हिन्दी का 'प्रवासी' साहित्य और आपत्तियों का औचित्य : (डॉ.) कविता वाचक्नवी
अभी अभी एक ईमेल द्वारा प्राप्त सूचना के पश्चात् प्रवासी दुनिया पर सुधा ओम ढींगरा जी की डॉ. कमलकिशोर गोयनका जी से बातचीत पढ़ी। अच्छी लगी। गंभीर व विचारणीय मुद्दे सुधा जी ने उठाए हैं और गोयनका जी ने भी तर्कपूर्व ढंग से उनके समाधान दिए हैं। इस बातचीत द्वारा हिन्दी भाषा व साहित्य के वर्तमान परिदृश्य की स्थितियाँ फिर से साफ होती हैं। विदेशों में रचे जा रहे हिन्दी के साहित्य को प्रवासी साहित्य कहने वाले मुद्दे पर भी काफी खुल कर चर्चा हुई है।
मैं गोयन्का जी से सहमत हूँ और यह देखा जाना व इस बात को रेखांकित किया जाना अनिवार्य ही था कि प्रवासी वाले मुद्दे पर विरोध करने वाले लोग स्वयं पत्रिकाओं के प्रवासी विशेषांकों/अंको में बढ़ चढ़ कर छपते हैं, प्रवासी के नाम से सारे लाभ लेते हैं, लाभ देने वालों से प्रवासी बन कर गद् गद् होते हैं, पहचान स्थापित करने के दौर में स्ट्रेट्ज़ी के तौर पर इस खाते में अपने को सम्मिलित करते करवाते हैं, उपकृत होते हैं, उपकृत करते हैं और जब तथा जिन के माध्यम से पहचान बना लेते हैं उन्हीं के सामने प्रवासी शब्द के औचित्य पर गवेषणाएँ करते हैं।
क्यों नहीं मान लिया जाता कि भारत से बाहर रहकर हिन्दी में लेखन करने वालों के लिए यह शब्द रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है? जैसे, हिन्दी साहित्य में 'आधुनिक हिन्दी कविता' के दायरे में इतना बड़ा कालखंड (लगभग100 वर्ष से अधिक) सीमित है, न कि आज की या एकदम आधुनिक कवितामात्र; उसी प्रकार प्रवासी शब्द एक विशेष स्थिति का वाचक-भर है।
सच है कि भाषा या साहित्य प्रवासी नहीं होता किन्तु उसका रचयिता तो प्रवासी हो सकता है। उस संज्ञा- विशेष के लिए यदि एक शब्द रूढ़ कर भी दिया गया / हो गया तो अब उस पर हल्ला गुल्ला मचाने से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। फिर जो लोग प्रवासी के नाम पर सारे रिजर्वेश्ञ्ज लेते आए हैं, लेते हैं, लेते रहे हैं उन लोगों द्वारा हल्ले का औचित्य समझ नहीं आता।
प्रवासी के रूप में थोड़ी बहुत पहचान बना चुकने के बाद इस शब्द के औचित्य पर विमर्श करते समय प्रत्येक (लाभ लेने वाले) के लिए यह समझ लेना भी रोचक होगा कि उनकी प्रवासी के रूप में कुछ पहचान तो है, अन्यथा मुख्यधारा की गति तो ऐसी है कि वह जाने किस किस आधार और कारण से किस किस को बाहर निकाल फेंकगी, कोई नहीं जानता। वहाँ बड़े दिग्गज लेखक तब तक मायने नहीं रखते जब तक वे किसी धारा (विचार)-विशेष से, क्षेत्र-विशेष से, बोली-विशेष से, व्यक्ति-विशेष से या स्कूल-विशेष से आयत्त नहीं होते हैं। वहाँ तो सचमुच के योग्य लेखक को किसी रिज़र्वेशन के आग्रह के चलते काट फेंका जाता है। बड़े बड़े रचनाकार ऐसी गुमनामी का जीवन जीने को अभिशप्त हैं कि क्या कहिएगा।
इसलिए प्रवासी के खाँचे वालों और प्रवासी के रिजर्वेशञ्ज के नाम पर लाभ लेते चली आई परंपरा व दादाओं को पहचान, लड़ाई और अवसर के लिए कम से कम तुलनात्मक रूप में एक छोटे-से सीमित संकाय में युद्ध और राजनीति करनी है [:)] इस पर प्रसन्न होना चाहिए; वरना हिन्दी समाज की भयंकर गंदी और ओछी राजनीति में बड़े नए संकट और मोल लेने पड़ सकते हैं।
`मुख्यधारा' और `प्रवासी धारा' की राजनीति की चौपड़ में बचा खुचा तबाह करने की कवायद किसे रुचेगी भला ? इसलिए यही अच्छा है कि वे लोग जो वास्तव में लेखकीय प्रवृत्ति के हैं, इस घिनौनी राजनीति से दूर रहें, राजनीति के आकाओं को यह खेल जी-भर खेलने दें और तमाशा देखें। वरना बाँस भी जल जाएँगे और बांसुरियाँ भी न बन पाएँगी। बेचारे नीरो कैसे बाँसुरी बजा पाएँगे फिर !
