महादेवी : चिंतन की कड़ियाँ
डॉ. कविता वाचक्नवी
“प्रिय! जिसने दुःख पाला हो
डॉ. कविता वाचक्नवी
(महासचिव - ’विश्वम्भरा’)
संसार के कण-कण की वेदना को अनुभूत करने वाली, महान् दैवी गुणों से युक्त संवेदनशील कवयित्री महादेवी जी के रचना-संसार में जिन्हें भी विचरने का सुअवसर मिला है, वे जानते हैं कि वे संवेदनशीलता की जितनी तलस्पर्शी अनुभूति से ओत-प्रोत हैं, उतनी ही विचार की प्रखरता के शिखर की विजयिनी भी ।
मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समा:।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ॥
पीड़ा का यह उद्रेक आर्यावर्त के आदिकवि ने अपनी परम्परा को ला थमाया था। उसी का विरेचन, विवेचन साहित्य में जिन्होंने जितनी स्वाभाविकता तथा गरिमा से किया, वे उतने ही स्मरणीय होते गए। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” के ’सब’ का ’मैं’ हो जाना, परपीड़ा को आत्मपीड़ा मानने के संदर्भों में जितना सार्थक होगा, उतना ही सद्साहित्य, सृजनात्मक साहित्य की पृष्ठभूमि को उर्वर बनाने में। इसका प्रतिफलन महादेवी जी के साहित्य में उनकी अभिव्यक्तियों में (चाहे वे अभिव्यक्तियाँ भावपरक हों या विचारपरक, गद्य हों या पद्य) सर्वत्र आप्यायित है। उनका ’मैं’ मानो सबको ’मैं’ लगने लगता है। उनकी अनुभूति साधनापरक अनुभूति है, मात्र कल्पना का प्रामुख्य या छायाभास नहीं है; और क्योंकि उनमें साधनापरक अनुभूति की प्रमुखता, गहनता, साझेदारी व निख़ालिस सच्चाई है, इसलिए वे सीधी अतल हृदय में उतरती चली जाती हैं। उनका यह प्रवेश वस्तुतः उन्हीं के हृदय के मर्मस्थल को घेरेगा, जिनके लिए वे चाहती हैं –
“प्रिय! जिसने दुःख पाला हो
वर दो यह मेरा आँसू
उसके उर की माला हो।“
और फिर साथ ही यह भी कह देती हैं, “आँसू का मोल न लूँगी मैं” । यद्यपि अपने लिए उपर्युक्त वर माँगने के साथ एक और आग्रह भी करती हैं –
“मेरे छोटे से जीवन में देना न तृप्ति का कण भर
रहने दो प्यासी आँखों को भरतीं आँसू के सागर”
उनके पाठक जानते हैं कि तृप्ति को दरकिनार करते हुए महादेवी जी ने जो पाया –“आँसुओं का कोष उर, दृग अश्रु की टकसाल ” वह वास्तव में यही था। अपनी इस धरोहर को लेकर वे एक सकारात्मक सोच साहित्य में जन-जन को देती हैं। सुख ही सकारात्मक है अथवा दुःख नकारात्मक है, ऐसा कुछ पूर्वाग्रह उन्हें नहीं रहा। मनुष्य स्वयं दुःख को सुख में ढाल सकता है
“किसको त्यागूँ किसको माँगूँ
है एक मुझे मधुमय विषमय
मेरे पद छूते ही होते
काँटे किसलय, प्रस्तर रसमय”
दुःख का मूल विनाश, विनष्टि, अभाव आदि होते हैं, तो इन मायनों में तो सारा संसार ही नश्वर है। एक दिन तो -
“विकसते मुरझाने को फूल
उदय होता छिपने को चाँद”
किंतु उनके लिए यह विनष्टि, यह नश्वरता दुःखदायी नहीं अपितु यह तो
“अमरता है जीवन का हास
मृत्यु जीवन का चरम विकास”
