सितम्बर माह की केदार सम्मान की तिथियों का निर्धारण २ माह पूर्व ही हो चुका था | केदार शोधपीठ के सचिव व केदार सम्मान समिति के सर्वे सर्वा, नई कविता के सम्मानित हस्ताक्षर और बाबू केदारनाथ अग्रवाल जी के दाहिने हाथ रहे कवि नरेन्द्र पुण्डरीक जी गत २ वर्षों से बारम्बार बाँदा आने के लिए लिखते व कहते रहे हैं| इसी बीच जैसे ही उन्हें पता चला की अब मैं वापिस लौटने वाली हूँ व आगामी किसी वर्ष में जल्दी यह सम्भव नहीं हो सकेगा कि केदार सम्मान समारोह के अवसर पर भारत में उपस्थित रह सकूँ तो वे यकायक व्यग्र हो उठे व अपनी सहज आत्मीयता से कहा कि इस बार तो आप को अवश्य आना है | मेरे लिए यद्यपि यात्रा पर जाना उतना संभव व सरल नहीं होता क्योंकि परिवार से दूर यहाँ बैठे बेटे को अकेले छोड़ने की कल्पना से ही कलेजा मुँह को आ जाता है ; पुनरपि उसके बारम्बार निश्चिंत करने पर मैंने कार्यक्रम बनाने का सोचा|
यहाँ से हम ३ लोग मिलकर जाने वाले थे और तीनों ही परस्पर ऐसे मित्र कि आजकल सामान्य परिवारों व सम्बन्धियों में भी वैसी सरल अहेतुक निकटता देखने को नहीं मिलेगी | लोगों ने कहा बाँदा तो लगभग दूसरा बिहार है, बहुत सावधान हो कर जाइयेगा| फिर एक ऐसा प्रसंग भी बीच में आना पड़ा कि लगा अब नहीं जाना होगा, फोन पर न आने की सूचना भी दे दी गई| किंतु अंततः यात्रा पर निकले|
२५ सितम्बर को चल कर २७ सितम्बर को सम्पन्न होने वाले केदार सम्मान व रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान समारोह, संगोष्ठी एवं काव्यपाठ के ३ सत्रों का कार्यक्रम था| उससे जुड़े प्रसंग कभी बाद में लिखूँगी| अभी केवल इतना ही कि यहाँ से हमारे कार्यक्रम की पुष्टि मिलते ही बाँदा के सभी मित्रों ने हमें चित्रकूट घुमाने की योजना बना डाली, परन्तु एक दिन के लिए चित्रकूट जाना व थकान भरा पर्यटन करने से रोचक हमें लगा कि क्यों न खजुराहो जाया जाए| वे लोग हमारी इच्छा जाना क्षण भर में राजी हो गए और तुंरत ४ लोगों के लिए एक गाड़ी की व्यवस्था के लिए फोन आदि कर सब सुनिश्चित कर लिया। देर रात काव्यपाठ के बाद १२ बजे, सुबह ७ बजे के लिए एक गाड़ी का प्रबंध वहाँ उन लोगों ने किया|
हम लोग होटल लौटे और थकान से चूर अपने अपने कमरों में पस्त सो गए। गरमी अपनी मौज पर थी| बिजली के कीड़े तो शायद मैंने वैसे व उतने जीवन में कभी नहीं देखे थे, त्रस्त थे हम लोग| ऋषभ जी तो जल्दी प्रतिक्रिया न करने की अपनी सहनशील आदतवश चुप थे या शायद उनके इन्टेलजेन्स ब्यूरो के अधिकारी जीवन के पुराने अनुभवों की कठोरता के समक्ष ये सब कुछ न हों किंतु द्वारका भाई तो बहुत नाजुक जीवनशैली वाले रहे हैं, उन्हें उबकाई आ रही थी उन अपरिमित असंख्य कीटों की परतों से ढके प्रांगण और बस्तियाँ देख देख कर|
सुबह ५.३० बजे उठ कर हम ६.४५ तक तैयार हो गए| थोड़ी देर में पुण्डरीक जी आ गए और गाड़ीवान की बुलाहट में व्यस्त हो गए | वह थोडा देर से पहुँचा| समय ८ से ऊपर हो चुका था परन्तु गाड़ी में बैठते ही जो हवा लगी कि हरियाली व खेत खलिहान की सुगंध ने जीवनीशक्ति का संचार कर दिया| यात्रा के आरम्भ में ही वह ऐतिहासिक केन नदी आई, जिसे केदार जी की कविताओं व पत्रों ( विशेषतः "मित्रसंवाद"- रामविलास शर्मा जी से हुए पत्राचार का संकलन) में सहज ही चीन्हा जा सकता है, हम लोग रोमांच से भर गए।
