दिसंबर के १७ वें दिन सायं जब लन्दन में इस वर्ष का पहला हिमपात प्रारम्भ हुआ तो १८ की प्रातः तुरंत अपने कैमरे से उसके चित्र लेने और उन्हें संजोने तक का विवरण मैंने अपने संस्मरण रूप से स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षण शीर्षक से लिखा ही था| लगभग २० चित्र भी उस दिन यहाँ लगाए थे| बचे हुए लगभग २० चित्र लगा पाती, उस से पहले ही फ़ोटोग्राफ़ी करने के लिए हिमपात में कई घंटे अकेले पैदल घूमने के दुस्साहस के परिणामस्वरूप ) ज्वर ने पकड़ लिया| इस बीच यदा-कदा बिस्तर में लेटे लेटे ही लैपटॉप पर थोड़ा पढ़ना-लिखना- भर कभी हुआ, बस| बाकी चीजें ठप्प रहीं | सो, बचे हुए चित्र तब से आज तक लग ही नहीं पाए|
इस बीच कल २१ दिसंबर को सायं पुनः ५ - ६ घंटे भारी हिमपात होता रहा | परन्तु अब बाहर जा कर फ़ोटोग्राफ़ी करने की अनुमति अपने को देना सरल नहीं था| इस बीच यात्रा की तैयारी में लगी हूँ| ३१ दिसंबर को भारत पहुँचना है | अतःआगामी कई सप्ताहों तक नेट भी यदा-कदा ही देखना संभव हो पाएगा| अलग अलग नगरों में मित्रों और परिवारीजनों से मिलने का उत्साह भी है| अस्तु!
कहते हैं प्रकृति को अपने उन्मुक्त रूप में देखना हो तो पर्वतों अथवा समुद्रतटों पर ही देखा जा सकता है| परन्तु पश्चिम जगत् इन अर्थों में अलग है कि यहाँ महानगरों तक में प्रकृति का पूर्ण सान्निध्य मिल जाता है और गाँवों तक में सम्पूर्ण आधुनिक सुविधाओं के साथ रहा जाता है| यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि प्रचलित अर्थों में गाँवों से अधिक प्राकृतिक वातावरण में व्यक्ति मुख्य नगरों और राजधानी तक में रह सकता है|
मेरे मन का हर कोना प्रकृति की ऐसी आभा को अपने में समोने के लिए मानो हरदम रीता रहता है, आतुर रहता है| परिवार में सभी को घुमक्कड़ी की आदत भी है| और घुमक्कड़ी के लिए सबसे उपयुक्त रहे हैं ऐसे सौन्दर्य स्रोत| इस रूप पर कौन न लुभ जाए ? कितनी-कितनी ऊष्मा तो भरते हैं जीवन की ये ! क्या इनकी यह उपयोगिता ही पर्याप्त नहीं कि ये जीवन का बल देते हैं? हमारे मनों में किलक भर देते हैं! जिस सुख को लाखों रुपया देकर मनुष्य नहीं खरीद सकता, उस सुख और संतुलन के स्रोत हैं ये!
जिस प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के लिए ( अपने पर आते खतरों से बचाव के कारण ) बड़े - बड़े सम्मलेन, योजनाएँ रूपाकार ले रही हैं, फिर भी मनुष्य मुँह बाए खड़ा है, नित नवीन विकराल विपदाएँ आती जाती हैं, उन सबका निराकरण संभव है; यदि हम दैनंदिन जीवन में प्रकृति को और मनुष्येतर प्राणियों को उनका समुचित स्थान देने जितना-भर आत्मानुशासन ले आएँ | पञ्चतत्वों के सहयोग से बनी मानव देह का अस्तित्व इन पाँचों तत्वों के साथ सह अस्तित्व और सहयोग से ही रहेगा| जितना पञ्च तत्वों के प्रति मनुष्य अनुदार व लापरवाह होगा इतने अर्थों में मनुष्य का स्वयं का अस्तित्व विनष्टि के कगार पर पहुँचता जाएगा |
ओहो! मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई!
प्रकृति के रूप की आभा के साथ ऐसी बातें !!
अब सीधे सीधे चित्रों पर चलते हैं | मेरे कैमरे की आँख से प्रकृति के कई मनभावन चित्र तीन चार दिन पूर्व देख ही चुके हैं, उसी दिन के प्रकृति के साथ एकाकार जीवन के शेष चित्र अब यहाँ रख रही हूँ -
कहते हैं प्रकृति को अपने उन्मुक्त रूप में देखना हो तो पर्वतों अथवा समुद्रतटों पर ही देखा जा सकता है| परन्तु पश्चिम जगत् इन अर्थों में अलग है कि यहाँ महानगरों तक में प्रकृति का पूर्ण सान्निध्य मिल जाता है और गाँवों तक में सम्पूर्ण आधुनिक सुविधाओं के साथ रहा जाता है| यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि प्रचलित अर्थों में गाँवों से अधिक प्राकृतिक वातावरण में व्यक्ति मुख्य नगरों और राजधानी तक में रह सकता है|
मेरे मन का हर कोना प्रकृति की ऐसी आभा को अपने में समोने के लिए मानो हरदम रीता रहता है, आतुर रहता है| परिवार में सभी को घुमक्कड़ी की आदत भी है| और घुमक्कड़ी के लिए सबसे उपयुक्त रहे हैं ऐसे सौन्दर्य स्रोत| इस रूप पर कौन न लुभ जाए ? कितनी-कितनी ऊष्मा तो भरते हैं जीवन की ये ! क्या इनकी यह उपयोगिता ही पर्याप्त नहीं कि ये जीवन का बल देते हैं? हमारे मनों में किलक भर देते हैं! जिस सुख को लाखों रुपया देकर मनुष्य नहीं खरीद सकता, उस सुख और संतुलन के स्रोत हैं ये!
