शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

यौवन ऐसा भी ....

यौवन ऐसा भी हो सकता है : कविता वाचक्नवी


एक स्त्री के रूप में, एक मनुष्य के रूप में और विशेषतः एक माँ के रूप में कल का दिन भावविह्वल कर देने वाला दिन रहा। एक ऐसी घटना घटी जिसने मातृत्व को सार्थक कर दिया। कनिष्ठ पुत्र इन दिनों पाँच वर्ष बाद भारत गया हुआ है और उसके पिताजी भी।

कल वह वहाँ अपने पिताजी को किसी यात्रा के लिए गाड़ी में बिठाकर स्टेशन से बाहर आया तो कुछ दूर तक चलकर एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ से उसे अपने इंगित स्थान के लिए ऑटो लेना था। वहाँ ऑटो की प्रतीक्षा करते करते समीप ही उसे एक 60 वर्ष से अधिक की महिला एक छोटे बच्चे के साथ दिखाई दी। बच्चा बहुत दुबला व कठिनाई से चल पा रहा था, क्योंकि नंगे पाँव था। वह महिला भी एकदम ठीक-ठाक तो नहीं किन्तु ऐसी लग रही थी कि अपने बच्चे को जूता दिलवाने में समर्थ है।

मेरे बेटा उन दोनों को कुछ देर देखता रहा और फिर अन्तत: उनके पास जाकर सीधा उस से पूछने का मन बनाया कि बच्चा नंगे पाँव क्यों है। जाकर उस महिला से पूछा तो उस महिला ने अपनी रामकहानी सुनानी शुरू की कि बच्चा उसका पोता है और बच्चे की माँ मर चुकी है व पिता (महिला का बेटा) अस्पताल में है उसे कुछ लीवर का रोग है आदि।

मेरे बेटे को उसकी कहानी में कोई रुचि नहीं हुई क्योंकि तब तक उसने देख लिया था कि महिला गहने आदि पहने हुई थी, अच्छी साड़ी और सैन्डिल आदि भी पहने थी ; जबकि दुर्बल-सा छोटा बच्चा एकदम नंगे पाँव था। महिला ने मेरे बेटे को यह भी बताया कि वह चर्च जा रही है (जो वहाँ समीप ही था) । मेरे बेटे को महिला के हाव-भाव आदि से सन्देह हो रहा था और लग रहा था कि महिला उस बेचारे बच्चे का इस्तेमाल लोगों को ठगने या पैसा आदि वसूलने के लिए करती है। बच्चा मानसिक रुग्ण भी प्रतीत हो रहा था।

तो मेरे सुपुत्र ने बच्चे को जूता दिलवाने की भावना के बावजूद महिला को नकद कुछ भी नहीं देने का मन बनाया, क्योंकि इसे पक्का लग रहा था कि महिला उस राशि से कुछ और कर लेगी और बच्चा जैसे-का-तैसा ही रह जाएगा। इसलिए सुपुत्र ने एक ऑटो लिया और महिला व बच्चे को भी अपने साथ ऑटो में बैठने को कहा और उन्हें ऑटो में अपने साथ लेकर एक स्थान पर गया जहाँ जूते की दुकान थी । वहाँ स्वयं उतर कर उस बच्चे को जूते खरीद कर दिए और उस ऑटो वाले को पैसे दे कर कहा कि महिला व बच्चे को वहीं छोड़ आओ जहाँ से ऑटो में चढ़े थे।

वह बच्चा जूते पहनते समय बहुत प्रसन्न था और हँस भी रहा था तो मेरे बेटे ने उसके दो चित्र भी लिए और वहाँ से अपने कक्ष पर लौट कर फिर यह सारी घटना तुरन्त वाट्सएप पर हमें लिख कर बताई व चित्र भी भेजे।

























                                                               





















और हाँ, चलते-चलते अन्तिम बात सुपुत्र ने ज़ोर देकर महिला से कही -
"चर्च में जाने से कुछ नहीं होगा"  :) 


यह जोड़ना चाहूँगी कि सबसे कनिष्ठ मेरा बेटा लगभग 24 वर्ष का है और यह वही बेटा है जो दिसम्बर में मध्य रात्रि को एक अनजान युवती की सुरक्षा की भावना से उसे नगर सीमा से भी 20 किलोमीटर बाहर उसके घर तक पहुँचाने गया था, जिसे मैंने 22 दिसम्बर को विस्तार लिखा भी था, वह घटना तो काफी रोमांचक भी थी क्योंकि उसमें बड़ा खतरा भी था। उसे यहाँ पढ़ा जा सकता है-https://www.facebook.com/kvachaknavee/posts/10153151019579523

अपने पुत्र पर गौरवान्वित तो हूँ ही पर यह घटना इसलिए बाँट रही हूँ कि यदि आप हम कुछ करना चाहें तो हमारे आसपास ही बहुत कुछ करने को है, बस देखने वाली आँख होनी चाहिए और संस्कार भी। दूसरी बात यह कि सन्तान को बनाना आपके-हमारे हाथ में है बशर्ते हमें यह पता हो कि सन्तान / बच्चे उपदेशों से नहीं अपितु आपके आचरण से सीखते हैं। तीसरा कारण इसे लिखने का अपने सुपुत्र के अच्छे कार्य का सम्मान व प्रशंसा करना क्योंकि इस प्रकार उसके नेक कार्य को सम्मानित कर उसे भविष्य में मनुष्यता के कार्यों के लिए प्रोत्साहित करना भी उद्देश्य है।



4 टिप्‍पणियां:

  1. आप ही से पाये संस्कार हैं कविता जी,पुत्र में प्रतिफलित होते देख मन पुलक उठता है ,देख-सुन कर मन में वही प्रसन्नता बिंबित हो रही है .सुखद क्षणों के लिए आभार!

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  2. आपके संस्कारों का ही प्रतिबिंब नजर आता है

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  3. निश्चित ही बच्चे को आपसे अच्छे संस्कार मिले हैं ..
    बच्चे की परोपकार की भावना देख मन को बहुत अच्छा लगा ...प्रेरक प्रस्तुति हेतु आभार!

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