रोटी कब तक पेट बाँचती? : (डॉ.) कविता वाचक्नवी
सत्ता के संकेत कुटिल हैं
ध्वनियों का संसार विकट
विपदा ने घर देख लिए हैं
नींवों पर आपद आई
वंशी रोते-रोते सोई
पुस्तक लगे हथौड़ों-सी
उलझन के तख़्तों पर जैसे
पढ़े पहाड़े - कील ठुँकें,
दरवाजे बड़-बड़ करते हैं
सीढ़ी धड़-धड़ बजती है
रोटी अभी सवारी पर चढ़
धरती अंबर घूमेगी
दुविधाओं के हाथों में बल नहीं बचा
सुविधाएँ मनुहार-मनौवल भिजवाएँ।
रोटी कब तक पेट बाँचती?
रोटी कब तक पेट बाँचती?
[ अपने कविता संकलन "मैं चल दूँ" (२००५) से उद्धृत ]
सत्ता के संकेत कुटिल हैं
ध्वनियों का संसार विकट
विपदा ने घर देख लिए हैं
नींवों पर आपद आई
वंशी रोते-रोते सोई
पुस्तक लगे हथौड़ों-सी
उलझन के तख़्तों पर जैसे
पढ़े पहाड़े - कील ठुँकें,
दरवाजे बड़-बड़ करते हैं
सीढ़ी धड़-धड़ बजती है
रोटी अभी सवारी पर चढ़
धरती अंबर घूमेगी
दुविधाओं के हाथों में बल नहीं बचा
सुविधाएँ मनुहार-मनौवल भिजवाएँ।
रोटी कब तक पेट बाँचती?
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