मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

रूप की आभा

रूप की आभा


दिसंबर के  १७ वें दिन सायं जब लन्दन में  इस वर्ष का पहला हिमपात प्रारम्भ हुआ तो १८ की प्रातः तुरंत अपने कैमरे से उसके चित्र लेने और उन्हें संजोने तक का विवरण मैंने अपने संस्मरण रूप से स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षण शीर्षक से  लिखा ही था| लगभग २० चित्र भी उस दिन यहाँ लगाए थे| बचे हुए लगभग २० चित्र लगा पाती, उस से पहले ही फ़ोटोग्राफ़ी करने के लिए हिमपात में कई घंटे अकेले पैदल घूमने के दुस्साहस के परिणामस्वरूप ) ज्वर ने पकड़ लिया|  इस बीच यदा-कदा बिस्तर में लेटे लेटे ही लैपटॉप पर थोड़ा पढ़ना-लिखना- भर कभी हुआ, बस| बाकी चीजें ठप्प रहीं | सो, बचे हुए चित्र तब से आज तक लग ही नहीं पाए|


इस बीच कल  २१ दिसंबर को सायं पुनः ५ - ६ घंटे  भारी हिमपात होता रहा | परन्तु अब बाहर जा कर फ़ोटोग्राफ़ी करने की अनुमति अपने को देना सरल नहीं था|  इस बीच यात्रा की तैयारी में लगी हूँ| ३१ दिसंबर को भारत पहुँचना है | अतःआगामी कई सप्ताहों तक नेट भी यदा-कदा ही देखना संभव हो पाएगा| अलग अलग नगरों में मित्रों  और परिवारीजनों से मिलने का उत्साह भी है| अस्तु!


कहते हैं प्रकृति को अपने उन्मुक्त रूप में देखना हो तो पर्वतों अथवा समुद्रतटों पर ही देखा जा सकता है|  परन्तु पश्चिम जगत् इन अर्थों में अलग है कि यहाँ महानगरों तक में प्रकृति का पूर्ण सान्निध्य मिल जाता है और गाँवों तक में सम्पूर्ण आधुनिक सुविधाओं के साथ रहा जाता है| यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि प्रचलित अर्थों में गाँवों से अधिक प्राकृतिक वातावरण में व्यक्ति मुख्य नगरों और राजधानी  तक में रह सकता है|


मेरे मन का  हर कोना प्रकृति की ऐसी आभा को अपने में समोने के लिए मानो हरदम रीता रहता है, आतुर रहता है| परिवार में सभी को घुमक्कड़ी की आदत भी है| और घुमक्कड़ी के लिए सबसे उपयुक्त रहे हैं ऐसे सौन्दर्य स्रोत| इस रूप पर कौन न लुभ  जाए ? कितनी-कितनी ऊष्मा तो भरते हैं जीवन की ये ! क्या इनकी यह उपयोगिता ही पर्याप्त नहीं कि ये जीवन का बल देते हैं? हमारे मनों में किलक भर देते हैं! जिस सुख को लाखों रुपया देकर मनुष्य नहीं खरीद सकता, उस सुख और संतुलन के स्रोत हैं ये!


जिस प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के लिए ( अपने पर आते खतरों से बचाव के कारण ) बड़े - बड़े सम्मलेन, योजनाएँ रूपाकार ले रही हैं, फिर भी मनुष्य मुँह बाए खड़ा है, नित नवीन विकराल विपदाएँ आती जाती हैं, उन सबका निराकरण संभव है; यदि हम दैनंदिन जीवन में प्रकृति को और मनुष्येतर प्राणियों को उनका समुचित स्थान देने जितना-भर आत्मानुशासन ले आएँ |   पञ्चतत्वों के सहयोग से बनी मानव देह का अस्तित्व इन पाँचों तत्वों के साथ सह अस्तित्व और सहयोग से ही रहेगा| जितना पञ्च तत्वों के प्रति मनुष्य अनुदार व लापरवाह होगा इतने अर्थों में मनुष्य का स्वयं का अस्तित्व विनष्टि के कगार पर पहुँचता जाएगा |


ओहो! मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई!

प्रकृति के रूप की आभा के साथ ऐसी बातें !!


