"भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता" में कविता : कविता वाचक्नवी
जल
आज आधिकारिक रूप से यह सुखद सूचना आप सब से बाँट सकती हूँ कि -
दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने नए पाठ्यक्रम में 'अनिवार्य हिन्दी' के 'आधार पाठ्यक्रम' की पुस्तक ("भाषा, साहित्य और सर्जनात्मकता") में मेरी कविता "जल" को सम्मिलित किया है।
पुस्तक गत दिनों 26 जुलाई 2013 को जारी हुई व इसी सत्र से पढ़ाई जानी प्रारम्भ हुई है। इस सत्र से सभी विद्यार्थी 'अनिवार्य विषय हिन्दी' की पुस्तक के रूप में इसे पढ़ेंगे।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2002 में एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा उनकी अन्यभाषा/ हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में भी कई वर्ष मेरी कविता सम्मिलित रही है व केंद्र सरकार द्वारा संचालित देश भर के विद्यालयों में पढ़ाई जाती रही है।
- साथ ही दिल्ली के पब्लिक स्कूलों के पाठ्यक्रम हेतु 'ओरियंट लाँगमैन' ने भी वर्ष 2003 में अपनी 'नवरंग रीडर' में मेरे दोहे सम्मिलित किए थे।
- इसके अतिरिक्त केरल राज्य की 7वीं व 8वीं की द्वितीय भाषा हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में भी वर्ष 2002 में ही मेरी बाल कविताएँ सम्मिलित की गई थीं।
- अब देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालय के मुख्य पाठ्यक्रम का हिस्सा होने का सौभाग्य मिला है, जो अत्यंत विरलों को संभव है।
.... तो इस प्रकार अब दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी रचनाकार के रूप में प्रसन्न होने का एक बड़ा कारण उपलब्ध करवा दिया है।
यह गौरव अपने माता-पिता, आचार्यों, शुभचिन्तकों, मित्रों व परिवार को समर्पित करती हूँ।
जल
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जल, जल है
पर जल का नाम
बदल जाता है।
हिम नग से
झरने
झरनों से नदियाँ
नदियों से सागर
तक चल कर
कितना भी आकाश उड़े
गिरे
बहे
सूखे
पर भेस बदल कर
रूप बदल कर
नाम बदल कर
पानी, पानी ही रहता है।
जल, जल है
पर जल का नाम
बदल जाता है।
हिम नग से
झरने
झरनों से नदियाँ
नदियों से सागर
तक चल कर
कितना भी आकाश उड़े
गिरे
बहे
सूखे
पर भेस बदल कर
रूप बदल कर
नाम बदल कर
पानी, पानी ही रहता है।
श्रम का सीकर
दु:ख का आँसू
हँसती आँखों में सपने, जल!
कितने जाल डाल मछुआरे
पानी से जीवन छीनेंगे ?
कितने सूरज लू बरसा कर
नदियों के तन-मन सोखेंगे ?
उन्हें स्वयम् ही
पिघले हिम के
जल-प्लावन में घिरना होगा
फिर-फिर जल के
घाट-घाट पर
ठाठ-बाट तज
तिरना होगा,
महाप्रलय में
एक नाम ही शेष रहेगा
जल …..
जल......
जल ही जल ।
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दु:ख का आँसू
हँसती आँखों में सपने, जल!
कितने जाल डाल मछुआरे
पानी से जीवन छीनेंगे ?
कितने सूरज लू बरसा कर
नदियों के तन-मन सोखेंगे ?
उन्हें स्वयम् ही
पिघले हिम के
जल-प्लावन में घिरना होगा
फिर-फिर जल के
घाट-घाट पर
ठाठ-बाट तज
तिरना होगा,
महाप्रलय में
एक नाम ही शेष रहेगा
जल …..
जल......
जल ही जल ।
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यह कविता मेरे काव्यसंकलन “मैं चल तो दूँ” (2005, सुमन प्रकाशन) में संकलित है।
लेखन का स्तर उसे उचित स्थान पर ले गया है -आपको हार्दिक बधाई ,वैसे गौरवान्वित तो हम भी हुए!
जवाब देंहटाएंयह कविता अपने कथ्य और लयात्मक मुक्त छन्द के शिल्प के कारण प़भावी बन गई है । जल को
जवाब देंहटाएंजीवन कहा ही गया है और प़लय में भी जल ही जल दिखाई देता है । तो जीवन और मृत्यु , सृष्टि और
विनाश के द्वन्द्व को भी यह कविता निरूपित करती है । इस के पाठ्यक़म में लगने पर मुझे ख़ुशी मिली ।
बधाई ।
बहुत ही सुन्दर और सार्थक
जवाब देंहटाएंसुन्दर और उद्देश्परक रचना ,अनेक बधाइयाँ
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ---कितनी सहजता से आपने चंद शब्दों में ही गागर में सागर भर दिया ......बहुत अच्छे।
जवाब देंहटाएंआप सब लोग हिदी के इतने बड़े बड़े विद्वान हो कि मुझे तो टिप्पणी लिखते भी डर ही लगा रहता है, मैंने तो हिंदी मैट्रिक तक पढ़ी है जी। आप सब के लेख कविताएं देख पढ़ कर नये नये शब्द ग्रहण करने की कोशिश करता रहता हूं।
शुभेच्छा।
आपको हार्दिक बधाई.सुन्दर रचना हेतु.
जवाब देंहटाएंविचारणीय कविता। और आपको बहुत-बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत उत्कृष्ट रचना, ढेरों बधाई
जवाब देंहटाएंअद्भुत...बधाई
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