इसके साथ ही यद्यपि प्रवृत्तिमूलक साहित्य की चर्चा का प्रश्न भी जुड़ा है, किन्तु उस पर फिलहाल किसी को ध्यान देने की फुर्सत नहीं है, क्या संभवतः इसलिए कि वैसा होते ही बहुत कुछ स्वतः ही धराशायी हो जाएगा !
शेष फिर कभी !
कविता जी, इस नये विषय पर आपका लेख अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंसही कहा कि ''उसी प्रकार प्रवासी शब्द एक विशेष स्थिति का वाचक भर है''
लेखक किसी युग में तो होता होगा,
जवाब देंहटाएंकिसी स्थान में तो रहता होगा;
चाहे जितना भी बड़ा हो
देश-काल के अतिक्रमण में समर्थ भी -
पहचाना तो जाएगा उस युग
और उस स्थान से ही.
उसके साहित्य का मूल्यांकन भी
उस-उस देश-काल की सापेक्षता में ही होगा.
कोई तो इन महानुभावों से पूछे -
व्हाई दिस कोलाबरी कोलाबरी डी!!!
कविता जी,
जवाब देंहटाएं’प्रवासी साहित्य’ शब्द का प्रयोग कब से प्रारंभ हुआ और वह रूढ़ कब हआ --यह बताया जाना चाहिए.
वातायन में जब इस पर लंबी बहस चली थी तब ३२ व्यक्तियों ने उसमें भाग लिया था और एक ने भी इस शब्द के प्रयोग को उचित नहीं ठहराया था. सुधा ओम ढींगरा जी के कहने पर (डॉ. गोयनका जी ने मुझसे यही कहा था) आदरणीय कमल किशोर गोयनका जी ने मुझसे इस विषय पर लगभग एक घण्टा तक बात की थी और उनके जो तर्क थे उनसे सहमत होना कठिन था, क्योंकि वे बाहर जा बसे लोगों द्वारा रचे जा रहे हिन्दी साहित्य का इतिहास बताते रहे थे. उस साहित्य को ’हिन्दी साहित्य’ के स्थान पर ’प्रवासी साहित्य’ की पहचान कब मिली यह उनके तर्क में नदारत था. हाल में जनसत्ता में भी दिविक रमेश के आलेख के उत्तर में डॉ. गोयनका ने जो आलेख लिखा उसमें भी वह यह स्पष्ट नहीं कर पाए थे कि आखिर हिन्दी साहित्य को ’प्रवासी साहित्य’ क्यों कहा जाए.( दिविक रमेश का आलेख पाठक वातायन, फरवरी,२०१२ में www.vaatayan.blogspot.com में पढ़ सकते हैं) उन्होंने वातायन के लिए अपना जो आलेख मुझे भेजा था (वह टाइपिंग की समस्या के कारण अभी तक मेरे पास सुरक्षित है) उसमें भी उन्होंने मारिशस आदि देशों में लिखे गए हिन्दी साहित्य का इतिहास ही बताया था, न कि उसे ’प्रवासी साहित्य’ क्यों कहा जाए---यह. मेरा मानना है कि ’प्रवासी साहित्य’ शब्द का प्रचलन प्रारंभ हुए अधिक समय नहीं बीता. जो लोग भी इस शब्द के तहत अपनी पहचान बनाने में सफल रहे यदि वे समय रहते जाग गए तो इसमें बुराई कैसी?
