गुरुवार, 30 मई 2013

मञ्जरी और हंस : लन्दन आज

मञ्जरी और हंस : लन्दन आज / कविता वाचक्नवी


अपने नियमित टहलने के कार्यक्रम पर जब आज प्रातः निकली तो पाया कि रात में वृक्ष से गिरी मंजरी ने रास्ते को बहुत ही कलात्मकता से ढाँप रखा है।

जहाँ मैं बीच में बैठ जाया करती हूँ, आज वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे; परन्तु रोचक बात यह कि राजहंसों के जोड़े का एक हंस (जो लगभग प्रतिदिन अपने परिवार सहित वहीं जलधार या उसके किनारे पर खेलने आ जाते हैं) आज अकेले ही मैदान में देर तक बैठा हुआ था। मैंने उसकी इस भंगिमा के कुछ चित्र भी लिए। आज की सुबह मेरे लिए इस तरह बहुत स्निग्ध व विशेष बन गई।

भारत में तो हंस केवल संस्कृत साहित्य में नाम ही के रूप में जाना था और हिन्दी में एक कहावत-भर के रूप में, परंतु जब पहली बार यहाँ ब्रिटेन में हंस देखा तो मानो स्वर्ग की अनुभूति हुई थी। अब बाद में तब से तो बीसियों हंस एक साथ देखती चली आ रही हूँ। हंसिनी द्वारा छोटे छोटे बालहंसों को अपने पंखों के भीतर भर कर सुरक्षा देने व हंस हंसिनी द्वारा बच्चों को घेर कर तैरने के कई दृश्य कैमरे में कैद किए। अब तो नियमित क्रम है। :)

आज सुबह के मेरी आँखों और मेरे कैमरा में बंद वे अपार सुरमय दृश्य यहाँ इन चित्रों में हैं। 

 
© सभी चित्रों का स्वत्वाधिकार सुरक्षित है, बिना अनुमति प्रयोग न करें -










मंगलवार, 28 मई 2013

आधी रात के असमय कष्ट

आधी रात के असमय कष्ट  : कविता वाचक्नवी


भारत व ब्रिटेन के समय में मुख्यतः साढ़े पाँच घण्टे का अन्तर है। प्रतिदिन होता यह है कि मैं रात्रि 2-3 बजे तक काम करती रहती हूँ। और इस बीच यदि 'फेसबुक' पर सोने से पूर्व कोई नया 'स्टेटस' लिख दूँ या कहीं टिप्पणी कर दूँ तो फेसबुक खोले जाग रहे दूसरे व्यक्तियों को पता चल जाता है कि मैं अभी जाग रही हूँ। ....बस लोग आधी रात में ही ( मेरी 'चैट' लगभग स्थायी रूप से बंद होने के बावजूद) 'इनबॉक्स' में बातचीत करने और संदेश भेजने में जुट जाते हैं। मैं समय देखती हूँ तो बहुधा यहाँ रात्रि 7 से 1 बजे का समय होता है, अर्थात् उस समय भारत में रात 12 से तड़के 6 बजे तक की अवधि। मुझे जबर्दस्ती उन्हें विदा कहना पड़ता है और त्रस्त जो होती हूँ, वह अलग। 


उन्हें यह सामान्य-सी समझ नहीं है कि मध्य रात्रि में यदि कोई परिवार वाली महिला जाग रही है तो उसके पास कार्यों का कितना दबाव होगा कि वह आधी रात को काम कर रही है। दूसरे, उन्हें यह साधारण शिष्टाचार भी नहीं पता कि मध्य रात्रि को किसी महिला से 'चैट' नहीं की जानी चाहिए। यदि आपको यहाँ का समय न भी पता हो, तो भी अपने यहाँ का समय तो पता ही होता है कि अभी रात 7-8 से तड़के 8-9 बजे का समय किसी से संपर्क करने का समय नहीं होता।


आधी रात को लोग अपनी कविताएँ भेजना चालू हो जाते हैं, कहानियों के लिंक भजते हैं कि 'कृपादृष्टि' (?) डालूँ, अपनी 'स्टेटस' पर आकर एक टिप्पणी करने के लिए आमंत्रण देते हैं। या यों ही फालतू की बातें करते हैं कि कैसी हैं, परिवार कैसा है, आजकल क्या कर रही हैं, वहाँ मौसम कैसा है, लंदन तो बहुत सुन्दर होगा, भारत कब आ रही हैं, मैं यह करता हूँ, मैं वह करता हूँ, मेरे बेटे को ईनाम मिला, आपकी पोस्ट बहुत अच्छी थी, आपकी फोटो बहुत सुन्दर है, आपके घर में कौन-कौन हैं, आपके पति क्या करते हैं, बच्चे कितने हैं (वैसे घर में कौन-कौन आदि जैसे व्यक्तिगत प्रश्नों के उत्तर में मैं एक ही बात कहती हूँ कि "भई, अभी मुझे अपना बेटा नहीं ब्याहना, जब ब्याहना होगा तब लड़की वालों के सवालों का सब उत्तर दूँगी, अभी से तहक़ीक़ात क्यों ?" ) 


.... परन्तु मैं उस अविवेक, अशिष्टता, आत्म मुग्धता, छपास, दुर्व्यवहार व अभद्रता आदि पर चकित हूँ कि जिन लोगों में इतनी-सी सामान्य सामाजिक शिष्टाचार तक की समझ तक नहीं है, वे कैसे स्वयं को लेखक समझ कर भ्रम में जीने लगते हैं। हम लोग अपने घनघोर परिचितों को कॉल करते समय भी बीस बार सोचते हैं कि यह खाने का समय होगा, यह आराम का और यह अमुक-अमुक दिनचर्या का, अतः उन घंटों में अत्यावश्यक होने पर भी फोन तक नहीं करते जब तक कि कोई आपत्ति या समस्या न हो।


