रविवार, 17 अक्तूबर 2010

"मर रहे हैं हाथ के लेखे हमारे" *

कविता का मन


Dr.Kavita Vachaknaveeभारत में, विशेषतः हिन्दी में, साहित्य के मरने या उसमें भी कविता के मरने की आशंका दिन - प्रतिदिन साहित्य के कुछ आलोचकों को घेरे रही है. कविता जिस गति से हाशिए पर धकेल दी गयी, (गत कई दशकों से संभवत वह कभी केन्द्रक में थी ही नहीं) उसने कविता की आसन्न अवगति के संकेत तो दे ही दिए थे। परिणाम के रूप में दिखाई भी पड़ा कि कोई प्रकाशक कविता की पुस्तक को छापने का जोखिम नहीं उठाता; क्योंकि वह बिकती ही नहीं। इधर कवि भी "वादे वादे जायते तत्त्वबोध:" की भाँति विभिन्न कोटियों के हो गए। साहित्य व मंच तो पहले ही अलग हो चुके थे, किंतु मंच की भी कई प्रशाखाएँ बन गईं, जहाँ चुटुकुले से लेकर चोरी के घटिया माल तक को धड़ल्ले से चलाया - गाया गया, गलेबाजों की जोर आजमाईश हुई, फूहड़ व भोंडे हास्य प्रस्तुत किए गए। कुल मिला कर मंच से कविता अंतर्ध्यान हो गई। मंच पर असल कवि रहे ही नहीं। दूसरी और साहित्य में कविता इतनी नखरीली, सुविधाभोगी व परमुखापेक्षी हो गई कि पूरी की पूरी छद्म बन गई। नकली पुरस्कार, गुटबंदी, विश्वविद्यालयीय अध्यापकों द्वारा प्रकाशकों से एवज में पुस्तकें छपवाना, प्रायोजित समीक्षाएँ, सरकारी खरीद, शब्दाडम्बर, गद्य की टुकड़ाबंदी.... .. आदि जाने कितने बाह्याचार, छल व छद्म में वह मारी गई।



इधर जब से नेट पर साहित्य आने लगा तब से साहित्य के चोरों की भी बन आई। पर चोरी की जाने वाली सबसे बड़ी विधा आज भी कविता ही है । विश्वास न हो तो ऑरकुट और कई मनोरंजन केंद्रित समूहों पर जा कर नजारा ले लीजिए। साहित्य के ठेकेदारों ने इस प्रवृत्ति व ( लोकेषणा तथा इसके चलते की जाने वाली चोरी की) सुगमता को सुन जान कर नेट को साहित्य के लिए एकदम सिरे से खारिज भी किया।



किंतु यह सच है कि माध्यम स्वयं में कोई दूषित नहीं होता, प्रयोक्ता पर निर्भर करता है कि वह उक्त संसाधन का प्रयोग किस उद्देश्य की पूर्ति में कैसा करता है । यदि हम अपनी दूषित प्रवृत्ति, छपास व लोकेषणा को एक ओर करते हुए (तिलांजली देते हुए) इस संसाधन का उपयोग करें तो पूरे साहित्य के परिदृश्य को बदल सकते हैं । इसका एक सबल उदाहरण कुछ समय पूर्व  साक्ष्य में आया है ; जिसे जानना  हम सबके लिए, विशेषतः काव्य से प्रेम करने वालों के लिए अत्यन्त हर्षदायक सिद्ध होगा कि इंटरनेट कविता की हत्या करने की अपेक्षा उसके जीवन संवर्धन में सहाय्य सिद्ध हो रहा है और कवियों के लिए वरदान। अब वे अपनी प्रतिभा द्वारा अधिकाधिक पाठकों तक पहुँच पा रहे हैं। पूरे समाचार के लिए तो आपको स्वयं ही इसे पढ़ना पडेगा


By Stephen Adams, Arts Correspondent
Man reading poetry: Internet 'is causing poetry boom'

इसमें बताया गया कि -
Poetry Archive , which Mr Motion helped set up, now receives 135,000 visitors a month and a million page hits.



दूसरी ओर एक खेदजनक समाचार भी तभी आया था कि एक ऐतिहासिक पत्र, जो १५० वर्षों से नियमित निकल रहा था, उसे बंद कर देना पड़ा। हमारे यहाँ कुछेक वर्ष छाप कर जब पत्र - पत्रिका बंद होती है, तो भी क्षोभ से भर उठते हैं हम; फिर यह तो एक इतिहास का वर्त्तमान में उपस्थित होना -जैसी थी।



updated 5:50 a.m. ET Feb. 27, 2009
DENVER - Questions about the future of the Rocky Mountain News had become so common, the newspaper's staff put up a handwritten paper sign on the news desk that said, "We don't know."
On Thursday, someone wrote over it in heavy black marker: "Now we know."
Colorado's oldest newspaper, which launched in Denver in 1859, printed its last edition Friday, leaving The Denver Post as the only daily newspaper in town.