हैं। अमरत्व और मोक्ष पाना अथवा सांसारिकता के चक्र से छूटना, आत्मा का परमानन्द में लंबे विश्राम के लिए जाना, हमारा शास्त्रीय ध्येय रहा है। किन्तु ’मृत्यु’? यह तो जीवन का निर्धारित ध्येय है। मृत्यु तभी है जब जन्म है पर आत्मा का मृत्यु और जन्म के बंधन से छूटना भी पीछे छूट जाता है मानो उनके संसार में। “विरह का जलजात जीवन” में भी ’विरह’ और ’जीवन’ साथ-साथ हैं। ऐसे में ’विरह’ उन्हीं को रुलाता है, जिनको ’उसके’ वियोग में ’उसकी’ सत्ता से दूरी का आभास सदा बना रहता है। यह आभास सदा बना रहे, तभी तो ’उसके’ निकट जाने के लिए तड़प, प्रयत्न, वांछा उत्पन्न होगी। रामनरेश त्रिपाठी की दो पंक्तियाँ अनायास स्मरण आ रही हैं – “मिलन अन्त है मधुर प्रेम का, और विरह जीवन का”। प्रेम को जीवित रखने की यह लालसा, यह कामना ही महादेवी को विरह के प्रति सकारात्मक सोच प्रदान करती है।
“कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित
कौन मेरे लोचनों में
उमड़ घिर झरता अपरिचित”
कसक में भी जिसे मधुरता का आभास हो या आँसू में ’उसके’ उमड़ कर निकट आ जाने का, तो वह प्रत्येक स्थिति में, असंगति और विसंगति में भी संगति खोज ही लेता है। साथ ही जो ’कसक’ में ’मधुरता’ भर रहा हो, वह क्योंकर प्रिय न होगा?
महादेवी जी की पूरी काव्ययात्रा मानो विरह के पड़ाव पर है। वे दुःख, पीड़ा, कसक, विष, प्यास, आस सब सहती हैं। साथ ही, इस सारी प्रक्रिया में जो गरिमा है, गाम्भीर्य है, उसके दर्शन अन्यत्र सुलभ नहीं। जो व्यक्ति भीषण झंझावात में भी संतुलन न खोए, अपितु धीरता से उसे प्रेरणादायी समझ कर संयत रहे, उसकी अन्तर्निहित स्थितप्रज्ञता पर किसे संदेह होगा?
“इत आवति चलि जाति उत चलि छः सातक हाथ, चढ़ि हिंडोरे-सी रहे.......” जैसे विरह वर्णन पढ़ने में जितने अरुचिकर लगते हैं, उतने ही विरह को हास्यास्पद बना देते हैं। ऐसे में महादेवी जी का महिमामंडित लगना और भी तीव्रता से अनुभव होता है। छायावाद में विरह, पीड़ा, दुःख, वेदना के साथ जिस निराशा के दर्शन होते हैं, ये पूरा उसका चित्र ही बदल देती हैं। ऐसी स्थितियाँ इनके लिए आशा की प्रतीक रहीं। जब ’पीड़ा’ में ’प्रिय’ को पहचानने का भाव निहित हो, ’प्रिय’ की खोज हो, वहाँ मिलन की संभाव्यता तो सदा विद्यमान रहती ही है
“ तुमको पीड़ा में ढूँढा, तुम में ढूँढूँगी पीड़ा”
अपितु यह तो उनके लिए क्रीड़ा है। आँसू देखकर जब मिलन के सुख की स्मृतियाँ घिर आती हों तो ये आँसू क्योंकर प्रिय न होंगे? अपने इस प्रिय के लिए आत्मतत्व की तड़प ही उसका ज्वलन है – “मधुर-मधुर मेरे दीपक जल/प्रियतम का पथ आलोकित कर” – इस ज्वलन को पथालोकन हेतु प्रयोग करना? जिससे मिलन की चाह है, वह तो स्वयं जाज्वल्यमान है। क्या उसे किसी पथालोकन की आवश्यकता है? पर मन नहीं मानता, बार-बार स्वयं को मेट कर, जलाकर उसकी ओर जाने का अपना पथ प्रशस्त करना चाहता है। है न कितना विचित्र? जाज्वल्यमान, प्रकाशमान के लिए अपने को जला कर राह का दिग्दर्शन करना?