आज से दस वर्ष पहले तक मैं सुषम बेदी या तेजेन्द्र शर्मा को हिन्दी साहित्यकार ही मानता था. उनका साहित्य ’प्रवासी साहित्य’ कैसे हो गया? व्यक्ति प्रवासी होता है, न कि साहित्य.
’हिन्दी भारत’ में भी यह बहस चल चुकी है और मैं अपना तर्क प्रस्तुत कर चुका हूं. उसे दोहराना उचित नहीं. यह शब्द उन प्रवासी लेखकों को आकर्षित कर रहा है जो अपने लेखन के प्रति आश्वस्त नहीं और इस शब्द की पूंछ पकड़कर साहित्य की वैतरिणी पार कर जाना चाहते हैं. यह भारत में एक खास प्राध्यापक वर्ग को भी आकर्षित कर रहा है, क्यों यह आप समझ सकती हैं. यह उन लोगों को भी आकर्षित कर रहा है जो इसके पक्ष में खड़े होकर अपनी दुकानें चला रहे हैं. मेरी बातें कटु लग सकती हैं--- लेकिन सचाई यही है. वर्ना बड़ी संख्या में प्रवासी लेखक इसके विरुद्ध नहीं होते.
रूपसिंह चन्देल
चंदेल जी,
जवाब देंहटाएं1) - इस शब्द के प्रारम्भ व प्रयोग के संदर्भ में आप गोयनका जी का साक्षात्कार पढ़ें। उन्होंने इस शब्द के इतिहास पर पूरी तथ्यात्मक जानकारी दी है।
2)- जो लोग प्रवासी के नाम पर किसी भी प्रकार का रिज़र्वेशन (पत्रिकाओं के अंकों में छपना आदि भी ), लेते आए हैं/ लिया है, उनका अपनी थोड़ी पहचान बना लेने के बाद इस शब्द पर विमर्श करना या नकारना हास्यास्पद लगता है।
3) - एक शब्द को अपनाने का आग्रह करने वाले और इसे नकारने का झण्डा उठाने वाले दोनों ही पक्ष वस्तुत: राजनीतिपरक हैं। बोल बोल कर नकारने से अच्छा होता कि वे व्यवहार से नकारें/नकारते , लाभ लेते समय नकारें/नकारते।
4) - एक लेखक के रूप में लेखक को यह चिंता नहीं होनी चाहिए कि उसे अमुक काल, प्रवृत्ति अथवा धारा का रचनाकार कह कर पुकारा / न पुकारा जाए। लेखक का काम अच्छे से अच्छा, सार्थक व सरोकारपूर्ण लिखने तक सीमित होता है, इसके आगे झण्डाबरदारी हो जाती है। शुक्ल जी के इतिहास लेखन के साथ अलग अलग कालविभाजन में आए सैकड़ों रचनाकारों ने स्वयं निर्धारित नहीं किया कि उन्हें किस खांचे में रखा जाए। एक लेखक की चिंता लिखने तक होनी चाहिए। ऐसे वाद विवाद, ठप्पे, भीतर-बाहर, अपनी जगह बनाने की कवायद आदि उसके लेखन को विचलित करते हैं। दादाओं व राजनीति करने वालों की नजर में मात्र रचनाकर्म से जुड़ा मेरे जैसा हर साधारण लेखक टुच्चा व दोयम रचनाकार ही होता है व केवल अपनी दुकान चमकाने या अपने खेमे की भीड़ बढ़ाने में इस्तेमाल के लिए होता है। इसलिए इन दोनों पक्षों के दादाओं को समझ लेना चाहिए कि रचानकर्म-मात्र से जुड़े व साधारण रचनाकार को इस सारे टंटे में रोटियाँ सेंकने वालों से कोई लेना देना नहीं है। उसके लिए यह शब्द / वह शब्द सब चोंचले हैं। पूरा विवाद ही निरर्थक है क्योंकि दोनों पक्षों की जिद राजनीतिप्रेरित हैं।
वाकई बेहद विचारणीय विषय है यह
जवाब देंहटाएं@चंदेल जी,
जवाब देंहटाएंएक बात और जोड़ना चाहूँगी। आपने लिखा है कि " जो लोग इस शब्द के तहत अपनी पहचान बनाने में सफल रहे, यदि वे समय रहते जाग गए तो इसमें बुराई कैसी ?"
