढी है"ब्लॉग पर देखी । आज हिंदी -विमर्श के पाठकों तक भी
पहुँचती तो सार्थक होती ।
वशिनी"
ईमल द्वारा प्राप्त सन्देश
जवाब देंहटाएंकविता जी,
'मदर्स डे' पर लिखी गई बहुत अच्छी कविता है. बधाई.
रमाकांत गुप्ता
मुंबई
ईमेल द्वारा प्राप्त इला प्रसाद जी का सन्देश
जवाब देंहटाएंयथार्थ का इतना सम्वेदनशील चित्रण !
बधाई!
- इला
ईमेल द्वारा प्राप्त राकेश पाण्डेय जी (प्रवासी संसार) का सन्देश
जवाब देंहटाएंस्पर्श
माँ
तुम्हारा
प्रथम स्पर्श
इतना ऊष्ण था कि
पाषाण पिघल जाये!
माँ
तुम्हारा
अंतिम स्पर्श
इतना शीतल था कि
पाषाण हिम बन जाये!
-राकेश पाण्डेय
''जैसे अमरित के झरने से
जवाब देंहटाएंझर झर झर मुस्कानें झरतीं,
मेरे मन में
अभी तलक माँ
वैसी की वैसी जवान है.''
-अत्यंत मार्मिक रचना के लिए अभिनंदन!!!
ईमेल द्वारा प्राप्त प्रतिभा सक्सेना जी का सन्देश
जवाब देंहटाएंआ. कविता जी ,
माँ से जुड़े सारे दृष्य आँखों के आगे घूमने लगे - साधुवाद !
- प्रतिभा.
शकुन्तला बहादुर जी का सन्देश
जवाब देंहटाएंकविता जी,
आपकी इस अत्यन्त मार्मिक रचना ने मन के तारों को आन्दोलित कर दिया।
एक सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति के लिये साधुवाद!!
-शकुन्तला बहादुर
मां तुझे सलाम...
जवाब देंहटाएंईमेल द्वारा हिन्दी-भारत समूह पर आया सन्देश
जवाब देंहटाएंकविता जी अत्यंत भाव-प्रवण रचना एवं मेरी माँ को भी मेरे समक्ष उपस्थित करने हेतु साधुवाद स्वीकार करें.
उम्मीद है आगे भी आपकी रचनाओ का क्रम चलता रहेगा.
अंत में मेरी बधाई फिर से स्वीकार करें.
आपका
विजय ठाकुर
************ *
Vijay Thakur
Delhi
hriday mey utar gayee hai ye kavita...kavita ka kavita rachana kavita ko amritva pradan kar deta hai.
जवाब देंहटाएंकमलकान्त बुधकर जी का हिन्दी-भारत समूह पर भेजा संदेश -
जवाब देंहटाएंकविता जी,
आपकी यह कविता पढ़ते पढ़ते आंखों की कोर कब भीग गईं, पता ही नहीं चला ।
मेरी अपनी मां तो मुझे याद नहीं, पर आपकी कविता और प्रिय योगेश छिब्बर की कविता ने मां से नऐ सिरे से परिचय कराया है।
कमलकांत बुधकर
हरिद्वार
जबलपुर से आनन्द कृष्ण जी की राय -
जवाब देंहटाएंbahut sunder kavitaa hai....... kya likhun-? shabd gum ho jaate hain. aapkaa lekhan apratim hai.
aapse yadi main na milaa hotaa to main soch bhi nahi saktaa thaa ki koi manushy itnee adhik kshamtaon se paripoorn ho sakta hai........
maan par aapki kavita padhte huye mujhe lag rahaa thaa ki "aap apni maan ki sarvshreshth kavita hain."
abhinandan sahit-
आनंदकृष्ण, जबलपुर
मोबाइल : 09425800818
राजेश्वर वशिष्ठ जी का भेजा सन्देश-
जवाब देंहटाएंकविता जी,
माँ तो ऐसी ही होती है । यहाँ तो फर्क करना भी मुश्किल हो रहा है कि कविता में आई माँ आपकी है या मेरी ........ शायद हम सब की । कविता की आंतरिक लय इसे और भी खूबसूरत बना देती है । साधुवाद.....
राजेश्वर वशिष्ठ
09818516400
Sampat Devi Murarka जी का भेजा सन्देश
जवाब देंहटाएंकविता जी ,
इस खुबसूरत कविता के लिए बधाई |
- सम्पत
हिन्दी-भारत समूह पर भेजा गया सन्देश -
जवाब देंहटाएंआदरणीया कविता जी,
बहुत ही भाव पूर्ण मार्मिक रचना I मन को आत्म विभोर कर गई I आपकी पुस्तक पढने की इच्छा हुयी I कृपया बतायिगा कि कहाँ उपलब्ध हो सकती है अभी मैं अगले एक माह तक लन्दन में हूँ.
सादर
श्रीप्रकाश(शुक्ल)
राजीव थेपरा द्वारा हिन्दी-भारत समूह पर प्रेषित -
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ.....सब कुछ तो आपने कह ही दिया......