“तू जल–जल जितना होता क्षय
वह समीप आता छ्लनामय”
यहाँ ’छ्लनामय’ अकेला ऐसा प्रयोग है, जो उपर्युक्त स्थिति के प्रश्नचिन्ह को स्पष्ट करता है, अन्यथा तो ’वह’ ’करुणामय’ ही है। इसलिए वे उसे यहाँ ’छलनामय’ कह जाती हैं, क्योंकि ’अमरता’ में, मिलने में यद्यपि हास है तथापि मृत्यु का अभाव है। अभिप्राय यह हुआ कि ऐसी मृत्यु में ’चरम-विकास’ है, जो ’अमरता’ के हास की ओर ले जाती है, अन्यथा सब ’छ्लना’ है। यही इस ’छलनामय’ का रहस्य है।
रहस्यवाद की पाँच अवस्थाएँ मानी गई हैं व चिन्तन शैली के आधार पर तीन प्रकार यदि इसके किए जाएँ
१. आध्यात्मिक रहस्यवाद
२. दार्शनिक रहस्यवाद
३. धार्मिक रहस्यवाद
तो यह तीनों प्रकार का रहस्यवाद कहीं एक साथ नहीं मिलता। कहीं एक है तो कहीं दूसरा व कहीं तीसरा। महादेवी अकेली ऐसी हैं जिनमें तीनों प्रकार के रहस्यवाद का सुन्दर मेल, सुन्दर समन्वय निहित है।
वैदिक दर्शन में त्रैतवाद की बात की गई है –
१. प्रकृति (जो ’सत्’ है)
२.जीवात्मा (जो ’सत्’+ ’चित्’ है)
यहाँ –
“बंग – भू शत वंदना ले
३ परमात्मा ( जो ’सत्’+ ’चित्’+’आनन्द’ है) ।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि उपर्युक्त में ’दुःख’ किसी का लक्षण नहीं है। दुःख का कारण जीवात्मा का देह से सम्पृक्त होकर अज्ञान व तज्जन्य कर्म हैं। वैदिक ऋचाओं में इसकी सुंदर अभिव्यक्ति मिलती है। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ’आनन्द’ केवल परमात्मा का लक्षण है; तीसरी बात – ’सुख’-दुःख’ ऐन्द्रिय धरातल के व ’शान्ति-अशान्ति’ स्मृतिजन्य, मन व बुद्धि के धरातल से जुड़े हैं। अब महादेवी जी का यह अंश देखें –
“कैसे कहती हो सपना है
अलि! उस मूक मिलन की बात
भरे हुए अब तक फूलों में
मेरे आँसू उनके हास”
यहाँ –
- ’उनके हास’ = ’आनन्द’ केवल ’परमात्मा’ का लक्षण
- ’मेरे आँसू’ = ’जीवात्मा’ की सुख/दुःख की अनुभूति
- ’फूलों में’ = ’प्रकृति’ जो ’सत्’ है
में तीनों तत्व (त्रैतवाद) और तीनों के लक्षण व उनकी साम्यता तुलनीय है। ‘आत्मतत्व’ ‘मैं’ की साधना वेदना ही को आधार बनाकर पूरी होती है, क्योंकि वेदना की अनुभूति के कारण ही ‘आत्मतत्व’ ‘प्रयत्न’ में संयुक्त होता है। इसलिए महादेवी जी को वेदना प्रियकर लगती है। आध्यात्मिक रहस्यवाद में महादेवी जी की कविताएँ ही साधनात्मक अनुभूति का परिणाम हैं। इनमें कल्पना की नहीं अपितु अनुभूति की प्रधानता है।
साधनात्मक अनुभूतियों की पारलौकिक स्थितियों में वे लोक को भूली हों, ऐसा कदाचित् नहीं हुआ। लौकिक विधान ही उनकी पीड़ा का जनक है और पीड़ा उन्हें प्रिय भी है। यह बात काँच की भाँति स्पष्ट है। साध्य की ओर जाने के लिए पीड़ा साधना है। साधना स्थली और उसके आसपास का परिवेश भूलकर उन्होंने साधना की हो, ऐसा नहीं हुआ। साधना स्थली और आसपास के परिवेश के प्रति वे कितनी सचेत रहीं, इसका प्रमाण मुख्यतः उनका गद्य व अनेक काव्य-रचनाएँ भी हैं। ‘गद्यम् कवीनाम् निकषम् वदन्ति’। समाज में रहकर समाज की चिंताओं से सरोकार रखना व तद्विषयक प्रयत्न करते रहना, यह उनकी प्रकृति में ही था।“आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ वाली ही बात। उनके ‘मैं’ का विस्तार इसके कारणों में रहा।
