मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

भाषा, पठनीयता, और शिक्षण के संकटों का पाठ्यक्रम : (डॉ.) कविता वाचक्नवी


अमेरिका में बच्चों में भाषा, विभिन्न विषयों की शिक्षा व पठनीयता के संस्कार हेतु कई अति रोचक प्रकार की व अकल्पनीय प्रतियोगिताएँ, खेल, आयोजन आदि होते हैं। ये इतने अधिक प्रकार के होते हैं कि उन की सूची भी नहीं दी जा सकती। और ये एकाध दिन के लिए नहीं, अपितु वर्षों-वर्ष निरन्तर लम्बी व अथक भागीदारी की अपेक्षा व माँग करते हैं। बच्चे तो क्या, उन के माता-पिता तक पस्त- ध्वस्त हो जाते हैं। उन सब की बात उठाना यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है। इंग्लैण्ड / ब्रिटेन तथा यॉरोप के विभिन्न देशों में खिलौनों के माध्यम से भाषा-शिक्षण वाले विषय पर तो मैं पहले भी कई बार लिख ही चुकी हूँ। वह तो ऐसा कल्पनातीत संसार है कि किसी को अनुमान भी नहीं होगा। इन विकसित देशों में शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, अध्ययन, पठन-पाठन इत्यादि को इतना रोचक व अधुनातन बना दिया जा चुका है कि 'लर्निंग' खेल बन चुकी है और भाषा सिखाने या भाषा को बचाने या पठनीयता के संकट, या प्रकाशन की चुनौतियाँ, या प्रकाशकों की ठगी, या लेखकों के मरण, या लेखक-प्रकाशक से ले विश्वविद्यालयों और सरकारी खरीद में छलपूर्वक की गई अपनी पुस्तकों की बिक्री जैसी सारी समस्याओं का मुख नहीं देखना पड़ता। पुस्तकें, लेखक, प्रकाशक, उन के व्यापार, पठनीयता, भाषा, अध्ययन-अध्यापन, पुस्तकालय, इत्यादि-इत्यादि सब सुचारु चल रहे हैं।

दूसरी ओर भारत में, उपर्युक्त सभी की क्या दशा है, यह किसी से छिपा नहीं, उपर्युक्तों तथा इन से जुड़ी संस्थाओं, पुरस्कारों का खेल, संगठनों, संस्थाओं, अकादमियों में घुसा-घुसी की ठेलमठेल, लट्ठबाजी और जुगाड़ूतन्त्र, लेखकों का बिकाऊपन, सम्पादकों की कृपा-दृष्टि पाने को महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ती समलिंगी और विपरीत लिंगी वांछाएँ, पैसे दे-ले कर किए प्रकाशन, भाषाओं की राजनीति, भाषाओं के अवमिश्रण, अधकचरे भाषा रूपों वाले पत्रकार और समाचारपत्र तथा मीडिया हाउस ...... इस पोलमपोल जगत की सूची अनन्त है। अनन्त क्यों है? क्योंकि किसी को मूलतः ठीक पढ़ना-लिखना नहीं आता और न किसी की इस में रुचि है।

मैंने आरम्भ में प्रत्येक नयी पीढ़ी में रुचि बनाए रखने हेतु तथा इन समस्याओं से समाज को दूर रखने हेतु अमेरिका तथा यॉरोप में होते आ रहे सार्थक तथा सफल प्रयासों की जो बात कही, उन का सर्वप्रमुख भाग होते हैं - बहुत शैशव और बालपन से ही कई अति रोचक प्रकार के खिलौने व अकल्पनीय प्रतियोगिताएँ, खेल, आयोजन आदि। इन में से एक आयोजन होता है, जिस का नाम है Read-a-thon. यह Read-a-thon बहुधा फण्ड-रेज़िंग के लिए होता है। छोटे-छोटे बच्चे अपनी पसन्द की कोई-सी भी पुस्तक अपने-अपने क्षेत्र व परिचय के लोगों के पास जा तीव्रता से पढ़ते (वाचिक) हैं और प्रत्येक बालक के इस वाचन पर बड़े लोग कुछ धन राशि (पुरस्कार नहीं) उन की संस्था अथवा निमित्त हेतु दान करते हैं और फिर कोई धनपति कुल जमा राशि के बराबर की राशि उस में अपनी ओर से जोड़ता है, जो आयोजक संस्था के लिए एकत्र हो रही होती है और जिसे वे अपनी किसी घोषित योजना में प्रयोग करते हैं। ये Read-a-thon 24 घण्टे की अवधि में एक बैठक में किए जाते है बहुधा। तो बच्चों को बहुत तीव्र गति से और बहुत शुद्ध रूप से पूरी पुस्तक पढ़ कर सुनानी होती है क्योंकि सर्वाधिक धनराशि एकत्र कर पाने वाले सफल बालक को पुरस्कृत भी किया जाता है। और यह तभी सम्भव है जब वह ठीक-ठीक पढ़ेगा तथा कोई उस के पाठ से प्रभावित हो उस के दानपात्र में राशि डालेगा, रसीद लेगा या चेक देगा।