समझ के इतने अभाव में जीने वालों से सम्पर्क, सम्वाद, मित्रता, परिचय आदि में मुझ कोई रुचि नहीं है। मैं ऐसे लोगों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहती। हो सकता है ऐसी घटना के बाद मैं अपने कई मित्रों से कन्नी काट लूँ (करती ही हूँ )। ऐसे में उन्हें समझ जाना चाहिए कि उनका व्यवहार मुझे नागवार गुजरा है। कम से कम ऐसी अशिष्टता भविष्य में वे दूसरों के साथ करके अपनी मूर्खता सहित दसियों अशोभन मनोवृत्तियों का प्रदर्शन न करें, तो उनके हित में होगा। 


सोमवार, 27 मई 2013

बार-बार दिन यह आए ......

बार-बार दिन यह आए  : कविता वाचक्नवी

कुछ दिन बहुत विशिष्ट व विचित्र होते हैं... जैसे आज ही का दिन ! 

आज मेरे बच्चों की दादी जी (हमारी 'अम्मा') की पुण्यतिथि है और साथ ही आज मेरे पिताश्री का जन्मदिवस। मेरी सास बहुत मजबूत व सशक्त स्त्री थीं, जाने कितनी स्त्रियों में जागृति के लिए उन्होंने कारी किए और किसी भी प्रकार की अन्ध आस्था, परम्परा व रूढ़ि आदि को अपने व परिवार में आने नहीं दिया, जाने कितने सामाजिक कार्य किए और जीवन में किसी अवैज्ञानिक अतार्किक रीति रिवाज को न तो अपनाया व न परिवार में आने दिया। उनकी अगली दो पीढ़ी की कई स्त्रियाँ भी उतनी सशक्त नहीं हो सकीं, जितनी सतर्क सचेत, जागरूक, शिक्षित व सामाजिक कार्यकर्ता वे थीं। कोलकाता की बस्तियों में उन्होंने बहुत शिक्षा व समाज सुधार के अनेक सामाजिक कार्य किए, आर्यसमाज की सक्रिय नेत्री रहीं। उन्हें शत शत वन्दन ! 

 मेरे बच्चों के पास अपनी दादी जी की बहुत महीन-सी स्मृतियाँ हैं, जब वे सिधारीं तो बच्चे बहुत छोटे-छोटे थे, दादा जी तो बच्चों के जन्म से पूर्व ही सिधार चुके थे।

दूसरी ओर नानी को सिधारे भी युग बीत गए।


बच्चों के लिए अपने दादा-दादी व नाना-नानी आदि के प्रेम का केवल एक ही स्रोत रहा - उनके नाना जी... मेरे पिताजी ! 

आज पिताजी ने जीवन का एक बड़ा पड़ाव पार किया है....संसार में कोई पिता अपनी सन्तान के लिए इतनी तपस्या नहीं कर सकता जितनी मेरे पिताजी ने हमारे लिए हमारी माँ के महाप्रयाण के बाद की। उस तपस्या का उल्लेख करने या उसे शब्द-शब्द लिखने का सामर्थ्य भी मेरी इस कलम में नहीं। पिताजी के अस्तित्व में ही मेरा अस्तित्व निहित है। उनके बिना बिना मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं। पिताजी ने जीवन में जितने सामाजिक कल्याण के कार्य, भाषा के लिए जितने बलिदान व संघर्ष, लेखन (साहित्य व दर्शन) में जो अपार गुणवत्ता, मुझे व भाई को गढ़ने में जो संघर्ष व तप, जनान्दोलनों में जो भूमिकाएँ निभाई हैं, उनका इतिहास दो-चार-दस पन्नों में लिखने-समाने की वस्तु नहीं है। उनके जैसा पिता किसी अत्यन्त भाग्यशाली को ही मिल सकता है। मैं पिताजी के प्रति हजार बार नतमस्तक होना चाहती हूँ तो भी कम है..... वे मेरी जीवनीशक्ति का उद्गम हैं, विचार की प्रेरणा, लेखन के प्राण, संघर्ष, शक्ति व ऊर्जा के स्रोतपुंज आधार हैं। वे क्या हैं, इसे बताया बखाना नहीं जा सकता ..... ! आज उनके जीवन की इस विशेष जन्मदिवस-वेला में उन्हें शत शत अभिनन्दन ! वे स्वस्थ व सक्रिय रहें, शतायु हों व उनका आशीर्वाद हम पर सदा सुरक्षाकवच की भाँति बना रहे, यही एक कामना मन में इस घड़ी बार बार जगती है। पिताजी को बार-बार प्रणाम व अभिनन्दन !

Swansea (स्वाञ्ज़ी), ब्रिटेन में सड़क पर लगे एक पट्ट पर कुछ पढ़ते हुए , 24 मार्च 2011 



रविवार, 19 मई 2013

स्मृतियों के द्वार पर मैं .....

