हिन्दी साहित्य और `I ♥ Me' : कविता वाचक्नवी
इधर हिन्दी साहित्य से जुड़े लोगों के `ईमान जागने' पर `बेबाक' होकर `अपनी आँखें खुलने' और `सत्य को उजागर' करते हुए `गंदगी का पर्दाफाश' करने, `निंदा करने', `दूसरों की चालाकियाँ बताने', `आगे और चाटुकारिता न करने / निंदा/विरोध करने' , `अब तक के सारे छिपे खेल पर आक्रमण' और इस बहाने जाने क्या क्या करने का बड़ा प्रचलन है, और काफी ज़ोरों पर भी है।
एक एक कर कई नाम इस सूची में शुमार हैं।
ऐसा क्यों है कि लोगों के ईमान उस दिन जाग जाते हैं जिस दिन लाभ में उनकी हिस्सेदारी समाप्त हो जाती है ? जब तक वे कुचक्र का हिस्सा बने लाभ पाते रहते हैं तब तक सारा ईमान किसी खू - खड्डे में धरा पड़ा रहता है, या कहना चाहिए कि बिका गिरवी रखा होता है। ऐसे में वे सारी कालिख से आँख मूँदे वाह वाह कहते, उसे सही सिद्ध करते या छिपाते लाभ उठाते रहते हैं।
...... और जिस दिन अपना स्वार्थ बाधित होता है उस दिन कलई खोलने की धमकी को साकार करते, भीड़ में स्वयं को सत्य के देवदूत सिद्ध करते, वाह वाह बटोरने की राह पर स्टंट करने लगते हैं। आप यदि हिन्दी साहित्य की उठा पटक को नियमित निकट से देखेंगे तो पाएँगे कि कई भस्मासुरों ने लगातार साहित्य को पतन का अखाडा बना कर रखा हुआ है। पाठक इसी रंग ढंग को देख कर अब बिदकता है। पूरे के पूरे कुएँ में भांग पड़ी है और फिर कोई रंगा सियार निकल कर एक दिन अपने को सिंह साबित करने लगता है।
कोई इनसे पूछे कि भई ऐसा दिव्य ज्ञान तब तक क्यों न हुआ था जब तक आप फायदे ले रहे थे ! और तब आपकी आँखें क्यों न खुलीं। दिन प्रतिदिन कई नाम इस नई तरह की राजनीति के खेल में आम पाठक को बेवकूफ बनाते जुडते चले जा रहे हैं और पाठक बेचारा उनकी धिक् धिक् सुन सोचता है कि यह वास्तव में मानो असत्य और अन्याय और अनाचार का विरोध करने के लिए उठ खड़ा हुआ कोई नायक है... और उसके गुणगान करने लगता है, उसके समर्थन में जुट जाता है।
क्या खेल है भई ! वाह वाह !!
कहीं ऐसा नहीं लगता कि असल में तो दोनों मिल बाँट कर अब तक खा पी रहे थे और जिस दिन एक को मिलने वाली `स्रोत सामग्री' में रुकावट आई उस दिन वह इसका आरोप दूसरों पर मढ़ता सत्यवान बन जाता है ?
फायदे और लाभ बंद हो जाने के बाद जागे इस ईमान की असलियत पर आप क्या कहेंगे साथियो ? उनके इन नवजागरण के संकेतों को आप कितना निस्स्वार्थ और साहित्य के भविष्य के लिए कितना निरापद मानते हैं ? क्या करना चाहिए ऐसी मनोवृत्ति का ?
साहित्यिक अधोपतन के दावपेंचों की समीक्षा का समय है दोस्तो !
मजे की बात यह है कि लाभ लेने वालों के दलों में फूट पड़ने पर अलाभकारी पक्ष न्याय की गुहार लगाता है; किन्तु उस पक्ष का क्या जो लाभ लेने वाले पक्ष से सदा से इतर था ..... ?
वे हाहाकार भी नहीं मचाते, मचा सकते ही नहीं , उनके संस्कार में नहीं है। यदि मचा भी दें किसी दिन, तो कोई कान भी धरेगा, इसमें भी संदेह है; क्योंकि उनका अस्तित्व किसी साहित्य के ऐरे-गैरे व्यक्ति के रूप में तक नहीं है। वे चुप वंचित साहित्यिकदलित बोलना तक भूल गए हैं अब तो। विरोध तो क्या, कभी कभार हँस भर लेते हैं ऐसी स्थितियों पर .... और वह भी अपनी कोठरी में ही तो .... ।
देखकर आनन्द ही उठा सकते हैं।
जवाब देंहटाएंsundar post !
जवाब देंहटाएंsadar aabhar ....
Nice post.
जवाब देंहटाएंकविता जी,
जवाब देंहटाएंइस बेबाकी के लिए बधाई.
आजकल एक समाचार पत्र के रववासरीय अंक में कुछ ऎसे ही ’ईमानदार’ (?) लोग अवतरित हो रहे हैं और अपने को दूध का धुला सिद्ध करते हुए दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं. यह हिन्दी का दुर्भाग्य है कि हिन्दी पाठक ऎसे धोखाधडि़यों के झांसे में आ जाता है और उन्हें श्रेष्ठ मान लेता है. जब उसका मोह भंग होता है तब वह अपने को ठगा हुआ मानने लगता है.
ये बेनकाब तो होते हैं, लेकिन तब तक विलंब हो चुका होता है और अपने स्वार्थ के चलते ये साहित्य को पर्याप्त क्षति पहुंचा चुके होते हैं. यह खेल जारी है और लगता नहीं है कि हाल फिलहाल रुकने वाला है. फिर भी एक जागरूक साहित्यकार होने के नाते चुप रहना समय के साथ धोखा होगा. इसलिए आवाज उठती रहनी चाहिए और ऎसों को बेनकाब किया जाते रहना चाहिए.
रूपसिंह चन्देल
सटीक निरिक्षण!!!
जवाब देंहटाएंऐसा सिर्फ इसलिए कविता दी कि ऐसे सभी लोग साहित्यकार होने से पहले एकदम ही आम इंसान हैं जो अपनी 'बेसिक नेचर' से ऊपर उठ ही नहीं पाते चाहे बातें कितनी भी बड़ी बड़ी कर लें....मनोचिकित्सक इस बात को प्रूव करते हैं कि इंसान की मूल प्रवृत्ति कहीं ना कहीं प्रभाव डालती ही हैं उनके व्यवहार पर.....:)
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