आप को जान कर आश्चर्य होगा कि यहाँ चौथी-पाँचवीं तक के अमेरिकन बच्चे अकल्पनीय गति से पुस्तक पढ़ते हैं। बच्चों को यह नहीं कहा जाता कि अमुक-अमुक महान लेखक की ही पुस्तक पढ़नी है। सामान्य-से-सामान्य बालक अपने दैनन्दिन जीवन में प्रति सप्ताह कई पुस्तकें पढ़ डालता है, अपितु कहना चाहिए चाट डालता है। छोटे-छोटे बच्चों की पढ़ने की गति इतनी अधिक तीव्र है कि आप हक्के-बक्के रह जाएँगे। स्वयं मैं चमत्कृत होती आई हूँ। पढ़ने की गति का समझने व सीखने की गति से क्या सम्बन्ध है, इसे जानने हेतु किसी भी विशेषज्ञ से सम्पर्क कर पुष्टि की जा सकती है।

दुर्भाग्य से हिन्दी में ऐसा कोई लेखक, या ऐसी कोई कृति नहीं है जिसे ऐसा 'चाट जाने' जैसा प्यार बच्चों से मिलता हो, कि जिस से वे ऐसे चिपट-चिपक जाएँ, कि उन्हें अलग करना कठिन हो। ऐसा कार्य केवल लोकप्रिय साहित्य के उपन्यास कर सके कि वे जिस भी आयु वाले के हाथ लगे, वह व्यक्ति उसे एक ही बैठक में बिना विराम के समाप्त करने को तत्पर रहता था (यह बात अलग है कि मैं पहले ही कुछ प्रमाण दे चुकी हूँ कि वे बहुत-से उपन्यास अंग्रेजी उपन्यासों से उड़ाए भी गए थे)।

आज यदि हिन्दी पट्टी अपनी नयी पीढ़ी को भाषा से परिचित रखना चाहती है तो उसे उन्हें भाषा सिखानी होगी। सत्य यह है कि भारत का एम ए / पोस्ट ग्रॅजुएशन तो क्या पीएच डी तक का विद्यार्थी नितान्त भ्रष्ट हिन्दी लिखता है। विद्यार्थी तो क्या सैंकड़ों अध्यापक, पत्रकार और सम्पादक तक अशुद्ध हिन्दी लिखते हैं। और तो और, बहुतेरे हिन्दी लेखक महाभ्रष्ट हिन्दी लिखते हैं, जिन्हें प्रूफ़रीडर सही-गलत कुछ सुधारता है और कुछ को मशीन की गलती कह कर काम चलाया जाता है। अब प्रूफ रीडिंग की तकनीक ने ऐसों पर बहुत कृपा की है। अस्तु !