स्मृतियों के द्वार पर मैं ..... : कविता वाचक्नवी



कुछ वर्ष मुझे भारत (हैदराबाद) में रहकर साहित्यिक व अत्यन्त वैचारिक हिन्दी गोष्ठियों में सक्रिय भागीदारी करने का खूब अवसर मिला है। हिन्दी साहित्य व भाषा सम्बन्धी गोष्ठियों की जितनी भरमार हैदराबाद में रही उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सैंकड़ों नहीं, हजारों अत्यन्त विचारोत्तेजक गोष्ठियाँ मानो वहाँ सामान्य जीवनचर्या का अंग बन गई थीं। उतनी सक्रियता व वैसी वैचारिकता मैंने हिन्दी क्षेत्र तक में नहीं देखी है, जिसका मैं अंग रही हूँ। यह बात अलग है कि हैदराबाद में भी अन्य नगरों की भाँति साहित्य का एक खास माफ़िया भी साथ साथ सक्रिय है और वर्ष 98 में शुरु शुरु में वहाँ पहुँचने पर दूसरे अनेक लोगों की भाँति मैं स्वयं उनके चकमे में आ गई थी। पर डेढ़ ही वर्ष बाद जैसे जैसे लोगों को उनके असली रंग पता चले तो सबने उनसे पल्ला झाड़ा, उस माफ़िया के चार पाँच लोगों के अतिरिक्त हैदराबाद के कम से कम डेढ़ सौ लोगों में से ऐसा कोई न होगा जो उनके कारनामों से परिचित न हो , भुक्त भोगी न हो और उनके साथ हो। उस माफ़िया के विवरण फिर कभी सही... 


फिलहाल तो यह कि जब से हैदराबाद के मेरे साहित्यिक मित्रों का संग छूटा जिसमें हम तीन का एक मुख्य गैंग था - ऋषभ देव जी, गोपाल शर्मा जी और मैं। इस गैंग में इजाफा हुआ चन्द्रमौलेश्वर जी के जुड़ने से। ... और ये वे दिन थे जब कई बरस हमने एक दम बाल-सखाओं की भाँति अति आत्मीयता, कोई दुराव नहीं, एक दूसरे के लिए जान तक दे सकने की भावना के साथ उन्मुक्त भाव व प्राईमरी के बच्चों जैसी निश्छल आत्मीयता के साथ बिताए ..... सड़क चलते लोग हमें ठहाके लगाते देख चौंक कर ठहर जाया करते थे और हम प्रतिदिन नियम से एक दूसरे से रात को सोने से पहल एक-एक घंटा फोन पर बतियाते थे या प्रति सप्ताह 3-4 घंटों की एक गप्प गोष्ठी किया करते थे जिसमें एक दूसरे की रचनाएँ सुनते सुनाते थे। हमारे परिवार तक हम लोगों के इस मित्रभाव से परिचित ही नहीं, परस्पर जुड़े भी थे...  मानो एक ही बृहद परिवार का हम चारों अंग थे। 


गोपाल शर्मा अङ्ग्रेज़ी के प्रोफेसर हो लीबिया चले गए, मैं ब्रिटेन आ गई और अति दुर्भाग्य से गत वर्ष चंद्र मौलेश्वर जी भी यकायक कैंसर की मार से हमें अकेला कर परलोकगामी हो गए..... उनके जाने का दर्द आज भी हर एक दिन उठ खड़ा होता है और अकेले में खूब रुलाया करता है, .... वह सम्बन्ध क्या व कैसा था इसे बताया समझाया भी नहीं जा सकता। शायद ही जीवन में किसी को ऐसे मित्र मिले होंगे जो किसी भी प्रकार के सहयोग के लिए दौड़ कर आ खड़े होते हों और बिना बताए दूसरे के लिए क्या से क्या कर जाते हों। 


पारिवारिक नातों में बदल चुकी यह साहित्यिक मित्रता मेरे ही नहीं, हम चारों के रचनाकर्म का स्रोत थी .... इतने सुखद दृश्यों की एक फिल्म है जो रोज मन के प्रोजेक्टर पर आवाज करती चला करती है पर पर्दे पर उसे दिखाया नहीं जा सकता। 


प्रख्यात भाषाविद् प्रोफेसर दिलीप सिंह जी से लेकर स्वतंत्रवार्ता के तत्कालीन संपादक राधेश्याम शुक्ला जी, द्वारका प्रसाद मायछ और अहिल्या जी व लक्ष्मीनारायण अग्रवाल जी तक इस बृहत् आत्मीय परिवार का कैसा हिस्सा थे, हैं, रहेंगे यह अनिर्वचनीय सुख की बातें हैं। कई बार लगातार लगता है मानो जड़ों से अलग होने का सन्त्रास भुगत रही हूँ ...लेखन का अजस्र स्रोत ही मुझ से छूट गया है। शायद अलग होने के उसी दिन से मेरी कविता मुझसे रूठ ही गई है। ऋषभ जी, गोपाल जी व मैं ... हम तीनों मानो अपना अपना निर्वासन भोगने को अभिशप्त हों .... क्योंकि परस्पर रचनात्मक पूरक भी हैं। कई बार ये पंक्तियाँ मन आती हैं ... कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन .... ।


आज एक काव्य गोष्ठी में औपचारिक उपस्थिति लगाई तो मन अपने मित्रों के पास तब से भटक रहा है । उस जीवन्तता, प्रेम , आत्मीयता, निश्छलता व भरपूर रचनात्मकता का कोई जोड़ नहीं हो सकता। वह किसी दूसरे युग की बात हो गई लगती हैं... वैसे सच्चे निश्छल आत्मीय मित्र जीवन में कभी न मिलेंगे व इसीलिए न वैसी साहित्यिक गोष्ठियाँ ! हर बार और रीतते चले जाने का क्रम है ! सुख मुट्ठी से छिटक गया है ! 