बंगाल के अकाल के समय ‘बंग – दर्शन’ और चीन के आक्रमणकाल में ’हिमालय’ काव्य-संकलन इसका प्रमाण हैं कि राष्ट्र उन में कितना रचा - बसा था और वे राष्ट्र में कितनी रची-गुँथी थीं-
ज्ञान गुरु इस देश की कविता हमारी वंदना ले’’।
जहाँ तक समाज और उसके आसपास के परिवेश तथा लोक की बात है, उनका –
“सब आँखों के आँसू उजले, सबके सपनों में सत्य पला’’ – में यह जुड़ाव ही ध्वनित होता है। राष्ट्रीयता, सामाजिकता और तत्कालीन परिस्थितियों के प्रभाव से वे अछूती कदापि नहीं रहीं। जन-जन में प्रेरणा और उद्बोधन फैलाने का महती दायित्व उनकी संवेदनशील वृत्ति के अनुरूप ही था-
“कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो’’ में सामाजिक यथार्थ से जुड़ाव खोजना रत्तीभर भी असंभव नहीं। “बाँध लेंगे क्या तुझे....’’ में अभिव्यक्त –
“विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले’’
में वे अपने ही सामाजिक जुड़ाव व दायित्व की भी तो बात करती हैं। “बसे हुए अब तक फूलों में मेरे आँसू’’ वाले ‘फूल’ “फूल के दल ओस गीले’’ हैं और ‘मधुप’ वह है जिसका ‘हास’ वहाँ फूलों में था। कितना स्पष्ट है कि वे स्वयं को भी कह रही हैं मानो कि यह कहाँ संभव है कि“विश्व का क्रन्दन....’’ सुनकर भी मैं भूली रहूँ, डूबी रहूँ।
“तू न अपनी चाह को अपने लिये कारा बनाना ” का संदेश और “जाग तुझको दूर जाना’’
का उद्बोधन उनके तत्कालीन राष्ट्रीय, सामाजिक परिवेश तथा स्थितियों के सम्बन्ध में व्यक्त हुए नितान्त गहरे भाव व तत् सम्बन्धी चिंता, सोच, कर्तव्य भावना को ध्वनित करता है।
का उद्बोधन उनके तत्कालीन राष्ट्रीय, सामाजिक परिवेश तथा स्थितियों के सम्बन्ध में व्यक्त हुए नितान्त गहरे भाव व तत् सम्बन्धी चिंता, सोच, कर्तव्य भावना को ध्वनित करता है।
उन्होंने गीत को शिखर तक पहुँचाया, विचारपरक गद्य लिखा, सन्तुलन तथा समन्वय से परिपूर्ण सृजनात्मक समीक्षाएँ दीं, संस्मरण लिखे, प्रखर वक्तृत्व से प्रेरित किया, समाज-सेवा में तल्लीन रहीं, अर्थात् देह, मन, बुद्धि, भावना, समय – इन सब का प्रयोग उन्होंने राष्ट्र की चेतना को जगाने व क्रियाकलापों की भागीदारी में लगा दिया। कांग्रेस सरकार की हिंदी विरोधी नीति के कारण पद्मभूषण ठुकरा दिया। राष्ट्र, राष्ट्रभाषा व राष्ट्रीय अस्मिता इन सबसे वे पूर्णतः सम्बद्घ, सम्पृक्त रहीं। अपने विचारों को, अपने जीवन में क्रियात्मक रूप में संभव कर दिखाया। उन्हीं के शब्दों में – “आज के कवि को अपने लिए अनागरिक होकर भी संसार के लिए गृही, अपने प्रति वीतराग होकर भी सबके प्रति अनुरागी, अपने लिए सन्यासी होकर भी सबके लिए कर्मयोगी होना होगा।”
