जाने कब से दहक रहे हैं .... कविता वाचक्नवी
वर्ष 1998 में नागार्जुन की 'हमारा पगलवा' पढ़ते हुए एक अंश पर मन अटक गया था -
"बाप रे बाप, इस कदर भी
किसी की नाक बजती है ...
यह तीसरी रात है
पलकों के कोए जाने कब से दहक रहे हैं
मर गई मैं तो "
इस अंश की यह पंक्ति "पलकों के कोए जाने कब से दहक रहे हैं" मुझे पंजाबी के अमर कवि शिव कुमार बटालवी के प्रसिद्ध गीत (माए नी मैं इक शिकरा यार बनाया) के पास ले गई, जिसकी एक पंक्ति थी-
"दुखन मेरे नैना दे कोए,
ते विच हड़ हंजुआँ दा आया"
पंजाबी के कवि शिव 'नैनों के कोए दुखने' की बात करते हैं तो नागार्जुन 'पलकों के कोए दहकने' की बात करते हैं। अतः स्मरण स्वाभाविक था। दूसरी ओर "निराला की साहित्य साधना" में मुंशी नवजादिकलाल का निराला के सौंदर्य के एक प्रसंग में कथन आता है कि -
"एक तो महाकवि बिहारीलाल की नायिका भौंहों से हँसती थी, दूसरे हमारे निराला जी भौंहों में हँसा करते हैं। बल्कि ये तो बिहारी की नायिका के भी कान कुतर चुके है। इनकी पलकें हँसती हैं, बरौनियाँ हँसती हैं, आँखों के कोए हँसते हैं, अजी इनकी नसें और मसें हँसती हैं। "
कुल मिलाकर यह 'कोए' शब्द तीन तरह से मन में गड़ा हुआ था। तभी नागार्जुन की उपर्युक्त एक पंक्ति को आधार बना कर मैंने उस समय एक नया गीत रचा था (जिसे भाषा व साहित्यिक मासिक "पूर्णकुम्भ" ने 1998 /99 में प्रकाशित भी किया था)। अपने उस पुराने गीत की याद गत कई दिन से रह-रह कर आ रही है।
वह गीत कुछ यों था -
जाने कब से ....
- (कविता वाचक्नवी)
जाने कितनी रातें बीतीं जाने कब थे सोए
द्रुमदल छायादार न उपजे मीठे अनुरागों के
स्मृतियों के वन पर न बरसे अमृत कण भादों के
अब बस केवल भार बना है तन मिट्ठी का ढेला
आह ! आह को सींचा प्रतिक्षण पुष्कल आँसू बोए
जाने कितनी रातें बीतीं जाने कब थे सोए
(इसके आगे चार बन्ध और थे, जो फिलहाल स्मरण नहीं आ रहे हैं, जब कभी उस प्रकाशित प्रति की कतरन मिलगी या 15 बरस पुरानी अपनी कोई डायरी मिलेगी तो ही इसे पूरा यहाँ दे पाऊँगी, तब तक इतना ही )
बहुत खूब कविता जी, वास्तव में आप की कलम कमाल है। जब जब आप की कलम के जलवे को पढ़ा है। हमेशा कुछ न कुछ नया पाया है। मेरी कलम हमेशा प्रेरित हुई है। शुक्रिया
जवाब देंहटाएंwaaaaaah....bahut khooooob........
जवाब देंहटाएंआप के गीत की पृष्ठभूमि और गीत का अंश दोनों मार्मिक हैं । स्वपठित रचना की स्मृति भी नई रचना की
जवाब देंहटाएंप़ेरक बन जाती है , यह आप की रचना से प़माणित हुआ । अंश में जो भाव व्यक्त हुआ है , वह मौलिक
है । किसी वेदना से ही कविता जन्म लेती है , यह बात भी आप की रचना में निहित है । पूरा गीत पढ़
सकूँ तो सुखद होगा ।
bahut sundar.
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक एवं सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंVery nice Poem.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता, शेभी शीघ्र पढ़वाइये।
जवाब देंहटाएं*शेष भी
जवाब देंहटाएंaapaka lekhan hamesa se mujhe prerit karata raha hay. aap ko kotisah dhanyavad.
जवाब देंहटाएंआदरणीया अपकी यह प्रभावशाली प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक की गयी है।
जवाब देंहटाएंकृपया http://nirjhar.times.blogspot.in पर पधारें,आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।
सादर
वंदना तिवारी जी
हटाएंधन्यवाद।
आपने अपने ही ब्लॉग का लिंक गलत दिया है। दिए गए लिंक पर कुछ नहीं है। आपके ब्लॉग का सही लिंक है - http://nirjhar-times.blogspot.co.uk/
अधूरी पर बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंworthreading..
जवाब देंहटाएंगीत सुंदर है।
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