बिटियाएँ
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पिता ! अभी जीना चाहती थीं हम यह क्या किया........ हमारी अर्थियाँ उठवा दीं ! अपनी विरक्ति के निभाव की सारी पग बाधाएँ हटवा दीं.......! अब कैसे तो आएँ तुम्हारे पास? अर्थियों उठे लोग (दीख पड़ें तो) प्रेत कहलाते हैं ‘भूत’(काल) हो जाते हैं बहुत सताते हैं । हम हैं - भूत -------अतीत समय के वर्तमान में वर्जित......... विडम्बनाएँ........ बिटियाएँ.........। |
अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ" (२००५, सुमन प्रकाशन ) से
सुन्दर व मार्मिक रचना और क्या कहूं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर। लड़कियों की कहानी कहती हुई!
जवाब देंहटाएंहर पिता और बेटी की मजबूरी को उजागर करती मन को छू लेने वाली कविता॥
जवाब देंहटाएंमार्मिक और संक्षिप्त अभिव्यक्ति पर बधाई लें.
जवाब देंहटाएंkavita ji bahut hi marmsparshi rachna ..sahaj aur teekha prahar kerti pourush (chadam)ko lalkarti..wah
जवाब देंहटाएंbetiyon ke bare me kavita kahna apni chintaoyn ko hi vyakt karna hota hai ,yah marmik hai.
जवाब देंहटाएंbatiyon ke nam ki baat kah di aapne..
जवाब देंहटाएंmarmsparshi...!!