Image: last front page of the Rocky Mountain News
AFP - Getty Images
The last front page of the Denver, Colorado,

कुछ कुछ आगत की आहट देती शंकाओं को नेट के साथ जोड़ कर चीन्हा गया -




Lewis Carroll's handwriting
In 1864, Lewis Carroll wrote his most famous work for Alice Liddell.

Jane Austen's handwriting
Jane Austen completed her last novel, Persuasion, in 1816


Winston Churchill's handwriting
Aged 16, Winston Churchill wrote to his mother Lady Randolph Churchill

Jimi Hendrix's handwriting
Jimi Hendrix's lyrics for Machine Gun were written in 1969

King Henry VIII's handwriting
King Henry VIII wrote this love letter to Anne Boleyn (pic: British Library)


 If everything we do still had to be done by hand, there would not be enough hours in the day
Registrar Ruth Hodson
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*
" मर रहे हैं हाथ के लेखे हमारे " मेरी एक काव्यपंक्ति  है.


10 टिप्‍पणियां:

  1. कविता को हाशिये पर धकेले जाने के पीछे जीवन के बदलते प्रतिमानों का बहुत बड़ा हाथ है, शायद. कविता शांत मन व निर्मल हृदय मंगती है. पर आज की आपाधापी में इन सब के लिए किसी के पास समय ही कहां बच रहा है...आज शायद हम हर चीज़ में मतलब और फ़ायदा ढूंढने के आदि तो हुए ही जा रहे हैं. प्रकाशक भी नितांत व्ववसायी हुआ चला जा रहा है, सी ग्रेड के फ़िल्म निर्माता की सी मानसिकता केवल मुनाफ़ा देखती है. कविता में ये सब कहां...

    शायद यही कारण है कि आज रचनात्मक साहित्य की अपेक्षा कैप्सूलनुमा हैल्प बुक कहीं ज़यादा बिकती हैं.

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  2. पूर्व में कविता दिल से निकलती थी और अब दिमाग से। इसलिए पहले दिल में उतरती थी और अब दिमाग अपने-अपने विचारों से उसकी चीरफाड़ करता है। गद्यमय कविता के कारण भी कविता की बहुत हानि हुई है। भला गद्य को कैसे याद रखें? रही बात चोरी की तो यह तो स्‍वयं पर ही निर्भर करता है, जिन्‍हें कुछ नहीं से सब कुछ बनना है वे ऐसा ही करेंगे और जिन्‍हें कुछ नवीन करना है वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। बल्कि स्‍वयं का लिखा भी दोबारा प्रयोग में नहीं लाएंगे।
    आपके कहने से ब्‍लागिंग कार्यशाला पर एक नयी पोस्‍ट लिखी है, उसे अवश्‍य देखें।

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  3. 7/10


    ऐसी पोस्ट ही ब्लागिंग की उंचाईयों का एहसास कराती हैं.

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  4. जब तक मानव में अहसास नाम की चीज़ जीवित है तब तक कविता कैसे मर सकती है?

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  5. इण्टरनेट से साहित्य को बल मिला है, थोड़ा बहुत तो छलकेगा ही।

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  6. बहुत सुन्दर! बहुत दिन बाद ऐसी पोस्ट पढ़ने को मिली जिसको पढ़कर मन खुश हो गया। हस्तलेख वाली छवियां देखकर मन किया कि नियमित कम से कम एक पेज तो लिखना चाहिये।

    ऐसी पोस्टें और लिखा करें न!

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  7. @काजल जी! आपकी बात से शतशः सहमत.

    @ अजित जी! आपकी प्रविष्टि देखी. उक्त कार्यशाला की पूरी रेकोर्डिंग एक प्राईवेट टीवी चैनल वाले इलाहाबाद में प्रसारित करने वाले हैं. एक दिन पूरा यह प्रसारण ३-४ बार आवृत्ति के साथ दिखाया जायेगा. मेरा भी सवा घन्टे का इंटरव्यू रेकोर्ड कर ले गए हैं कल. उसे भी उसी दिन साथ साथ प्रसारित किया जाएगा. अभी प्रसारण की तिथि बताई नहीं है.

    @ उस्ताद जी, प्रवीण जी और प्रसाद जी! आपके शब्दों से बल मिला कृतज्ञ हूँ.

    @ऋषभ जी! बहुत धन्यवाद

    @ अनूप जी! अरसे बाद इस बार मेरे किसी ब्लॉग पर भी आप पधारे, अच्छा लगा.

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  8. दरअसल आप जैसे सार्थक सोचने वाले और उस सोच को सही सम्मान देने वाले भी ख़त्म होते जा रहें हैं इस दौरती भागती दुनिया में तथा साहित्य जगत में अब दूसरों को सहारा देकर उठाने वाले भी कम ही रह गयें हैं ....

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  9. हूँ...सोचने वाली बात है यह तो...कभी 'पाखी की दुनिया' में भी घूमने आयें.

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