अविश्वसनीय अनुभव का एक दिन / कविता वाचक्नवी
कल मैं लन्दन में बसे हुए एक अद्भुत परिवार से मिली। बड़े भाई 82 वर्ष के हैं और छोटे भाई उनसे कुछ वर्ष कम, दोनों की बहुपठ पत्नियाँ हैं, दोनों भाई कल्पनातीत ढंग से एक दूसरे पर न्यौछावर रहते हैं व दोनों भाई व परिवार एक साथ रहते हैं, दोनों के तीन बच्चे हैं, परंतु कौन किसकी संतान है यह पता किसी तरह कदापि नहीं चल पाता क्योंकि दोनों ही भाई व दोनों की पत्नियाँ उन बच्चों को 'मेरा बेटा', 'मेरी बेटी' कहते हैं। प्रतिदिन हर बार छोटे भाई सबसे पहले अपने हाथ से परस कर अपने बड़े भाई को भोजन खिलाते हैं और तब बड़ी भाभी खाने बैठती हैं, जब वे खा चुकती हैं तब छोटा भाई व भाभी खाने बैठते हैं।
मैं इस दुर्लभ व अविश्वसनीय परिवार के साथ कल लगभग 3 घण्टे रही और बार-बार धन्यता अनुभव कर मेरी आँखें आह्लाद से भीगती रहीं। बड़े भाई के बड़प्पन व विशिष्टता को सराहें तो हर बार कहते हैं कि असल में मैं कुछ नहीं हूँ सब कुछ इस छोटे के कारण समझा जाता हूँ और छोटे भाई के 'लक्ष्मणत्व' पर एक शब्द भी कहें तो वे कहते कि मैं तो जड़मति सेवक हूँ और बड़े भाई के कारण मुझे 'क्रेडिट' मिलता है व विशेष समझ लिया जाता है।
परिवार सदा से एक साथ रहता आया है और एक साथ रहते हैं। जाने कितनी संस्थाओं के पोषण का दायित्व उन्होंने ले रखा है, एक भारतीय भाषा की पत्रिका का सम्पादन/ संचालन आदि सब भी बड़े भाई करते हैं। निर्धनों के लिए एक कैंसर अस्पताल भारत में स्थापित किया है। उनका निजी पुस्तकालय है, जिसकी एक-एक पुस्तक पर सफ़ेद आर्ट पेपर से उन्होने अपने हाथ से जिल्द चढ़ाई हुई हैं व अपने हाथ से उस पर पुस्तक का नाम आदि लिखा करीने से सजा है, पूरा पुस्तकालय सफ़ेद रंग के सौम्य अनुशासन में मानो सरस्वती का स्वरूप धारे है। पुस्तकालय में संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती व कुछ अन्य भाषाओं की पुस्तकें भरी पड़ी हैं। दोनों पूरी तरह सक्रिय व सचेत हैं और दोनों के मुखमण्डल पर एक ऐसी दिव्य आभा, सौम्यता व शिष्टता है कि उसे बखाना नहीं जा सकता। दोनों की पत्नियाँ अविश्वसनीय ढंग से एक दूसरे पर मरने मिटने को तैयार रहने वाली बहनों से भी कई गुणा बढ़कर हैं। हम सब लोगों को खाना आदि देकर छोटे भाई रसोई में बर्तन साफ करते रहे जब तक बड़े भाई खा नहीं चुके, बड़ी भाभी हमें परसती रहीं और छोटी भाभी रसोई में पकाने आदि का काम करती रहीं। हम सब के खा चुकने के बाद बड़ी भाभी जब खाने बैठीं तो तब छोटी भाभी रसोई साफ कर बर्तन साफ करने लगीं
...... क्या क्या कहा जाए ..... जीवन में ऐसा परिवार, ऐसा प्रेम, ऐसा बड़प्पन म्यूजियम में संरक्षित कर आश्चर्य से देखी जाने की वस्तु जैसा है... रिश्तों का ऐसा दुर्लभ रूप कि शब्द मेरे किसी काम नहीं आ रहे हैं कि उसे बखान सकूँ.... बस हृदय को आकण्ठ रसानुभूति से लबालब पा रही हूँ । सौजन्यता के ऐसे मूर्तिमान रूप कि जो देखा अनुभव किया है, ये शब्द उसका हजारवाँ अंश भी नहीं हैं। कितने गंभीर विषयों पर कितनी बातें उनसे हुईं उसका लेखा जोखा भी अलग ही चीज है। संसार में मनुष्य ऐसे प्रेम और ऐसे रिश्ते आचरण में जीने लगें तो संसार स्वर्ग बन जाए। मुझे उनके यहाँ वास्तव में स्वर्गिक सुख की अनुभूति हुई। और वे अपनी बेटी से भी कम आयु की मुझ तक को दीदी कह कर संबोधित करते और विदाई के समय 'बहन का भाइयों पर आशीष बना रहे' जैसे शब्द का कर उन क्षणों को दुर्लभ बना रहे थे... ! जिन पारिवारिक व जीवन मूल्यों को पुस्तकों में पढ़ा-पढ़ाया जाता है, यह परिवार उन मूल्यों को सुखपूर्वक पूरी तरह जी रहा है ! क्या कहूँ ..... कल के उस अनुभव की कोई तुलना नहीं .... बस दुर्लभ !!!