अब सीधे सीधे चित्रों पर चलते हैं | मेरे कैमरे की आँख से प्रकृति के कई मनभावन चित्र तीन चार दिन पूर्व देख ही चुके हैं, उसी दिन के प्रकृति के साथ एकाकार जीवन के शेष चित्र  अब यहाँ रख रही हूँ -













तुम यहाँ पदचिह्न अपने छोड़ जाना






घर से सटी नहर के दोनों ओर मखमल








सड़क पार करते करते मुझे पोज़ देने को ठिठकी बिल्ली (गाडी के नीचे से )







 ढुलवाँ छतों पर बिखरते हिम में सीढ़ी पर सजा सैंटा










चहुँ ओर की ठिठुरन से निश्चिंत जीवन













झाड़ियों में अटका हिम झील की ओर जाने को निरंतर अपने को बिंदु बिंदु खो रहा (झील के किनारे)








घर से सटी नहर के इस पार से












 करतब और किलौलें करते नहर के साथी







करतब और किलौलें करते झील के साथी










करतब और किलौलें करते झील के साथी











जीवन नहीं मरा करता  है 












ठिठुरन? हम तो पानी में से गर्दन बिना भिगोए बाहर निकाल कर दिखा दें










नहर के इस पार से तट पर विश्राम करता यह जोड़ा कैमरे की कैद में











एक ग्रुप फोटो हो जाए ! :-)








नहर पार कर इसी सौन्दर्य के लिए तो दौड़ी आई 













दस कदम पर ठहर हिमवसना धरती पर श्वेत परिधान में लिपटे शांत जीवन के ये पल उस दिन की उपलब्धि हैं











ठिठुरते- दुबके मेरे फूल पौधे











ठिठुरते - दुबके मेरे फूल पौधे

रविवार, 20 दिसंबर 2009

ब्लॉग के लिए नया विजेट प्रयोग के लिए तैयार है

ब्लॉग के लिए नया विजेट प्रयोग के लिए तैयार है 


मैंने ३१ मार्च २००८ को गूगल के इंडिक ट्रांसलिटेरेशन  टूल  की विजेट बनाने का एक प्रयोग किया  था| गत दिनों गूगल द्वारा ट्रान्सलिट्रेशन के टूल में नई सुविधाएँ जोड़ने के बाद से जिन साथियों ने यह विजेट लगाया हुआ था, उन्हें कुछ कठिनाइयाँ आ रही थीं| आज मैंने उन्हें सही कर के इसे re-साइज़ भी कर दिया है, ताकि जिनके ब्लॉग में साईडबार की चौडाई कम है, वे भी इसके इस नए लम्बवत रूप को लगाकर सहज ही स्वयं व अपने पाठकों को इस सुविधा का लाभ दे सकते हैं| अतः नई विजेट के लिए नया कोड यहाँ से ले लें और अपडेट कर लें| 

अब यह अधिक सक्षमता से यथावत काम करने के लिए तैयार है|

आशा है आप को इसका यह नया रूप- पसंद आएगा | 

इसकी नई सुविधाओं और विकल्पों के लिए यहाँ क्लिक कर पढ़ें
उक्त लिंक से इसका कोड लेने के अतिरिक्त आप इस सीधे गूगल से भी ले सकते हैं | उसका तरीका यह है कि आप  यहाँ नीचे दिए विजेट के अंत में + Google   को क्लिक कर निर्देशानुसार करते जाएँ| और तो और आप इस अपने गूगल के होमपेज पर भी लगा सकते हैं |

शुभकामनाएँ|

अब यह ऐसा दिखेगा-






आप नीचे दिए गूगल के चिह्न को क्लिक कर अपनी आवश्यकतानुसार माप व लम्बाई-चौडाई (बोर्डर/रंग) आदि चुनकर उसके कोड को Get this code  द्वारा कोड लेकर अपने ब्लॉग में HTML  पृष्ठ तत्व में इस कोपी पेस्ट कर दें|  इतना ही पर्याप्त है |

आशा है यह आपके पाठकों को अपनी भाषा लिपि में लिखने में सहायक होगा|


शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

रूप से स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षण

रूप से  स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षण


मैंने ५ अक्टूबर को जब भीतर बरसात न हो तो इनकी लिपटन सुहाती ही है   में लिखा था -



रात-भर बरखा हुई......
पर रात को तो लिखते हुए  मैं  देर तक जग ही रही थी, बिना आहट टिम टिम बुदकी-सी फुहार गिरी जान पड़ती है |


 इसी ठण्ड और बूँदाबांदी  में  जूते - जैकेट चढ़ा कर सुबह के नियमित भ्रमण  पर निकले | घर से सटी  झील का चक्कर लगाया | चश्मे के कांच पर बाहर बूँदें लिपट लिपट गईं |



.... पर जब भीतर बरसात न हो तो इन की लिपटन सुहाती ही है | ....सो सुहाती रही |  सारस, बतखें, बगुले अपनी धमाचौकड़ी छोड़ जाने कहाँ गुम  थे आज |