जहाँ तक उनके गद्य में व्यक्त हुए विचारों का संबंध है, वह आज भी उतना ही विचारोत्तेजक एवं आवश्यक है, उसके पारायण की अपरिहार्यता अभी भी हमारे प्रत्येक वर्ग के लिए है। ‘’श्रृंखला की कड़ियाँ’’ में वे लिखती हैं – ‘’विवाह की संस्था पवित्र है, उसका उद्देश्य भी उच्चतम है, परन्तु जब वह व्यक्तियों के नैतिक पतन का कारण बन जावे, तब अवश्य ही उसमें किसी अनिवार्य संशोधन की आवश्यकता समझनी चाहिए।‘’
नैतिकता का अर्थ, समाज सीमित रूप से, चरित्र से सम्बन्धित लगाता रहा है (विशेषतः विवाह के सम्बन्ध में); यह चरित्र का जो अत्यन्त संकीर्ण अर्थ प्रचलित हो गया है, वस्तुतः नैतिकता का उसी से ही अभिप्राय नहीं है। नैतिकता यानि नीतिगत या नीति से सम्बन्धित आचरण। एक समय ऐसा था जब ’विवाह’ और ‘परिवार’ प्रचलन में नहीं थे। मानव सभ्यता में पारस्परिक संबंधों के कारण अनेकानेक समस्याएँ उठी होंगी व निश्चित, निर्धारित एकरूपता की आवश्यकता उत्पन्न होकर विवाह की अवधारणा स्पष्ट हुई। एक स्पष्ट नीति सबके लिए निर्धारित कर दी गई। जिसके द्वारा बड़े ही सुचारु रूप से सभी प्रकार का निर्वहन संभव था; किंतु विवाह की जो नीतिपरक संस्था रची गई, जब उसी के माध्यम से, अथवा उसी के अन्तर्गत नीतिपरक दूसरी अवमाननाएँ होने लगीं, यथा – बालविवाह, स्त्री पर अत्याचार, अंकुश, स्त्री द्वारा विवाह न करने का प्रावधान हेय, पुरुषों का बहु-विवाह, अल्पायु की स्त्री से विवाह, गुण-कर्म-स्वभाव की साम्यता की अनदेखी करके विवाह, विवाह के कारण कार्यक्षम स्त्री की भी परवशता, या विवाह – मात्र करने के लिए युद्धों की व्यूह– रचना, जैसे ढेरों कारण हैं जो विवाहगत नैतिकता के मानदंडों को झकझोरते हैं। ऐसे में इस पवित्र संस्था विवाह के संबंध में पुनः विचार –पूर्वक कुछ ठोस परिवर्तनों और निर्धारणों की जो आवश्यकता महादेवी जी का१९३१ के सन् में इंगित रहा, उस दिशा में आज तक किसी समाज ने कोई कार्य नहीं किया। व्यक्तिगत प्रयास अपने आचरण में कुछ एक गिने-चुने व्यक्तियों ने किए, पर जो जागरण इस दिशा में अनिवार्य था व है भी, वह कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। स्कैन्डेनेवियन देशों में तो एक दूसरी प्रकार की अति हो गई है, जहाँ बच्चे अब राष्ट्र की सम्पत्ति हैं। वहाँ राष्ट्र उनके माता-पिता को बाध्यतापूर्वक उनसे जुड़े रहने की माँग करता है। विवाह कि संस्था वहाँ बड़े अर्थों में टूट गई है। है तो बस ’लिविंग टुगेदर’। यह कोई समाधान नहीं है। इससे उत्पन्न होने वाले संत्रास को झेलने वाले इसे अधिक बेहतर रूप में बता सकते हैं कि किस प्रकार की अनिश्चयात्मकता में वे जीवन काट देते हैं, कितनी छोटी बातों पर परिवार टूट जाते हैं, बच्चे कितने अकेले हैं, क्यों वहाँ का नवयुवावर्ग नशे में झोंक रहा है स्वयं को, क्यों मनोविकार ग्रस्तों की संख्या में अंधाधुंध बढ़ोतरी हो रही है व क्यों वृद्धाश्रमों में कुंठित जीवन की यंत्रणा झेलते अकेले मर जाना होता है। ऐसे ही ढेरों ढेर उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, १६ वर्ष से छोटी आयु कि लड़कियाँ गर्भवती हो जाती हैं, पारिवारिक व वैवाहिक स्थायित्व के एकल अभाव में एड्स जैसे रोग की चपेट में विश्व मुँह बाए खड़ा है।