“Tears, idle tears, I know not what they mean, 
Tears from the depths of some devine despair
Rise in the heart, and gather to the eyes, 
In looking on the happy autumn fields, 
And thinking of the days that are no more.” 
― Alfred Tennyson


शुक्रवार, 17 मई 2013

लन्दन में कवि अशोक वाजपेयी : मेरे कैमरे से

लन्दन में कवि अशोक वाजपेयी : मेरे कैमरे से  : कविता वाचक्नवी

गत दिनो कवि अशोक वाजपेयी ब्रिटेन आए थे। कैलाश बुधवार जी के आवास पर 3 मई को उनके सम्मान में आयोजित पारिवारिक गोष्ठी में बरसों बाद उनसे भेंट हुई..... । 

पहले सुरम्य बगीचे की धूप में हम सब बाहर बैठे रहे व पश्चात् शीत बढ़ने पर भीतर चले गए। मेज के दूसरी ओर ठीक मेरे सामने अशोक जी बैठे थे और उनके सिर के पीछे चमचमाता सूर्य था अतः चित्र लेने की दृष्टि से 'बैकलाईट' के कारण एकदम असंभव था चित्र लेना। किन्तु कुछ यत्न कर मैंने मोबाईल कैमरा से चित्र लिए भी और वे बहुत ही बढ़िया आए भी। आप भी देखें कि कैसे 'बैक लाईट' के बीच मैंने ये चित्र लिए। 

भीतर जाने के लिए उठने पर अशोक जी से एक आवश्यक बात करने के सिलसिले में (वस्तुत: 11 वर्ष से चले आ रहे एक मुद्दे पर गलतफहमी के सन्दर्भ में ) उनके पास की कुर्सी पर ऐसी बैठी कि तेजेन्द्र जी के लिए 'आरक्षित' वह कुर्सी अंत तक उन्हें न मिल पाई क्योंकि कार्यक्रम के बीच में कुर्सियों की अदल-बदल व्यवधान डालती।

बाहर की गोष्ठी में अशोक जी ने अपने संस्मरण सुनाए और उस बहाने कला क्षेत्र के कई दिग्गजों के जीवन से परिचित करवाया । भीतर वाली गोष्ठी में अशोक जी ने अपने संकलन "कहीं कोई दरवाज़ा" से कई कविताएँ सुनाईं। कैलाश जी के परिवार के उस आत्मीय आतिथ्य का अपना अनूठा रंग रहा। 

अशोक जी को तो यद्यपि उसी समय ये चित्र दिखा दिए थे, बाद में ईमेल भी कर दिए किन्तु नेट और सोशल मीडिया आदि पर लगा पाने का अवसर आज ही मिला है। 












































शुक्रवार, 10 मई 2013

ख़तरे में अभिव्यक्ति : अभिव्यक्ति के ख़तरे : कविता वाचक्नवी

ख़तरे में अभिव्यक्ति : अभिव्यक्ति के ख़तरे  : कविता वाचक्नवी


कल 10 मई को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ (6) पर मेरा एक छोटा-सा लेख "दुनिया मेरे आगे" स्तम्भ में प्रकाशित  हुआ है। पूरा लेख अविकल रूप में यहाँ दे रही हूँ। नीचे समाचार-पत्र की वह कतरन भी है 






अभी 'पेन-अमेरिका' द्वारा जारी सूचना से पता चला कि सिंगापुर के एक कार्टूनिस्ट (Leslie Chew) को एक कार्टून बनाने के दंड स्वरूप तीन वर्ष की जेल की सजा सुनाई जा सकती है। उनके द्वारा बनाया गया कार्टून ऊपर संलग्न चित्र में देखा जा सकता है। 


दूसरी ओर आज ही 'जनसत्ता' से पता चला कि 20 अप्रैल को पद्मश्री मिलने के पश्चात् 22 अप्रैल को दिल्ली के एक मुशायरे में निदा फ़ाज़ली जी द्वारा एक शे'र पढ़े जाने के बाद उनके विरुद्ध उग्र वातावरण बन रहा है और रोष फैल रहा है। ओम जी द्वारा उद्धृत वह शे'र यों है - 

"उठ-उठ के मसजिदों से नमाज़ी चले गए
दहशतगरों के हाथ में इसलाम रह गया।"


इस रोष का समाचार पढ़कर समाज में बढ़ती असहिष्णुता के प्रति मन में रोष भर गया। कट्टर ( व अकट्टर ) हिन्दुत्व के विरुद्ध तो आमतौर पर अधिकांश ही लोग आवाज बुलंद करते रहते हैं और गाली तक भी देते रहते हैं, उसमें कोई साहस की बात नहीं, वह बड़ा सरल दैनंदिन कार्य है। किन्तु हिंदुत्वेतर वर्गों के विरुद्ध लिखने के लिए बड़ा साहस चाहिए। कभी यह साहस कबीर ने किया था और उस से भी बढ़कर यह साहस किया था महर्षि दयानन्द सरस्वती ने, जिन्होने हिन्दुत्व सहित प्रत्येक मत की अवैज्ञानिक धारणाओं का कड़ा खण्डन 'सत्यार्थ प्रकाश' में किया था। किन्तु समाज जानता है कि न तो कबीर और न ही दयानन्द अपने-अपने समय में इस प्रकार किसी विरोधी मत के हिंसात्मक निशाने पर थे। दयानन्द के विरुद्ध उनकी हत्या की योजनाएँ बनाई गईं किन्तु वे कुछ व्यक्ति-विशेष के कारण; पूरा समाज सांप्रदायिक उग्रता से हत्यारा हो उठा हो, ऐसा तब भी नहीं था। कबीर के समय जैसी सद्भावना यद्यपि दयानन्द के समय तक नहीं बची थी पुनरपि समाज आज की तुलना में अत्यधिक उदार था। लोग जानते थे कि दयानन्द या कबीर निन्दा के लिए ऐसा नहीं लिख/कह रहे अपितु वे एक सामाजिक, मानवीय, या वैज्ञानिक कसौटी को आधार बना कर निष्पक्ष भाव से ऐसा कह रहे हैं। 