इस पर मित्रों की बड़ी उत्साहवर्धक प्रतिक्रया आई और चित्रों की अनुपस्थिति को भी इंगित किया गया| स्वयं मैं ही चित्र लगाना चाहती थी, किन्तु फिर  भारतीय परिवारों में दीपावली की चहल पहल  की स्थितियों और तत्पश्चात एक माह के लिए यूके के उत्तरी भागों में प्रवास पर चले जाने के कारण वह हो नहीं पाया और न ही लिखने के क्रम में उस मनःस्थिति और अवकाश की संभावना बनी| 




इस बीच अपनी कुछ  "मैं चल तो दूँ"  के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित पुरानी कविताएँ अवश्य मैंने गत दिनों यहाँ प्रस्तुत कीं|


शीत यों तो यहाँ पश्चिम का स्थाईभाव ही है किन्तु फिर भी अक्टूबर से इसका रूप अपने उठान पर होता है| गत वर्ष ठीक दीपावली के दिन से लन्दन में हिमपात शुरू हो गया था| इस बार शीत ज़रा देर से आया| बच्चे तो अभी दिसंबर तक जॉब आदि पर निकलते समय भी सामान्य हल्की शीत वाला ही पहरावा पहन रहे थे, ... और मैं उन्हें नसीहतें दे दे कर बार बार चिडचिडा देती थी कि वे " अभी ठण्ड हुई कहाँ है" कह कर मुझे टाल देते| वास्तव में तापमान की दृष्टि से अभी ठण्ड हुई भी नहीं थी| बच्चों का बचपन नोर्वे में माईनस चालीस ( -४० ) तक पर बीता है ( और उसमें भी वे स्नो में गुफा बनाकर घंटो बाहर उसमें घुसे रहते थे ), इसलिए इन्हें शीत का अभ्यास है परन्तु मुझे शीत से वैसा अपनापा नहीं है|



हाँ, मुझे सुहाता खूब है| विशेषतया हिमपात| हिमपात से घिरे खूब खूब टहलना मेरा मनभावन है| चारों और श्वेत बिछौने - ओढ़ने के मखमली रोमांच से घिर सिमटना और चहकना अपूर्व आनंद देते हैं| मन होता है बच्चा बन कर प्रकृति की उस नर्म नर्म गोद में धँस जाया जाए|



अब वह सब तो संभव नहीं, इच्छाओं की उम्र भले न बढ़ती हो पर देह की वय के तो अपने नियम होते हैं, कारण होते हैं, सीमाएँ और करणीय अकरणीय के हानि लाभ होते हैं| सो, बीमार हो जाने जैसे खतरे उठाने से अच्छा है कि इन वय के नियमों के अनुसार थोड़ा समझौता करते आगे बढ़ा जाए|



दिसंबर का मध्य आ गया और देर करते करते ही सही, संभावनाएँ बनने लगीं कि त्यौहार पर यह श्वेत बिछौना यहाँ क्रिसमस को जीवंत व पारम्परिक रूप दे ही देगा| और कल यह संभव हो भी गया| यकायक शाम को ४ बजे अन्धेरा घिरने से थोड़ा पहले ही नरम नरम रूई के फाहे-से उड़ते उड़ते आन पड़ने शुरू हो गए| रात में घुप्प अँधेरे के समय लगभग ७.३० बजे बाहर का दरवाजा खोला तो मानो दिन निकल आया हो| ज़रा-सी चाँदनी ही धरा पर सफेदी छितराती है तो कितना उजाला भर देती है| ...और यहाँ तो धरा ही श्वेत पट ताने जगमगा रही थी| मैंने तुरंत अपने कैमरे की बैटरी को रात भर के लिए चार्ज होने पर लगा दिया| रात ३ बजे तक खिडकियों के ब्लाईंड्स हटा कर उनका काँच पोंछ पोंछ कर बाहर तकती रही| हिम था कि मन में उजास भरता जा रहा था| सुबह १० बजे देखा कि सूर्य चमचमा रहा है तो झटपट जूते जैकेट चढ़ा कर, बिना खाए पिए ,तुरंत कैमरा लेकर बाहर आसपास घूमने दौड़ पड़ी| कैमरा उस शीत में लगातार बाहर रखने के कारण कुछ कुछ देर का अंतराल भी चाहता था| हाथ मानो जम जम कर सिकुड़ सिकुड़ जा रहे थे| फिर भी हमने कुछ दृश्य सहेज लिए|



