`भारतीय भाषा परिषद' और `वागर्थ' : गतिरोध के दुःखद पक्ष : चलते घटनाक्रम का एक पक्ष मात्र किसी प्रतिष्ठित पत्रिका के प्रकाशन में अवरोध का आना-भर ही नहीं, अपितु इसके अन्य भी सम्बद्ध कुछ पक्ष और हैं।
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"भारतीय भाषा परिषद" की पत्रिका `वागर्थ' पर संकट के बादल घिरे हैं। कर्मचारियों के वेतनमान को लेकर, उनकी माँगों के चलते प्रकाशन में गतिरोध बना हुआ है। घटना का दुखद पक्ष केवल कर्मचारियों का कम वेतन होना ही नहीं है अपितु अन्य भी कई पक्ष बड़े दुःखद है; जैसे "कवि एकान्त श्रीवास्तव जो परिषद की मासिक पत्रिका वागर्थ के सम्पादक भी हैं , को अकेले में घेर कर उनके खिलाफ़ नारेबाजी की गई , उन्हें मैनेजमेन्ट का आदमी कह कर उन्हें बिना पूर्व सूचना के अपदस्थ किया गया जिसके लिए कर्मचारियों को बाद में अधिकारिक रूप से दुख भी प्रकट करना पड़ा" ( नील कमल @ नोट )
बात इतने पर ही नहीं पूरी हो जाती अपितु अभी अभी इसी घटनाक्रम के साथ पढ़ने को मिला एक और आलेख "भारतीय भाषा परिषद के बढ़ते अंग्रेजीकरण का विरोध करें : हितेन्द्र पटेल
इस सारे वितंडावाद से गुजरते हुए बार बार विचार आता है कि भारत में बौद्धिकता से जुड़े प्रत्येक मंच, प्रतिष्ठान, संस्था ... आदि आदि की यही अंतिम परिणति क्यों है? निरंतर ग्राफ ह्रासमान ही होता चला जाता है। कुछ प्रतिबद्ध एकनिष्ठ लोग यदि निजी प्रयत्नों से ग्राफ को सुधारते भी हैं तो बंदरबाँट करके नहस नहस कर देने वालों की गिद्ध दृष्टि या संबद्धों की अदूरदर्शिता उसे अधिक दिन टिकने नहीं देते।
न्याययुक्त वेतनमान देय होना ही चाहिए। उनसे, भूखे रहकर, भाषा अथवा साहित्य की सेवा का बलिदान नहीं माँगा जा सकता। तिसा पर तुर्रा यह कि मेरे जैसी साधारण भाषाप्रेमी साहित्य के बड़े प्रतिष्ठान और ऐतिहासिक पत्रकारिता के अवसान और गतिरोध से विचलित होकर सहानुभूति रखे भी तो कैसे, जब कि वस्तुस्थिति भाषा के नाम पर उद्वेलित करने की अधिक और वास्तविकता में कम की है । ....यदि खुले आम “कूपमंडूकता” माना जा रहा है ("अंग्रेजी में कार्यक्रम आयोजित करने को प्रगतिशील विचारधारा के अंतर्गत पाती हैं और अंग्रेजी में आमंत्रण-पत्र छपाने और कार्यक्रम करने के परिषद के निर्णय का विरोध करने को “कूपमंडूकता”!) तो हमारी भावनाओं में भूचाल का अर्थ क्या है ? क्योंकर होगा ? किसे बचाने की तत्परता हमारा ध्येय हो !
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प्रसंगवश : मेरे फेसबुक वॉल पर गत दिनों हुआ एक लंबा संवाद भी देखें -