“आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है”
(डॉ.) कविता वाचक्नवी
(9 दिसंबर 2007 को कवि त्रिलोचन जी के अवसान पर लिखा गया एक आलेख )
"मैंने कब कहा था
कविता की साँस मेरी साँस है
जानता हूँ मेरी साँस टूटेगी
और यह दुनिया
जिसे दिन - रात चाहता हूँ
एक दिन छूटेगी,
मैंने कब कहा था
कविता की चाल मेरी चाल है
जानता हूँ मेरी चाल रुकेगी
और यह राह
जिसे दिन – रात देखता हूँ
एक दिन चुकेगी,
मैंने कब कहा था
कविता की प्यास मेरी प्यास है
जानता हूँ मेरी प्यास तड़पेगी
और यह तड़प
जिसे दिन – रात जानता हूँ
और – और भड़केगी।"
(डॉ.) कविता वाचक्नवी
(9 दिसंबर 2007 को कवि त्रिलोचन जी के अवसान पर लिखा गया एक आलेख )
"मैंने कब कहा था
कविता की साँस मेरी साँस है
जानता हूँ मेरी साँस टूटेगी
और यह दुनिया
जिसे दिन - रात चाहता हूँ
एक दिन छूटेगी,
मैंने कब कहा था
कविता की चाल मेरी चाल है
जानता हूँ मेरी चाल रुकेगी
और यह राह
जिसे दिन – रात देखता हूँ
एक दिन चुकेगी,
मैंने कब कहा था
कविता की प्यास मेरी प्यास है
जानता हूँ मेरी प्यास तड़पेगी
और यह तड़प
जिसे दिन – रात जानता हूँ
और – और भड़केगी।"
(विपर्याय / त्रिलोचन)
रचनाकार त्रिलोचन का चले जाना यों दुःखद है, क्षति है किंतु स्वाभाविक प्रक्रिया है जीवन की; किंतु यों चले जाना (तमाम दुरभिसंधियों की पीड़ा लिए) अपने कभी न धुल-पुँछ सकने वाले सामाजिक पापों की पीड़ा – सा, सालता है। जगत् के कालातिक्रमी रंगमंच से नायकों का नेपथ्य में जाना नाटक का अंत तो नहीं होता, हाँ अध्याय का अंत हो पटाक्षेप की घड़ी अवश्य है।
यह अवसान है एक ऐसी प्रखर जीवनीशक्ति का, ऐसी अदम्य ऊर्जा का जिसके प्राण हिंदी की कविता में बसते थे। साँसें कविता में रची हुई थीं और जिसका स्वप्न था कि जब उसकी साँस टूटे, दुनिया छूटे, उसके बाद भी कविता की साँस अनवरत रहे। आने वाले समय में हिंदी कविता की जीवनीशक्ति के रूप में यश:काय हो वे कालजयी ही रहेंगे।
इधर वे लम्बे समय से अस्वस्थ थे, लगभग बिस्तर ही पकड़ लिया था, स्मृति भी कई बार बीच-बीच में खो गई-सी उन्हें लगती। आश्चर्य यही है कि बौद्धिक स्तर पर व शारीरिक स्तर पर भी अशक्त-ता झेलते हुए वे स्वयं अपनी इन दोनों दुर्बलताओं से सतत संघर्ष करने का जीवट बनाए रहे। उनकी पिछले कुछ वर्षों में उनसे मिलने गए लोगों से हुई बातचीत आदि इसके प्रमाण हैं। आयुजन्य विस्मृति व रोग से घिरे हुए भी वे सचेत, सक्रिय व जागरूक ही मिले। अपने संस्मरणों इत्यादि में लोगों ने इसे पुष्ट किया है कि विस्मृति-सी की अवस्था वाली उस आयु में भी काव्य-धर्मिता के अतिरिक्त वे वैचारिक स्तर पर सर्वदा काव्य-चिंतन, मनन व विश्लेषण में पूरी तरह सजग थे। हरिद्वार के अपने आवास पर जब वे लगभग टुकड़ों-टुकड़ों में बातें किया करते थे, या कह सकते हैं कि अर्धनिद्रा के बीच-बीच में एक प्रकार के `फ्लैशज़’ जब उन्हें आया करते, वे एक विषय तो कभी दूसरे विषय पर अपनी