तो फिर एम ए के पाठ्यक्रम में 'लोकप्रिय साहित्य' नामक एक पर्चे में वैकल्पिक विषय के रूप में लोकप्रिय उपन्यासों को जोड़ने के निर्णय पर इतना बवाल और हल्ला क्यों मच रहा है ? वह इसलिए क्योंकि हल्ला करने वाले अपने स्नॉबिश खोल में इतना cozy cozy अनुभव किए बैठे हैं कि उन्हें करवट लेना तक गवारा नहीं। दूसरे, वे तो आज तक अपने अतिरिक्त भूमण्डल पर किसी अन्य के महान् हो सकने की समस्त सम्भावनाओं का सम्पूर्ण उन्मूलन कर चुके हैं। तीसरे, उन की खरीद और बिक्री का क्या होगा अब, जो इतने समझौते कर जिस-किसी प्रकार जुगाड़ी थीं। चौथे, उन की राजनैतिक वितण्डाओं का तकाजा है कि चिल्लाओ-चिल्लाओ। पाँचवें, उन के पास करने को कुछ और नहीं है आजकल जब से सत्ता की मलाई आनी बन्द हुई है। छठे, अब उन्हें कौन पढ़ेगा ? सातवें, यदि किसी ने लोकप्रिय साहित्य पढ़ लिया तो वह भूल कर इन्हें सर्वश्रेष्ठ कहने नहीं आएगा। आठवें, यह प्रकट हो जाएगा कि न ये सर्वश्रेष्ठों की श्रेणी के हैं, न लोकप्रियों की .... तो किस पंक्ति में जाएँगे। नवें, हिन्दी में अधिक लोग निष्णात हो गए तो इन का महिमामण्डल तो टूटेगा ही, साथ ही यह भी पता चल जाएगा कि दो -चार विषयों के अतिरिक्त कैसे इन्होंने समाज से कटा हुआ लेखन किया है; फिर प्रश्न उठेंगे कि इतना मायाजाल का तिलिस्म इन्होंने रचा तो रचा कैसे...... ऐसे और भी बहुतेरे कारक हैं।

कोई इन से पूछे कि -
  • - एम ए और उस से भी पहले यदि 'लोक साहित्य' पढ़ाया जा सकता है तो 'लोकप्रिय साहित्य' क्यों नहीं ? लोक-प्रिय भी तो लोकमानस का पता देता है ।
  • - क्या एम ए का विद्यार्थी इतना शैशवावस्था में होता है कि उस पर गलत संस्कार पड़ जाएँगे ? 
  • तो फिर मण्टो को महान लेखक आप ने क्यों कर माना ?

गत दस वर्ष से अधिक से लिखी जा रही ब्लू-पॉयट्री और अश्लीलतापूर्ण विवरणों वाली गद्य-पद्य रचनाओं (चाची अपने भतीजे का पौरुष जगाने की भावना से उस से सम्भोग करती है, दस वर्ष से पूर्व लिखा एक महान लेखिका का उपन्यास अंश) के विवरणों वाले तथा उस जैसे कई अन्य उपन्यासों तथा कथाओं को यदि आप श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में रखते-छापते, प्रकाशित करते, सराहते, पुरस्कृत करते, लेखक को पद देते इत्यादि हैं ,तो आप के साहित्य और पसन्द का स्तर जग-जाहिर है।

और अब तो ऑर्गैज़म-अभियान की समस्त रचनाओं को श्रेष्ठ रचनाएँ और ऑर्गैज़म के लिए हर घर का कुण्डा खटकाती लेखिकाओं को श्रेष्ट रचनाकार मान लेने के बाद आप का स्तर छिपाने को रह क्या गया है?
इसलिए भाई लोगो! नौटंकी बन्द करो। इस नौटंकी में आप का उभयलिंगत्व प्रकट होने-होने को दीखता है। आप का इतिहास और कारनामे आप के इस विधवा-विलाप से मेल नहीं खाते। न कोई इस विलाप पर रीझेगा और न कोई सीझेगा; यही इस की नियति है।
© - कविता वाचक्नवी


ऐतिहासिक ध्वंस और पुनर्निर्माण : (डॉ.) कविता वाचक्नवी

 2-3 सौ वर्ष पूर्व आई औद्यौगिक क्रान्ति के साथ पश्चिम में साईंस और रिलीजन दो हुए, और रिलीजन के फंदे से कुछ लोग बाहर निकले तथा कुछ आधुनिक होने लगे अन्यथा रिलीजन वालों का उस से पूर्व के लगभग 17-अठारह सौ वर्ष कितना भयंकर कुत्सित एवं क्रूर रूप था, इस का अनुमान आज के आतंकी को देख कर भी आप नहीं लगा सकते। एकदम जंगली, नृशंस और हत्यारा समाज था।

