भारत की राजभाषा के चयन का इतिहास : © (डॉ.) कविता वाचक्नवी
आप में से बहुत काम लोग जानते होंगे कि भारत की राजभाषा क्या हो, इस के लिए संविधान समिति और संसद के समक्ष जब विचार प्रारम्भ हुआ तो संस्कृत को ही राजभाषा बनाने का प्रस्ताव सब से मुख्य था। यह कोई किंवदन्ती अथवा अपवाद नहीं, अपितु सत्य है। स्वयं मेरे पिता श्री इस का प्रमाण हैं, जिन से हम इसे गत 55 वर्ष से सुनते आए हैं। तत्कालीन रेडियो /समाचारों आदि के द्वारा इस तथ्य से देशवासी भली प्रकार परिचित करवाए गए थे। पूरा प्रकरण यह है कि अधिकांश नेता, संविधान-समिति के सदस्य और सांसद संस्कृत को ही भारत की राजभाषा बनाए जाने के के पक्ष में थे। यहाँ तक कि समाचार पत्रों आदि में घोषणा भी हो गई थी कि भारत की राजभाषा संस्कृत होगी; क्योंकि संस्कृत को राजभाषा बनाने के प्रस्तावकों में स्वयं संविधान समिति से अम्बेडकर भी सम्मिलित थे।
यदि अम्बेडकर तथा उन सब की बात मान ली गई होती तो आज संस्कृत ही भारत की राजभाषा होती।
उत्तर भारत के कुछ राज्यों के अतिरिक्त देश के समस्त राज्य संस्कृत ही के पक्ष में थे। उत्तर भारत के कुछ लोग जब संस्कृत के विरोध में उतरे, तो संसद में राजभाषा के निर्णय हेतु मतगणना करवानी पड़ी, जिस में संस्कृत तथा हिन्दी को एक समान मत पड़े। भाषा के प्रश्न पर जब संसद दो फोड़ होती दिखी तो उबारने के लिए ऐसी स्थिति में केवल एक मत से हिन्दी को जिताया गया, और वह एक निर्णायक मत था राष्ट्रपति स्व. राजेन्द्र प्रसाद जी का।
इस घटना ने दक्षिण भारतीयों के मन में हिन्दी विरोध का बीज बोने का काम किया.. जिस का परिणाम हम सब अब तक देखते आ रहे हैं। दो भारतीय भाषाओं की लड़ाई दो बिल्लियों की लड़ाई हो चुकी है; जिस में लाभ बन्दर को ही हुआ था। दो भारतीय भाषाओं की लड़ाई का लाभ अंग्रेजी को मिला, मिलता आया है।