यद्यपि किसी भी संप्रदाय, व्यक्ति, समाज, देश, वर्ग आदि की अवैज्ञानिकता अथवा मानव विरोधी कार्यों का निष्पक्ष विरोध किया जाना अनुचित नहीं है। कबीर के द्वारा ऐसा किया जाने के बावज़ूद दोनों संप्रदायों ने उन्हें अपने वर्ग का साबित करना चाहा। लगता है जैसे-जैसे समय बीत रहा है आधुनिक समाज और भी पिछड़ता जा रहा है। लोग हिंसा में सुख ढूँढने लगे हैं। स्वतन्त्रता और विभाजन के समय तक वर्ग इतने असहिष्णु नहीं थे। मुस्लिम व हिन्दू समाज परस्पर सहयोग व आत्मीयता से रहते थे। आज दिखावे की दीवारें हट गई हैं किन्तु हृदयों में वैमनस्य भर गए हैं। 


विभाजन के समय तक भी स्वयं मेरा अपना परिवार इस बात का साक्षी है कि बहुतेरे हिन्दुओं ने मुसलमानों की रक्षा अपने प्राणों को दाँव पर लगा कर की और बहुतेरे मुस्लिमों ने भी हिन्दुओं की रक्षा जी-जान से की। जब तक विभाजन का दौर नहीं प्रारम्भ हुआ था उस समय तक मुस्लिम परिवार व हिन्दू परिवार परस्पर अत्यन्त सौहार्द व भाईचारे से रहते थे। यद्यपि धार्मिक रीतिरिवाजों के कारण खान-पान की शुचिता व बाह्याचारों आदि का परस्पर भान था और उनका सम्मान किया जाता था। उन्हें धार्मिक नियम की तरह पूरे आदर से निभाया जाता था। परन्तु दिलों में कतई दूरियाँ न थीं यद्यपि बाह्याचारों में नियमों का कड़ाई से पालन होता था। आज बाह्याचारों में कोई दूरियाँ नहीं रहीं, कोई भेद नहीं रहा, पालन की औपचारिक दीवार भी नहीं रह गई है, लगता है सब दूरियाँ व बाधाएँ समाप्त किन्तु दिलों में अन्तराल व दूरियों के समुद्र हहरा रहे हैं।  


अनुदारता व हथियाए गए वर्चस्व के बूते लोग, सरकारें, वर्ग व समाज दूसरों का शोषण करने की मनोवृत्ति से ग्रसित हैं। भारत सरकार अपना बल आजमाती है, इन्टरनेट से पन्ने हटवाती है, वेबसाईट्स हैक करवाती है, अभिव्यक्ति की चीख़ों को गले में घोंट कर मार देने के लिए; क्योंकि वह अपने पक्ष में न उठने वाले स्वरों का अस्तित्व मेट देना चाहती है। सिंगापुर की सरकार भी एक कार्टूनिस्ट को 3 साल के लिए जेल में ठूँसना चाहती है। विकीलीक्स और 'Anonymous' नामक (Hacktivist group) जन्म लेते हैं, जिनकी आधिकारिक स्वीकार्यता यद्यपि न होने पर भी वे मानवविरोधी नहीं हैं और न ही उग्रता से दमन इनका किया जाता है।


उग्रता और आतंक से विरोधी स्वरों का गला घोंटने की यह सामाजिक अथवा आधिकारिक प्रवृत्ति अत्यंत घातक है; जो इस बात का पता देती है कि हम एक आदिम समाज की संरचना की ओर बढ़ रहे हैं, हम अधिक पिछड़ रहे हैं और हम अधिक संकुचित हो रहे हैं। तभी तो हम से कई सौ वर्ष पुराना समाज, समाज सुधारकों के प्रति यद्यपि वैसा तिक्त नहीं था और हम रचनाकारों की अभिव्यक्ति के प्रति सरकारी/ गैर सरकारी प्रत्येक रूप में अंकुश लगाने के लिए तत्पर हैं और अपनी तत्परता में हम कोई भी अपराध करने के लिए भी स्वतंत्र अनुभव करते हैं। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वालों के लिए हमारे समाज में स्थान नहीं रहा । हम हैं क्या ?







गुरुवार, 9 मई 2013

कविता का मन

कविता का मन : कविता वाचक्नवी


2-4 महीनों से सुपुत्र के कार्यक्रम लंदन के प्रतिष्ठित स्थलों पर लगभग क्रम से आयोजित होते रहे हैं। यों तो लगभग वर्ष-भर से वह कार्यक्रम देता आ रहा था किन्तु इस मार्च अंत में O2 Academy Islington के कार्यक्रम में मैं भी पहली बार उसके दर्शकों-श्रोताओं में भाग लेने पहुँची क्योंकि उस दिन बेटे की पहली EP का लोकार्पण भी कार्यक्रम से पूर्व होने वाला था जो उसी दिन ( 28 मार्च को)  उसके 'शो' से पूर्व सम्पन्न  हुआ। ... माँ के रूप में ये अत्यन्त गौरवशाली क्षण थे बेटे के सपनों के पहले चरण को साकार होते देखना। तैयार EP का पहला 'सेट' बेटे ने लाकर मेरे ही हाथों में सौंपा था। 

 बाद में उसे प्रस्तुति देते देख, वहाँ पूरा समय उस घड़ी को याद करती रही जब नन्हें-से अपने सुपुत्र को पहली बार मंच पर खड़ा करने के लिए गोद से उतारा था और वह था कि मेरी उंगली ही नहीं छोड़ता था। 

