मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

ऐतिहासिक ध्वंस और पुनर्निर्माण : (डॉ.) कविता वाचक्नवी

 2-3 सौ वर्ष पूर्व आई औद्यौगिक क्रान्ति के साथ पश्चिम में साईंस और रिलीजन दो हुए, और रिलीजन के फंदे से कुछ लोग बाहर निकले तथा कुछ आधुनिक होने लगे अन्यथा रिलीजन वालों का उस से पूर्व के लगभग 17-अठारह सौ वर्ष कितना भयंकर कुत्सित एवं क्रूर रूप था, इस का अनुमान आज के आतंकी को देख कर भी आप नहीं लगा सकते। एकदम जंगली, नृशंस और हत्यारा समाज था।

केवल स्त्रियों के प्रति सभी प्रकार के आत्यन्तिक अमानुषिक व्यवहार की ही परत खोलें तो उस समाज की पारिवारिक व पंथानुगत संरचना का कलुषित रूप देखा–सोचा न जा सकेगा। साईंस इसीलिए रिलीजन की शत्रु बनी। उन आत्यन्तिक अमानुषिक कदाचारों व नृशंसताओं के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के चलते तुलनात्मक सन्दर्भों में उस क्रूर काल के घटनाक्रम को पितृसत्तात्मकता के रूप में परिभाषित किया गया। वह अपने समाज पर उन के अपनों का दोषारोपण था।

दुर्भाग्यवश भारत के कुपढ़ों ने, जिन्हें इस पश्चिमी समाज की तत्कालीन संरचना, इतिहास व वास्तविकता का रञ्चमात्र भी अनुमान नहीं, पता होना तो दूर; उन्होंने यहाँ के वर्तमान से सारे आरोप अपने समाज पर आरोपित कर लिए, यहाँ पश्चिम के आयातित विमर्शों, चिन्तन, मुद्दों, बहसों को ज्यों-का-त्यों अपना बना-कह-समझ-लिख कर । इस से बड़ा, क्रूर विद्रूप कोई अन्य नहीं हो सकता था।

जिन मूर्खों को यहाँ के घटनाक्रम, इतिहास, संरचना, समाज का आभास तक नहीं था, वे अपने अन्धे दीदों के मारे अपना अभिशाप समूची भारतीय संस्कृति के मत्थे मढ़ झूठे गवेषक बन गए। और कई भारतीय पीढ़ियाँ अभिशप्त रही हैं इस तथाकथित गवेषणा को ढो अपनी पीठ रक्तिम करते। पितृसत्तात्मक क्रूरता पश्चिम के समाज का इतिहास व अभिशाप थी।

यदि भारतीय इतिहास को ठीक से पढ़ा-जाना होता, और पश्चिमी समाज के इतिहास की वास्तविकता का किञ्चित भी आभास होता तब तो कोई समझ पाता कि रजकण की सूर्य किरण से क्या तुलना ? किन्तु भारतीय समाज के साथ अपने अज्ञान और धूर्ततावश किए इस दुराचार को करने वालों ने जो जघन्य अपराध किया है, उस की गम्भीरता का 1% भी अनुमान आज संस्कृति- संस्कृति चिल्लाने वाले तथाकथित पढ़े-लिखों तक को नहीं है।

हतभागी हैं ये सब पीढ़ियाँ और हतभागी है हमारा क्रीत समाज। ऐसा भयंकर पाप किया गया है। और ऐसा करने वाले अभी चुके नहीं हैं, वे निरन्तर अजस्र उन्हीं स्खलनों में स्वयं भी रत हैं और अन्यों को स्खलित करने की कुचेष्टाओं में भी निमग्न।

इधर भारतीय समाज है कि उसे इस लूट व कदाचार का कोई अनुमान ही नहीं, वह जरा-सी राजनैतिक जीत को ही अपनी परम संतुष्टि का माध्यम व ध्येय मान लेता है, या जरा-सी छुटपुट गति बढ़ने को अपनी परम विजय। ऐसे लोगों का यह जानना अत्यावश्यक है कि आप देश व संस्कृति के साथ खड़े हैं तो यह युद्ध तो अभी पूरा शेष है। युद्ध क्षेत्र में अभी तो आप पूरे डटे तक नहीं हैं। युद्ध अभी शेष हैं, विजय तो उस के बहुत बाद होगी और विजय के बहुत पश्चात् फिर ध्वंस का अनुमान लगाया जाना होगा; तब कहीं जा कर पुनर्निर्माण के कार्यों की नींव रखी जा सकेगी।

इतना धैर्य है न ? नहीं है तो सीखिए अन्यथा विश्व में अन्य कोई शक्ति नहीं है जो उस वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर को खोज या बचा सके। वह धरोहर विलुप्ति की सीमा पर है और विश्व इतिहास आप को व हमें कभी क्षमा नहीं करेगा, किञ्चित नहीं, कदापि नहीं।
© - कविता वाचक्नवी

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