खैर वर्णन छोड़ कर केवल चित्र सँजो हूँ, संस्मरण कभी लिखना सम्भव हुआ तो अवश्य लिखना चाहूँगी| इतने अधिक हैं कि कई सिटिंग चाहिएँ | अभी खजुराहो के विश्वप्रसिद्ध स्थल की मूर्तियों व भित्तिचित्रों के फोटोग्राफ देखिए फिर अंत में केदार सम्मान समारोह के चित्र भी बाँटूँगी व केदार जी के जीर्ण शीर्ण पड़े उस ऐतिहासिक आवास व सामग्री के भी |
यहाँ से हम ३ लोग मिलकर जाने वाले थे और तीनों ही परस्पर ऐसे मित्र कि आजकल सामान्य परिवारों व सम्बन्धियों में भी वैसी सरल अहेतुक निकटता देखने को नहीं मिलेगी | लोगों ने कहा बाँदा तो लगभग दूसरा बिहार है, बहुत सावधान हो कर जाइयेगा| फिर एक ऐसा प्रसंग भी बीच में आना पड़ा कि लगा अब नहीं जाना होगा, फोन पर न आने की सूचना भी दे दी गई| किंतु अंततः यात्रा पर निकले|
२५ सितम्बर को चल कर २७ सितम्बर को सम्पन्न होने वाले केदार सम्मान व रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान समारोह, संगोष्ठी एवं काव्यपाठ के ३ सत्रों का कार्यक्रम था| उससे जुड़े प्रसंग कभी बाद में लिखूँगी| अभी केवल इतना ही कि यहाँ से हमारे कार्यक्रम की पुष्टि मिलते ही बाँदा के सभी मित्रों ने हमें चित्रकूट घुमाने की योजना बना डाली, परन्तु एक दिन के लिए चित्रकूट जाना व थकान भरा पर्यटन करने से रोचक हमें लगा कि क्यों न खजुराहो जाया जाए| वे लोग हमारी इच्छा जाना क्षण भर में राजी हो गए और तुंरत ४ लोगों के लिए एक गाड़ी की व्यवस्था के लिए फोन आदि कर सब सुनिश्चित कर लिया। देर रात काव्यपाठ के बाद १२ बजे, सुबह ७ बजे के लिए एक गाड़ी का प्रबंध वहाँ उन लोगों ने किया|
हम लोग होटल लौटे और थकान से चूर अपने अपने कमरों में पस्त सो गए। गरमी अपनी मौज पर थी| बिजली के कीड़े तो शायद मैंने वैसे व उतने जीवन में कभी नहीं देखे थे, त्रस्त थे हम लोग| ऋषभ जी तो जल्दी प्रतिक्रिया न करने की अपनी सहनशील आदतवश चुप थे या शायद उनके इन्टेलजेन्स ब्यूरो के अधिकारी जीवन के पुराने अनुभवों की कठोरता के समक्ष ये सब कुछ न हों किंतु द्वारका भाई तो बहुत नाजुक जीवनशैली वाले रहे हैं, उन्हें उबकाई आ रही थी उन अपरिमित असंख्य कीटों की परतों से ढके प्रांगण और बस्तियाँ देख देख कर|
सुबह ५.३० बजे उठ कर हम ६.४५ तक तैयार हो गए| थोड़ी देर में पुण्डरीक जी आ गए और गाड़ीवान की बुलाहट में व्यस्त हो गए | वह थोडा देर से पहुँचा| समय ८ से ऊपर हो चुका था परन्तु गाड़ी में बैठते ही जो हवा लगी कि हरियाली व खेत खलिहान की सुगंध ने जीवनीशक्ति का संचार कर दिया| यात्रा के आरम्भ में ही वह ऐतिहासिक केन नदी आई, जिसे केदार जी की कविताओं व पत्रों ( विशेषतः "मित्रसंवाद"- रामविलास शर्मा जी से हुए पत्राचार का संकलन) में सहज ही चीन्हा जा सकता है, हम लोग रोमांच से भर गए।
खैर वर्णन छोड़ कर केवल चित्र सँजो हूँ, संस्मरण कभी लिखना सम्भव हुआ तो अवश्य लिखना चाहूँगी| इतने अधिक हैं कि कई सिटिंग चाहिएँ | अभी खजुराहो के विश्वप्रसिद्ध स्थल की मूर्तियों व भित्तिचित्रों के फोटोग्राफ देखिए फिर अंत में केदार सम्मान समारोह के चित्र भी बाँटूँगी व केदार जी के जीर्ण शीर्ण पड़े उस ऐतिहासिक आवास व सामग्री के भी |
*********************
(क्रमशः )
Sundar!!!
जवाब देंहटाएं