रविवार, 23 अक्टूबर 2011

दीपपर्व अति मंगलमय हो !

दीपपर्व अति मंगलमय हो !


दीपपर्व अति मंगलमय हो !

" असतो मा सद् गमय 
   तमसो मा ज्योतिर्गमय 
      मृत्योर्मा अमृतम् गमय "







सोमवार, 17 अक्टूबर 2011

वह बिलकुल दबे पाँवों नहीं आया : अरसे से भूली अपनी यह कविता

वह बिलकुल दबे पाँवों नहीं आया : अरसे से भूली अपनी यह कविता 


यह कविता संभवतः 2002 के आसपास कभी लिखी थी। 

यों तो वैश्वीकरण के दौर में भाषाओं और लिपियों की निरंतर  मृत्यु से विश्व के सारे भाषाचिंतक और विज्ञानी चिंतित हैं किन्तु गत दिनों घटी घटनाओं ( देखें - हिन्दी पर सरकारी  हमले का आखिरी हथौड़ा  और  हिन्दी का ताबूत ) के बीच अरसे से भूली अपनी यह कविता यकायक फिर याद आई। 

सु-रसा 
 - कविता वाचक्नवी




वह बिलकुल दबे पाँवों नहीं आया,

  बिना बताए
        धड़ल्ले से शोर मचाते
नाचते, कूदते, गाते, फाँदते
चीखते-चिल्लाते
हँसते-दोहरे होते
गर्व की मुस्कान लिए
थोड़ा बरग़लाते हुए 
यकायक
          परंतु पूर्वयोजित तरीके से
प्रकट हो गया वह
एकदम मेरी बैठक में
लुभावने वस्त्र पहन
‘ज़ुबान’ की मीठी धार लिए
सजे-धजे
पूरे आडंबर के साथ
और खोल दी अपनी तिलिस्मी पोटली

कुछ घरेलू चीज़ें
कुछ मस्तिष्क की घुड़दौड़ का सामान
थोडे़ नये उत्पाद
थोडा़ सजावटी सामान
कुछ कहानियाँ
कुछ गीत
कुछ इधर-उधर की
थोड़ा सेहत का सामान
थोड़ा खेलकूद का
कुछ समाचारों की कतरनें
और पर्यटन सामग्री भी।

खुलते ही इतनी धूम-धाम भरी पोटली के
आ, बैठक के चारों ओर के कमरों से
बैठ जाते हैं सब घेर उसे
खोजते, मनपसंद चीज़ें अपनी
अत्याधिक उतावली में
भूल जाते हैं मुझे,


मैं गुमसुम क्यों हूँ......
क्यों सताती है मुझे उपेक्षा अपनी?

अतिरिक्त उत्तेजित है - वह
भूल जाता है मेरी उपस्थिति
और गाने लगता है   - अपने देवताओं के गीत।
देवता..........?
किसी और लोक के वासी?

जोर डालकर देवत्व की परि-‘भाषा’  पूछ ली मैंने ।
पर वह तो वाचाल भी है
मुझी से पूछ बैठा वह।
मंत्र  सुनाए मैंने कुछ
कुछ श्लोक सुनाए
कुछ दोहे, कुछ नीति वचन
कुछ सूक्तियाँ
फिर कवितांश भी कुछ।

पल्ले नहीं पड़ता कुछ उसके
यह ‘भाषा’ नहीं समझता वह।

अब बारी उसकी थी
हौले-से मुस्कुरा
चोगा सँभाल बोलने की चेष्टा में बैठते ही
दीख जाता है मुझे
उसके झोले में जम कर बैठा
मिट्टी का शेर एक।

पास जाकर छूना चाहती हूँ
क्या है यह, क्यों है?

हड़बडा़ थोड़ा पीछे हटने पर उसके
मैंने देखा
पाँव नहीं है उसके।

चौंक जाती हूँ
कौन तुम हो?
क्यों आए?
क्या चाहिए?
यह सब क्यों लाए?
मंशा क्या है तुम्हारी?
क्यों लुभा रहे हो मेरा परिवार?
बिना अचकचाए
रटी ‘जुबान’ से
किसी दूसरी ‘भाषा’ में
कूटनीतिपूर्वक सांत्वना देते हुए
समझाना चाहता है मुझे।

बच्चे उचारते हैं उसकी ‘भाषा’ की नकल
उस-सा लुभावना बनने की चेष्टाएँ,
या शायद
पोटली के किसी उपहार की प्रतीक्षा में
बुढे़, जवान, लड़के-लड़कियाँ
सभी उसके साथ मिल गाते हैं;

ये गीत सीख गए तो
साथ ले जाएगा वह अपने
लाया है जिस लोक से मनभावन
सामग्री अपनी।

सभी मिलकर
नाचते हैं - घूमते हैं
हाथों में हाथ डाले
कंधे मिलाने की होड़ में लगे बच्चे को उठाते
उसकी बाँह पर खुदा
‘वैश्वीकरण’ देख,
सब समझ जाती हूँ मैं।
अपना पोल-पता खुलने पर
अब नहीं घबराता ढीठ।
"गोदने की प्रथा तो यहाँ की है
तुम्हारे लोक में कैसे?"
"हमारी हो गई है यह
तुम्हारी नस्लों ने छोड़ दी
अपनी बना ली हमने।"
हा-हा-हो-हो-ही-ही के साथ
बढ़ता जाता है आकार उसका
विकराल
द्विजिह्व
लपलपाता
सुरसा वह
उठ जाता है बहुत ऊपर तक आकाश में,
निगलने लगता है
एक-एक कर जाने कितने बच्चे
कितने अस्तित्व
कितने-कितने देश
कितनी मुद्राएँ
कई भाषाएँ!
जिह्वा के दो-दिशी विस्तार पर
एक-एक कर गटकी जाती हैं  सब
सु-रसा की रसना के जादू में
खिंचाव में
खिंची जाती है - मीठी बोलियाँ
मीठे गीत
मीठे संवाद सब।
कोई नहीं
बचा पाए जो
इस दैत्याकार द्वि-रसना सुरसा से !

दौड़ती हूँ ‘हिंदी’ के कक्ष तक,
अभी आई कि आई बारी उसकी !
काँपते-काँपते देखा मैंने
जैसे जीभ पर सुरसा की
सूक्ष्म रूप लिए
प्रकट हो गए हनुमान
और.......
"बदन पैइठि पुनि बाहर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा।"


अपने काव्य संकलन  "मैं चल तो दूँ" (2005) से






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