सोमवार, 15 अगस्त 2011

ब्रिटेन में बवाल की गुत्थियाँ : कविता वाचक्नवी

ब्रिटेन में बवाल की गुत्थियाँ
  - कविता वाचक्नवी


गत दिनों ब्रिटेन में घटी लूटपाट और  दंगाफसाद की घटनाओं ने सारे विश्व का ध्यान इस ओर खींचा। लंदन में रहने वाले अपनों की चिंता में उनके आत्मीयों ने संपर्क कर हाल चाल जाने और इस सारे बवाल की जड़ और कारणों की भी पूछताछ की। लोगों ने इन्हें गंभीरता से जानना चाहा। उसी का परिणाम थे, इस अवधि में लिखे गए मेरे ये तीन लेख -

शहर आग की लपटों में - 1
शहर आग की लपटों में - 2 

उक्त लेखमाला के समापन के पश्चात् एक लंबा ईमेल अभिषेक अवतंस जी का आया जिसमें उन्होंने इस पूरे घटनाक्रम के कारणों को अपने तरीके से देखते हुए कुछ और जिज्ञासा की। वह ईमेल इस आलेख के नीचे यथावत् अंकित है। उन्हें लगता है कि मेरे उक्त लेखों में बताए गए कारणों के अतिरिक्त भी और कई छिपे हुए कारण हैं जिनकी अनदेखी की गई। और-और कारणों व उनके लिंक्स से जुड़े तथ्यों को प्रश्नांकित करता उनका ईमेल मुझे काफी सीमा तक अकारण संदेह में गोते खाते कुछ ढूँढ निकालने की कवायद-सा लगा। अब जरा उस पर विचार कर लिया जाए। 


सच है कि दंगे ( वस्तुतः ये दंगे नहीं लूटमार और शैतानी /`फ़न' के लिए किया कहा जा रहा है इन्हें ) क्यों हुए, उसके कारणों के तो विस्तृत कारण कई होंगे ही। क्यों कि प्रत्येक क्यों के पीछे क्यों लगाई जाए तो कई सारे क्यों के कारण निकलते हैं; जैसे `नई पीढ़ी निरंकुश है' ; तो `क्यों निरंकुश है' , कहा जाएगा कि `उन्हें कानून का डर नहीं'  है। तो `डर क्यों नहीं है' और `कानून क्यों ऐसा है' के प्रश्न उठेंगे। इसके पीछे शायद 50 से अधिक मुद्दे होंगे, कि कानून इसलिए ऐसा है कि ... (5-6 सामाजिक और सैद्धान्तिक कारण तो अभी ही मुझे सूझ रहे हैं) और `बच्चे ऐसे क्यों हैं' के 30 से अधिक कारण समझ पड़ रहे हैं, गिनाए जा सकते हैं। फिर बच्चों के आयु वर्ग, उनके भाषा वर्ग, उनके आर्थिक और भौगोलिक वर्ग और उन सब की संस्कृतियों और पारिवारिक सामाजिक बुनावट, उनकी समस्याएँ, नए समाज में विलय, दूरियाँ, इन दूरियों के कारक, ... और पता नहीं क्या क्या .... 


दूसरी बात, यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि मैं राष्ट्रभक्त व्यक्ति हूँ और भारत व भारतीयता से प्रेम करती हूँ। बात इतने पर ही समाप्त नहीं होती। इसके साथ ही मैं उस प्रत्येक राष्ट्र का उतना ही सम्मान करती हूँ जो राष्ट्र अपने राष्ट्र को वरीयता देता है, प्रेम करता है। दूसरे के देश में घुस कर, रह कर और गद्दारी कर के नहीं बल्कि स्वाभिमान के रूप में। 


भारत का यह दुर्भाग्य है कि `देश' किसी के एजेंडे में नहीं होता। देश-देश नाम रट कर, उस की बात तो बहुत से लोग करते हैं किन्तु जब कुछ करने की बारी आए तो अंततः 95 % से अधिक लोग केवल स्वार्थ और किसी अन्य/छद्म/गोपन उद्देश्य में संलिप्त हैं। अमेरिका के वर्चस्व को गाली देते हैं क्योंकि उसकी चीन से प्रतिद्वंद्विता है। चीन को उठाने के लिए भारत का एक बड़ा वर्ग अमेरिका को धिक्कारता आया है। भला कोई पूछे कि अमेरिका क्या भारत का शत्रु देश है ? जबकि चीन है, उसने आक्रमण कर के इसे घोषित भी किया और आज तक भारत पर गिद्ध दृष्टि जमाए है। इस कारण व ऐसे ही कुछ तथ्यों के कारण,  कोई मुझे पूछे तो, मैं अमेरिका का पक्ष लूँगी। 


संसार में मानवतावाद का नाम लेकर छद्म राजनीति करने वालों की भरमार है। और ये सब के सब लोग वही हैं जिन्हें मात्र दूसरों का कुछ न कुछ हड़पने की लालसा अधिक है। हमारा अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग बिकाऊ है , बिका हुआ है या मानसिक दिवालियापन का शिकार है; और ऊपर से विशेष बात यह कि उसे देश-वेश से कहीं कोई वास्ता नहीं। 