जिस प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के लिए ( अपने पर आते खतरों से बचाव के कारण ) बड़े - बड़े सम्मलेन, योजनाएँ रूपाकार ले रही हैं, फिर भी मनुष्य मुँह बाए खड़ा है, नित नवीन विकराल विपदाएँ आती जाती हैं, उन सबका निराकरण संभव है; यदि हम दैनंदिन जीवन में प्रकृति को और मनुष्येतर प्राणियों को उनका समुचित स्थान देने जितना-भर आत्मानुशासन ले आएँ | पञ्चतत्वों के सहयोग से बनी मानव देह का अस्तित्व इन पाँचों तत्वों के साथ सह अस्तित्व और सहयोग से ही रहेगा| जितना पञ्च तत्वों के प्रति मनुष्य अनुदार व लापरवाह होगा इतने अर्थों में मनुष्य का स्वयं का अस्तित्व विनष्टि के कगार पर पहुँचता जाएगा |
ओहो! मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई!
प्रकृति के रूप की आभा के साथ ऐसी बातें !!
अब सीधे सीधे चित्रों पर चलते हैं | मेरे कैमरे की आँख से प्रकृति के कई मनभावन चित्र तीन चार दिन पूर्व देख ही चुके हैं, उसी दिन के प्रकृति के साथ एकाकार जीवन के शेष चित्र अब यहाँ रख रही हूँ -
तुम यहाँ पदचिह्न अपने छोड़ जाना
घर से सटी नहर के दोनों ओर मखमल
सड़क पार करते करते मुझे पोज़ देने को ठिठकी बिल्ली (गाडी के नीचे से )
ढुलवाँ छतों पर बिखरते हिम में सीढ़ी पर सजा सैंटा
चहुँ ओर की ठिठुरन से निश्चिंत जीवन
झाड़ियों में अटका हिम झील की ओर जाने को निरंतर अपने को बिंदु बिंदु खो रहा (झील के किनारे)
घर से सटी नहर के इस पार से
करतब और किलौलें करते नहर के साथी
करतब और किलौलें करते झील के साथी
करतब और किलौलें करते झील के साथी
जीवन नहीं मरा करता है
ठिठुरन? हम तो पानी में से गर्दन बिना भिगोए बाहर निकाल कर दिखा दें
नहर के इस पार से तट पर विश्राम करता यह जोड़ा कैमरे की कैद में
एक ग्रुप फोटो हो जाए ! :-)
नहर पार कर इसी सौन्दर्य के लिए तो दौड़ी आई
दस कदम पर ठहर हिमवसना धरती पर श्वेत परिधान में लिपटे शांत जीवन के ये पल उस दिन की उपलब्धि हैं
ठिठुरते- दुबके मेरे फूल पौधे
ठिठुरते - दुबके मेरे फूल पौधे
प्रकृति का यह सलोना रूप वाह
जवाब देंहटाएंकविता जी,इन खूबसूरत फोटोज़ के लिये बहुत- बहुत धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंadbhut...laga swarg hai to yahin hai, yahin hai, yahin hai....
जवाब देंहटाएंयह कमाल कैमरे की आँख का नहीं ,
जवाब देंहटाएंकैमरे के पीछे कवि[कविता] की आँख का है!
[बड़ी मुश्किल से होता है बर्फ[!] में दीदावर पैदा].
Kavita ji! Badi paini nigah paai hai aapne. London me barfbari ke sundartam drishya camere me kaid kiye hai- aur 'jheel ke saathiyon' ka kya kahana.
जवाब देंहटाएंMahesh Chandra Dewedy, Lucknow
ईमेल द्वारा प्राप्त सन्देश
जवाब देंहटाएंहिम-प्रकृति का बड़ा सुन्दर सजीव वर्णन और साथ में काव्यात्मक शीर्षकों से सजे अति मनोहर चित्र !
वाह क्या कहना ! बधाई !
सादर
कमल
ईमेल द्वारा प्राप्त सन्देश
जवाब देंहटाएंकविता जी
मंत्र मुग्ध सी रह गई शब्दों और चित्रों के अनूठे मेल और सशक्त अभिव्यक्ति पर |
चित्रमय गद्य बेहद असरदार है |
बधाई! लिखती रहिए और अपने प्रशंसकों तक ऐसे ही पहुँचती रहिए |
साभार !
वशिनी
डॉ.कविता वाचक्नवी जी!
जवाब देंहटाएंआपको जन्म-दिन की हार्दिक शुभकामनाएँ
14 महीने बाद भी कोई नहीं पोस्ट नहीं !
जवाब देंहटाएंकाजल जी, १४ महीने ?
जवाब देंहटाएंयह २२ दिसम्बर २००९ की पोस्ट है, अर्थात २ माह पूर्व की.
होली की समस्त शुभकामनाएँ व पधारने का अत्यंत आभार
interesant your blog; bravo
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