विश्लेषक पकड़ को प्रमाणित करते बातें करते, तब भी वे कभी निराला की कविताओं के रहस्य खोलते पाठ – विखण्डन करते व्याख्या कर रहे होते, कभी अपनी किसी कविता की रचना-प्रक्रिया या सन्दर्भ उनके विषय होते। उनके व्यक्तित्व में अनुभवों, स्थितियों व रचनाशीलता तक के विश्लेषण की यह जो अद्भुत व अलभ्य प्रतिभा थी, वह एक ओर जहाँ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट रचना के मर्म व प्रक्रिया तक पहुँचती थी, वहीं समाज के जाने कितने चरित्रों के व्यक्तित्व में निहित भिन्न-भिन्न मनोदशाओं तक का विश्लेषण, दर्शन कर उसकी गुत्थियाँ सुलझा लेती थी। इसी प्रतिभागत प्रवृत्ति के चलते उन्होंने भारतीय परंपरा के महान् कवियों, साहित्य व विमर्श आदि के अत्यन्त महत्वपूर्ण विश्लेषण अपनी चर्चाओं, वक्तव्यों आदि में किए ही; वहीं दो एकदम विपरीत प्रतीत होने वाले पात्रों तक को समान व प्रामाणिक अनुभूति से ‘एक’-सा बना कर ढाल दिया। सूक्ष्मातिसूक्ष्म पर उनकी संवेदनात्मक पहुँच, भाषा पर नियन्त्रण ही नहीं अपितु शब्द-चयन के प्रति अन्त तक अतिरिक्त जागरूकता, अदम्य काव्य-ऊर्जा, जीवनासक्ति का अथाह कोष, भाषा में सतत प्रयोगधर्मिता का गुण उन्हें अद्वितीय रचनाकार के रूप में स्थापित व प्रमाणित करते हैं। इन विशेषताओं के कारण वे किसी ’प्रकार’, ’वर्ग’, ’धारा’ या ’पंक्ति’-विशेष के नहीं अपितु अपनी ही तरह के रचनाकार के रूप में स्मरण किए जाएँगे।
उनकी रचनाओं के भीतर जो लोक सम्पृक्ति उद्घाटित होती है उसमें एक अपढ़ चंपा है जो एक अक्षर भी नहीं पहचानती, पर इसके बावजूद वह संबंधों के महत्व को पहचानती है (चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती)। एक दुर्लभ होते विनम्र भाव, आत्मीयता व सरोकारों की व्यापकता के चलते वे कभी आत्मसम्मान खो कर हीन हुए किसी परिचित को अपना नाम देकर“भीख माँगते....” रच देते हैं, कभी सच्चे भारतीय-मानस के ऋणी व विनम्र भाव में पगी “तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी/मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो”, फिर कहीं आम अपढ़ स्त्री की संबंधों को दी जाती वरीयता के चलते “कलकत्ते पर बजर गिरे” की उसकी संवेदना के बहाने महानगरीय सभ्यता की निर्मूलता बताने के साथ-साथ आधुनिकता के तर्कों को खारिज भी कर रहे होते हैं। उनकी कविताओं में लू, वर्षा, जाड़े तक में कुदाल, खुरपी या हल लेकर काम में जुटा भारतीय मनुष्य है (“मैं तुम्हारे खेत में तुम्हारे साथ रहता हूँ/ कभी लू चलती है कभी वर्षा आती है कभी जाड़ा आता है/तुम्हें कभी बैठा भी पाया तो जरा देर........कभी अपने आप और कभी कई हाथों को लगाकर/काम किया करते हैं”), शरद की नवमी की हल्की ठंडक-भरी रात से प्रेम करने वाला पात्र है (ऋतु शरद और/नवमी तिथि है/....