अब, ऐसे देश, जो देश भक्त हैं, शांत और उदार भी ( पाकिस्तान, चीन, अरब और अन्य मुस्लिम देशों की भांति कट्टर, अशांत, वर्चस्व की घातों में लिप्त और भारत के लिए खतरा नहीं ), ये यदि अपने यहाँ अतिक्रमण, नियम, गैरकानूनी कार्य/चीजें/अपराध... जैसी हजारों हजार चीजें अपने देश के हित में कम  अथवा प्रतिबंधित करना चाहते हैं और बाहर से आए हुए लोगों को समान अवसर भी देते हैं, छल कर के नियमित लाखों लोग जो छिप कर घुसते चले आ रहे हैं, उन पर भी पकड़े जाने पर नियमानुसार कार्यवाही करते हैं;  तो क्या बुरा करते हैं ? क्या भारत की तरह बांग्ला देश और अफगानिस्तान, नेपाल और जाने किस-किस स्थान और रास्ते से आने वालों को अपनी छाती पर बैठाकर दामाद की तरह झेलते हुए सब कुछ बर्बाद होने दें ? आपको अनुमान भी न होगा कि कड़े नियमों के बावजूद कितने प्रकार की धोखेबाज़ी से किन-किन देशों के लाखों लोग यहाँ कैसे छिप कर भितरघात कर रहे हैं। लंदन में ही जैसे अलग-अलग स्थान मिनी.... और मिनी .... बन चुके हैं, कहे जाते हैं । इन देशों से आए लोगों का 70 प्रतिशत आपराधिक तरीके से घुसा हुआ है और आपराधिक गतिविधियों में या लुके छिपे किए जाने वाले कामों में लगा है।


हर देश की पुलिस, संविधान और व्यवस्था का सम्मान किया जाना चाहिए, हम भारतीय तो अपने यहाँ किसी का करते नहीं, व्यवस्था और कानून तो वहाँ क्या ही कहने, जनता में आत्मानुशासन का पूरी तरह अभाव है, ऐसे में दूसरे देशों की न्यायव्यवस्था, उसकी समस्याएँ, (विकसित देश होने के कारण निरंतर होती उन लोगों की घुसपैठ, जो किसी नियम कानून, अनुशासन, व्यवस्था, ईमानदारी जैसे चीज में दीक्षित ही नहीं होते, से उपजे समाज सांस्कृतिक, आर्थिक आदि संकट ) का अनुमान भी नहीं लगा सकते। हमें तो किसी देश की व्यवस्था और ईमानदारी की प्रशंसा ऐसे लगती है जैसे भारत को किसी ने छोटा दिखा दिया। जबकि होना यह चाहिए कि हमें भी अपने देश में वैसी व्यवस्था और कड़ाई बरतनी चाहिए, अतिक्रमण रोक कर राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखना चाहिए। हम नहीं रखते क्योंकि ........ ( इस क्योंकि के कई कारण हैं। उनकी मीमांसा में नहीं जाना चाहती) और कोई दूसरा अपनी व्यवस्था और नियम के चलते संविधान के पालन में जुटा हो और कुछ कार्यवाही कर रहा हो तो उस पर अपनी आदत के चलते आपत्ति करते हैं। जो लोग जिस देश में रहते हैं, उस देश के नियम का यदि पालन नहीं कर सकते तो वे सब द्रोही हैं। मुझे इस देश की व्यवस्था पर बहुधा भरोसा है। यहाँ तय है कि तब तक किसी को कुछ नहीं हो सकता जब तक वह कोई गैर-कानूनी काम नहीं कर रहा। भारत के परिप्रेक्ष्य में इसे समझाना-समझना अत्यंत कठिन है। लगता है हमारे पास इसका कॉन्सेप्ट ही नहीं है। 


अभिषेक जी ने अश्वेत जनता के नाखुश होने की बात लिखी है; तो केवल वही वर्ग नहीं अपितु और भी बहुत से लोग / वर्ग भी नाखुश हैं, होंगे, होते हैं। ऐसा हर व्यक्ति उस स्थान पर नाखुश मिल जाएगा जो स्वयं खुशी में भागीदारी नहीं कर रहा होता। मेरे घर में प्रत्येक वह व्यक्ति नाखुश हो सकता है जो अपने दायित्व ठीक से नहीं निभाएगा। वह भले बाहर से आया हुआ व्यक्ति हो या स्वयं घर का ही। साथ ही प्रत्येक वह सदस्य भी नाखुश होगा जो घर में बिना दायित्व किए अधिकार पाने वालों से कुछ कर्तव्य की आशा करता है या गृहस्वामी से ऐसा नियम लागू करवाने की। 


