- (डॉ) कविता वाचक्नवी
अपनी पुस्तक "समाज-भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य" (हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद, 2008) की सामग्री के अंशों पर आधृत लेख
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(रंग शब्दावली के समाजभाषिक विश्लेषण तथा निराला के सम्पूर्ण काव्य का इस दृष्टि से अध्ययन करने वाले हिन्दी में यह पहली व अब तक की एकमात्र पुस्तक है )
वसंत पंचमी। सूरज ने करवट बदली। कुहासे ने रजाई तहाई। भरपूर अंगड़ाई लेकर धरती जाग उठी। दुबक कर सोए उसके अद्भुत रूप की छ्टा जो फैली तो सारी प्रकृति अपने समस्त साधनों से उसके सिंगार में जुट गई। रंग छलके पड़ते हैं, पेड़ों, पत्तों, लताओं, फूलों, पौधों, वनस्पतियों से।
सारे के सारे रंग जिस एक उजले रंग से फूटते हैं, भारतीय मनीषा ने उसके पुंजीभूत सौंदर्य को बड़ी सरस संज्ञा प्रदान की है — सरस्वती। श्वेत रंग का एक रूप आँखों को चौंधियाने वाला है। उसे हमने सूर्य कहा। आदित्य। नारायण। हिरण्यगर्भ। ब्रह्म है वह। पर श्वेत रंग का एक पक्ष बहुत शीतल है। कुंद, इंदु और तुषार जैसा शीतल। उसे हमने साहित्य, संगीत और कला का नाम दिया। शारदा, भारती, वाग्देवी, सरस्वती कहकर पूजा। वसंत पंचमी शब्द और अर्थ की उसी अधिष्ठात्री देवी के अवतरण का पर्व है।
हिंदी साहित्य जगत् में वसंत पंचमी का यह पर्व ’निराला’ के भी अवतरण का पर्व है। सरस्वती का श्वेतवर्ण ’निराला’ को बहुत प्रिय है। श्वेत, धवल और ज्योति, उनके यहाँ पर्याय हैं और स्वच्छता, तेज तथा निर्मलता की व्यंजना से युक्त हैं। ’निराला’ ने ’श्वेत’ का, श्वेत वर्ण का अधिकांश प्रयोग प्रकृति के साथ किया है। श्वेत शतदल, श्वेत गंध और श्वेत मंजरी उनके प्रिय प्रयोग हैं। स्वच्छता और पवित्रता को प्रकट करने के लिए उन्होंने श्वेत वसन, श्वेत शिला और धवल पताका जैसे प्रयोग किए हैं।
ज्योत्स्ना और ज्योति — ये दो शब्द ’निराला’ के काव्य में बहुतायत से आए हैं, जो श्वेत की शीतल और प्रखर छवियों को अलग-अलग उभारते हैं। वत्सलता को व्यंजित करने के लिए धवल का प्रयोग है — दुग्ध धवल। किस्सा कोताह यह कि श्वेत वर्ण की परिकल्पना में ’निराला’ के समक्ष सरस्वती है, भारती के रूप में भारतमाता है, प्रकृति है, रात की चाँदनी की शीतलता है और हैं नदियों पर पड़ती नक्षत्रों की परछाइयाँ।
वसंत का आगमन स्फूर्ति, नवता, ताज़गी और जीवनी शक्ति का उन्मेष है। यही तो सौंदर्य भी है — "क्षणे-क्षणे यत् नवतामुपैति, तदेव रूपं रमणीयतायाः "। सौंदर्य सरस्वती का वरदान है और साहित्य सौंदर्य की सृष्टि। तभी तो साहित्य को भाषा पर झेला गया सौंदर्य कहा गया है। ’निराला’ का अपनी भाषा पर इस सौंदर्य को झेलने का अंदाज भी निराला है। उनके काव्य में प्रकृति अनेक रूप धरकर उनकी अनुभूतियों में पग कर सामने आती है। वे प्रकृति को अपनी निजी दृष्टि से देखते हैं। उधार लेना तो वे जानते ही नहीं। उनकी यह निजता ही उनके काव्य की शक्ति है। इस निजता को उनकी कविता की बुनावट में इस्तेमाल किए गए रंगों के आधार पर भी रेखांकित किया जा सकता है। ऐसा करना वादों और विवादों से दूर रहकर उनकी काव्यभाषा के मर्म को पकड़ने के लिए भी ज़रूरी है।