इन सभी के पीछे कारण है – बिना विचार किए स्वेच्छा से स्थितियों में परिवर्तन कर देना। महादेवी जी ऐसे असंतुलनकारी किसी संशोधन की, परिवर्तन की पक्षधर नहीं रहीं। वे ’संशोधन’ के साथ ’अनिवार्य’ शब्द भी जोड़ती हैं और आगे यह भी स्पष्ट कर देती हैं कि ये ’संशोधन’ ’सामाजिक व वैयक्तिक विकास में सहायक’ हों। ये ’संशोधन’, ’समझनी चाहिए’ द्वारा समझपूर्वक होने चाहिएँ। ’हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ में वे आगे यह भी लिखती हैं – “हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिएँ जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन सकेंगी। हमाई जागृत और साधन संपन्न बहिनें इस दिशा में विशेष महत्वपूर्ण कार्य कर सकेंगी, इसमें संदेह नहीं।“
मानव की इस वृत्ति से वे विशेषतः परिचित रही होंगी (विशेषतः इसलिए क्योंकि उनकी अनुभूति और पकड़ बहुत गहरी है) कि पीढ़ियों से प्रभुत्व झेलता व्यक्ति सामान्यतः छूटते ही प्रभुता पाना चाहता है। अत्याचारी पर, अवसर मिलते ही, अत्याचार की प्रवृत्ति, मानव के स्वभाव में आने की संभावना अधिकतर बनी रहती है। इसलिए वे इसकी सीमाओं को भी रेखांकित करती चली जाती हैं, वे कहीं भी अत्याचारों से पीड़ित स्त्री के दुःख से व्यथित होकर भड़काऊ बातें करने की पक्षधर नहीं हैं। १९३४ (रचनाकाल) की स्थिति और १९९० के बाद की महिलाओं की स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर है तथापि एक ओर महादेवी तो सृजनात्मकता व संतुलन की प्रेरणा व शिक्षा देती हैं और दूसरी ओर तस्लीमा नसरीन जैसी साहित्यकार समाज में निर्मित होती हैं, जो महिलाओं को उकसाती हैं कि अपने आँसू मत बहाओ, अपने दर्द को अंदर सहेज कर इकट्ठा करके रखो और फिर ज्वालामुखी की भाँति विस्फोट कर दो पुरुषों के विरुद्ध (जैसी बातें)। सृजनात्मकता से भरा आह्वान न हो तो दिग्भ्रमित होकर कुँए से निकल खाई में गिरने से कैसे बचेंगी स्त्रियाँ? साथ ही महादेवी जिस ’स्वत्व” की आवश्यकता स्त्री के लिए समझती हैं, उस ’स्वत्व’ की कसौटी भी साथ ही दे देती हैं –“जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है”। स्पष्ट है कि दैहिक प्रदर्शन अथवा सौंदर्य के प्रतिमानों के लिए पुरस्कार ले आना ’स्वत्व’ पाना नहीं है। इस दृष्टि से, क्योंकि यह दैहिक सौंदर्य ऐसा नहीं है कि इसका पुरुषों के निकट (लिए) कोई उपयोग नहीं है।