अभिषेक जी ने दंगों को गरीबी की बेल्ट से जोड़ कर देखना चाहा है।  कोई अन्य इसे ऐसे भी क्यों नहीं देख पाता कि किसी वर्ग-विशेष की बहुलता वाले क्षेत्र (बेल्ट ) से ही ऐसा क्यों होता है? गरीबी है तो उसका कोई एक कारण होता है क्या ? यहाँ तो गरीब होकर लोग कितना कुछ बिना मेहनत किए आराम से पाते हुए मौज कर सकते हैं। बहुत बड़ा वर्ग निष्क्रिय हो कर इसी लिए अपना कोई योगदान नहीं देता। देश के नागरिक ऐसी कथित गरीबों के पालन का बोझ उठाते उठाते बेहाल हो चुके हैं। इसका ही प्रतिफल है कि देश आर्थिक खोखला हो रहा है और पूर्ति के लिए जो मार्ग अपनाए जा रहे हैं वे और भी संत्रस्त करने वाले हैं। और हाँ, गरीबी वस्तुत: इस संदर्भ में एक सापेक्ष अवधारण है। भारत में गरीबी की अवधारणा से भिन्न। यह गरीबी यूके के सामान्य स्तर ( जो भारत का उच्च मध्यवर्ग है ) से कम होने मात्र को परिभाषित करती है। 


रही प्रधानमंत्री की बात, तो जब वे कह रहे हैं कि दंगों के कारक और क्यों का उत्तर इतना सरल नहीं है तो वास्तव में नहीं है। लेकिन अ-सरल होने के उन कारकों को ; जिनकी ओर उनका संकेत है, आप इतनी सरलता से ताड़ नहीं सकते जितनी सरलता से इन्हें कुछ चीजों से जुड़ता (ईमेल में ) लग रहा है । अभिषेक जी तो उलटे इसे अत्यंत सरल सिद्ध कर रहे हैं। जबकि क्यों का उत्तर और अ-सरल होने की बात का जो मंतव्य है, वह अधिकांशतः देश में ऊपर लिखी स्थितियों से जुड़े मुद्दे, परिणाम आदि के साथ साथ, तीनों लेखों में रेखांकित उदारवादी नीतियों के चलते पनपी निरंकुशता और नई पीढ़ी में इस निरंकुशता का आधिक्य आदि है। फिर इस निरंकुशता के भी कई कारण हैं। संवैधानिक स्थिति का तो मैंने लिखा ही है कि अपराध करके दंड का भय न होना बड़ा कारण है। आधुनिक समाजों में टूटते परिवार भी बड़ा कारण हैं। संस्कार हीनता का दौर भी कारण है। बिना श्रम किए सरकारी सुविधाओं पर मौज मस्ती करने वालों को देख कर समाज के अन्य अंगों में निरुत्साह की प्रवृत्ति और विद्वेष, ड्रग्स के धंधो का बढ़ता बाजार और लत, इन लोगों द्वारा लूटपाट और ड्रग्स के धंधे के लिए बनाए गए गैंग और उनकी गतिविधियाँ,  और  मूल्यों का निरंतर छीजना। ये चीजें हैं जिनके चलते प्रधानमंत्री का कथन सही ही है । मुझे Portage, Indiana से एक  युवती मैत्रेयी ने लिखा - "मुझे डेविड कैमेरून का वक्तव्य और पार्लियामेंट में लम्बे डिबेट भी बहुत आश्चर्य जनक लगे. क्योंकि मूल्यों के बारे में, और बच्चों को पालने में  माता पिता के ज़िम्मेदारी के बारे में देश के नेता बात करें, आज के दिनों में यह इतना दुर्लभ है. नैतिक मूल्यों के बारे में चर्चा आखिरी बार कब हुआ था याद नहीं हैं. पुराने फैशन की, गाँधी जी- नेहरु जी के दिनों कि बात लगती है अगर कोई देश का नेता इनका ज़िक्र करे." 


इसलिए,  देश की बुनावट और बनावट को समझने के लिए अश्वेतों की गरीबी, नाराजगी जैसे तथ्य केवल ऊपरी बातें हैं। मुझे नहीं पता कि भारत का मीडिया क्या दिखा रहा है, और हिन्दी चैनल... बाप रे बाप ! सारा का सारा दृश्य श्रव्य मीडिया लगभग बिका हुआ है और ऊपरी बातें करके `टाईमपास' करने, बेवकूफ बनाने और अपने स्वामियों के मत में मत देने को बाधित है। 




अभी पूरा ब्रिटेन का नागरिक समाज और  देश एकजुट हो कर एक-एक की धरपकड़ में सहयोग के लिए जुटा हुआ है। छोटी-से-छोटी भागीदारी या मूक दर्शक की तरह वहाँ उपस्थित होने जितनी भागीदारी वाले को भी बख्शा नहीं जा रहा। यहाँ तक की 2 टीशर्ट चुराने वाला एक अध्यापक तक सदा के लिए क्रिमिनल रेकॉर्ड वालों में सम्मिलित हो गया है। फेस रिकग्नीश्न विधि से, सी सी टीवी फुटेज, वीडियोज़, फिंगर प्रिंट्स, मीडिया के चित्र, गए सामान की बरामदगी द्वारा उसके टैग का कंप्यूटर न. निकाल उठाईगीरों तक पहुँच  - जैसी विधियों के चलते बख्शा तो कोई नहीं जा रहा। वैसे भी यहाँ एक-एक व्यक्ति का रेकॉर्ड होता है, उसका अपना एक आयडेंटिटी रेकॉर्ड, उसका क्रेडेट रेकॉर्ड, NHS और पुलिस के पास रेकॉर्ड, जैसे बीसियों कम्प्यूटरीकृत सिस्टम में उपलब्ध जुड़े हुए प्रत्येक विवरण। इसलिए धरपकड़ कोई बहुत कठिन चीज नहीं है।

