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बुधवार, 6 नवंबर 2024

क्या अमेरिकन समाज स्त्रीविरोधी है? : (डॉ.) कविता वाचक्नवी

क्या अमेरिकन समाज स्त्रीविरोधी है? :  (डॉ.) कविता वाचक्नवी

अमेरिका के चुनाव परिणाम की मेरी भविष्यवाणी पुनः सत्य हुई। लोग मुझे पूछते और बहुधा हँसते भी हैं कि मैं फलित ज्योतिष को तो मानती नहीं, फिर किस आधार पर भविष्यवाणियाँ किया करती हूँ और वे कैसे सत्य भी हो जाती हैं। तो ऐसे लोगों के लिए मेरा उत्तर है : समाज के मनोभावों, उस के सुख दुःख, उस की सोच तथा उस के मनोविज्ञान की मेरी कुछ–कुछ समझ के सहारे ही यह सम्भव होता है और शेष ईश्वर की कृपा से।

 अमेरिकन चुनावों पर 2016 से अब तक तीसरी बार जो भविष्यवाणी मैंने की उस की पृष्ठभूमि बताती हूँ। जो बात मैं कहने जा रही हूँ, मेरे उस आकलन / निष्कर्ष को पढ़ लोगों को आश्चर्य होगा और असहमति भी; किन्तु आधुनिक सामाजिक मनोविज्ञान का एक सत्य जानना हो तो इसे ठीक से समझना ही होगा।

 मुझे 90 के दशक से अब तक यूरोप, यूके और अमेरिका के समाज में रहने का अवसर मिला है, या कहें कि अनुभव प्राप्त हैं, अतः इस अत्याधुनिक समाज में रहते हुए इन की सम्वेदना, सोच तथा समझ के अलिखित सत्य का बहुत ठीक आभास भी मुझे प्राप्त है। उसी आधार पर यह तथ्य बताना समीचीन और आवश्यक भी है कि क्यों और कौन स्त्रियाँ / पुरुष / समाज अपना क्या भविष्य बनायेंगे।

जिन लोगों को लगता है कि अमेरिकन जनता महिला राष्ट्रपति को नहीं स्वीकार सकती इसलिए हिलेरी या कमला हारीं ; उन की समझ गलत है। वास्तविकता यह है कि (जैसा कि मैंने लगभग 5–6 वर्ष पूर्व लिखा भी था) यॉरोप तथा अमेरिका आदि देशों में फ़ेमिनिज़्म खोटा सिक्का हो चुका है, जो महिलाएँ, समूह अथवा वर्ग/दल/संगठन या व्यक्ति ऐसी मानसिकता के हों या इस के पक्षधर हों, वे पिछड़े और यहाँ तक कि वे कम आईक्यू के / या थोड़े मूर्ख माने जाते हैं। बहुधा इसलिए; क्यों कि फेमिनिज्म का सत्य फेमिनिस्टों ने उघाड़ कर दिखा दिया है। इन देशों में फेमिनिज्म को समूचे सामाजिक अध: पतन का मूल समझा जाता है अब, और निजी स्वार्थों की इच्छापूर्ति का हिंसक माध्यम भी।

यह तथ्य भले ही कहीं लिखित रूप में या उद्धृत रूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु है यही सत्य। समाज फेमिनिज्म को एक ऐसी प्रवृत्ति मानता है जो राक्षसत्व के तुल्य है और जिस ने समाज, परिवार तथा सम्बन्धों को नष्ट किया है। अतः समाज उन स्त्रियों को तथा उन समूहों को स्वीकार नहीं करता जो फेमिनिज्म की राह पर हों और पुरुषों को अपनी उस सोच के कारण नकारती हों। 

 इस के विपरीत निजी जीवन में जो जितनी स्त्रियोचित हैं, उन की समाज स्वीकार्यता उतनी अधिक है। आप इस के उदाहरण यहाँ के समाज और घरों में तो स्वाभाविक है दूर से नहीं देख सकते, किन्तु अमेरिका तथा यॉरॉप की राजनीति में तो कहीं से भी देख सकते हैं। 

कई अन्य तथ्यों के अतिरिक्त यह बड़ा तथ्य इन परिणामों की पृष्ठभूमि में बहुत बड़ा कारक था। कुछ और कारक भी थे, उन का उल्लेख कभी फिर समयानुसार करुँगी 

