शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

छत पर आग उगाने वाले दीवारों के सन्नाटों में क्या घटता है

कंधों पर सूरज

डॉ. कविता वाचक्नवी


( अपनी काव्य-पुस्तक " मैं चल तो दूँ " से)








प्रश्न गाँव औ’ शहरों के तो
हम पीछे सुलझा ही लेंगे
तुम पहले कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो ।


चिकने पत्थर की पगडंडी
नदी किनारे जो जाती है
ढालदार है
पेड़, लताओं, गुल्मों के झुरमुट ने उसको
ढाँप रखा है
काई हरी-हरी लिपटी है

कैसे अब महकेंगे रस्ते
कैसे नदी किनारे रुनझुन
किसी भोर की शुभ वेला में
जा पाएगी

कैसे सूनी राह
साँस औ’ आँख मूँद
पलकें मींचे भी
                 चलता
प्रथम किरण से पहले-पहले
प्रतिक्षण
मंत्र उचारे कोई ?

कैसे कूद - फाँदते बच्चे
धड़-धड़ धड़- धड़ कर उतरेंगे
गाएँगे ऋतुओँ की गीता ?

कैसे हवा उठेगी ऊपर
तपने पर भी ?
कैसे कोई बारिश में भीगेगा हँस कर ?


छत पर आग उगाने वाले
दीवारों के सन्नाटों में
क्या घटता है -
हम पीछे सोचें-सलटेंगे
तुम पहले
कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो।



©  सर्वाधिकार सुरक्षित

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6 टिप्‍पणियां:

  1. तुम पहले
    कंधों पर सूरज
    लादे होने का भ्रम छोड़ो

    वाह...!
    सुबह-सुबह इतनी शानदार कविता पढ़ने को मिली, मन प्रसन्न हो गया।
    सुप्रभात।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब, मन मोह लिया कविता ने, विचारों में नया पन, आपके तेवर और कविता की लय सभी ने प्रभावित किया। बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  3. जितनी अच्छी आपकी सूचनाये होती है उनसे भी कही खुबसूरत आपकी ये कविता है।
    धन्यवाद बोलना चाहूँगा।

    जवाब देंहटाएं
  4. जड़ता और मोहान्‍धता से लड़ती हुए एक अद्भुत कविता.. जिसमें ह्रदय की खनक है.. उर्वर लेखनी को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. तुम पहले कंधो पर
    सूरज लादे रखने का
    भ्रम छोड़ो !
    बहुत सुंदर !

    जवाब देंहटाएं

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