शहर आग की लपटों में - 2
हिमाचल से एक परिचित अजेय जी ने (यह लिखते हुए " ब्रिटेन के कई हिस्सों को दंगों की आग में झुलसाने वाले ज्यादातर लोग अफ्रीकी कैरेबियाई मूल के हैं. लंदन के टोटेनहम से शुरू हुए बवाल को इन्हीं लोगों ने हवा दी और अब पूरा ब्रिटेन दंगों की आग में झुलस रहा है. सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी ऐसे में आग में घी डालने का काम करते हैं. दंगे काबू हो भी जाए लेकिन ज़ख़्म भरने में बहुत वक्त लगेंगे . ऐसे हादसों से यही साबित होता है कि इंसान जितना मर्जी सभी हो जाए भीतर के जानवर से छुटकारा नही पा सका है. ..बॉब मार्ले का *बफ्फेलो सोल्जर* याद आता है . सभ्यता जात्यों, समूहों और नस्लों के साथ कैसा व्यवहार करती है ! आश्चर्य. मनुष्य के विकास मे कोई बुनियादी त्रुटि रह गई है........ ये दबी हुई चिंगियाँ, ये ज़ख्म कब खत्म होंगे ?" ) पूछा है कि -
" डॉ. कविता वाचक्नवी, क्या ये दंगे पोलिटिकली मोटिवेटेड भी हो सकते हैं ? जैसा कि हमारे यहाँ होते हैं ...."
मैंने उन्हें बताया कि ऐसा कदापि नहीं है। किन्तु इस पर उन्होंने फिर कहा "मतलब इंग्लेंड के राजनीतिज्ञ ज़्यादा * सभ्य* टोटके अपनाते हैं ......"
मैंने पुनः समाधान करना उचित समझा और लिखा कि "राजनीति का वैसा अपराधीकरण नहीं हुआ है। भारत की राजनीति की तुलना में तो 10% भी नहीं।"
इस पर और भी कई प्रश्न उठ खड़े हुए कि -
- क्या ये ग्रुप्स स्वयम संगठित हैं ?
- क्या इन का कोई इंस्टिट्यूशनल आधार नही है ?
- क्या इन के कोई नेता नही है जो इन को वित्तीय और सत्ता परक सुरक्षा सुनिश्चित करते हों ?
इन बातों के समाधान के लिए यह जानना रोचक होगा कि ये `ग्रुप्स' भले दिखाई देते हैं, वस्तुतः कोई ग्रुप है नहीं। संगठित होने या संगठन की बात तो दूर की है। यह तो एक प्रकार से लूट के अवसर पर भीड़ की मानसिकता जैसी स्थिति है। स्थान-स्थान पर लूट की मानसिकता वाले जो लोग रहते हैं, वे मौके का लाभ उठाने के लिए अपने मित्रों-परिचितों को ठीक उसी भावना से उकसा रहे हैं जैसे पियक्कड़ किसी नए परिचित को अपनी जेब से खर्च कर भी पीने के लिए उकसाते हैं। `मुद्दा' या `इश्यू' जैसी किसी अवधारणा का इन्हें पता नहीं है।
तो इस प्रश्न के समाधान के लिए यह जानना आवश्यक है कि वस्तुतः जनविरोध की जो अवधारणा आप-हम भारत के साथ जोड़ कर बनाते हैं, यहाँ वैसा नहीं है। यहाँ ऐसा कदापि नहीं है कि यदि हमारी पक्षधरता किसी के प्रति है तो उसे उस पर थोपा जाए। परिवारों में बच्चों तक पर कोई कुछ नहीं थोपता है। न अपनी पक्षधरता का महिमामंडन कर उसे ही लागू करने-करवाने, दूसरों को छोटा दिखाने की प्रवृत्ति है। यह पक्षधरता भले सत्य के प्रति हो या असत्य के प्रति; अथवा किसी भी अन्य मुद्दे, स्थान, व्यक्ति, सिद्धांत के प्रति। दूसरों को धिक्कारना या छोटा दिखाना, अपने को बड़ा या सही सिद्ध करना आम आदमी की मानसिकता में लेश भी नहीं है। अतः सब अपनी पक्षधरता वाले क्षेत्र में काम तो करेंगे किन्तु दूसरे की पक्षधरता वाले क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं। ऐसे अतिक्रमण का अधिकार केवल संविधान व अदालत का है । अपराधी से अपराधी को दंड तो दिया जाता है, दिया जा सकता है किन्तु उसके मानवीय अधिकारों के चलते उसे धिक्कारा या कोसा नहीं जा सकता, उसे छोटा नहीं दिखाया जा सकता, उस पर कुछ थोपा नहीं जा सकता।