कमी है तो बस एक चीज की कि उदारता, कानून का कड़ा न होना, मुक्त समाज-व्यवस्था, सामाजिक पारिवारिक टूटन के चलते नई पीढ़ी के साथ जुड़ी विसंगतियाँ, आर्थिक व संसाधनात्मक लाभ लेने वालों की भरमार, ऊपर से उनके हित में बने कानून के चलते सरकार के बंधे हाथ, उस से सरकार व उन वर्गों के प्रति उपजता विद्रोह .... आदि जैसे कारण। इनके चलते स्थाई समाधान देने में सफल होंगे भी या नहीं, कब होंगे, कैसे होंगे जैसे अनिश्चित संभाव्यों वाले समाधान की विवशता !!


इस सब के बावजूद आम नागरिक का जीवन बेहद शांत, देश का वातवरण तनाव, भय व चिंता से अधिकांशतः मुक्त ही है। जो हुआ है वह शैतानियों के चलते हुआ है। अन्यथा सामान्य जनजीवन बहुधा निरापद है। इस घटनाक्रम के बाद एकजुट होकर सहयोग करते लोगों का अवदान और दाय अनुकरणीय व अनुपम है। यही वह तत्व है जो बड़े से बड़े कुचक्र को भी परास्त करने की शक्ति रखता है। 


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From: Abhishek Avtans (abhiavtans@gmail.com)
To: Dr.Kavita Vachaknavee(.....................com)
Sent: Friday, 12 August 2011, 23:06
Subject: (3) " शहर आग की लपटों में" - 3


कविता जी
नमस्कार

लंदन के दंगों से जुड़े आपके तीनों आलेखों को हिन्दी विमर्श के माध्यम से पढ़ने का मौका मिला। सचमुच लंदन के दंगे निन्दनीय हैं। लूटपाट और हिंसा को कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता है परन्तु पूरे प्रकरण को आपराधिक अवसरवादिता करार देने से मुझे इनकार है। लंदन के दंगों से जुड़े कुछ और पहलू पेश है:

१. अप्रैल 2011 में अश्वेत रैप गायक स्माइली कल्चर की पुलिस के हाथों मौत के बाद 2000 से अधिक अश्वेत लोगों की हिस्सेदारी में एक बहुत बड़ा अहिंसक और शांतिपूर्ण प्रदर्शन स्कॉटलैंड यार्ड में आयोजित किया गया था पर जिसे शायद ही किसी ने गंभीरता से लिया था। यहाँ देखें खबर

२. दक्षिणी लंदन की अश्वेत जनता IPCC पर भरोसा नहीं करती और पुलिस के स्टॉप एण्ड सर्च कार्यक्रमों से नाखुश है। यहा देखें राय

२. टॉटनहम जहाँ दंगों की शुरूवात हुई थी, वहाँ बाल गरीबी के आँकड़े पूरे लंदन में चौथे स्थान पर हैं और वयस्क बेरोजगारी राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है। देखें यहाँ रिपोर्ट

३. OECD के अनुसार यू.के. में सामाजिक गतिशीलता अन्य समृद्ध विकसित देशों के मुकाबले कम है यानी गरीब घरों के बच्चे आमतौर पर अंतत: गरीब ही रह जाते हैं। देखें यहाँ रिपोर्ट 

४. उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से लूट्पाट का मुख्य निशाना मुख्य रूप से बड़े स्टोर थे और लूटपाट को अंजाम देने वालों वयस्कों और किशोरों का सारा ध्यान महंगे फैशनेबल कपड़ों, जूतों, स्मार्टफोन, लैपटॉप, फ्लैटस्क्रीन टी.वी. आदि पर था। उनके लूटपाट का मकसद पेट भरना न हो कर हर कीमत पर ब्रांडेड उपभोक्ता उत्पादों को हासिल कर उच्चतर प्रतिष्ठा प्राप्त करना था। देखें यह खबर

५. भविष्य के प्रति निराशावादिता और अपने हमउम्रों के सामने इज्जत पाने की होड़ में कई युवा दंगों में शामिल हुए। देखे खबर
कुल मिलाकर कहा जाए तो लंदन में दंगे क्यूँ हुए इसका जवाब इतना सरल नहीं है जैसा कि प्रधानमंत्री डेविड केमरोन कह रहें हैं।