जितना रोमांच एक माँ को उस नन्हें बालक को मंच पर देखा कर हुआ होगा कुछ वैसा ही रोमांच 'मेटल बैंड' के क्षेत्र में अपनी पहचान बना चुके और अपने बैंड के संस्थापक के रूप में बेटे को मंच पर प्रस्तुति देते देखकर हुआ था। 

इस बात का एक सुखद पक्ष और यह भी है कि मेरा यह बेटा अपने बैंड व अपनी EP आदि के सब गीत स्वयं लिखता है, यह बात मुझे अधिक आह्लादित करती है।

इन चले आ रहे कार्यक्रमों के क्रम में बेटे का एक भव्य कार्यक्रम Nambucca London में गत माह आयोजित हुआ था। उसका एक अंश यहाँ देखा जा सकता है -

अधिक जानकारी व उसके शेष वीडियोज़ (जो अब तक 24 हैं) के लिए यहाँ देखा जा सकता है - 








बुधवार, 8 मई 2013

जीवन की व्यक्तिगत गाथा ....

जीवन की व्यक्तिगत गाथा ....  :  कविता वाचक्नवी



पिताश्री इंद्रजित देव 


विगत एक माह से पिताजी की भीषण अस्वस्थता व जीवन के साथ संघर्ष में उनके, मेरे व हमारे मित्रों, परिचितों, परिवारिजनों व शुभचिंतकों तक कम से कम समय में एक साथ सूचना पहुँचाने के माध्यम के रूप में इन्टरनेट और विशेषतः फेसबुक ने बड़ा सहयोग दिया। 

ऐसे समय में जब परिवार बार-बार एकाधिक लोगों के फोनकॉल्ज़ आदि का उत्तर देकर उन्हें विस्तार से जानकारी, सूचना आदि नहीं दे सकता या निश्चिन्त नहीं कर सकता ऐसे में ये माध्यम बड़े कारगर होते हैं, हुए।

विदेशों में लोगों के आकस्मिक संकट की स्थितियों में फंसे होने पर अपने ट्वीटर खातों से एक संदेश दे कर जीवन रक्षक सहायता लेने के कई उदाहरण हैं। कभी कोई घर में फँस गया या सड़क में हिमपात में अटक गया तो इन नवीनतम संसाधनों ने उसे जीवनदान दिया क्योंकि उसके एक सन्देश से उसके सब जगह फैले सहयोगी मित्रों ने अपने अपने तईं सहायता दिलवाने के यत्न शुरू किए। कई बार तो दूसरे देश में कोई सहायता की आवश्यकता पड़ने पर लोगों ने फेसबुक, ट्वीटर के माध्यम से जुड़े अपने मित्रों का सहयोग दिया/लिया। कई बरसों से बिछड़े परिवार इस माध्यम से मिले और कइयों ने अपने खोए बच्चों को इस माध्यम से ढूँढ निकाला। इस तरह ये संसाधन केवल ज्ञान और जानकारी के लिए ही नहीं अपितु जीवनरक्षक और सम्बन्धियों तक पहुँच बनाने के बड़े माध्यम भी बने, व्यक्तिगत से व्यक्तिगत और सामाजिक से सामाजिक, राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय अवसरों, कार्यों व उद्देश्यों के लिए इनका उपयोग मानव-समाज के लिए अतीव महत्व का है। जो लोग इस महत्व को नहीं जानते वे दूसरों को उनकी निजी आवश्यकताओं से जुड़े मुद्दों पर लिखने के लिए हास्यास्पद ढंग से शिक्षा देते दिखाई देते हैं या आलोचना करते पाए जाते हैं। जैसा कि गत दिनों से आज तक यहाँ मुझे भी देखने/झेलने को मिला। 

मेरे लिए फेसबुक की दुनिया एक आत्मीय परिवार और सामाजिक परिवेश की भाँति है, जिसमें लोग परस्पर एक दूसरे के सुख दु:ख में सहायक बनते हैं और सहायक न बन सकें तो कम से कम सुख दु:ख में साथ खड़े होते हैं, सुख दु:ख बाँटते हैं। किसी का जन्मदिवस और वर्षगाँठ है तो बधाइयाँ देते हैं, कष्ट है तो सान्त्वना देते हैं, सहयोग का प्रस्ताव देते हैं। इसीलिए 'सोशल नेटवर्किंग साईट्स' कहा जाता है इन्हें। 

पिताजी के स्वास्थ्य को लेकर हमारे मित्रों ने हमारी संकट की घड़ी में जिस प्रकार अपने शब्दों, आशीर्वचनों, कइयों ने स्वयं जाकर, कुछ ने मेडिकल क्षेत्र के लोगों से जान-पहचान की जानकारी आदि दे कर जिस प्रकार हमारा मनोबल बढ़ाया वह अविस्मरणीय है। उन के प्रति कृतज्ञ हूँ। लोग बारम्बार अपनी ओर से सन्देश भेज कर आज, अभी तक उनके विषय में चिन्तित हैं। इसलिए मुझे उपयुक्त लगता है कि आज सब को एक साथ निश्चिन्त किया जाना अनिवार्य हो गया है। क्योंकि अभी कुछ घंटे पूर्व ही अस्पताल ने उन्हें कल छुट्टी देने के कागज तैयार कर दिए हैं। अभी यद्यपि आगामी 6 माह उनका उपचार चलेगा और 10-12 दिन में ऑपरेशन से जुड़ी अंतिम कार्यवाही पूरी होगी किन्तु अब वे घर जा सकते हैं। 