यह सत्य बताना इसलिए आवश्यक प्रतीत हुआ ताकि भारतीय समाज में जो स्त्रियाँ फेमिनिज्म का झण्डा उठा स्वयं को आधुनिक समझती हैं, वे अपना आकलन कर सकें और उन्हें अपनी वास्तविकता तथा भविष्य समझ आ सके। 
दूसरा कारण इसे लिखने का यह है कि जो लोग मेरी की भविष्यवाणियों पर प्रश्न करते हैं, उन्हें मेरी सामाजिक तथा मानवीय चित्त की समझ इस के मूल में है, यह पता लग सके।
– ✍️डॉ. कविता वाचक्नवी©

शुक्रवार, 30 जून 2023

पाककला की चुनौती और टमाटर : कविता वाचक्नवी

टमाटर बारहमासी फसल नहीं है। 🍅🍅🍅

जब हम भारत में रहते थे तो लहसुन–प्याज न खाने के चलते हमारे यहाँ टमाटर के अधिक प्रयोग की अनिवार्यता थी। जो लोग प्याज खा लेते हैं, उन्हें वैसे भी टमाटर की अनिवार्यता कुछेक भोज्य पदार्थों के लिए ही होती है। मैंने क्योंकि स्वयं अधिकांश फसलें अपने हाथ से बोई, उगाई काटी हैं अतः एक–एक फल, एक –एक फली, एक–एक कन्द, व एक–एक शाक की प्रत्येक इकाई का महत्व तथा प्रतीक्षा से परिचित हूँ। उन के हमारी इच्छानुसार उग कर तैयार न होने का अर्थ उगाने वाले का दोष नहीं, अपितु प्रकृति व पर्यावरण का चक्र, नियम तथा सन्तुलन है। 

ऐसे में जिन दिनों टमाटर की फसल नहीं होती थी, या मण्डई में नहीं मिलते थे तो गृहणी के रूप में जो–जो उपाय करती थी, उन्हें पाठकों की सहायता के लिए साझा कर रही हूँ। 

(प्याज–लहसुन न खाने–पकाने के चलते मेरी गृहस्थी में प्रतिदिन  बड़े आकार के सात–आठ टमाटर शाक–दाल हेतु बारहों माह चाहिए होते थे)। ऐसे में विकल्प दो–तीन थे। गृहणियों को बिना हाय–तौबा मचाए शान्ति से अभाव को भी भाव से पूर लेने का गुण अनिवार्यतः बनाए रखना चाहिए। यह हमारे ही पारिवारिक सम्मान का कारक बनता है। तो आइए, मेरे अनुभव से आप को कुछ लाभ मिले तो इन्हें अपना सकते हैं –

कोकम
दक्षिण में गहरे लाल रंग का एक बहुत खट्टा फल आता है, जिसे कोकम कहते हैं। उस का खट्टा–सा शरबत भी बाजार में मिलता है।  इस कोकम की सूखी लाल–भूरी फाँकें बिकती हैं। जिस किसी में डाल दें, खटाई और रंग देती हैं। मैं सदा उन्हें घर में रखती थी। जिस किसी दिन टमाटर घर में समाप्त हुए, उस दिन दाल को कोकम तथा अदरक डाल कर उबाला व फिर बघारा करती थी। कोकम आज भी मेरी गृहस्थी में सदा रहता है। यहाँ तो उस की दीर्घावधि तक सुरक्षित रहने वाली गीली फाँकें उपलब्ध हो जाती हैं।

साबुत लाल मिर्च
सूखी साबुत लाल मिर्च भी टमाटर के अभाव में काम आती है। आप को अधिक मिर्च नहीं रुचती तो आप प्रत्येक मिर्च को तोड़, उस के बीज व दाने बाहर निकाल अलग प्रयोग हेतु सहेज लें तथा छिलके को पानी से धो, कुछेक छोटे–छोटे टुकड़े कर लें, जैसे एक लम्बी मिर्च हो तो चार–छह टुकड़े हो सकते हैं। उन्हें अलग से उबाल कर, पानी से निकाल दाल या शाक में ऊपर से मिला दें तो टमाटर के लाल रंग का आभास देंगी। उबालने से बचा हुआ पानी भी स्वादानुसार मिलाया जा सकता है। ऐसे में टमाटर की खटाई की कमी पूरी करने हेतु अमचूर प्रयोग करें।

