वह दुर्घटना और मैं .... : कविता वाचक्नवी
वर्ष 2006 या 2007 में तीन-चार दिन के पुणेप्रवास से लौटने के लिए स्टेशन जाते हुए अपने साथ हुई एक दुर्घटना की याद आज आ गई। भारी वर्षा में ऑटो में अपने पैरों को भीगने से बचाने के लिए दोनों ओर नीचे बड़े सूटकेस अटका कर खड़े कर दिए थे। रास्ते में एक साईकिल वाले ने सामने आए किसी खड्डे से बचने के लिए झटके से जैसे ही साईकिल घुमाई तो वह एकदम आटो के आगे आ गया, उसे बचाने के लिए तेज भागते ऑटो वाले को झटके से ऑटो मोड़ना पड़ा और इस तरह ऑटो फिसल कर इतनी तेज फिसला कि जाकर दूर दूसरी ओर सड़क किनारे के एक बिजली से खंभे से टकराया और हवा में बहुत ऊपर उछल कर तीन चार पलटियाँ खा गया। ऑटो वाला तो शुरू में ही बाहर गिर गया था, पर मैं दोनों ओर सूटकेस अटके होने के कारण हवा में गुलाटियाँ खाते ऑटो के भीतर ही फँसी रह गई और जाने कहाँ से कहाँ कितनी पलटियाँ खा गई। सिर, बाहों आदि में जो प्रत्यक्ष चोटें आईं वे तो कम थीं किन्तु गर्दन, कंधे और सिर की हड्डियाँ मानो चरमरा गईं और आज तक उनका फल भुगत रही हूँ। ऑटो वाले का ऑटो लगभग तहस-नहस हो गया।
कैण्टोंन्मेंट का क्षेत्र था और वर्षा के कारण सड़क पर पैदल कोई था ही नहीं, तो ऑटो वाला और एक दो अन्य खाली ऑटो वाले दौड़ते हुए आए, बल्कि कहना चाहिए कि गिरते ऑटो को सबने हवा से लपका, ताकि नीचे टकरा कर अनिष्ट न हो जाए। मुझे तुरंत बाहर निकाल कर दूसरे ऑटो में बैठा दिया, मुझे बहते खून और चोटों के साथ स्टेशन के लिए तुरंत सिसकते हुए निकलना था क्योंकि सामान बहुत था और रेल में रिज़र्वेशन था, गाड़ी पहुँचने को थी। किसी तरह कुली ले उसी तरह गाड़ी पकड़ी किन्तु अंतिम समय में स्टेशन पहुँचने के कारण लगभग छूटती गाड़ी के सामने वाले डिब्बे में जिस किसी तरह घुसी, वहाँ न न सीट मिली, न रिज़र्वेशन, रात को सोने तक जब तक टीटी महोदय आते और उन्हें कह कर अपने रिज़र्वेशन की कहानी बताती, ताकि वे मुझे सही डिब्बे तक पहुँचाने का अता-पता करते, तब तक पता चला कि मेरी बर्थ किसी अन्य को वितरित कर दी गई है, इसलिए किसी तरह उसी डिब्बे में किसी की बर्थ के सिरे पर टिके-टिके रात बिताकर अगली सुबह हैदराबाद पहुँची, पति ने लिया और घर ले गए...! मोबाईल क्योंकि ऑटो में हाथ में था तो वह भी उखड़ फूट गया।
दुर्घटना की चोटें, मानसिक आघात लिए, अकेले तुरंत भागना, गाड़ी पकड़ना और रेलवे का अनुभव सब ने बहुत कष्ट दिया... ! आज भी वह घटना कंपकंपी पैदा करती है और दर्द जब-तब जग उठते हैं।
भारतीय रेलों और भारतीय सड़कों के बेहद भयावह संस्मरण मेरी यादों में हैं। पता नहीं कब लोगों को आत्मानुशासन आएगा। जाने कितने प्राण प्रतिदिन लील जाते हैं ये अनुशासनहीन / व्यवस्थाहीन चालक और सड़कें। #Vachaknavee
भारतीय रेलों और भारतीय सड़कों के बेहद भयावह संस्मरण मेरी यादों में हैं। पता नहीं कब लोगों को आत्मानुशासन आएगा। जाने कितने प्राण प्रतिदिन लील जाते हैं ये अनुशासनहीन / व्यवस्थाहीन चालक और सड़कें। #Vachaknavee
खैरियत यही कि आप सकुशल हैं ,ऐसी दुर्घटनाएं कुछ करने योग्य बना रहने दें तो समझो ईश्वरी कृपा हुई -मेरे साथ भी ऐसा घट चुका है हाथ-पाँव टूट चुके हैं पर असमर्थ नहीं हुई . किसी पर निर्भर हुए बिना अंतिम क्षण तक अपने काम करते रह सकें हम लोग ,यही इच्छा है .
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