पिताजी के स्वास्थ्य में सुधार से मानो मेरा जीवन लौट आया हो और मेरी ही आयु बढ़ गई हो। मैंने कभी अपने पिताजी को सिर दर्द होते भी नहीं देखा। वे मेरे जीवन का उत्स केवल दैहिक रूप में ही नहीं, अपितु मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक आदि सभी प्रकार से भी हैं। पिताजी ने जितनी तपस्या मुझे गढ़ने में की है, संसार में शायद ही कोई पिता अपनी संतान के लिए उतनी और वैसी तपस्या कर सकता होगा... लगभग असंभव ! उसे बताया बखाना भी नहीं जा सकता। 
मेरे लिए अपने पिताश्री का अस्तित्व मेरे होने की अनिवार्य शर्त है। यह कल्पना भी दुष्कर है कि मैं हूँ और वे नहीं हैं। उनके प्राण मुझ में और मेरे उनमें अटके हैं...... । 
आज मेरा मन, उन्हें रोग से उबरते देख, पुनः जीवन की ओर अग्रसर होता जान पड़ता है। यद्यपि आगामी 6 माह अभी उन्हें डॉक्टरी निर्देशों व परिचर्या में रहना होगा ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद। 

मुझे मानो अपने मन में उत्सव की अनुभूति जैसा लग रहा है। प्रभु की अपार कृपा, पिताजी की तपस्या, भाई-भाभी व परिवार की सेवा तथा हजारों लाखों लोगों की शुभकामनाओं व प्रार्थनाओं ने यह सुखद दिन दिखाया है। मैं किस किस को धन्यवाद दूँ और कैसे समझ नहीं पा रही। जो मित्र आत्मीय सम्बल बन इन घड़ियों में साथ रहे उन सब को व्यक्तिगत संदेश भेजना संभव नहीं अतः इस माध्यम के द्वारा आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहती हूँ। स्वीकारें ! पिताजी के शतायु होने की कामना व उनका वरद हस्त हम पर सदा बने रहने की अशेष कामना है। शुभचिंतकों, मित्रों व हितैषियों का पुनः धन्यवाद। इस आड़े समय में जिन जिन ने जो सहयोग दिया उनके प्रति आभारी हूँ।



सोमवार, 6 मई 2013

तकनीक, विवेक और उगालदान

तकनीक, विवेक  और उगालदान : कविता वाचक्नवी



मानव के हित व सुविधा के लिए विज्ञान ने नवीनतम कल्पनातीत संसाधन विकसित कर लिए हैं, किन्तु इन संसाधनों के सदुपयोग का विवेक जब तक इसके प्रयोक्ताओं में विकसित नहीं होता तब तक ये संसाधन मानव के लिए अहितकारी ही हैं, क्योंकि अधिकांश प्रयोक्ता विवेकहीन ही हैं या इनका सामर्थ्य नहीं जानते। टीवी के साथ भी यही स्थिति थी कि पूरा समाज उसका गुलाम हो कर मनोरंजन, स्वार्थ और सामाजिक पतन के लिए बहुधा उसका उपयोग करता आ रहा है।


उस से भी बदतर स्थिति इंटरनेट की है। इंटरनेट पर हिन्दी की स्थिति को यदि देखें तो, इसके सुदूरगामी उपयोगों की जानकारी इसके 95% प्रयोक्ताओं को नहीं है, और विवेक तो 98% प्रयोक्ताओं को नहीं। वे अपने भीतर की सारी गंदगी, सारा व्यभिचार, समस्त कुंठाएँ, दूसरों को अपमानित कर अपनी हीनताग्रंथि को संतुष्ट करने वाले मनोरोगों, नीचताओं, छपास, लोगों की जानकारियाँ चुरा कर सुरक्षा सम्बन्धी दाँव-पेंचों, महिलाओं /लड़कियों से छेड़छाड़ व उन्हें नीचा दिखाने/आक्रान्त करने/कुत्सित्तापूर्ण आचरण करने व अपने घिनौने से घिनौने गंदे से गंदे आचरण को छद्म की तरह प्रस्तुत करने में अधिक रमे हैं। 


सामाजिक शिष्टाचार (?) से कोसों दूर, ध्यानाकर्षण हेतु  ('अटेन्शन सीकर' के रूप में)  कुछ भी/ किसी भी हद तक करने को उतारू लोगों के हाथ में ऐसे उपयोगी संसाधनों का लग जाना इसीलिए मानवहित की अपेक्षा अहित का बड़ा कारण है। इसीलिए तकनीक विध्वंस की जनक है यदि उसके प्रयोक्ताओं में उसके उपयोग का विवेक न हो। विवेकहीन समाज के हाथ में ये बंदर के हाथ में उस्तरे की भाँति हैं। परमाणु की खोज और उस से परमाणु हथियारों की तरह... । 


मर्यादा, सीमा व अंकुश जैसे शब्दों तक से अपरिचित इन निरंकुश लोगों के चलते नेट पर सदा के लिए ऐसी गंदगी सुरक्षित हो रही है जिसे देख, पढ़, जान कर आगामी पीढ़ियाँ क्या अर्थ लगाएँगी इसकी करुण कल्पना की जा सकती है। काश लोग अपनी ऊर्जा, समय व शक्ति किन्हीं सार्थक, महत्वपूर्ण व आवश्यक कार्यों में लगाएँ और इस संसाधन की शक्ति पहचानें। इतना अनुत्तरदायी वातावरण किसी भी समाज के असली चरित्र का पता देने के लिए पर्याप्त है। 


तकनीक का दुरुपयोग करने वाला समाज अपने विनाश की कगार पर तो बैठा ही है, साथ ही वह अपनी गंदगी के सार्वजनीकीकरण की शक्ति और प्रसार का माध्यम पा गया है। महिलाओं को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। जिन-जिन को उनके घिनौने कारनामों के लिए निकाल बाहर फेंका गया होता है वे बदला लेने के लिए भयंकर हथकंडे, झूठ व अस्त्र लेकर चरित्रहनन के अपने पारंपरिक तरीकों में जुट जाते हैं, जुटे हुए हैं। जनता न्यायधीश बनकर आह और वाह करती बिना सच जाने फैसले लेती अपनी मूढ़ता व मूर्खता प्रमाणित करती है।