मैं व मेरे जैसे हजारों और प्रबुद्ध लोग जानते/ताड़ते हैं कि यह कोई जागरण नहीं है, यह सारा लालसा का खेल है। पहले प्रवासी बन कर चर्चित हो लिए, अब उस कमाई (?) को पूंजीनिवेश के तौर पर प्रयोग करने की कवायद इसमें अधिक दिखाई देती है।
निस्संदेह उनका यह पूंजीनिवेश भारत में रह रहे उन अनेकानेक योग्य व अधिकारी लेखकों के अधिकार का हनन ही करेगा जिन बेचारों के पास देने और दिखाने को चुग्गा नहीं है। परंतु बात वही है न, कि राजनीतिप्रेरित स्वार्थों के समक्ष किसे सूझता है विवेक !
इसीलिए मुझे `प्रवासी' का विरोध करने के पीछे भी राजनीति के आकाओं का ही हाथ दिखाई देता है। सच्चे लेखक को इन सब चीजों से कुछ लेना देना नहीं है। उसे न प्रवासी के प्रयोग से मतलब, न प्रवासी के विरोध से। बेचारे लेखक को ये आका लोग शांति से जी क्यों नहीं लेने देते ?
इस बात को अच्छे से जान लेना आवश्यक है कि हिन्दी के साहित्यजगत् की राजनीति जितनी भारत में है, विदेशों के हिन्दीजगत् में है उस से जरा-सी भी कम नहीं (अपितु काफी अधिक ही )है । और यह सारा समर्थन व विरोध का खेल उसी से संयोजित संचालित है।
'प्रवासी भारतीय' को संज्ञा बनाने या न बनाने को लेकर कोई भी विवाद निरर्थक है। हिन्दी साहित्य के गलियारों में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो कुछ सार्थक लिखने के बजाय निरर्थक किंतु उत्तेजक विवाद ही गढ़ने में व्यस्त रहते हैं। ऐसे तत्व जरा-सा मुंह खोलने वाले पर भी खांव-खांव कर टूट पड़ने को बेताब रहते हैं। लिखने-पढ़ने वाले लोगों को ऐसे लोगों से बचकर ही रहना चाहिए, क्योंकि इनसे छू भर जाने से कामकाज को भारी झटका लगता है। ...बहरहाल, चर्चाओं में रचनाकारों को चाहे जिस रूप में अभिहित किया जाए, इससे भला क्या फर्क पड़ता है... मूल्यांकन तो अंतत: रचना का ही किया जाएगा...
जवाब देंहटाएंवस्तुतः काम करने वाले लोग तो चुपचाप काम करते ही रहते हैं.
जवाब देंहटाएंवाद-विवाद में उलझे कुछ अनसुलझे लोगों के चलते उचित समय पर सृजन-कर्म का मूल्याङ्कन नहीं हो पाता.
इसलिए प्रवासियों की स्थिति इस सन्दर्भ में "न घर का, न घाट का" वाली हो कर रह जाती है और वे उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं.
संजय बिन्नाणी
Kavita ji...
जवाब देंहटाएंAapne Goenka ji ke jis sakshatkar ka jikr kiya woh to maine padha nahi par aapne aalekh aur us par ki gayi tippaniyon visheshkar shri Chandel ji ki tippani se vishay ka kuchh abhaas hua hai...