है अभी नहीं जाड़ा कोई/बस ज़रा-ज़रा रोंएँ काँपे) और शरद की पूर्णिमा को बेले के गजरो से शृंगार करने वाली गजरे गूँथ कर प्रसन्न होती स्त्रियाँ हैं (“बेले की कलियों के गजरे बनाऊँगी”)। प्रेमपूर्ण, कर्मशील और प्रसन्नचित्त साधारण जन से त्रिलोचन का भारत निर्मित होता है। वे इस जन के साथ इस देश की ऋतुओं, फसलों,वनस्पतिओं, क्रिया-व्यवहारों, जीवनयापन, त्यौहार, मेल-मिलाप, आपसी संबन्धों, इस देश की परंपरा,नायक, संस्कृति, सभ्यता, भाषा व भूगोल से निरन्तर जुड़े हैं, प्रेम करते हैं, रेखांकित करते हैं। कुम्भ-स्नान के लिए हज़ारों-हज़ार कष्ट सहकर भी डुबकी लगाने आने वाली भीड़ की मनोवृत्ति को तर्क से निरस्त नहीं करते, अपितु उसकी आस्था का सम्मान करते हैं और पाप व कलुष धोने की भावना का आदर भी — “आने दो, यदि महाकुम्भ में जन आता है/कुछ तो अपने मन का परिवर्तन पाता है”। समस्त भारत के साधारण जन, साधारण जीवन व सामान्य दिनचर्या,उससे जुड़ी छोटी-बड़ी बातें, घटनाएँ, तौर-तरीके, चिंता के विषय, आपसी व्यवहार उनके जीवनयापन से जुड़ी छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी चीज समूचे भारत का एक साँझा चित्र निर्मित करती है। समस्त भारत की एक परिकल्पना के रूप में विकसित इस संस्कार का बीजवपन करना ध्येय के रूप में उनके शब्दचित्रों का इंगित रहा। प्रत्येक भारतीय को संबोधित व प्रत्येक भारतीय को अभिव्यक्त करती ऐसी रचनाएँ उन योजक तत्वों को उभारने में रमी हैं, जो मूलतः एकरूप थे। यह कार्य समयानुरूप व सहायक तत्व के रूप में सर्वदा रेखांकित किया जाएगा।
राष्ट्रीयता के मोल पर वैश्विकता, जातीयता के मोल पर अखिल मानवता के पैर पसरने लगे जब, व उदारवादी भारतीय जनता सांस्कृतिक कट्टरता के प्रति सन्नद्धता का परित्याग तक करके भी कुटिल और लुभावने षड़यन्त्रों का शिकार होने में भी पीछे न रही; तब परिणाम वही – व्यक्ति अकेला, असहाय – “ मानव समाज नर-नारी के हाथों से/ व्यक्तियों, समूहों, वर्गों, देशों का रूप लिया करता है/ व्यक्ति ही तो मूल है यहाँ वहाँ जो कुछ है/ लेकिन व्यक्ति कितना असहाय है अकेले में/ मेले में सभी कितने अलग-अलग होते हैं/ परिवार में राग व्यक्ति का अलगाया रहता है/ जहाँ लोग एक-दूसरे के पास, बहुत पास होते हैं”। व्यक्ति-व्यक्ति की सामूहिकता के तत्त्वों व पारस्परिकता से ही देश का निर्माण होता है। बड़े यत्नों से पाल-पोस कर जिस जातीय भावना को पुंजीभूत एकीकृत किया गया था, सुविधाभोगी जीवनशैली की सभ्यता ने उसमें सेंध लगानी शुरू कर दी थी स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही; यही चिंता ऐसी कविताओं में व्यक्त हुई है। “हैं मानव इतने सारे/क्यों ये असहाय हुए/अलग-अलग हारे/चिंताओं ने/मेरे ही मन को छुआ” — चिंतामात्र से कुछ सार्थक करने की ओर बढ़ना विनाश को टालने का प्रयास है। मनुष्य के सुख-दुःख, हित-अहित के बारे में सोचती उनकी कविता मनुष्य, समाज व धरती के भविष्य को लेकर व्यग्र भी है। चराचर जगत् के प्रति अपने दायित्वों को भूल जाने का परिणाम कितना घातक हो सकता