यह सारा दृश्य इतना घृणास्पद, इतना कलुषित, इतना आपराधिक, निंदनीय व लज्जास्पद है कि कोई हिन्दी पढ़ सकने वाला बाहर का अन्य व्यक्ति (थर्ड पर्सन) इसे पढ़े तो हिन्दी वालों की ओर कभी मुँह न करे, और खूब वितृष्णा से भर जाए। ऐसे कम से कम 20-22 उदारहण मेरे पास हैं जब किसी परिचित परिवार के नई पीढ़ी के युवक युवतियों ने ब्लॉग और फेसबुक जगत के पचासों उदाहरणों का उल्लेख कर हिन्दी-समाज के इस घिनौने ताण्डव के चलते अपनी खूब घृणा व्यक्त की और इनसे हजार कदम दूर रहने की बात की। 


स्पैम, वायरस और आर्थिक फ्रॉड जैसे इन्टरनेट अपराधों में भारतीय समाज यद्यपि अग्रणी नहीं है अपितु आनुपातिक दृष्टि से यद्यपि कम है, किन्तु मूल्यहीनता, चारित्रिक अपराधों, सामाजिक दूषणों, भाषिक व्यभिचारों, छीना-झपटी, मारामारी, हाय-हाय, लड़कियों व बच्चों की खरीद फरोख्त, मानव तस्करी, राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ धोखाधड़ी, रिश्वतों के आदान-प्रदान, कॉपीराईट के उल्लंघन, रचनात्मकता कृतियों की चोरी, हेराफेरी, अश्लीलता, देह व्यापार, ठगी, हिंसात्मक गतिविधियों, झूठ बोलने, धमकाने, छेड़छाड़ करने, नकली पहचान बनाने, बाल-पोर्नोग्राफ़ी, हथियारों की तस्करी, हैकिंग, ईमेल व चैटरूम अपराधों, सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर अपमानित करना/ धमकाना/ छेड़छाड़, भुगतान किए बिना डाऊनलोड, महिलाओं के चित्रों के साथ छेड़छाड़ कर उन्हें मनोवांछित अश्लील रूप में ढालना, अश्लील सामग्री को वितरित करना व दुरुपयोग करना, वर्ग और वाद को लेकर हिंसात्मकता, भाषिक आक्रामकता, सम्पर्कों से छ्द्म व लाभ उठाने की प्रवृत्ति, घृणा फैलाने वाली सामग्री व व्यवहार, अधिकाधिक लोगों के व्यक्तिगत नेट खातों में निरर्थक ताकझाँक व फूहड़ टिप्पणियाँ इत्यादि पचासों छोटे बड़े हथकण्डे बहुत अधिक व खतरनाक मात्रा में हैं। गुणवत्तापूर्ण लेखन का नेट पर लगभग नितान्त अभाव व दूसरी ओर निरर्थक व कूड़ा सामग्री का अम्बार भी चिंतनीय तथ्य हैं। अपनी तुच्छताओं व कुंठाओं का बेहद भोंडा प्रदर्शन, अपढ़ता व तज्जन्य हाहाकार की भयावहता अत्यन्त गम्भीर सीमा तक देखी जा सकती है। 


जो चपल, चालाक, धूर्त, दुष्ट, पतित, बदमाश, चोर, उचक्के व चरित्रहीन समाज के सभ्य वर्ग में वर्जित व प्रतिबंधित थे, दरवाजे की देहरी तक न लाँघ सकते थे, न लाँघने की अनुमति किसी सभ्य परिवार में दी जा सकती है, वे इन माध्यमों से दूर बैठे कैसी भी गंदी से गंदी भाषा, गंदे से गंदे व्यवहार, धमकियाँ, झूठ और अश्लीलता करने में निश्शंक हो गए हैं। जिन लोगों का किसी क्षेत्र में कोई अस्तित्व नहीं है, कोई भूमिका नहीं है, नेपथ्य में रहने योग्य हैं, गली-सड़ी मानसिकता के हैं, नजर में आने के लिए कुछ भी लम्पटई तक करने को उतारू हो सकते हैं, वे सब इन्टरनेट का उपयोग कर अपने अहम को पोसने व दंभ के प्रदर्शन के लिए दूसरों पर कीचड़ उछाल का खेल तक खेलने से नहीं चूकते।


इतने उपयोगी संसाधन का ऐसा घटिया, अनुत्तरदायी, अविवेकी, दुरुपयोग जहाँ समकालीन समाज के लिए खतरे व चिंता का विषय है, वहाँ आने वाले समय के लिए सुरक्षित कर रखे जा सकने वाले ज्ञान व वाङ्मय के कोश में कोई योगदान न देने के लिए भी दोषी है। नेट पर फैले इस भाषा, वर्तनी, सामग्री व व्यवहारों के कचरे में से कैसे आने वाली पीढ़ियाँ सही सामग्री खोज पा सकेंगी ! क्या सीख सकेंगी और अपने इतिहास के मूल्यांकन से कैसे जूझेंगी, यह किसी की चिंता का विषय नहीं। जिसके जो मन में आता है वमन कर देता है। इन्टरनेट उनके लिए उगालदान हो गया है। ऐसे लोगों को देख, सुन, जान कर वितृष्णा से मन भर उठता है उनके प्रति। 

हाय रे भारत देश ! कब विवेक जागेगा लोगों का !



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