झील पर पंछियों की अजब चहल पहल थी| कई बच्चे भी हिम के स्वागत के आयोजन में स्नो बाल्स और फ़ुटबाल के खेलों का मजा लेने घरों के आगे चहल पहल किए हुए थे|



अपने अति उत्साह में प्रकृति की रमणीयता के बिम्ब कुछ चित्रों द्वारा सदा सहेज कर रखने का लोभ तो इस रूप की आभा के सामने बहुत कम है|



आप भी देखें मेरे कैमरे में बंदी इस रूप से स्निग्ध हुई प्रकृति और जीवन के एकाकार क्षणों को -






पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





अपना दुबका लॉन (1)





अपना दुबका लॉन (2)





अपना दुबका लॉन (3)





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





पड़ौसी





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





उत्सव की तैयारी में सजे पड़ौसी द्वार





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा





पथ पर पग पग पर बिखरा है रजत तुम्हारे स्नेह बिंदु-सा






रजत कणों की ऐसी बरखा धवल धरा का रूप निखारे






घर से सटी झील
लो, मैं आ गई







घर से सटी झील
विहंगम प्रकृति









अज्ञातों के चरणचिह्न भी होते हैं







घर से सटी झील
पंचतत्व का साथ








तैरता उड़ता खगकुल कुलकुल-सा बोल रहा










नभ का द्वंद्व






नभ का द्वंद्व





झील की सीमंतरेखा पर हिम का पहरा
और दूर
पहरों को धता बताता किलकता बचपन








यों आकाश से मेरे आगे तक आता है किरण का पथ





कवि जगदीश गुप्त   की  इन काव्यपंक्तियों  के उल्लेख  सहित  कुछ और चित्रों के साथ मिलते हैं   फिर से-



"आँख ने
हिम-रूप को
जी-भर सहा है।
सब कहीं हिम है
मगर मन में अभी तक
स्पन्दनों का
ऊष्ण जलवाही विभामय स्रोत
अविरल बह रहा है

हिम नहीं यह -
इन मनस्वी पत्थरों पर
निष्कलुष हो
जम गया सौन्दर्य |"




शेष अगली बार 
By Kavita Vachaknavee  


  From my album



















बुधवार, 16 दिसंबर 2009

बिटियाएँ

बिटियाएँ

कविता वाचक्नवी


 http://www.dollsofindia.com/dollsofindiaimages/paintings3/lonely_woman_AE20_l.jpg

पिता !
अभी जीना चाहती थीं हम
यह क्या किया........
हमारी अर्थियाँ उठवा दीं !
अपनी विरक्ति के निभाव की
सारी पग बाधाएँ
हटवा दीं.......!
अब कैसे तो आएँ
तुम्हारे पास?
अर्थियों उठे लोग
(दीख पड़ें तो)
प्रेत कहलाते हैं
‘भूत’(काल) हो जाते हैं
बहुत सताते हैं ।
हम हैं - भूत
-------अतीत
समय के
वर्तमान में वर्जित.........
विडम्बनाएँ........
बिटियाएँ.........।


अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ"  (२००५, सुमन प्रकाशन ) से




गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

हिन्दी में गुणवतापूर्ण लेखन को पुरस्कार की घोषणा

हिन्दी में नेट पर गुणवतापूर्ण लेखन को पुरस्कार की घोषणा
 
Google Google और LiveHindustan.com ने गत दिनों  नेट पर गुणवत्तापूर्ण लेखन को बढ़ावा देने के लिए  पुरस्कारों की घोषणा की है क्योंकि गूगल को हिन्दी में अच्छा कंटेंट न होने की शिकायत है| और अच्छे लेखन को प्रश्रय देने / बढ़ावा देने के प्रयोजन से इन पुरस्कारों का आयोजन किया जा रहा है|  जब मैंने कल यह समाचार पढ़ा व कई परिचितों को अग्रेषित किया तो उद्देश्य था कि किसी न किसी प्रकार नेट पर हिन्दी के समग्र लेखन को सहेजने व सुरक्षित रखने की दिशा में कोई न कोई थोड़ा बहुत यत्न ही सही, कुछ करें अवश्य ; अन्यथा ऐसी भाषा के प्रयोक्ताओं के कारण पूरे भाषासमाज व उस भाषासमाज के अवदान की गलत छवि बनती है |  (समाज-भाषाविज्ञान में `प्रयोक्ता का भाषिकचरित्र और भाषासमाज का इतिहास'  जैसे विषय की अवधारणा मानो मन में जन्म ले रही है )| 

 तिस पर इसी बहाने हिन्दी लेखन, नेट पर हिन्दी सामग्री, उस की गुणवता, पुरस्कारों की धक्कमपेल (राजनीति / बल्कि छद्म) अदि कई विषय एक साथ गड्ड मड्ड  हो रहे हैं | मेरा कहना यह नहीं है कि इस आयोजन के भागीदार न बनें| बनें| अवश्य बनें| किन्तु इस विचार के साथ चलते हुए बनें कि -





१) अन्य भाषाओं विशेषतः अंग्रेजी, फ्रेंच व जर्मन से आनुपातिकता की दृष्टि से हिन्दी में गंभीर सामग्री की नेट पर विद्यमानता के सन्दर्भ में इस आकलन से बहुधा सहमत हूँ. 