सादर
अभिषेक अवतंस

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

"शहर आग की लपटों में" - 3

"शहर आग की लपटों में" - 3 
 - कविता वाचक्नवी 



गत दो तीन दिनों में लंदन व ब्रिटेन की बिगड़ी स्थितियों पर लिखे गए मेरे 2 लेखों 
शहर आग की लपटों में

तथा
शहर आग की लपटों में - 2  के पश्चात् अब अंतिम भाग -



कल के भाग को पढ़ कर केलॉन्ग के अजेय कुमार जी ने एक वीडियो दिखा कर पूछा है कि -
"  लेकिन क्या इस बुज़ुर्ग का आक्रोश नकली है ? ( see  वीडियो )"

तो इस प्रकार "शहर आग की लपटों में" की तीसरी कड़ी का सूत्रपात हुआ।

उनका संदर्भित विडियो देखा। जो युवक मारा गया है, उसके बारे में कुछ कहना समीचीन नहीं होगा। अच्छा होता कि वे इस वीडियो पर 2 दिन में आए लगभग तीन करोड़ लोग और उनके लगभग 49 हजार कमेंट्स भी देखते। जिस व्यक्तिविशेष पर ये सज्जन बोले हैं, उसका भी जिक्र वहाँ है। यदि इनकी बात थोड़ी देर को मान भी ली जाए तो क्या ऐसा लगता नहीं कि  वह कितनी निराधार है; क्योंकि जिस देश में एक व्यक्ति ( जो कोई सेलेब्रिटी या उस तरह का प्रख्यात व्यक्ति नहीं था ) के मरने के कारण बवाल का यह हाल है और पुलिस बल प्रयोग बहुधा नहीं कर रही, उस देश में युवाओं को कितने विशेषाधिकार प्राप्त होंगे / हैं ! इसलिए युवाओं वाला मुद्दा तो एकदम निराधार और बेमतलब है। वस्तुतः विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति को जरा-सी खरोच भी (भले ही उसके अपने कारणों से आए) नागवार गुजरती है। और ऐसे समय में, जब देश की आम जनता से सदा से प्राप्त सहानुभूति और अनुकंपा छिनती दिखाई देती हो, तब यही हाल होता है। ... क्योंकि लूटपाट करने वाले दंगाई अधिकांश वर्ग-विशेष के थे। बहती गंगा में हाथ धोने के लिए विशेषाधिकार प्राप्त युवावर्ग भी उसमें जुड़ गया। 21 वर्ष से छोटे व्यक्ति बड़े से बड़ा गुनाह करके भी इस विशेषाधिकार के चलते निश्चिंत रहते आए हैं यहाँ। इसी संवैधानिक प्रावधान को बदलने की माँग इन घटनाओं के कारण अब ज़ोर पकड़ रही है ।


मेरी इस राय पर अजेय जी ने पुनः प्रतिप्रश्न किया है कि -

जी, चीज़ें काफी स्पष्ट हुई हैं. .कानूनी प्रवधानो ने इस प्रकरण को काफी सपोर्ट किया लगता है. कृपया एक बात का खुलासा करें - *वर्ग विशेष* और *विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग* क्या आप 21 वर्ष से कम आयु वालो के लिये कर रही हैं ? या वहाँ कुछ विशेष समुदायों (नस्ल) को विशेष अधिकार प्राप्त हैं?
महज़ वहाँ की सामाजिक / राजनैतिक व्यवस्थाओं को समझने की गरज़ से पूछ रहा हूँ . "


21 वर्ष तक की आयु वाले भी इस वर्ग में आते हैं और मूलत: दक्षिण अफ्रीकी देशों के नागरिक इस अर्थ में विशेषाधिकार पाए हुए चले आए हैं कि यहाँ का समाज सदा से उन्हें निरीह और वंचित मान कर उनके प्रति आवश्यकता से अधिक उदारता अपनाता चला आया है, जिसका प्रतिफल यह हुआ कि इसका नाजायज लाभ लेने की प्रवृत्ति बहुधा अधिकांश में है। यहाँ के नियमानुसार बेरोजगारों और कम आय वर्ग के लोगों को इतनी सुविधाएँ प्राप्त हैं कि भारत में कोई लखपति भी उनसे ईर्ष्या करे। आपराधिक से आपराधिक मामलों में छोटी आयु वालों को दंड न देने का प्रावधान जैसी बीसियों व्यवस्थाओं के चलते ऐसे लोगों के गैंग बने हुए हैं जो हत्या, ड्रग्स, माफिया, लूटपाट, राहजनी कर के अपने विशेषाधिकार, चालाकी, व्यवस्था, आकार-प्रकार और बल में अधिक होने जैसे कई मिले जुले कारणों से निर्द्वंद्व रहते मौज उड़ाते हैं। पुलिस बहुधा अन आर्म्ड रहती है। दंड एक तो कम हैं, ऊपर से वे ऐसे हैं कि उनमें मानवीयता वाले मुद्दों के चलते अपराधियों को विशेष कष्ट नहीं और हानि नहीं होती।