भूतनाथ
कैनेडा से शैलजा जी का सन्देश -
जवाब देंहटाएंआदरणीया कविता जी,
आपकी सशक्त और मार्मिक कविता पढ़ी। आप ने बहुत सुन्दर तरीके से अपने भाव प्रस्तुत किये हैं। मैं यह कविता अपने जान-पहचान के बहुत से लोगों को भेज चुकी हूँ और अभी यह काम रुका नहीं है।
मैंने अभी सुमन घई जी से सुना कि आप जुलाई में टोरांटो आ रहीं हैं। यह समाचार सुन कर मैं व्यक्तिगत रूप से और संस्थागत (हिन्दी राइटर्स गिल्ड) रूप से बहुत प्रसन्न और मिलने के लिये उत्सुक हूँ। आप लिखियेगा कि आप कब आ रही हैं और कितने दिन ठहरने का कार्यक्रम है? आप कहाँ ठहरेंगी? यहाँ बहुत से हिन्दी प्रेमी और लेखक हैं अत: बिना मिले जाने का न सोचियेगा। मैं आप को टोरांटो के सभी हिन्दी प्रेमियों की ओर से "काव्य-संध्या" (जब आप कहें तब) के लिये निमंत्रित करती हूँ।
आशा है कि आप मेरा स्नेह-निमंत्रण स्वीकार करेंगी।
पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में,
सादर
शैलजा सक्सेना
2010/5/9
bahut sunder kavita
जवाब देंहटाएंबूढ़ी माँ के बारे मे प्रकट हुये भाव अमूल्य है
जवाब देंहटाएंसाथियो, आभार !!
जवाब देंहटाएंआप अब लोक के स्वर हमज़बान[http://hamzabaan.feedcluster.com/] के /की सदस्य हो चुके/चुकी हैं.आप अपने ब्लॉग में इसका लिंक जोड़ कर सहयोग करें और ताज़े पोस्ट की झलक भी पायें.आप एम्बेड इन माय साईट आप्शन में जाकर ऐसा कर सकते/सकती हैं.हमें ख़ुशी होगी.
स्नेहिल
आपका
शहरोज़
आज पहली बात विनय पत्रिका के जरिये आपके ब्लॉग पर आना हुआ, कुछ काफी अच्छी रचनाएँ हैं आपकी| "अपनी ही छाया के पाँव टोहती", यह पंक्ति विशेषकर अच्छी लगी इस कविता में|
जवाब देंहटाएंआप से एक प्रश्न है - आपके मत से पिछले ३० वर्षों में हिन्दी जगत की तीन सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ कौन सी हैं एवं सर्वश्रेष्ठ रचनाकार कौन हैं?
'बूढ़ी काया कितना ताक ताक सोयी थी, सूने रस्ते बाट जोहती धुंधली आँख, इकहरी काया कितना कांप कांप रोई थी'...(बहुत विह्वल अश्रुपूर्ण )कैसे रोकूँ अश्रु , धन्यवाद बिट्टो
जवाब देंहटाएंमाँ नहीं रही
जवाब देंहटाएंयकीन नहीं कर पा रही
न ही करना चाहती हूँ यकीन
कितना ही सत्य हो
कि
तुम अब नहीं हो माँ
कैसे यह सब कुछ ऐसे हो गया माँ
मानो भरे मेले में एक बच्चा खो गया माँ
मानो इक ज़हरीला सपना दहला गया
बचपन कि कहानियों से
कोई राक्षस आया
माँ को उठाया और सबके देखते -देखते चला गया
देखते- देखते माँ तुम नहीं रही
मानो एक किस्सा था कहानी थी
पर अभी कहाँ थी पूरी कही
बस रह गई अनकही
कोई कुछ समझाने लगे
लगता है कान बहरा गए
कोई कुछ कहने को कहे
लगता है जुबान पथरा गयी
मां तुम क्या गयी, लगता है जान चली गयी माँ
कल तक तुम थी मां
तो हम समझ ही नहीं पाए कि
तुम्हारे बने रहने से लगता रहा कि
कि दुनियां बहुत सुंदर है
आशाओं का खुशियों का एक विशाल समन्दर है
आगे बढ़ते चले जाने का विशाल रास्ता है ज़िन्दगी
नित नई खुशियाँ बटोर लाने का नाम है ज़िन्दगी
यह भी कि
कि दुनियां में सब कुछ अच्छे के लिए होता है
कि माँ का जन्म,- जीवन- जीना- मरना सब
बच्चों के लिए होता है
फिर कैसे मान लूं
कि तुम हम सब कि परवाह किये बिना
जा पाई हो माँ
क्योंकि
जबसे याद आता है यही याद आता है माँ
कि हम बच्चों कि हर ख़ुशी पर तुम बलिहारी होती रही हो माँ
कि हम बच्चों कि निशब्द आह पर तुम दुखियारी होती रही हो माँ
कि हम में से कोई बच्चा खाना भूला तो दूर बैठी तुम्हारे गले में रोटी का कौर अटक गया माँ
कि तेरी आँखों कि नीद रूठी माँ , जब हजारो मील दूर हममें से कोई बच्चा ज़रा सा भी भटक गया माँ
वो सब अनुभूति वो सब दूरसंचार रहा
जानती हूँ कि चेतना अर्थहीन रही रही सब ह्रदय का व्यापार रहा माँ
फिर अचानक कैसे ये सब तोड़ पाई
अचानक ही कैसे हो पाई ऐसी निर्मोही
कि सबको रोता बिलखता टूटता छोड़ कर जा पाई मेरी माँ
अब जब तुम सचमुच नहीं ही हो
तो
सब कुछ जेसे एक पल में बदल गया है
जीवन का अर्थ ,जीते रहने का सन्दर्भ
अपने होने ने होने का
अपनी खुशियों का दुखों का सब उत्तर
प्रश्न में बदल गया है
क्या जाना सचमुच ज़रूरी था माँ?
................................................................................................................................................................
डा० अमिता तिवारी वासिंगटन डी० सी . १० /०६/2012