समता की साहित्यिक राजनीति
पूरी परिचर्चा यहाँ पढ़ें - https://www.facebook.com/kvachaknavee/posts/10151061875404523
लगभग 6 घंटे पूर्व मैंने यहीं पर कल रात अपनी देखी एक फिल्म की चर्चा करते हुए लिखा था कि साहित्य और कला मानवीय संवेदना को जीवित रखते हैं, परिष्कृत और परिमार्जित करते है व दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाने का कार्य करते हैं जो अधिक मानवीय और अधिक संवेदनशील होती है।
दूसरी ओर यह एक भयावह सच व आज की बहुत बड़ी विडम्बना (विशेषतः हिन्दी के साहित्यिक संदर्भों में ) यही है कि संवेदना को जीवित रखने का सामर्थ्य रखने वाले साहित्य के क्षेत्र से जुड़े लोग ही स्वयं बेहद संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित, जड़ और स्वार्थी हो चुके हैं। उनकी महत्वाकांक्षा, स्वार्थ व हर कीमत पर लाभ की मानसिकता ने उन्हें बेहद छोटा व जड़ बना दिया है। इसीलिए आज साहित्य में शायद वह शक्ति नहीं बची जो लोगों का हृदय परिवर्तन कर सके।
समाज में राजनीति के बंटाधार और भयावह रूप से तो हम सब परिचित हैं ही कि कैसे वह अपराधियों की शरण स्थली बन चुकी है किन्तु साहित्य ... ! राजनीति की तरह साहित्य में भी अब अपराधियों और दोषियों को निर्दोष, निष्पाप या कि निष्कलंक साबित करने वाले लोग आसानी व बहुतायत से मौजूद हैं।
जैसे गुवाहाटी में एक लड़की के साथ अभद्रता करने के बाद कई लोग ऐसे भी थे जो लड़की को ही गलत बता रहे थे।
उसी तरह (व राजनीति की भांति) हिन्दी साहित्य में भी रंगे सियारों को महापुरुष सिद्ध करने वाले उनके कुकृत्यों और पापों को धोने के पवित्र कर्म में लगे हुए हैं। क्योंकि ऐसी दोस्तियाँ निभाने के बाद बड़े प्रतिफल मिलने की संभावना बनी रहती है। कई माह पूर्व महिलाओं को लेकर एक प्रतिष्ठित पत्रिका में कहे गए अपशब्दों वाले राष्ट्रीय प्रकरण में साहित्यिक समाज यह देख चुका है।
... तो पिछले दिनों इसी मंच पर एक अभद्र, अशालीन और बदतमीज किस्म के अफसर-कवि ने महिला रचनाकारों के बारे में अपनी जहालत और स्त्री विरोधी मानसिकता जिस तरह प्रदर्शित की, उसका प्रतिवाद यहाँ उपस्थित अनेक समर्थ रचनाकारों ने किया। एक अफसरवादी समीक्षक तो आखिरी दम तक उसके पक्ष में लड़ते ही रहे।
... अब उसी दाग़दार लेखक की छवि चमकाने के लिए नये किस्म के साहित्यिक प्रयास हो रहे हैं... इस तरह कई लेखक-संपादकों की महिला विरोधी मानसिकताएँ सामने आ रही हैं। कुछ लेखिकाएँ भी उनके साथ हैं, यह मर्दवाद और अपराधी मानसिकता का खुला समर्थन है। लोग इसे देख-समझ रहे हैं, देखें कब किसे सुध आती है....!
क्या ऐसे लेखकों, संपादकों और पत्र-पत्रिकाओं से समाज हितकारी किसी सार्थक साहित्य की उम्मीद की जा सकती है ?
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