ऐसे जानबूझ कर बेरोजगार रहने वाले लाखों को पालते पालते और अपनी उदारवादी नीतियों के चलते यह देश लुट-पिट गया है। कई चीजें ऐसी हैं कि उनका उल्लेख तक नहीं किया जा सकता कि कैसे व कौन से चालाक और शातिर लोग अनुशासित और उदारवादी व्यवस्था व देश का क्या क्या लाभ उठा रहे हैं। ऐसे में अब जब यहाँ देश की अधिकांश अर्थव्यवस्था `ऐसे 'लोगों का बोझ उठाते दोहरी हो चुकी है, देश आर्थिक तंगी की मार से जूझ रहा है, यहाँ के अपने हजारों लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं तो उनका सरकार के प्रति भी एक आक्रोश पनप रहा है कि भयंकर भारी टैक्स देने वाले इस देश के नागरिक क्यों अपराधियों और नाजायज लाभ उठाने वालों को सरकार को पालने दे रहे हैं। वस्तुतः जिसे हम लोग भारत में नस्लीभेद कह कर आरोपित करते हैं, वह भेद नस्ल और रंग का तो नाममात्र का है। असल में उसका दायित्व बाहर से आए उन अधिकांश लोगों की मानसिकता पर अधिक है जो अपने कपट, चालाकी, धूर्तता और हर कीमत पर लाभ उठाने की प्रवृत्ति के चलते कई आपराधिक चीजों में संलग्न है। उसका प्रतिफल हर उस वर्ग के लोगों को भोगना पड़ता है जो उस नस्ल से संबन्धित हैं। ऐसे में घुन के साथ कुछ गेहूँ तो पिसेगी ही।


मजे की बात यह है कि इन घटनाओं के बाद जहाँ एक ओर जीवनमूल्यों, दंड के प्रावधानों, कानून, समाज -व्यवस्था, भत्तों और सुविधाओं के पुनरीक्षण, पुलिस की सीमारेखा, आव्रजन के नियम.... जैसे मुद्दों पर पूरा देश तीव्र विमर्श में लग गया है वहीं एक तो ऐसे लोगों के सामाजिक बहिष्कार का स्वर मुखर हुआ है दूसरी ओर अभी भी ऐसे लोगों की बहुलता है जो इसलिए शर्मिंदा हैं कि बाहर के गरीब देशों से आए लोग तो अपनी प्रवृत्ति के चलते ऐसे हैं ही, किन्तु हमारे देश के लोगों ने (अर्थात् मूल ब्रिटिश ) ने कैसे इसमें भागीदारी की, देश का बड़ा युवावर्ग इस बात पर लज्जित है और अभी भी साथ देने वाले उन गोरे ब्रिटिशों को अधिक घृणा की दृष्टि से देख रहा है। है न अजीब बात ! मुझे यह ठीक वैसा लगता है जैसे हमारे यहाँ बहुधा लड़कियों महिलाओं को अपने को बचाकर रखने की सीख देते हुए कहते हैं कि पुरुष का क्या वह तो होते ही ऐसे हैं। इस में सीख यद्यपि महिलाओं को दी जाती होती है किन्तु निकृष्टता पुरुषवर्ग  की रेखांकित की जा रही होती है; एक प्रकार से इस तरह कि जैसे वह तो लाईलाज प्राणी है !


 अस्तु ! आम जनता जत्थे के जत्थे बना कर  टूटे- फूटे घरों, दुकानों, बाज़ारों की मुरम्मत के अभियान में स्वेच्छा से जुटी हुई है, सामान और सहायता भेंट की जा रही हैं।  पुलिस और सरकार की ओर से धरपकड़ के अभियान अबाध  चल रहे हैं, घर घर की तलाशी हो रही है जहाँ लोगों के साथ साथ चोरी हुए सामान को पहचान कर गिरफ्तारियाँ निरंतर जारी हैं। आम नागरिकों ने सहयोग के लिए अपने अपने निजी कैमरों से लिए वीडियो भी  इस लूट में भागीदारों को चीन्हने और उनकी धरपकड़ में सहयोग करने की भावना से सार्वजनिक कर दिए हैं। सहयोग और स्थितियों को वापस लाने के अभियान में पूरा देश एकजुट हो कर लगा है। सरकार ने नाबालिगों को दंड में छूट के अपने प्रावधान पर कहा है कि इस लूट व फसाद में भागी रहे वे व्यक्ति जो नाबालिग थे  ऐसे अपराध के लिए सक्षम और समर्थ हैं और लूट करने लायक बड़े हो गए हैं तो दंड भोगने  के लिए भी वे पर्याप्त बड़े माने जाएँगे। ब्रिटेन के अन्य कुछ नगरों में भी जबकि लूटपाट जारी है किन्तु साथ ही नियंत्रण और सुचारु करने के अभियान भी। पुलिस, जनता, सरकार आदि की भूमिकाओं की मीमांसा तीखी और तीव्र होती जा रही है ।