है, वह आधुनिक समाज से छिपा नहीं। जड़-चेतन जगत् के प्रति जागरूक हुए बिना, उसकी चिंता किए बिना, स्वयं व्यक्ति भी सुख से नहीं रह सकता। यह पंचतत्वों व प्राणीमात्र के प्रति संवेदनशील होने का भारतीय दर्शन रहा है। वैश्विक संवेदना का असल अभिप्राय तो वस्तुत: व्यक्ति-व्यक्ति को प्रभावित करने वाले प्रत्येक उस पदार्थ के सही संतुलन की व्यवस्था में भागीदार होना है, जो सभी मनुषों को प्रभावित करते हैं (न कि उनकी जातीय विरासत, संस्कृति, परम्परा, भाषा, पहरावे, लोकव्यवहार, देशिकता, इतिहास आदि को एकीकरण की बाधा प्रमाणित कर उन्हें विनष्ट करने, विस्मृत कर प्रयोग से खारिज करना)। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, समुद्री तूफान, सुनामी लहरों का आतंक और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएँ पर्यावरणीय व मनुष्य के जीवन यापन के संतुलन के गड़बड़ाने का ही परिणाम हैं, जिन्होंने लाखों की संख्या में लोगों को काल-कवलित कर दिया। वनस्पति, जीवजंतु, जलवायु, आकाश व पशु-पक्षी के प्रति संवेदनशील व चिंतित होकर अपने कर्तव्याकर्तव्य का पालन करने वाले मनुष्य ऐसे भयंकर मानव संहार का प्रतिषेध बड़ी सीमा तक कर सकते हैं। अन्यथा सर्वनाश तो अवश्यम्भावी है – “इस पृथ्वी की रक्षा मानव का अपना कर्तव्य है/इसकी वनस्पतियाँ, चिड़ियाँ और जीव-जंतु/उसके सहयात्री हैं, इसी तरह जलवायु और सारा आकाश/अपनी-अपनी रक्षा मानव से चाहते हैं/उनकी इस रक्षा में/मानवता की भी तो रक्षा है/नहीं, सर्वनाश अधिक दूर नहीं”। उनकी कविता ने रचनाकार और रचनाशीलता के भारतीय आदर्श मूल्यों की अपरिहार्यता के लिए सचेत करने के साथ-साथ लक्ष्य व मार्ग दोनों की शुद्धता पर बल दिया। मनुष्य के हित व उसकी चेतना को केंद्र में रखकर सामाजिक प्रतिबद्धता को भी मूल्य के रूप में निभाया – “हिंदी की कविता, उनकी कविता है जिनकी/साँसों को आराम नहीं था, और जिन्होंने/सारा जीवन लगा दिया कल्मष धोने में समाज के, नहीं काम करने में घिन की/कभी किसी दिन....।“
त्रिलोचन का लेखन मूल भारतीय संस्कृति व परंपरा को ही अपना लक्ष्य व ध्येय स्वीकारता है; जिस प्रकार सारे भारतीय दर्शन की खोज सत्यं शिवं सुन्दरम् की खोज है; उसी प्रकार त्रिलोचन की कविता उसमें स्वर मिलाती है – “किंतु मेरे अंतरनिवासी ने मुझसे कहा-/लिखा कर/तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने तुझे/एक साथ सत्य, शिव, सुन्दर को दिखा जाए”। जीवन व जगत् के सारे व्यवहारों की मर्यादा से आत्मतत्व व सत्यं, शिवं, सुंदरम् का अन्वेषण करने की यह प्रक्रिया वस्तुतः जड़ता, कलुष, कृत्रिमता आदि की सर्वव्यापी दुर्बलताओं से परे निष्कलुष की ओर जाती है। ’जीने की कला’ आ जाए तो जीवन सुगम हो और जीवन सुगम हो तो जगत् सुंदर — की उद्भावना अनेकशः उनके काव्य में आविर्भूत हुई है।