इमली का अवलेह
बाजार में इमली का बिना गुठली–डण्ठल का तैयार अवलेह उपलब्ध होता है। मेरी गृहस्थी में वह सदा रहता आया है। उसे भी रंगत तथा खटाई हेतु, विशेषतः साम्भर हेतु प्रयोग करती आई हूँ।

इन उपायों से सम्भवतः आप भी अपनी गृहस्थी और चौके को अभाव रहित तथा अनवरत चला सकते हैं।
–✍🏻 कविता वाचक्नवी


सोमवार, 4 सितंबर 2017

अमेरिका : डूब-उबरने के दिन

अमेरिका में 'हार्वी' : डूब-उबरने के दिन    - कविता वाचक्नवी



यों तो चक्रवात और उसका ताण्डव समाप्त हो चुका है किन्तु किन्तु अभी भी हजारों परिवार बेघर हैं, उनके घर पानी में डूबे हैं और विपदा से उनकी लड़ाई आगामी 6 माह कम-से-कम और चलनी है। हमारे संस्थान के अध्यापक-अध्यापिकाएँ मिलकर अनेक प्रकार के सेवाकार्यों, उन्हें अस्थाई सुरक्षित आवास उपलब्ध करवाना, दैनिक आवश्यकता का सामान पहुँचाना, शाकाहारी भोजन स्वयम् घरों में बना कर प्रतिदिन उन्हें पहुँचाना, उनके पानी में डूबे घरों की मरम्मत की व्यवस्था, उनके घरों के पुनर्निर्माण में सामग्री, फर्नीचर, बिस्तर आदि क्रय कर देना आदि प्रकार की भागदौड़ में लगे हैं। दानदाताओं से $32000 एकत्र भी किए हैं, हमारा लक्ष्य $50000 का है।

जिन्होंने परिजन-घर और बहुत कुछ खोया है, वह तो नहीं लौटाया जा सकता, किन्तु इस विपदा में पूरे देश का एकजुट सहयोग अनुकरणीय है। ध्यातव्य है कि प्रयोग की हुई वस्तुएँ यहाँ दान में नहीं दी जातीं, जिसे जो देना है वह क्रय कर देना है। रेस्टोरेंट्स, संस्थान, स्टोर्ज़, कम्पनियाँ, व्यापारिक घराने, आम जनता, विद्यालय, विश्वविद्यालय, युवा संगठन, छात्र संगठन, अध्यापक संगठन, कर्मचारी संगठन, आवास संगठन आदि लाखों-लाख संस्थाएँ और संगठन, हाथ का काम करने वाले कामगार और आम जन तक अपनी निःशुल्क सेवाएँ और सहयोग जनता और सरकार को दे रहे हैं। 


कहीं कोई चीख-पुकार, शिकायतों का कोई शब्द, दोषारोपण, तेरा-मेरा, पहले आप, छीना-झपटी, या सरकार भरोसे की स्थित अथवा दृश्य नहीं है। सब शान्ति व सद्भाव से सहयोग एवं सेवा में एकजुट हैं, किसी को सेवा के बहाने अपना या अपनी संस्था का नाम चमकाने में रुचि नहीं। डेढ़-दो लाख से भी बहुत अधिक संख्या में स्वयंसेवक जुटे हुए हैं। कई स्वयंसेवक तो ऐसे हैं, जो स्वयं अपना बहुत कुछ इस आपदा में गँवा चुकने के बाद आँसू छिपाए दूसरों की आँसू पोंछ रहे हैं, सरकारी सहायता भी आई है।

देश ऐसे बनते हैं, जनता से बनते हैं, जनता देश को जैसा चाहे बना सकती है, उसे देश में जो व जैसा परिवर्तन चाहिए वैसा व उस दिशा में स्वयं काम करने लगे..... बस उसी दिन से पुनर्निर्माण एवम् परिवर्तन प्रारम्भ जो जाता है। आरोप, शिकायतें, अपेक्षाएँ, उत्पात, छद्म और स्वार्थ भौगोलिक सीमाओं को #देश होने से रोकते हैं।


शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

अमेरिका में उग्र विरोधप्रदर्शन क्यों

अमेरिका में उग्र विरोधप्रदर्शन क्यों : कविता वाचक्नवी


#अमेरिका के #युवा बच्चे और युवा पीढ़ी राष्ट्रपति ट्रम्प #President #Trump के चुनाव के बाद और #Europe में #Brexit के बाद, दुःख और क्षोभ में सड़कों पर और सब प्रकार के विरोध में जुटी है। यह इसलिए नहीं कि इनकी कोई राजनैतिक विचारधारा है या वे किसी दल के पक्षधर और विरोधी हैं, या इसलिए भी नहीं कि ये हिलेरी या जर्मन नीतियों के समर्थक हैं; अपितु इसलिए क्योंकि ये सरल हृदय, निष्कपट और निष्पाप हैं, इन्हें चालाकी, छल, प्रपञ्च, दुराव, कपट और झूठ आदि का अनुभव नहीं, ये किसी पर भी भरोसा कर लेते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि इन्हें लिबरल्ज़, लेफ्टिस्ट्स, सेक्युलर्ज़, नस्लीय, जाति-वर्गऔर संख्या आदि को देश से बड़े मानने वालों की सच्चाई का कोई अनुभव नहीं, इन्हें उनकी सच्चाई और असली रंग नहीं पता, इन्हें हाथी के अलग-अलग दाँतों वाली बात का पता ही नहीं, इन्हें नहीं पता कि समता, दया, प्रेम, उदारता, ममत्व, सहानुभूति, सह-अस्तित्व, साम्य, सामाजिक न्याय, वर्ग-हीनता, शोषण-मुक्ति जैसे हजारों शब्दों का सहारा केवल चुनाव जीतने और इन्हीं को संकट में डालने के लिए किया जाता है और इन्हें यह भी नहीं पता कि इसके क्या दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, कि कैसे लेने और देने की भाषा अलग होती है और कैसे चालाक लोग दो चेहरे वाले होते हैं, कि कैसे इनकी ही सहायता ले इनके विरूद्ध षड्यंत्र रचा जाता है, कि कैसे 'फेसवैल्यू' पर नहीं जाना चाहिए, इन्हें नहीं पता कि इन सब के पीछे कौन-सी और किन की धूर्त चाले काम कर रही हैं । ये इतने सरल हैं कि झट से पिघल जाते हैं, दुष्परिणामों का इन्हें कोई अनुमान नहीं, इन्हें झट से बहकाया जा सकता है, ये किसी पर भी भरोसा कर लेते हैं, इनके निष्कलुष हृदय मानव-मात्र को सरल और सच्चा समझते हैं और इसीलिए इन्हें 'टार्गेट' किया जाता है, लुभावनी और द्रवित कर देने वाली बातों से इन्हें बरगलाया, भड़काया और भावुक किया जाता है और ये पिघल जाते हैं, प्रत्येक पर भरोसा कर लेते हैं। इसीलिए ये आज उन षड्यंत्रकारी शक्तियों के समर्थन में दिखाई देते हैं। यह वैसा ही है जैसे छोटे बच्चों को कम आयु में कभी-कभी अपने माता-पिता अपने शत्रु लगते हैं जब वे बच्चों के दूरगामी हितों के कारण कुछ कड़े और कड़वे निर्णय लेते हैं।


इसलिए, संसारभर के तथाकथित विचारको, साम्यवादियो, वामियो, अल्पसंख्यक तुष्टि-कारको, सेक्युलरो और राष्ट्र-भञ्जको ! हमारे सीधे सरल बच्चों के बहकने को अपनी जीत नहीं, अपितु उनकी सरलता और सिधाई समझिए। आज नहीं तो कल वे आपकी धूर्तता, षड्यन्त्र और चतुराई समझ जाएँगे। ये भारत के पले-बढ़े उन बच्चों जैसे नहीं हैं जो माँ के गर्भ से ही तेरा-मेरा और स्वार्थ या दूसरे के सर पर पैर रख कर आगे बढ़ना सीख कर आए हों ! पुरानी पीढ़ी ने अपने ढंग से नई पीढ़ी को आपके चंगुल में फँसने से बचा लिया है। 


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