हिन्दी के मरण के वाचाल और मूक साक्षी : कविता वाचक्नवी
लन्दन के एक प्रतिष्ठित संस्थान ने उनके यहाँ #हिन्दी अध्यापन के लिए अपनी पहल पर मुझे एक लिखित प्रस्ताव गत दिनों भेजा है। मना करने का इतना दुःख नहीं है जितना उनकी इस बात पर चुप रह जाने का कि कोई और मातृभाषा हिन्दी का, अध्यापन अनुभव वाला तथा न्यूनतम मास्टर्ज़, पीएचडी योग्यता का सुयोग्य पात्र उन्हें सुझाऊँ।
जिन्हें हिन्दी को लेकर बहुत से भ्रम हैं , उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हिन्दी की स्थिति अब लगभग 'बोली' हो चुकने की हो गयी है। सामान्य व प्रबुद्ध जन तो क्या, इस भाषा के लेखक तक अकादमिक विषयों से अछूते हैं। क्योंकि किसी भी भाषा को जीवित रहने में सहायक होते हैं उसमें व्यक्त-निहित 'विचार', किस्से-कहानी नहीं और उस भाषा में दिए जाने जाने वाले ईनाम-इकराम नहीं और उनकी ओर दौड़ने में सब कुछ तबाह कर देने वाली अन्धी भीड़ नहीं।
आप यदि यूनेस्को द्वारा जारी बची रह जाने वाली भाषाओं की सूची में हिन्दी का नाम देखकर निश्चिन्त हैं अथवा उसकी विश्व की भाषा-सूचियों में आगे-पीछे सरकता हिन्दी का नाम देखकर प्रसन्न हैं, तो आप किसी बहुत बड़े भ्रम, धोखे और नासमझी में हैं। आप गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, या सोशल मिडिया पर हिन्दी के टूल्ज़ और उनकी चर्चा से आह्लादित और कृतकार्य अनुभव करते हैं तो आपसे बड़ा चार्वाकी और कोई नहीं। आप विदेशों में मुट्ठीभर लेखकों द्वारा अपनी अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी को प्रयोग होता देख सीना फुलाते अथवा नतमस्तक होते हैं तो आप पर हँसना तक व्यर्थ है। क्योंकि आप को पता होना चाहिए कि लन्दन के संस्कृत स्कूल में कोई भारतीय नहीं जाता, ब्रिटेन में हिन्दी पढ़ने की सारी व्यवस्थाओं में से भारतीय नदारद हैं। अमेरिका के जिस नगर में मैं रहती हूँ उसमें न्यूयॉर्क से इतर सर्वाधिक भारतीय रहते हैं, यह स्वयं में लघु-भारत ही है किन्तु हिन्दी के अकादमिक अध्ययन की विद्यालय और विश्व विद्यालयीय व्यवस्थाओं में से भारतीय लगभग गायब हैं। पूरे अमेरिका की लगभग यही स्थिति है।
विश्वभर का भारतीय और भारतवंशी समाज इस भाषा में अवमिश्रण आदि के साथ बोल सकने की कामचलाऊ योग्यता अर्जित करने की स्थिति से बहुत सन्तुष्ट और निश्चिन्त है। जिस भाषा के उच्चरित भाषा रूपों से उसका अपना समाज सन्तुष्ट हो जाता है और किसी प्रकार के योगदान व श्रम से किनारा कर लेता है और प्रशासन तथा तन्त्र पर सब आरोप मढ़ता है, उस भाषा का अन्त सुनिश्चित है। इसलिए यह तय मानिए कि हिन्दी आगामी सौ वर्ष भी जीवित रह पाई, इसकी सम्भावना अत्यल्प है। #संस्कृत की स्थिति को देखकर किसी भ्रम में न रहें, हिन्दी न तो संस्कृत है, न ही कभी उतनी समृद्ध हो सकी, आगे तो कभी अब हो भी नहीं सकती।
The bottom line is that if there is only one person left who speaks the language as their native tongue and fluently, then the language has died. It doesn’t matter if there are still other members of the community that understand the language or maybe speak a little bit of it. Even if there are elders in the community who refuse to teach their native tongue to the younger generation, the language is doomed as it won’t survive to be passed on to a new generation as a native language.
आइये हम सब 10 जनवरी को मनाए विश्वहिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी के इस मरण के साक्षी बनें और उसकी चिता में कुछ समिधाएँ रख सकने लायक नाता इस से बनाए रख सकें।