केवल स्त्रियों के प्रति सभी प्रकार के आत्यन्तिक अमानुषिक व्यवहार की ही परत खोलें तो उस समाज की पारिवारिक व पंथानुगत संरचना का कलुषित रूप देखा–सोचा न जा सकेगा। साईंस इसीलिए रिलीजन की शत्रु बनी। उन आत्यन्तिक अमानुषिक कदाचारों व नृशंसताओं के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के चलते तुलनात्मक सन्दर्भों में उस क्रूर काल के घटनाक्रम को पितृसत्तात्मकता के रूप में परिभाषित किया गया। वह अपने समाज पर उन के अपनों का दोषारोपण था।

दुर्भाग्यवश भारत के कुपढ़ों ने, जिन्हें इस पश्चिमी समाज की तत्कालीन संरचना, इतिहास व वास्तविकता का रञ्चमात्र भी अनुमान नहीं, पता होना तो दूर; उन्होंने यहाँ के वर्तमान से सारे आरोप अपने समाज पर आरोपित कर लिए, यहाँ पश्चिम के आयातित विमर्शों, चिन्तन, मुद्दों, बहसों को ज्यों-का-त्यों अपना बना-कह-समझ-लिख कर । इस से बड़ा, क्रूर विद्रूप कोई अन्य नहीं हो सकता था।

जिन मूर्खों को यहाँ के घटनाक्रम, इतिहास, संरचना, समाज का आभास तक नहीं था, वे अपने अन्धे दीदों के मारे अपना अभिशाप समूची भारतीय संस्कृति के मत्थे मढ़ झूठे गवेषक बन गए। और कई भारतीय पीढ़ियाँ अभिशप्त रही हैं इस तथाकथित गवेषणा को ढो अपनी पीठ रक्तिम करते। पितृसत्तात्मक क्रूरता पश्चिम के समाज का इतिहास व अभिशाप थी।

यदि भारतीय इतिहास को ठीक से पढ़ा-जाना होता, और पश्चिमी समाज के इतिहास की वास्तविकता का किञ्चित भी आभास होता तब तो कोई समझ पाता कि रजकण की सूर्य किरण से क्या तुलना ? किन्तु भारतीय समाज के साथ अपने अज्ञान और धूर्ततावश किए इस दुराचार को करने वालों ने जो जघन्य अपराध किया है, उस की गम्भीरता का 1% भी अनुमान आज संस्कृति- संस्कृति चिल्लाने वाले तथाकथित पढ़े-लिखों तक को नहीं है।

हतभागी हैं ये सब पीढ़ियाँ और हतभागी है हमारा क्रीत समाज। ऐसा भयंकर पाप किया गया है। और ऐसा करने वाले अभी चुके नहीं हैं, वे निरन्तर अजस्र उन्हीं स्खलनों में स्वयं भी रत हैं और अन्यों को स्खलित करने की कुचेष्टाओं में भी निमग्न।

इधर भारतीय समाज है कि उसे इस लूट व कदाचार का कोई अनुमान ही नहीं, वह जरा-सी राजनैतिक जीत को ही अपनी परम संतुष्टि का माध्यम व ध्येय मान लेता है, या जरा-सी छुटपुट गति बढ़ने को अपनी परम विजय। ऐसे लोगों का यह जानना अत्यावश्यक है कि आप देश व संस्कृति के साथ खड़े हैं तो यह युद्ध तो अभी पूरा शेष है। युद्ध क्षेत्र में अभी तो आप पूरे डटे तक नहीं हैं। युद्ध अभी शेष हैं, विजय तो उस के बहुत बाद होगी और विजय के बहुत पश्चात् फिर ध्वंस का अनुमान लगाया जाना होगा; तब कहीं जा कर पुनर्निर्माण के कार्यों की नींव रखी जा सकेगी।

इतना धैर्य है न ? नहीं है तो सीखिए अन्यथा विश्व में अन्य कोई शक्ति नहीं है जो उस वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर को खोज या बचा सके। वह धरोहर विलुप्ति की सीमा पर है और विश्व इतिहास आप को व हमें कभी क्षमा नहीं करेगा, किञ्चित नहीं, कदापि नहीं।
© - कविता वाचक्नवी

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