वैसे यहाँ के युवक युवतियों, प्रौढ़ लोगों, सामाजिक संगठनों, परिवारों, अधिकारियों, सरकार के विभिन्न विभागों, सभी राजनयिक दलों, प्रबुद्ध वर्ग, लेखकों, सोशल मीडिया .... अर्थात समूचे समाज के सभी अंगों सर्वाधिक चिंता इस बात की व्यक्त हो रही है कि ब्रिटेन के समाज में ऐसे अनैतिक लोग हो कैसे गए, आ कहाँ से गए, बन कैसे गए, और क्यों ! कैसे इस मूल्यहीन अनैतिकता का निराकरण कर ऐसे वर्ग को मूल्याधारित दिशा देनी है। दंड के प्रावधानों पर भी चर्चा बहुत ज़ोर पकड़े हुए है। समाज का अधिकाश वर्ग कड़े दंडों के प्रावधान के पक्ष में है। आर्थिक हानि की चिंता अभी समाज की मुख्य चिंता का मुद्दा नहीं है। आर्थिक मंदी की मार में गले तक डूबे देश की चिंताओं से कितना बड़ा सबक भारत व और कई देश सीख सकते हैं।
इला प्रसाद जी का ईमेल -
जवाब देंहटाएंआदरणीया कविता जी ,
आपके पोस्ट" शहर आग की लपटॊं में" पढकर ही जाना कि लंदन में इतना कुछ हो गया, हो रहा है । आपकी भूमिका सराहनीय है कि आप सच को सामने ला रही हैं। मुझे यह खबर इतनी महत्वपूर्ण नहीं लगी थी , जब याहू पर पढ़ा था। इसलिये पूछा ही नहीं इस बारे में।
आपकी कुशलता जानकर अच्छा लगा।
सादर
इला
सत्यनारायण शर्मा कमल जी की प्रतिक्रिया -
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ कि विशेष विदेशी मूल के लोगों में आर्थिक असमानता के कारण द्वेष से पैदा हुई यह स्थिति तो नहीं ?
कमल
अविनाश वाचस्पति जी ने अपने अंदाज में प्रतिक्रिया देते हुए लिखा है -
जवाब देंहटाएं- पर कविता जी आपकी हंसी की ज्वाला केआगे कहां ठहर पाएंगे दंगे भी।
चंद्र मौलेश्वर जी ईमेल से लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंस्थिति को बहुत सुलझे हुए ढंग से समझाया है आपने कविताजी। धन्यवाद।
चंद्र मौलेश्वर
cmpershad.blogspot.com
धन्यवाद
जवाब देंहटाएंरति सक्सेना जी लिखती हैं -
जवाब देंहटाएंवैसे इतिहास के भीतर जाएँ तो यूरोप सदियों से बर्बरता का केन्द्र रहा है, रोम का इतिहास और कोलोसियम, बर्बरता की पराकाष्ठा की कहानी आज तक कहता है। बर्बरता की चिन्गारी तो हर किसी में छिपी बैठी है, बस मौका मिलना चाहिए....जहाँ तक श्वेत अश्वेत के भेद की बात है तो मैंने रोम में भी अश्वेतों की बर्बरता की कहानियाँ सुनी हैं. लेकिन यह भी सत्य है कि उन्होंने काफी कुछ सहा है... सदियों से दबाये कुचले गए... और आज भी अनेक इलाकों में समस्याओं से जूझ रहे हैं। बेहद गरीबी की हालत में हैं, तो जैसा कि कविता ने कहा है, ये दंगाई खासतौर से मौके का फायदा उठा रहे हैं....
लेकिन दहला देते हैं वे दृश्य, जहाँ लोग मरते आदमी को भी लूट लेते हैं...
आपका प्रस्तुतीकरण काबिले तारीफ़ है.हर पहलु की सुन्दर विवेचना की है आपने.बहुत सी नई जानकारियाँ मिलीं आपकी इस पोस्ट से.जानकारीपूर्ण अनुपम प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंये चित्र देखकर मन में कुछ सन्तोष हुआ।
जवाब देंहटाएंसभी आत्मीयों का आभार।
जवाब देंहटाएंइस शृंखला की कुल चार कड़ियाँ अब तक हुई हैं। कृपया शेष 3 कड़ियों को भी क्रमिक लेखों के रूप में यहीं पढ़ें और अपने विचार दें।