कविता वाचक्नवी
हर नदी के
गर्भ से
कैसा तराशा
रूप लेकर
हथोड़ों, दूमटों ने
तोड़कर या फोड़कर
आडा़ हमें तिरछा
किया है।
गर्भ से
कैसा तराशा
रूप लेकर
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- हम चले थे,
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हथोड़ों, दूमटों ने
तोड़कर या फोड़कर
आडा़ हमें तिरछा
किया है।
(अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ" - २००५ से )
क्या बात है, गहन भाव!!
जवाब देंहटाएंmarmik ukti par saadhuvaad!!
जवाब देंहटाएंगहन चिंतनपरक क्षणिका के लिए बधाई॥
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