यह वीडियो सर्वाधिक शर्मिंदगी का सबब बना - 

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गुरुवार, 11 अगस्त 2011

`शहर आग की लपटों में' - 2

शहर आग की लपटों में - 2

- कविता वाचक्नवी




गतांक से आगे 

कल के लेख   शहर आग की लपटों में  को पढ़ कर अनेक मित्रों और पाठकों की अलग अलग प्रकार से प्रतिक्रिया आई हैं। कुछ लोग राहत अनुभव कर रहे हैं कि हम सुरक्षित हैं। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस विषय को गहराई से समझने के लिए निरंतर संवाद बनाए हुए हैं और अधिकाधिक जानना चाहते हैं। 


हिमाचल से एक परिचित अजेय जी ने (यह लिखते हुए     " ब्रिटेन के कई हिस्सों को दंगों की आग में झुलसाने वाले ज्यादातर लोग अफ्रीकी कैरेबियाई मूल के हैं. लंदन के टोटेनहम से शुरू हुए बवाल को इन्हीं लोगों ने हवा दी और अब पूरा ब्रिटेन दंगों की आग में झुलस रहा है. सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी ऐसे में आग में घी डालने का काम करते हैं. दंगे काबू हो भी जाए लेकिन ज़ख़्म भरने में बहुत वक्त लगेंगे . ऐसे हादसों से यही साबित होता है कि इंसान जितना मर्जी सभी हो जाए भीतर के जानवर से छुटकारा नही पा सका है. ..बॉब मार्ले का *बफ्फेलो सोल्जर* याद आता है . सभ्यता जात्यों, समूहों और नस्लों के साथ कैसा व्यवहार करती है ! आश्चर्य. मनुष्य के विकास मे कोई बुनियादी त्रुटि रह गई है........ ये दबी हुई चिंगियाँ, ये ज़ख्म कब खत्म होंगे ?" ) पूछा है कि -

" डॉ. कविता वाचक्नवी, क्या ये दंगे पोलिटिकली मोटिवेटेड भी हो सकते हैं ? जैसा कि हमारे यहाँ होते हैं ...."

मैंने उन्हें बताया कि ऐसा कदापि नहीं है। किन्तु इस पर उन्होंने फिर कहा "मतलब इंग्लेंड के राजनीतिज्ञ ज़्यादा * सभ्य* टोटके अपनाते हैं ......" 

मैंने पुनः समाधान करना उचित समझा और लिखा कि "राजनीति का वैसा अपराधीकरण नहीं हुआ है। भारत की राजनीति की तुलना में तो 10% भी नहीं।" 


इस पर और भी कई प्रश्न उठ खड़े हुए कि  - 

- क्या ये ग्रुप्स स्वयम संगठित हैं ? 

- क्या इन का कोई इंस्टिट्यूशनल आधार नही है ?

- क्या इन के कोई नेता नही है जो इन को वित्तीय और सत्ता परक सुरक्षा सुनिश्चित करते हों ?

इन बातों के  समाधान के लिए यह जानना रोचक होगा कि ये `ग्रुप्स' भले दिखाई देते हैं, वस्तुतः कोई ग्रुप है नहीं। संगठित होने या संगठन की बात तो दूर की है। यह तो एक प्रकार से लूट के अवसर पर भीड़ की मानसिकता जैसी स्थिति है। स्थान-स्थान पर लूट की मानसिकता वाले जो लोग रहते हैं, वे मौके का लाभ उठाने के लिए अपने मित्रों-परिचितों को ठीक उसी भावना से उकसा रहे हैं जैसे पियक्कड़ किसी नए परिचित को अपनी जेब से  खर्च कर भी पीने के लिए उकसाते हैं। `मुद्दा' या `इश्यू' जैसी किसी अवधारणा का इन्हें पता नहीं है।  
   

और रही बात वित्तीय या सत्तापरक सुरक्षा की, तो कोई माई का लाल इन्हें वित्तीय या सत्तापरक सुरक्षा उपलब्ध करवाने की सोच भी नहीं सकता। अपितु पूरे देश का युवावर्ग,प्रौढ़,युवतियाँ, गृहस्थ, समाजशास्त्री, राजनयिक, आम दुकानदार, बच्चे, बूढ़े सब के सब इस लूट, गतिविधि व मानसिकता  के विरोधी हैं। मूक विरोधी ही नहीं अपितु लोग खुल कर इसका विरोध और चिंता व्यक्त कर रहे हैं। सब के सब पक्ष, दल, समाज के विभिन्न  वर्गों आदि ने इसे समाज विरोधी और अनैतिक करार दिया है। पूरे देश में लोग खुल कर इसकी निंदा करते दिखाई दे रहे हैं। आप किसी भी समाचार एजेंसी या चैनल, साईट आदि पर इस घटना से संबन्धित एक-एक समाचार के साथ हजारों की संख्या में धड़ाधड़ आती टिप्पणियों से, समाज द्वारा इस अनैतिकता का बहिष्कार देख सकते हैं। आम आदमी, धनी वर्ग, महिलाएँ, अभिनेता, अधिकारी आदि सैकड़ों तरह के लोग विजिलेन्स ग्रुप्स बना कर और स्वयं सेवकों की तरह स्वेच्छा से सड़कों पर उतर आए हैं, हाथ में झाड़ू लेकर सड़कों की सफाई कर रहे हैं और बचाव व राहत कार्यों में जुटे हैं। भारत की भांति किसी दल या वर्गविशेष का नेता या प्रवक्ता शब्दों में इसकी निंदा का ब्यान जारी कर रहा हो ऐसा नहीं है अपितु यहाँ तो प्रत्येक व्यक्ति की पहुँच सर्वाधिक ख्यात चैनल, समाचार पत्र और संबन्धित मंच तक है; क्योंकि ये सारे मंच इन्टरनेट पर क्षण क्षण अद्यतन होते हैं। प्रत्येक साधारण से साधारण नागरिक भी खुल कर संबन्धित विषय पर वहाँ अपनी प्रतिक्रिया लिखता है, लिख रहा है। और हाँ, ये लिखने और राय देने या चिंता व्यक्त करने वाले व्यक्ति और नागरिक  केवल लिखते ही नहीं अपितु व्यावहारिक धरातल पर उतर कर स्वयं कुछ करते भी हैं। 