२) गत एक वर्ष में हिन्दी की नेट पर स्थिति कुछ  बदली है, कई गंभीर लेखक व उपक्रम इस दिशा में कार्यरत हैं|



३) मेरे विचार से सामग्री की नेट की आनुपातिक कमी का कारण संसाधनों की  कमी अथवा गंभीर लेखकों का संसाधनों के प्रति  कथित दुराव ही  वे कुछ कारण नहीं हैं और न ही उपक्रमों से लोग बेखबर है, अपितु कारण कुछ और भी हैं,  इनमें  -

१)  उपक्रमों व लेखकों, विचारकों के बीच एक `सकारण' की दूरी भी बड़ा कारण है| 


२) तिस पर छपास  की बीमारी के चलते तथाकथित लेखक केवल और केवल अपने लेखन पर ही अपना सारा श्रम, ऊर्जा, धन, समय लगाना चाहते हैं|  मानो आज और उन से पहले भाषा में कभी कोई सार्थक लेखन कर के ही नहीं गया, जिसे सुरक्षित रखा जाना अनिवार्य हो|  नेट उनके हाथ में एक उस्तरे की मानिंद आ गया है; सो, कहावत तो  पूरी होगी ही|




३) जिस देश में पुरस्कार की राशि अपनी जेब से देकर ( ..आदि जैसे हजारों काले कारनामें कर के )  कुछ ज्ञात /सर्वज्ञात/अल्पज्ञात,   बहुकालिक/अल्पकालिक/टुच्चे/ श्रेष्ठ  आदि सभी प्रकार के  पद, पुरस्कार, प्रकाशन हथियाने की बिसातें  बिछती हैं  वहाँ उस जाति ( हुँह, हिन्दीजाति) से भला क्या और कैसा लेखन सुरक्षित करने की आशा की जाए? इनकी पूरी जाति में तो केवल और केवल वे स्वयं ही महान हुए हैं|


अन्यथा गूगल का पुरस्कार भी तो एक पुरस्कार ही है, इस पुरस्कार के लिए भी बिसातें न बिछ रही होंगी, क्या प्रमाण है? (बस अंतर यह है कि इस पुरस्कार की होड़ में भीड़ कम होगी, क्योंकि केवल नेट प्रयोक्ता ही इस मैराथन में भाग लेंगे) और बिसातें न सही तो छद्म तो अनिवार्य ही होंगे|  प्रदाताओं के पास तक,  नहीं तो पाने की तिकड़म तक |

यह तय है |


पुनश्च : 
अब तक जमा किए लेखों की सूची के लिए यहाँ देखें और निष्कर्ष निकालने में स्वतन्त्र रहें|









मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

प्रीत के वट-वृक्ष!

प्रीत के वट-वृक्ष!

- कविता वाचक्नवी




http://www.bestpicturegallery.com/best-picture-gallery-scupture-Eden-Project-Elfleda.jpgफूल बरसे थे नहीं           
औ’ भीड़ ने मंगल न गाए
ढोलकों की थाप
मेहँदी या महावर
हार, गजरे, चूड़ियाँ
सिंदूर, कुमकुम
था कहीं कुछ भी नहीं,

                      कुछ छूटने का भय नहीं।



गगन ने मोती दिए थे
लहलहाती ओढ़नी दी थी धरा ने
और माटी ने महावर पाँव में भर-भर दिया था
सूर्य-किरणें अग्निसाक्षी हो गई थीं
नाद अनहद गूँजता
अंतःकरण में सर्वदा निःशेष।



दूब ने परिणय किया वट-वृक्ष से
बँध-बँध स्वयं ही,
आप वट ने बढ़, भुजाओं में उसे
लिपटा लिया था।


घिर हवा के ताप में, जल, दूब सूखी ;


प्रीत के वट-वृक्ष!
अब तुम क्या करोगे?



यह कविता,  अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ" (२००५), सुमन प्रकाशन से 



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