वर्ष 1995 /1996 की अवधि में एक बहुत लंबी, गेय व छंदोबद्ध कविता लिखी थी, जिसमें लगभग 50 पद हैं। उसे कभी एक साहित्यिक पत्रिका "पूर्णकुम्भ" (वस्तुतः साहित्यिक जर्नल) ने 1998/1999 में अपने चार बड़े पन्नों पर बहुत स्नेह से प्रकाशित किया था।
उस कविता का शैली-वैज्ञानिक प्रविधि से विखंडन करने वाले आलोचक / पाठक स्पष्ट देख सकते हैं कि उसमें हिन्दी कविता की अंतर्यात्रा (आदि से लेकर तत्कालीन तक) व इतिहास को समेटने का यत्न तथा क्रमशः गेयता व छंद की समाप्ति को विषय बनाया गया है। उस कविता का शीर्षक था / है - "कविता की आत्मकथा"।
संयोग से अपना नाम भी कविता होने के कारण वह प्रकाशित कविता मेरे पास तब से फाईल में बंद पड़ी है; क्योंकि कुछ लोग मेरा नाम कविता होने के कारण उसे मेरी आत्मकथा समझने के कयास लगाते रहे। यह दंड उस कविता को भोगना पड़ेगा, इस चिंता से कभी उस कविता को फिर जगजाहिर ही नहीं किया।
अब जब मेरी किसी कविता (मेरे चित्र के साथ प्रकाशित) पर कुछ लोगों की असपष्ट-सी या मात्र वाह-वाह नुमा टिप्पणी आती हैं तो यही स्थिति होती है।
रचना पर टिप्पणी करते समय लोग रचना पर ही केन्द्रित क्यों नहीं रहते ? क्यों रचनाकार की (या चित्र की ) प्रशंसा करने में जुट जाते हैं ?
क्या मेरी कविताओं को मेरे नाम का ऐसा खामियाजा भोगना उचित है? अपनी एक महत्वपूर्ण कविता तो इसी चक्कर में बंद कर पहले सहेज ही दी है। अपने मित्रों से, मुझे इस दुविधा में न डालने का, आग्रह करती हूँ।
Vinod Nokhwal, Mauna Kaushik, Mahabir Mittal and 56 others like this.
~SORRY , MAM KARTI KABHI APNE KARTIKAR SE BADI NAHI HOTI ,SO EVERY ONE WANT TO COMMENT ON YOU ,BECAUSE BOTH ARE BEST~
जवाब देंहटाएंअति सुंदर, बेहद सटीक बात कही है आपने
जवाब देंहटाएंवस्तुतः यह हमारी मानसिकता का परिचायक है
जवाब देंहटाएंईश्वर करे कि कविताओं के पुण्य का फल भी आपको मिले...
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जवाब देंहटाएंsahi lika hai
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