प्रकृति का एक रंग ले लें — हरा। वसंत के साथ वसुधा का हरा रंग स्वाभाविक रूप से जुड़ा है। ’निराला’ ने इस हरियाली को कभी हरित ज्योति, हरित पत्र, हरित छाया, हरित तृण, हरित वास, हरी ज्वार, हरा शैवाल, हरा वसन और हरी छाया के रूप में देखा है तो कहीं हरा-भरा नीचे लहराया, खेती हरी-भरी हुई, हरे-हरे पात और हरे-हरे स्तनों पर खड़ी कलियों के माल के रूप में दिखलाया है। हरेपन से संबंधित सामान्य अनुभूति को ’निराला’ ने बड़ी सहजता से काव्यपंक्तियों में ढाल दिया है। जैसे — "हरियाली के झूले झूलें"। "पत्तों से लदी डाल, कहीं हरी कहीं लाल"। "हरे उस पहाड़ पर"। "बड़े-बड़े हरे पेड़"। "हरियाली अरहर की"।
केवल हरा ही क्यों? लहराते धान के खेतों का रंग लोकचित्त में धानी बन जाता है —
केवल हरा ही क्यों? लहराते धान के खेतों का रंग लोकचित्त में धानी बन जाता है —
“मेहराबी लन्तरानी है,
लहरों चढ़ी जो धानी है”।
वसंत के साथ वसन्ती का ज़िक्र न हो तो रंगों की बात कभी पूरी नहीं हो सकती। वसंत ऋतु में प्रकृति के सौंदर्य को बताने के लिए ’निराला’ ने एक ओर तो वासन्ती वसन तथा वासन्ती सुमन का प्रयोग किया है और दूसरी ओर – "फूटे रंग वसन्ती" – और – "यह वायु वसन्ती आई है "– कहकर रंग और गंध में वसन्त को मूर्तिमन्त किया है।
’निराला’ वसंत के अग्रदूत हैं। हिंदी कविता में उनका आगमन रूपहले ऋतु-परिवर्तन का पिक कूजन है। वसन्त हँसता हुआ जब आता है, उसके आने पर पेड़-पौधे लताएँ (जो तरुणियाँ हैं) और यहाँ तक कि पुराने पेड़-पौधे तक भी आहलादित हो उठते हैं। पुराने पत्ते शाख से टूटने लगते हैं। प्रकृति परिवर्तन का वसंत-आगमन के बाद का यह चित्र अपने में सम्पूर्ण है —
“हँसता हुआ कभी आया जब
वन में ललित वसन्त
तरुण विटप सब हुए, लताएँ तरुणी
और पुरातन पल्लव दल का
शाखाओं से अन्त।"
वसंत की रातें मधु की रातें होती हैं। वसंत मिलन की ऋतु है। संयोग की ऋतु। रस राज शृंगार की ऋतु। रति और कामदेव की दुलारी इस ऋतु की रातें प्रिय के अंक में दृग् बंद किए सोने की रातें हैं। ’निराला’ की दृष्टि ऐसी मादक रात में जुही की कली पर जाती है। उसकी कोमलता और उसके सौंदर्य की तुलना तरुणी सुहागिन नववधू से करते हुए उन्होंने जो अद्भुत चित्र खींचा है, वह अमर है —
“विजन वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी
स्नेह स्वप्न मान
अमल-कोमल तनु तरुणी जुही की कली
दृग् बंद किए शिथिल पत्रांक में
वासन्ती निशा थी”।
इतना ही नहीं, वसंत में समय पर पानी पड़ जाए तो नवीन पल्लव इस तरह लहरा उठते हैं कि पेड़ फूले नहीं समाते। प्रकृति कि इस प्रफुल्लता को ’निराला’ ने यों गाया है —
“पानी पड़ा समय पर, पल्लव नवीन लहरे
मौसम में पेड़ जितने, फूले नहीं समाए
महकें तरह-तरह की, भौंरे तरह-तरह के
बौरे हुए विटप से लिपटे, वसंत गाए”।
’निराला’ ने प्रकृति के यौवन का रंगा-रंग शृंगार चित्रण अपने गीतों में किया है —
“पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी कहीं लाल
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प-माल
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है”।
कहीं की बैठी हुई तितली पर जो आँख गई
कहा, सिंगार के होते हैं ये बहार के दिन
कहा, सिंगार के होते हैं ये बहार के दिन
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बिन मौसम बरसात ...अभी वसंत पंचमी ...मगर फिर भी ठीक ही है ...
