स्त्री, यौन-हिंसा व समाज : कविता वाचक्नवी
बलात्कारों के विरुद्ध इतने हंगामे और विरोध के बीच भी गत सप्ताह-भर में कितने बलात्कार भारत में हुए हैं, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रति २० मिनट पर एक स्त्री बलात्कार की शिकार होती है भारत में. यह केवल दर्ज अपराधों का आंकड़ा है. अतः वास्तव में यह दर क्या होगी, इसकी कल्पना से रोंगटे खड़े हो जाएँगे ३, ५ व ८ वर्ष की बच्ची से तो आगामी दिन ही बलात्कार की सूचना समाचारपत्रों में थी.
इसी बीच इम्फाल में १८ दिसंबर को ही एक २२ वर्ष की अभिनेत्री व मॉडल Momoko को भरी भीड़ में से खींच कर उसके साथ यौनिक व्यभिचार के लिए ले जाया गया . इसके विरुद्ध सड़कों पर विरोध के लिए उतरी भीड़ पर पुलिस द्वारा चलाई गयी गोली से दूरदर्शन के एक पत्रकार मारे गए हैं.
इस बार की दिल्ली की यह दुर्घटना छोड़ दें तो इस से पूर्व जब-जब भी महिलाओं के पक्ष में कुछ लिखा तब -तब लोग (अधिकाँश पुरुष बिरादरी ) ताबड़तोड़ विरोध, धमकियाँ, अश्लील टिप्पणियाँ, गाली गलौज करने के लिए जुट जाते रहे हैं. यह हाल आम भारतीय का नहीं बल्कि बहुधा राजनेता, नामचीन लोग, और साहित्य के पहरुए तक महिलाओं के प्रति इतनी अश्लील भाषा, अश्लील व्यवहार, अश्लील लेखन, अश्लील मानसिकता व अश्लील दृष्टि के शिकार हैं कि घिन व शर्म आती है. 'फेसबुक' पर ही मेरे द्वारा गोहाटी वाली घटना का विरोध करने पर 'हेमंत शेष' की आपत्ति व अश्लीलता वाला प्रकरण भी अभी ताजा ही है. दूसरे अनेक ख्यातनामों के किस्से भी साहित्य के लोग जानते ही हैं कि अमुक अमुक की स्त्री के प्रति दृष्टि कैसी है, बातें कैसी व व्यवहार कैसा है.
स्त्री घर में हो, बाजार में हो, कार्यालय में हो, विद्यालय / कॉलेज में हो, बस / गाड़ी में हो, दिन में हो, रात में हो, ब्याही हो, अनब्याही हो, अकेली हो, दुकेली हो ..... प्रत्येक स्थान, प्रत्येक स्थिति व प्रत्येक अवसर /अवस्था में उसके साथ हर आयु वर्ग का पुरुष छेड़ छाड़ से लेकर अश्लील हरकत तक करने में स्वतन्त्र होता है और स्त्री यह सब देखती - झेलती है. ऐसे लोग अपनी क्लीवता, तुच्छताओं, कुंठाओं व दुर्बलताओं के कारण स्त्री को मनुष्य तक होने का अधिकार न देकर घृणित कार्य करते हैं या उस पर शासन करने की हिंसक प्रवृत्ति के शिकार हैं। ऐसे लोग मानव सभ्यता पर कलंक हैं....
फिलहाल दिल्ली के इस बलात्कार व उसके विरोध में उठ खड़े हुए जनसमूह के शोर से आक्रान्त होकर भले ही कुछ लोग अभी देखादेखी या सामाजिकता व दिखावे के लिए स्त्री व उसकी अस्मिता की पक्षधरता में बयान दे रहे हों या स्वयं को शालीन सिद्ध करते हुए स्त्रीपक्षीय छवि गढ़ने में लगे हों...... किन्तु सत्य यही है कि अधिकाँश पुरुषवर्ग स्त्री को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता व उसे 'मनोरंजन व दैनिक उपयोग की वस्तु' के रूप में ही स्वीकार करता है. जब तक समाज के एक एक व्यक्ति का यह कुसंस्कार नहीं दूर होता तब तक स्त्री की दशा भारतीय व दक्षिण एशियाई समाज में कदापि सुधरने वाली नहीं है. सड़कों पर उतरा जनसमूह स्त्री के प्रति मर्यादा का एजेंडा लेकर उसकी पक्षधरता में वस्तुतः नहीं है, अपितु यह विरोध व आन्दोलन भारतीय जनता में भरे जनाक्रोश की अभिव्यक्ति अधिक है. इस जनाक्रोश को सही दिशा देने की आवश्यकता कुछ इस तरह है कि दंड का प्रावधान भी किया जाए और दूसरी और समाज के जन जन को स्त्री के प्रति नैतिक, पारिवारिक, मानवीय, सामाजिक उत्तरदायित्वों की दैनंदिन जीवन में आवश्यकता समझ में आए . अन्यथा स्त्री के विरुद्ध अपराधों का क्रम अपनी जड़ों से सुधरता नहीं दीखता. आमूलचूल परिवर्तन के लिए स्त्री के प्रति एक एक व्यक्ति का रवैया बदलना आवश्यक है. जबतक स्त्री घर परिवार में सही मान सम्मान की अधिकारिणी नहीं बन जाती तब तक समाज व खुले में उसके लिए मान सम्मान की कल्पना वृथा है और अधूरी व दिखावटी रहेगी।