Main aapki baat se sahmat hun ki jab log apne pravasi Bharteey hone ke tamge se sahitya ke kshetr main apni pahchan banayi ho to unhe 'Pravasi sahitya' kahne se kya aitaraaz...
यह ठीक हैकि रचनाकार प्रवासी हो सकता है। उसकी रचना में प्रवासी परिवेश का प्रभाव भी हो सकता है। किंतु रचनाकार तो सार्वभौमिक होता है। उसकी रचनाधर्मिता चराचर जगत के कल्याण के प्रति समर्पित होनी चाहिये। अब रचनाधर्मिता के लिये किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं है। भारत और भारत से बाहर के साहित्यकारों की रचनाधर्मिता में कोई अंतर है क्या? सरोकार अलग हो सकते हैं किंतु अंततः सारे सरोकार भी मानवीय संवेदनाओं के आसपास ही घूमते हैं। प्रवासी साहित्य जैसा कोई वर्गीकरण मेरी दृष्टि से उचित नहीं है। हाँ "प्रवासी भारतीयों की साहित्यिक गतिविधियों" पर चर्चा करनी हो तो बात अलग है।
जवाब देंहटाएंबुरा- भला?
जवाब देंहटाएंतथाकथित अंतर्राष्ट्रीय कवि 'महफूज़ अली' की कविता के जर्मनी के पाठ्यक्रम में शामिल होने की खबर न सिर्फ ब्लोग्स पर देखने को मिली, बल्कि उनके ब्लॉग पर 'दैनिक हिन्दुस्तान' समाचार पत्र में इस आशय का समाचार छपने की तस्वीर भी है| अखबार से इस समाचार का स्त्रोत पूछा गया है और जवाब अभी प्रतीक्षित है और शायद प्रतीक्षित ही रहेगा| सम्बंधित जर्मन प्रकाशक से संपर्क करने के बाद पता चला कि उनके यहाँ ऐसा कुछ नहीं छपा है| प्रकाशक के डिटेल्स इस प्रकार हैं -
STARK mbH & Co.
Bachstr. 2
85406 Zolling
Tel. 0180 3 179000 Fax 0180 3 179001
Handelsregister München HRA78578
Geschäftsführer Dr. Detlev Lux
info@stark-verlag.de
अपने फेसबुक प्रोफाईल पर महफूज़ अली खुद को जिस अंतर्राष्ट्रीय संस्था का चेयरमेन और सी.ई.ओ. बता रहे हैं, उस स्वयंसेवी संस्था में ऐसा कोई पद ही नहीं है और इस नाम का कोई अन्य अधिकारी भी नहीं है| संस्था का विवरण इस प्रकार है -
Jana Parejko
Mental Health Resource League for Mchenry County (MHRL)
info@mhrl.org
(815) 385-5745
ये सरासर धोखाधड़ी है, हमारे आपके विश्वास के साथ धोखा, हमारी सद्भावनाओं के साथ धोखा| जो नहीं है, खुद की उन उपलब्धियों का बखान खुद करना और दूसरों को धोखे में रखकर औरों से भी अपना महिमामंडन करवाना, कहीं से भी शराफत का काम नहीं है|
ब्लोगर्स मीट में, पुरस्कार वितरणों में या किताबें छपने छपवाने में हजारों रुपये खर्च करने वाले आप लोग सौ-पचास रुपये खर्च करके इन फोन नम्बर्स पर संपर्क करके असलियत जान सकते हैं और यदि ये भी मुश्किल है तो ईमेल एड्रेस तो है ही| मेरी विश्वसनीयता संदिग्ध लगे तो आप महफूज़ अली के ब्लॉग से इन प्रकाशक संस्थान और दुसरे संगठन का नाम नोट करके नेट से खुद भी इन नम्बर्स और आई.डी. की जानकारी ले सकते हैं| ब्लॉग और फेसबुक के इनके प्रोफाईल का स्नैप शोट सुरक्षित है, क्योंकि इन्हें बदल दिए जाने की पूरी संभावना है| झूठ के पाँव नहीं होते|
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