हिन्दी आलोचना का यथार्थ : कविता वाचक्नवी
हिन्दी में समीक्षा और आलोचना सम्बन्धी दो- तीन कटु तथ्य !
पहला यह कि हिन्दी में निष्पक्ष समीक्षा लगभग गायब हो रही है, अब पुस्तक परिचय का युग चल रहा है। दूसरी बात, जो थोड़ी बहुत समीक्षा करते हैं वे कमजोरियों का उल्लेख करने की बजाय समीक्षा में कुछेक अच्छे प्रसंगों को उभारते हैं। यह लगभग वैसा ही है जैसे मार्केटिंग में किया जाता है कि खरीददार को बढ़िया बढ़िया सपने और लाभ दिखाए जाएँ; तो इस समक्षीय व्यवहार ने प्रमाणित किया है कि हिन्दी का समीक्षक माल बेचने वालों के साथ है खरीदने वालों के साथ या खरीदने वालों का हमदर्द नहीं। तीसरी बात, हिन्दी में यही चलन इधर लगभग बीस बरस से चल रहा है कि कमजोर से कमजोर कृति पर बड़े आलोचक केवल वाद, जान पहचान या लाभ-हानि के विचार के चलते (या लेखक के 'सोर्सेज़' के चलते) समीक्षा (?) लिखते हैं। थोक के भाव मुक्तिबोध और जैनेन्द्र आदि आदि सिरजे गए... इस से खरीददारी का बाजार गरम रहा, वे लेखक उस दृष्टि से लाभान्वित हुए।
इस सारी बात का दूसरा पक्ष यह भी है कि आज यदि कोई 'निष्पक्ष' ( यह प्रजाति यद्यपि दुर्लभ है) आलोचक दो टूक आलोचना पुस्तक की लिख भी दे तो लेखक उस आलोचक के विरुद्ध अभियान चला कर उसे पूर्वाग्रहग्रस्त घोषित कर देगा। ऐसी घटनाओं की साक्षी भी हूँ जब एक महिला आलोचक ने एक पुरुष रचनाकार की पुस्तक पर दो टूक खरी खरी कह दी तो उस लेखक ने महिला आलोचक का जमकर भीषणतम चरित्र हरण का अभियान चलाया और उसमें वह लेखक सफल भी रहा कुछ इस तरह कि महिला आलोचक ने उस दिन से समीक्षा लिखना ही बंद कर दिया और उनके खिलाफ हुए 'गॉसिपीय' दुष्प्रचार में सब हिन्दी वालों ने खूब चटखारे लिए।
हिन्दी में समीक्षा जगत का एक पक्ष यह भी है कि पुरुष आलोचकों ने महत्वाकांक्षी लेखिकाओं का शोषण भी खूब किया है, और उसी तर्ज पर कुछ लेखिकाओं ने 'डुल' जाने वाले आलोचकों का भरपूर शोषण भी।
इन स्थितियों में किसी निष्पक्ष आलोचक की उपस्थिति हिन्दी में विरली है।
आपका कथन कटु किन्तु सत्य है। समीक्षा में सशक्त और कमजोर दोनों ही पक्षों को दिखाना चाहिए। हिन्दी समीक्षा में तो लेखक की पूजा के सदृश होती है।
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