“श्रृंखला की कड़ियाँ” की भूमिका १९४२ में लिखते समय यह पूर्वाभास व इस वास्तविकता का बोध उन्हें था, तभी, उन्होंने लिखा – “सामान्यतः भारतीय नारी में इसी का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें असाधारण दयनीयता है और कहीं असाधारण विद्रोह है, परन्तु संतुलन से उसका जीवन परिचित नहीं”। वे कहती हैं –“विचार के क्षणों में मुझे गद्य लिखना ही अच्छा लगता रहा है, क्योंकि उसमें अपनी अनुभूति ही नहीं, बाह्य परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए भी पर्याप्त अवकाश रहता है।” जहाँ उनके पद्य में एक रहस्य की संभावना बनी रहती है, गद्य अपना स्पष्ट भाव व्यक्त करता है। गद्य में उनका समन्वय का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट रूप में दीखता है। स्त्री-पुरुष विषयक चिंतन में इनकी अवधारणा यही है कि नैसर्गिक रूप में पुरुष के अपने गुण हैं एवं स्त्री के अपने गुण हैं। पुरुष को पुरुषोचित गुणों में आगे बढ़ना चाहिए तो स्त्री को स्त्रियोचित गुणों का अर्जन करना चाहिए। उनका यह समन्वित दृष्टिकोण आधुनिक नारी के विद्रोही रूप को भी गलत बताता है। एक स्त्री का पुरुष की छाया बन जाना, दब्बू बने रहना भी उन्हें गलत लगता है और कई सदियों के पुरुष प्रधान समाज द्वारा किए गए अत्याचारों की प्रतिक्रिया स्वरूप स्त्री का यह दिखावा कि वह पुरुषोचित कर्मों में भी पुरुषों की बराबरी कर सकती है – यह भी उन्हें नैसर्गिक नहीं दीखता। उन्हें भारतीय स्त्री में सभी संस्कार-जन्य गुण दीखते हैं पर इन सब के बावजूद वह इन अलौकिक गुणों को अलौकिक कर्मों का प्रखर रूप नहीं दे पाती, अपने इस भाव को वे इस प्रकार व्यक्त करती हैं – “परन्तु क्या हम उसकी निष्क्रियता की प्रशंसा ....”।
’हिंदू स्त्री का पत्नीत्व’ में “शिक्षा की दृष्टि में दो प्रतिशत भी साक्षर नहीं हैं। प्रथम तो माता पिता कन्या की शिक्षा के लिए कुछ व्यय ही नहीं करना चाहते, दूसरे यदि करते भी हैं तो विवाह की हाट में उसका मूल्य बढ़ाने के लिए, कुछ उनके विकास के लिए नहीं।“ अपने इसी आलेख में “पत्नीत्व की अनिवार्यता से विद्रोह” को वे अपनी दशा के प्रति जताया गया“असन्तोष” करार देती हैं, पर साथ ही ऐसी स्त्रियों के लिए यह भी स्पष्ट कर देती हैं –“जिससे शेष महिमा भी नष्ट हो जावे” अर्थात् पत्नीत्व की अनिवार्यता से विद्रोह, स्त्री की शेष महिमा को विनष्ट कर देता है। अतः यह कोई समाधान नहीं है। ’जीवन का व्यवसाय’ में“उसके स्त्रीत्व के विकास तथा व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए सत्ता साध्य है और ’रमणीत्व’ साधन-मात्र”। इतनी बेबाक बयानी, निष्पक्ष भाव, चिन्तन व सत्य की स्थापना खुलकर करना, क्या यों ही संभव है? यहाँ यह बात और भी महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट इसलिए हो उठती है, क्योंकि महादेवी द्वारा कही जा रही है, किसी गृहस्थिन-मात्र के द्वारा नहीं।
