बुधवार, 19 अगस्त 2009

मैंने दीवारों से पूछा

मैंने दीवारों से पूछा

कविता वाचक्नवी



चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंनें
किसने तुम्हें छुआ कब – कब
बतलाओ तो
वे बदरंग, छिली – खुरचीं- सी
केवल इतना कह पाईं -
हम तो
पूरी पत्थर- भर हैं
जड़ से
जन से
छिजी हुईं
कौन, कहाँ, कब, कैसे
दे जाता है
अपने दाग हमें
त्यौहारों पर कभी
दिखावों की घड़ियों पर कभी – कभी
पोत- पात, ढक – ढाँप – ढूँप झट
खूब उल्लसित होता है
ऐसे जड़ – पत्थर ढाँचों से
आप सुरक्षा लेता है
और
ठुँकी कीलों पर टाँगे
कैलेंडर की तारीख़ें
बदली – बदली देख समझता
इन पर इतने दिन बदले ।


अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ " (२००५, सुमन प्रकाशन) से उद्धृत




शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

जिस आग ने फूँक दिया था आने वाली सब पुश्तों का भविष्य !


दुआ में याद रखियेगा




(यह लेख 23 अगस्त 2007 को अपने प्रथम हिन्दी ब्लॉग अथ (http://360.yahoo.com/kvachaknavee) पर लिखा थाyahoo द्वारा वह ३६० की ब्लॉग सर्विस बंद की जा चुकी हैउस ब्लॉग पर प्रकाशित अपनी सामग्री को धीरे धीरे यहाँ स्थानान्तरित कर रही हूँ )

 -  कविता वाचक्नवी
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दुआ में याद रखियेगा

आज यकायक पाकिस्तान निवासी अपने एक वरिष्ठ रचनाकार पत्रकार मित्र से बात हुई ।

अब भला यह कैसे संभव था कि कविता या साहित्य के अतिरिक्त किसी और विषय पर बात होती ? उन्होने अपनी कुछ पंक्तियाँ सुनाईं। बहुत अच्छी लगीं सो यहाँ सहेज रही हूँ -


" कुछ न खोया कुछ न पाया उम्र-भर
जिंदगी को यों गँवाया उम्र-भर

जिसके दिल में थी शजर की आरजू
धूप ने उसको जलाया उम्र-भर


रास आया ही नहीं ये और बात
घर तो हमने भी बनाया उम्र-भर

इक मकाँ अपना बनाने के लिए
बोझ दुनिया का उठाया उम्र-भर"



और जाते जाते जो पंक्ति कही ------
"अपना खयाल रखियेगा---- दुआ में याद रखियेगा"


मेरे मन में लाहौर फिर सुलगने लगा है , शायद बँटवारे में उजड़ कर आए हुए परिवारों की पीढियाँ भी उसी पीडा में जलती हैं जिसमें उनके पुरखे कभी जले थे; और जिस आग ने फूँक दिया था आने वाली सब पुश्तों का भविष्य !


मुझे बुआ, दादी, फूफा, नानी की यादों में जगता ४७ का अँधेरा दिन भर निगला करता है । एक फ़िल्म है जिसका कोई अन्त नहीं, वही पलकों के पीछे चला-छला करता है।

























Dividing up a library at the time of 1947 partition [Photo: Life Magazine , August 1947]





A painful period... Partition, one of history?s largest migrations, 1947.





In 1947, the border between India and its new neighbour Pakistan became a river of blood, as the exodus erupted into rioting. These pictures are by Margaret Bourke-White from Khushwant Singh's book Train to Pakistan, Roli Books. WARNING: Some images may cause distress.






Over 10 million people were uprooted from their homeland and travelled on foot, bullock carts and trains to their promised new home.







In a couple of months in the summer of 1947, a million people were slaughtered on both sides in the religious rioting. Here, bodies of the victims of rioting are picked up from a city street.







The massive exchange of population that took place in the summer of 1947 was unprecedented. It left behind a trail of death and destruction. The Indian map was slashed to make way for a new country - Pakistan.







"The street was short and narrow. Lying like the garbage across the street and in its open gutters were bodies of the dead," writes Bourke-White's biographer Vicki Goldberg of this scene.






With the tragic legacy of an uncertain future, a young refugee sits on the walls of Purana Qila, transformed into a vast refugee camp in Delhi.






Men, women and children who died in the rioting were cremated on a mass scale। Villagers even used oil and kerosene when wood was scarce.








Families were cut to half as men were killed leaving women to fend for themselves.

- कविता वाचक्नवी















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