जवाब देंहटाएंजिया जब झूमे सावन है ...!!
आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं.......
जवाब देंहटाएंRegards........
Kavita ji....
जवाब देंहटाएंSuprabhat...!!
Vasant panchmi ke parv par aapke es vasanti aalekh ne man ko rangon se bhar diya... Nirala ji ki kavitaon main bikhre vibhinn rangon ko jis khoobsoorati se aapne ubhara hai...utni vyakhya ab se pahle nahi padhi...
Aapka bahut bahut dhnyawad ki aapne aaj ke din ko aur sukhad bana diya....
'sab rangon main hai tera...
Mitr alag hi rang...
Sab rituom main hota jaise...
Madhur rang basant....'
saadar..
Deepak...
Saadar...
इतना संुदर गद्य ! जैसे वसंत एक-एक शब्द के झरोखे से झाँक रहा है। अपने में लीन हो जाने के लिए विवश कर देने वाला यह लेख छोटा है पर गद्य का सौंदर्य असीम है। बधाई।
जवाब देंहटाएंवसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं आपको
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आप सब का।
जवाब देंहटाएंआदरणीय गणेश भाई जी व दीपक शुक्ला जी ! वस्तुतः यह आलेख मेरी पुस्तक "समाज-भाषाविज्ञान : रंगशब्दावली : निरालाकाव्य" (जिसका कवर पेज यहाँ साईडबार में भी दिखाई दे रहा है) को लिखते समय प्राप्त तथ्यों को संक्षेप में पिरोकर लिखा गया है। रंग शब्दावली के समाजभाषिक विश्लेषण पर प्रकार्यात्मक रूप से किसी भी भारतीय भाषा में यह पहली व एकमात्र पुस्तक मानी गई है/है।
आपके शब्दों से बल मिला।
सुन्दर लिखा। बसन्त की तरह हरा-भरा! रंग-बिरंगा!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और प्रभावी विवेचन.
जवाब देंहटाएंबधाई.
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी के शुभ अवसर पर आपको अनेकानेक बधाई !
मुझ अकिंचन का ज्ञान वर्धन करने का धन्यवाद . लखनऊ की याद आ गयी . अगले दो हफ्ते में मैं निराला नगर लखनऊ में बैठी गजक खा रही होऊँगी . मायका है मेरा .
तो आप भारत जा रही हैं। कितने दिन का प्रवास होगा ? कब तक लौटेंगी ?
हटाएंगजक का नाम लेकर आपने यादों से उसकी सुगंध ताज़ा कर दी।
प्रवास मंगलमय हो। शुभकामनाएँ !
प्रिय कविता , मैं इस महीने के अंत में जा रही हूँ और अप्रैल में वापिस आऊँगी . करीब 7 हफ्ते . निराला जी मेरे गाँव में स्थापित हैं . कुछ साल पहले वह चौराहे के बीचों बीच खड़े थे पर मायावती की नगर योजना में एक फ्लाईओवर बना दिया गया अधकचरा सा . निराला जी के चौंक पर ट्रकों का धावा बढ़ गया . चार बड़े कॉलिज वहीँ पर हैं . जिसमे लखनऊ का विश्व विद्यालय भी आता है . सो बेचारे उखाड़कर किनारे थोप दिए गए . उनकी जगह एक सिपाही कत्थक करता तीन मंजिले चबूतरे पर ट्रैफिक से पंगा करता रहता है . निराला जी के आस पास सी ग्रेड का बाज़ार है जिनके व्यापारी --- अधिकतर मुसलमान --उन्हें शायद जानते तक नहीं . भारत के सभी नेताओं की तरह उनकी भी इज्ज़त मिट मिटा गयी . उनका बुत्त ,धूल धूसरित '' अवलोक रहा है बार बार अपने चरणों में पड़ा ''.... कबाड़ . साथ के दर्जी , नाई , धुनें, जुलाहे और मनिहार क्या समझें उनके उदगार .
हटाएंभारत तो जा ही रही हूँ . हज़ार हिदायतों के साथ .न जाना हाट , न खाना चाट . स्वाइन फ्लू का है प्रकोप .सिर्फ देख सकती हो बाइस्कोप . बहुत हुआ तो स्टार बक्स से ही कॉफ़ी पीना .मुश्किल मत करना सबका जीना . बीमारी अपने घर की भली . तो पूछो , मैं भारत क्यों चली ?