उनके निधन के पश्चात् उन लोगों व स्थितियों पर क्षोभ गहराया ही है, जो उनके साथ इन शर्तों पर थे कि वे जब तक हमारी पक्षधरता करते हैं, तभी तक उन्हें मान व अपनापन देंगे,गुण गाएँगे, साथ देंगे । …….और उनका एक बयान आया नहीं कि लोग उन्हें काट कर फेंक देते हैं, सारा सम्मान, आत्मीयता व लोकलाज तक भूल जाते हैं। पिछले कुछ महीनों में स्थितियाँ ज्यों बदलीं, उसी के साथ अपने को रेखांकित कराने के बहाने के रूप में भी बहुतों ने मानो उनका आश्रय लिया । कुछेक ने तो उनके निकट जाने को आधार देने की जद्दोजहद में पुरानी बातों के स्पष्टीकरण तक त्रिलोचन की ओर से दे डाले कि ‘अमुक’ घटना वस्तुत: वैसी नहीं थी, त्रिलोचन का मन्तव्य वह नहीं था जो समझा गया, वे ‘उनकी’ पैरवी नहीं कर रहे थे ………..या ‘वह’ वक्तव्य तो त्रिलोचन ने अपनी एक (औदार्यवृत्ति) आदत के चलते दिया था, अन्यथा उनका आशय ‘वह’ नहीं था ….इत्यादि - इत्यादि । जीवन के अन्तिम दिनों में एक श्रेष्ठ व स्वाभिमानी सर्जक - विचारक को इस स्वार्थी सहानुभूति ने तिरस्कृत ही किया । उनकी जानकारी के बिना, उनके किसी कथन या वक्तव्य का, उनकी ओर से स्पष्टीकरण देना स्वाभिमानी रचनाकार को यों मारना ही है साथ ही मौका पाकर उनकी परिस्थिति का लाभ उठाना भी है।
जिस हिन्दी समाज में हम रहते, बोलते, सोचते , चलते हैं, वह उनके कष्टों व अपनी कृतघ्नता के लिए दोषी है, उत्तरदायी है। यह पाप हम सभी के ऊपर है। रोग व आयु के कष्टों ने उन्हें जर्जर किया ही किन्तु अपने चिर साथियों के स्वार्थ व दोगलेपन का दंश झेलने के बावजूद काव्यकर्म के प्रति निरन्तरता व प्रतिबद्धता उनके जीवन के अन्यतम उदाहरण हैं। बाजारवादी व स्वार्थी होते समाज से एक अनन्य व्यक्तित्व का चले जाना साहित्येतर क्षति पहले है। इसकी कोई भरपाई नहीं, न ही हमारी पाप का कोई प्रायश्चित। कर्तव्यनिष्ठा से च्युत हुए समाज का अंग होने के कारण अपने प्रति एक धिक्कारभावना व क्षोभ से भर गया है मन। इस पीड़ा का अन्त नहीं।
आज वे हमारे मध्य नहीं हैं। चले गए। अपने पीछे छोड़ गए हैं – ’शब्द’, ’शब्द’ जो अब्दों तक जाते हैं, ’शब्द’ जो ’अ-मर’ हैं, ’शब्द’- जो ’अन्-अन्त’ हैं, ’शब्द’ – जो ’अ-क्षर’ हैं। अपने इन्हीं शाश्वत शब्दों से वे चिरन्तन विद्यमान हैं। वे हमारे पूर्वज होकर भी हमारे वर्तमान थे। उनके रहते इतिहास व वर्तमान मानो समताल- से होते। परंतु ताल टूट गई, जल तो जल में समा या होगा किंतु जिस काल के हाथों यह घट फूटा, वह हतप्रभ है कि सब बिखर गया मिट्टी के ठीकरों – सा। उनका यशःकाय अस्तित्व लोक से लेकर पंचतत्व तक की संपृक्ति का संधान करता अशेष है। बड़े या ख्यात रचनाकार आदि होने से बड़ी बात होती है बड़े व्यक्तित्व का मनुष्य होना। इन अर्थों में त्रिलोचन ऊँचे कद के रचनाकार-मात्र ही नहीं, ऊँचे व्यक्तित्व के मनुष्य पहले थे। यों, उनका जाना साहित्यिक से अधिक सांस्कृतिक –सामाजिक क्षति है।
अपने शब्दों से याद रहते हैं जाने वाले।
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