ऐसे में एक और प्रश्न उठता है कि " फिर भी ये लोग वारदात कर गुज़रते हैं ..... एक साथ कई कई मुहल्लों में ...... बल्कि कई कई शहरों में .....पुरज़ोर जन विरोध के बावजूद ये ताक़तवर बने रहते हैं . अविश्वसनीय !"


तो इस प्रश्न के समाधान के लिए यह जानना आवश्यक है कि वस्तुतः जनविरोध की जो अवधारणा आप-हम भारत के साथ जोड़ कर बनाते हैं, यहाँ वैसा नहीं है। यहाँ ऐसा कदापि नहीं है कि यदि हमारी पक्षधरता किसी के प्रति है तो उसे उस पर थोपा जाए। परिवारों में बच्चों तक पर कोई कुछ नहीं थोपता है। न अपनी पक्षधरता का महिमामंडन  कर उसे ही लागू करने-करवाने, दूसरों को छोटा दिखाने की प्रवृत्ति है। यह पक्षधरता भले सत्य के प्रति हो या असत्य के प्रति; अथवा किसी भी अन्य मुद्दे, स्थान, व्यक्ति, सिद्धांत के प्रति। दूसरों को धिक्कारना या छोटा दिखाना, अपने को बड़ा या सही सिद्ध करना आम आदमी की मानसिकता में लेश भी नहीं है। अतः सब अपनी पक्षधरता वाले क्षेत्र में काम तो करेंगे किन्तु दूसरे की पक्षधरता वाले क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं। ऐसे अतिक्रमण का अधिकार केवल संविधान व अदालत का है । अपराधी से अपराधी को दंड तो दिया जाता है, दिया जा सकता है किन्तु उसके मानवीय अधिकारों के चलते उसे धिक्कारा या कोसा नहीं जा सकता, उसे छोटा नहीं दिखाया जा सकता, उस पर कुछ थोपा नहीं जा सकता। 



वैसे यहाँ के युवक युवतियों, प्रौढ़ लोगों, सामाजिक संगठनों, परिवारों, अधिकारियों, सरकार के विभिन्न विभागों, सभी राजनयिक दलों, प्रबुद्ध वर्ग, लेखकों, सोशल मीडिया .... अर्थात समूचे समाज के सभी अंगों  सर्वाधिक चिंता इस बात की व्यक्त हो रही है कि ब्रिटेन के समाज में ऐसे अनैतिक लोग हो कैसे गए, आ कहाँ से गए, बन कैसे गए, और क्यों ! कैसे इस मूल्यहीन अनैतिकता का निराकरण कर ऐसे वर्ग को मूल्याधारित दिशा देनी है।  दंड के प्रावधानों पर भी चर्चा बहुत ज़ोर पकड़े हुए है। समाज का अधिकाश वर्ग कड़े दंडों के प्रावधान के पक्ष में है। आर्थिक हानि की चिंता अभी समाज की मुख्य चिंता का मुद्दा नहीं है। आर्थिक मंदी की मार में गले तक डूबे देश की चिंताओं से कितना बड़ा सबक भारत व और कई देश सीख सकते हैं।



लूटपाट और फसाद के साथ ही साथ लंदन सहित ब्रिटेन के अलग अलग हिस्सों में राजनयिक, अभिनेता, खिलाड़ी, अधिकारी, नेता, छात्र, पत्रकार, अध्यापक और अन्य भी लगभग प्रत्येक वर्ग के नागरिक नगर को वापिस ढर्रे पर लाने और प्रतिकार, कर्मठता व सकारात्मकता के उदाहरण बनते हुए सड़कों पर साफ सफाई के अभियान में भी स्वेच्छा से लगे हुए हैं।  आशा है शीघ्र ही संकट समाप्त हो कर पुनः स्थितियाँ सामान्य  होंगी।  






 




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