अपने उद्धार के लिए स्त्री को स्वयं भी प्रयत्न करने होंगे। समाज का योगदान क्या हो, इसके लिए – “उसमें फिर गरिमामय स्त्रीत्व की प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए मनुष्य की समाज सहानुभूति तथा स्निग्धतम स्नेह चाहिए।“ आज के परिप्रेक्ष्य में भी १९३४ में व्यक्त उनके विचार उतने ही सटीक हैं- “ पतित कही जाने वाली स्त्रियों के प्रति समाज की घृणा हाथी के दाँत के समान बाह्य-प्रदर्शन के लिए है और उसका उपयोग स्वयं उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा की रक्षा तक सीमित है। पुरुष इनका तिरस्कार करता है समाज से पुरस्कार पाने की इच्छा से और इन अभागे प्राणियों को यातनागार में सुरक्षित रखता है अपनी अस्वस्थ लालसा की आग बुझाने के लिए, जो इनके जीवन को राख का ढेर करके भी नहीं बुझती। समाज पुरुष-प्रधान है, अतः पुरुष की दुर्बलताओं का दंड उन्हें मिलता है, जिन्हें देखकर वह दुर्बल हो उठता है।“ आधे शतक से भी अधिक की अवधि बीत जाने के बाद भी कहीं, रत्तीभर परिवर्तन इन स्थितियों में आया होता तो ’मण्डी’ जैसी फिल्में न बनतीं; अर्थात् हम जस के तस हैं और आधुनिकता के उपकरण जुटा कर स्वयं के आधुनिक होने के बोध से ग्रस्त। इसका समाधान व प्रतिकार कैसे संभव हो, इसकी व्यवस्था भी महादेवी ने वहीं दी है –“जब तक पुरुष को अनाचार का मूल्य नहीं देना पड़ेगा, तब तक इन शरीर व्यवसायिनी नारियों के साथ किसी रूप में कोई न्याय नहीं किया जा सकता। यह “मूल्य” क्या हो? अर्थदण्ड-मात्र नहीं, यह एकदम स्पष्ट है और साथ ही यह भी मूल्य नहीं है जो अति आधुनिक सभ्यता में रँगे महानगरीय परिवारों की स्त्रियाँ एक नया खेल (भाड़े के पुरुष के वस्त्र एक-एक कर उतारने, नोचने का खेल), खेल कर ले रही हैं। -सावधान !
’जीने की कला’ में कहा – “जीवन का चिह्न केवल काल्पनिक स्वर्ग में विचरण नहीं है, किन्तु संसार के कंटकाकीर्ण पथ को प्रशस्त बनाना भी है। जब तक बाह्य तथा आन्तरिक विकास सापेक्ष नहीं बनते, हम जीना नहीं जान सकते।“ महादेवी स्वयं इसका साक्षात् प्रमाण रहीं। वे जिन आध्यात्मिक, धार्मिक अनुभवों को अनुभूत कर चुकीं थीं, मात्र उन्हीं से संतुष्ट होकर उन्हीं में ’विचरण’ करने नहीं बैठ गईं बल्कि क्रियात्मक रूप से जीवन के, जन-जन के“पथ को प्रशस्त” करने के कार्यों में वे यावज्जीवन जुटी रहीं। वे जैसे अपने अन्तर्जगत् के प्रतिसचेत थीं, वैसे ही बाह्य जगत् के प्रति क्रियाशील।
उनके संस्मरणात्मक निबन्धों में जहाँ एक ओर प्यार बाँटती फिरती महादेवी दृष्टिगोचर होती हैं, वहीं ’भारतीय संस्कृति का स्वर’ में, श्रृंखला की कड़ियाँ’ में, ’मेरे प्रिय सम्भाषण’ में ज्ञान बाँटतीं, प्रेरणा और संदेश बाँटतीं, सहायता प्रस्तुत करतीं महादेवी।
एक आलेख के कलेवर में महादेवी के समूचे रचना-संसार को समाहित करना, बड़ा ही बचकाना प्रयास है, तथापि उन स्मृति में उनसे प्रेरणा लेने का संकल्प करें, आत्मावलोकन करें, स्त्री-विमर्श को इस देश की मिट्टी का संस्कार दें; यही उनके प्रति सच्चा आदर है, सम्मान है।
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